एकांत
From जैनकोष
वस्तु के जटिल स्वरूप को न समझने के कारण, व्यक्ति उसके किसी एक या दो आदि अल्पमात्र अंगों को जान लेने पर यह समझ बैठता है कि इतना मात्र ही उसका स्वरूप है, इससे अधिक कुछ नहीं। अतः उसमें अपने उस निश्चय का पक्ष उदित हो जाता है, जिसके कारण वह उसी वस्तु के अन्य सद्भूत अंगों को समझने का प्रयत्न करने की बजाय उनका निषेध करने लगता है। उनके पोषक अन्य वादियों के साथ विवाद करता है। यह बात इंद्रिय प्रत्यक्ष विषयों में तो इतनी अधिक नहीं होती, परंतु आत्मा, ईश्वर, परमाणु आदि परोक्ष विषयों में प्रायः करके होती है। दृष्टि को संकुचित कर देने वाला यह एकांत-पक्षपात राग-द्वेष की पुष्टता करने के कारण तथा व्यक्ति के व्यापक स्वभाव को कुंठित कर देने के कारण मोक्षमार्ग में अत्यंत अनिष्टकारी है। स्याद्वाद-सिद्धांत इसके विष को दूर करने की एकमात्र औषधि है। क्योंकि उसमें किसी अपेक्षा से ही वस्तु को उस रूप माना जाता है, सर्व अपेक्षाओं से नहीं। तहाँ पूर्व कथित एकांत मिथ्या है और किसी एक अपेक्षा से एक धर्मात्मक वस्तु को मानना सम्यक् एकांत है।
- सम्यक् मिथ्या एकांत निर्देश
- एकांत के सम्यक् व मिथ्या भेद निर्देश
- सम्यक् व मिथ्या एकांत के लक्षण
- एकांत शब्द का सम्यक् प्रयोग
- सर्वथा शब्द का सम्यक् प्रयोग
- एवकार की प्रयोग विधि
- एवकार का सम्यक् प्रयोग
- एवकार का मिथ्या प्रयोग
- एवकार व चकार आदि निपातों की सम्यक् प्रयोग विधि
- विवक्षा स्पष्ट कह देनेपर एवकार की आवश्यकता अवश्य पड़ती है
- बिना प्रयोग के भी एवकार का ग्रहण स्वतः हो ही जाता है
- एवकार का प्रयोजन इष्टार्थावधारण
- एवकार का प्रयोजन अन्ययोगव्यवच्छेद
- सम्यगेकांत की इष्टता व इसका कारण
- वस्तुके सर्व धर्म अपने पृथक्-पृथक् स्वभावमें स्थित हैं
- किसी एक धर्मकी विवक्षा होनेपर उस समय वस्तु उतनी मात्र ही प्रतीत होती है
- एक धर्म मात्र वस्तुको देखते हुए अन्य धर्म उस समय विवक्षित नहीं होते
- ऐसा साक्षेप एकांत हमें इष्ट है
- मिथ्या-एकांत निराकरण
- मिथ्या-एकांत इष्ट नहीं है
- एवकार का मिथ्याप्रयोग अज्ञान सूचक है
- मिथ्या-एकांत का कारण पक्षपात है
- मिथ्या एकांत का कारण संकीर्ण दृष्टि है
- मिथ्या-एकांत में दूषण
- मिथ्या-एकांत निषेध का प्रयोजन
- एकांत मिथ्यात्व निर्देश
- एकांत मिथ्यात्व का लक्षण
- 363 एकांत मत निर्देश
- एकांत मिथ्यात्व के अनेकों भंग
- कुछ एकांत दर्शनों का निर्देश
- एकांत मत सूची
• नय सम्यक् एकांत होती है-देखें नय - I.2
• एकांत शब्द का मिथ्या प्रयोग - देखें एकांत - 4.5
• सर्वथा शब्द का मिथ्या प्रयोग - देखें एकांत - 4.5
• एवकार के अयोग व्यवच्छेद आदि निर्देश - देखें एव
• स्यात्कार प्रयोग निर्देश - देखें स्याद्वाद - 5
• एवकार व स्यात्कारका समन्वय - देखें स्याद्वाद - 5
• वस्तुके अनेकों विरोधी धर्मोंमें कथंचित् अवरोध - देखें अनेकांत - 4.5
• धर्मोंमें परस्पर मुख्य गौण व्यवस्था - देखें स्याद्वाद - 3
• वस्तु एक अपेक्षासे जैसी है अन्य अपेक्षासे वैसी नहीं है - देखें अनेकांत - 5.4
• 363 वादोंके लक्षण - देखें वह वह नाम
• षट् दर्शनों व अन्य दर्शनों का स्वरूप - देखें वह वह नाम
• जैनाभासी संघ - देखें इतिहास - 6।
• एकांतवादी जैन वास्तव में जैन नहीं - देखें जिन - 2
• सब एकांतवादियों के मत किसी न किसी नय में गर्भित हैं - देखें अनेकांत - 2.9
1. सम्यक् मिथ्या एकांत निर्देश
1. एकांत के सम्यक् व मिथ्या भेद निर्देश
राजवार्तिक अध्याय 1/6/7/35/23एकांतो द्विविधः-सम्यगेकांतो मिथ्यैकांत इति।
= एकांत दो प्रकार का है सम्यगेकांत और मिथ्या एकांत।
(सप्तभंगीतरंगिनी 73/10)।
2. सम्यक् व मिथ्या एकांत के लक्षण
राजवार्तिक अध्याय 1/6/7/35/24तत्र सम्यगेकांतो हेतुविशेषसामर्थ्यापेक्षः प्रमाणप्ररूपितार्थैकदेशादेशः। एकात्मावधारणेन अंयाशेषनिराकरणप्रवणप्रणिधिर्मिथ्यैकांतः।
= हेतु विशेष की सामर्थ्य से अर्थात् सुयुक्ति युक्त रूप से, प्रमाण द्वारा प्ररूपित वस्तु के एकदेश को ग्रहण करनेवाला सम्यगेकांत है और एक धर्म का सर्वथा अवधारण करके अन्य धर्मों का निराकरण करनेवाला मिथ्या एकांत है।
सप्तभंगीतरंगिनी 73/11तत्र सम्यगेकांतस्तावत्प्रमाणविषयीभूतानेकधर्मात्मकवस्तुनिष्ठैकधर्मगोचरो धर्मांतराप्रतिषेधकः। मिथ्यैकांतस्त्वेकधर्ममात्रावधारणेनांयशेषधर्मनिराकरणप्रवणः।
= सम्यगेकांत तो प्रमाण सिद्ध अनेक धर्मस्वरूप जो वस्तु है, उस वस्तु में जो रहनेवाला धर्म है, उस धर्म को अन्य धर्मों का निषेध न करके विषय करनेवाला है। और पदार्थों के एक ही धर्म का निश्चय करके अन्य संपूर्ण धर्मों का निषेध करने में जो तत्पर है वह मिथ्या-एकांत है। (विशेष देखें विकलादेश ) ।
3. `एकांत' शब्द का सम्यक् प्रयोग
प्रवचनसार / मूल या टीका गाथा 59जादं सयं समत्तं णाणमणंतत्थवित्थडं विमलं। रहियं तु ओग्गहादिहिं सुहं ति एगंतियं भणियं ॥59॥
= स्वजात, सर्वांग से जानता हुआ तथा अनंत प्रदेशों में विस्तृत, विमल और अवग्रह आदि से रहित ज्ञान एकांतिक सुख है, ऐसा कहा है।
प्रवचनसार / मूल या टीका गाथा 66एगंतेण हि देहो सुहं ण देहिस्स कुणदि सग्गे वा। विसयवसेण दु सोक्खं दुक्खं वा हवदि सयमादा ॥66॥
= एकांत से अर्थात् नियम से स्वर्ग में भी आत्मा को शरीर सुख नहीं देता, परंतु विषयों के वश से सुख अथवा दुःख रूप स्वयं आत्मा होता है।
समाधिशतक / मूल या टीका गाथा 71"मुक्तेरेकांतिकी तस्य चित्ते यस्याचला धृतिः। तस्य नैकांतिकी मुक्तिर्यस्य नास्त्यचला धृतिः॥
= जिस पुरुष के चित्त में आत्म स्वरूप की निश्चल धारणा है, उसकी एकांत से अर्थात् अवश्य मुक्ति होती है। तथा जिस पुरुष की आत्म स्वरूप में निश्चल धारणा नहीं है उसकी एकांत से मुक्ति नहीं होती है।
धवला पुस्तक 1/1,1,141/392/7सव्ययस्यानंतस्य न क्षयोऽस्तीत्येकांतोऽस्ति।
= व्यय होते हुए भी अनंत का क्षय नहीं होता है, यह एकांत नियम है।
समयसार / आत्मख्याति गाथा 14संयुक्तत्वं भूतार्थमप्येकांततः स्वयंबोधबीजस्वभावमुपेत्यानुभूयमानतायामभूतार्थम्।
= यद्यपि मोह संयुक्तता भूतार्थ है तो भी एकांत रूप से स्वयं बोध बीज स्वरूप चैतन्य स्वभाव को लेकर अनुभव करने से वह अभूतार्थ है।
समयसार / आत्मख्याति गाथा 272प्रतिषिध्य एवं चायं, आत्माश्रितनिश्चयनयाश्रितानामेव मुच्यमानत्वात् पराश्रितव्यवहारनयस्यैकांतेनामुच्यमानेनाभव्येनाप्याश्रियमाणत्वाच्च।"
= और इस प्रकार यह व्यवहार-नय निषेध करने योग्य ही है; क्योंकि, आत्माश्रित निश्चय नय का आश्रय करने वाले ही मुक्त होते हैं और पराश्रित व्यवहार नय का आश्रय तो एकांततः मुक्त नहीं होनेवाला अभव्य ही करता है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 219तस्य सर्वथा तदविनाभावित्वप्रसिद्ध्यदैकांतिकाशुद्धोपयोगसद्भावस्यैकांतिकबंधत्वेन छेदत्वमेकांतिकमेव।
= ऐसा जो परिग्रह का सर्वथा अशुद्धोपयोग के साथ अविनाभावित्व है उससे प्रसिद्ध होनेवाले एकांतिक अशुद्धोपयोग के सद्भाव के कारण परिग्रह तो एकांतिक बंधरूप है।
4. सर्वथा शब्द का सम्यक् प्रयोग
मोक्षपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 32इदि जाणि ऊण जोई ववहारं चयइ सव्वहा सव्वं। झायइ परमप्पाणं जह भणियं जिणवरिंदेण ॥32॥
= ऐसे पूर्वोक्त प्रकार जानकरि योगी ध्यानी मुनि हैं सो सर्व व्यवहार को सर्वथा छोड़े हैं और परमात्म को ध्यावै हैं। कैसे ध्यावै हैं-जैसे जिनवरेंद्र तीर्थंकर सर्वज्ञ देव ने कह्या है, तैसे ध्यावै हैं।
इष्टोपदेश / मूल या टीका गाथा 27एकोऽहं निर्ममः शुद्धो ज्ञानी योगींद्रगोचरः। बाह्याः संयोगजा भावा मत्तः सर्वेऽपि सर्वथा ॥27॥
= मैं एक हूँ, निर्मम हूँ, शुद्ध हूँ, ज्ञानी हूँ, योगींद्रों के गोचर हूँ। इनके सिवाय जितने भी रागद्वेषादि संयोगी भाव हैं वे सब सर्वथा मुझसे भिन्न हैं।
समयसार / आत्मख्याति गाथा 31स्पर्शादींद्रियार्थांश्च सर्वथा स्वतः पृथक्करणेन विजित्योपरतसमस्तज्ञेयज्ञायकसंकरदोषत्वेन....परमार्थतोऽतिरिक्तमात्मानं संचेतयते स खलु जितेंद्रियो जिन इत्येका निश्चयस्तुतिः।
= इस प्रकार जो मुनि स्पर्शादि द्रव्येंद्रियों व भावेंद्रियों तथा इंद्रियों के विषयभूत पदार्थों को सर्वथा पृथक् करने के द्वारा जीतकर ज्ञेयज्ञायक संकरदोष के दूर होनेसे.....सर्व अन्य द्रव्यों से परमार्थतः भिन्न ऐसे अपने आत्मा का अनुभव करते हैं वे निश्चय से जितेंद्रिय जिन हैं। इस प्रकार एक निश्चय स्तुति हुई।
समयसार / आत्मख्याति गाथा 299/कलश 184एकश्चितश्चिन्मय एव भावो, भावाः परे ये किल ते परेषाम्। ग्राह्यस्ततश्चिन्मय एव भावो, भावाः परे सर्वत् एव हेयाः ॥184॥
= चैतन्य तो एक चिन्मय ही भाव है, और जो अन्य भाव हैं वे वास्तव में दूसरों के भाव हैं। इसलिए चिन्मय भाव ही ग्रहण करने योग्य है, अन्य भाव सर्वथा त्याज्य हैं।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 162ममानेकपरमाणुद्रव्यैकपिंडपर्यायपरिणामस्याकर्तुरनेकपरमाणुद्रव्यैकपिंडपर्यायपरिणामात्मकशरीरकर्तृत्वस्य सर्वथा विरोधात्।
= मैं अनेक परमाणु-द्रव्यों के एक पिंडरूप परिणाम का अकर्त्ता हूँ, (इसलिए) मेरे अनेक परमाणु द्रव्यों के एक पिंड पर्यायरूप परिणामात्मक शरीर का कर्ता होने में सर्वथा विरोध है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 219तस्य सर्वथा तदविनाभावित्वप्रसिद्धिः।
= परिग्रह का सर्वथा अशुद्धोपयोग के साथ अविनाभावित्व है।
योगसार अमितगति| योगसार अधिकार 6/35न ज्ञानज्ञानिनोर्भेदो विद्यते सर्वथा यतः। ज्ञाने ज्ञाते ततौ ज्ञानी ज्ञातो भवति तत्त्वतः ॥35॥
= ज्ञान और ज्ञानी का परस्पर में सर्वथा भेद नहीं है, इसलिए जिस समय निश्चय नय से ज्ञान जान लिया जाता है उस समय ज्ञानी आत्मा का भी ज्ञान हो जाता है।
2. एवकार की प्रयोग विधि
1. एवकार का सम्यक् प्रयोग
परमात्मप्रकाश / मूल या टीका अधिकार 1/67अप्पा अप्पु जि परु जि परु अप्पा परु जिण होइ। परु जि कयाइ वि अप्प णव्रिणियमे पमणहिं जोइ।
= निज वस्तु आत्मा ही है, देहादि पदार्थ पर ही हैं। आत्मा तो परद्रव्य नहीं होता और परद्रव्य भी कभी आत्मा नहीं होता। ऐसा निश्चय कर योगीश्वर कहते हैं।
राजवार्तिक अध्याय 1/7/14/39/19अधिकरणम् आत्मन्येवासौ तत्र तत्फलदर्शनात्, कर्मणि कर्मकृते च कायादावुपचारतः।
= (आस्रव का) अधिकरण आत्मा ही होता है, क्योंकि कर्म-विपाक उसमें ही दिखाई देता है। कर्म निमित्तक शरीरादि उपचार से ही आधार है।
समयसार / आत्मख्याति गाथा 109पुद्गलकर्मणः किल पुद्गलद्रव्यमेवैकं कर्तृ....अथैते पुद्गलकर्मविपाकविकल्पादत्यंतमचेतनाःसंतस्त्रयोदशकर्तारः केवला एव यदि व्याप्यव्यापकभावेन किंचनापि पुद्गलकर्म कुर्युस्तदा कुर्युरेव, किं जीवस्यात्रापतितम्।
= वास्तव में पुद्गल कर्म का, पुद्गल द्रव्य ही एक कर्ता है;....। अब, जो पुद्गल कर्म के विपाक के प्रकार होनेसे अत्यंत अचेतन हैं ऐसे ये तेरह (गुणस्थान) कर्ता ही, मात्र व्याप्य-व्यापक भाव से यदि कुछ भी पुद्गल का कर्म करें तो भले कर्म करें, इसमें जीव का क्या आया।
समयसार / आत्मख्याति गाथा 265अध्यवसानमेव बंधहेतुर्न तु बाह्यवस्तु, तस्य बंधहेतोरध्यवसानस्य हेतुत्वेनैव चरितार्थत्वात्।
= अध्यवसान ही बंध का कारण है बाह्य वस्तु नहीं, क्योंकि बंध का कारण जो अध्यवसान है, उसके ही हेतुपना चरितार्थ होता है।
(समयसार / आत्मख्याति गाथा 156/कलश 106-107)। ( समयसार / आत्मख्याति गाथा 271/कलश 173)
समयसार / आत्मख्याति गाथा 71ज्ञानमात्रादेव बंधनिरोधः सिद्येत्।
= ज्ञान मात्र से ही बंध का निरोध सिद्ध होता है।
समयसार / आत्मख्याति गाथा 297यो हि नियतस्वलक्षणावलंबिन्या प्रज्ञया प्रविभक्तश्चेतयिता सोऽयमहं; ये त्वमी अवशिष्टा अन्यस्वलक्षणलक्ष्या व्यवह्रियमाणा भावाः, ते सर्वेऽपि चेतयितृत्वस्य व्यापकस्य व्याप्यत्वमनायांतोऽत्यंतं मत्तो भिन्नाः। ततोऽहमेव मयैव मह्यमेव मत्त एव मय्येव मामेव गृह्णामि।
= नियत स्वलक्षण का अवलंबन करने वाली प्रज्ञा के द्वारा भिन्न किया गया जो वह चेतक है, सो यह मैं हूँ; और अन्य स्वलक्षणों से लक्ष्य जो यह शेष व्यवहार रूप भाव हैं, वे सभी चेतक-स्वरूपी व्यापक के व्याप्य न होने से, मुझसे अत्यंत भिन्न हैं। इसलिए मैं ही, अपने द्वारा ही, अपने लिए ही, अपने में-से ही, अपने में ही, अपने को ग्रहण करता हूँ।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 239अतः आत्मज्ञानशून्यमागमज्ञानतत्त्वार्थश्रद्धानसंयतत्वयौगपद्यमप्यकिंचित्करमेव।
= इसलिए आत्म ज्ञान शून्य आगम ज्ञान तत्त्वार्थ श्रद्धान और संयतत्व की युगपतता भी अकिंचित्कर ही है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 263स्वतत्त्वज्ञानानामेव श्रमणानामभ्युत्थानादिकाः प्रवृत्तयोऽप्रतिषिद्धाः इतरेषां तु श्रमणाभासानां ताः प्रतिषिद्धा एव।
= जिनके स्वतत्त्व का ज्ञान प्रवर्तता है, उन श्रमणों के प्रति ही अभ्युत्थानादिक प्रवृत्तियाँ अनिषिद्ध हैं, परंतु उनके अतिरिक्त अन्य श्रमणाभासों के प्रति वे प्रवृत्तियाँ निषिद्ध ही हैं।
पंचास्तिकाय संग्रह / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 10अविशेषाद्द्रव्यस्य सत्स्वरूमेव लक्षणम्।
= सत्ता से द्रव्य अभिन्न होने के कारण `सत्' स्वरूप ही द्रव्य का लक्षण है।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/मूल 225जे वत्थु अणेयंतं तं च्चिय कज्जं करेदि णियमेण। बहुधम्मजुदं अत्थं कज्जकरं दीसदे लोए।
= जो वस्तु अनेकांत रूप है, वही नियम से कार्यकारी है; क्योंकि, लोक में बहुधर्म युक्त पदार्थ ही कार्यकारी देखा जाता है।
2. एवकार का मिथ्या प्रयोग
राजवार्तिक अध्याय 4/42/15/253/27तत्रास्तित्वैकांतवादिनः `जीव एव अस्ति' इत्यवधारणे अजीवनास्तित्वप्रसंगभयादिष्टतोऽवधारणविधिः `अस्त्येव जीवः' इति नियच्छंति तथा चावधारणसामर्थ्यात् शब्दप्रापितादभिप्रायवशवर्तिनः सर्वथा जीवस्यास्तित्वं प्राप्नोति।
= यदि अस्तित्व-एकांतवादी `जीव ही है' ऐसा अवधारण करते हैं, तो अजीव के नास्तित्व का प्रसंग आता है। इस भय से `अस्त्येव' ऐसी प्रयोग विधि इष्ट है। परंतु इस प्रकार करने से भी शब्द प्राप्त अभिप्राय के वश से सर्वथा ही जीव के अस्तित्व प्राप्त होता है। अर्थात् पुद्गलादि के अस्तित्व से जीव का अस्तित्व व्याप्त हो जाता है, अतः जीव और पुद्गल में एकत्व का प्रसंग आता है। (अतः `स्यात् अस्त्येव' ऐसा प्रयोग ही युक्त है।)
पंचास्तिकाय संग्रह / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 10न चानेकांतात्मकस्य द्रव्यस्य सन्मात्रमेव स्वरूपं।
= अनेकांतात्मक द्रव्य का सत् मात्र ही स्वरूप नहीं है।
3. एवकार व चकार आदि निपातों की सम्यक् प्रयोग विधि
लो.वा. 2/1/3/53/432/10तत्र हि ये शब्दाः स्वार्थमात्रैऽनवधारिते संकेतितास्ते तदवधारणविवक्षायामेवमपेक्षंते तत्समुच्चयादिविवक्षायां तु चकारादिशब्दम्।
= तिन शब्दों में जो शब्द, नहीं-नियमित किये गये अपने सामान्य अर्थ के प्रतिपादन करने में संकेत ग्रहण किये हुए हो चुके हैं, वे शब्द तो उस अर्थ के नियम करने की विवक्षा होने पर अवश्य `एवकार' को चाहते हैं। जैसे जल शब्द का अर्थ सामान्य रूप से जल है। और हमें जल ही अर्थ अभीष्ट हो रहा है तो `जल ही है' ऐसा एवकार लगाना चाहिए। तथा जब कभी जल और अन्न के समुच्चय या समाहार की विवक्षा हो रही है, तब `चकार' शब्द लगाना चाहिए, तथा विकल्प अर्थ की विवक्षा होने पर `वा' शब्द जोड़ना चाहिए (जैसे जल वा अन्न)।
4. विवक्षा स्पष्ट कर देने पर एवकार की आवश्यकता अवश्य पड़ती है।
राजवार्तिक अध्याय 5/25/12/492/17इत्येवं सति युक्तम्, हेतुविशेषसामर्थ्यार्पणे अवधारणाविरोधात्, द्रव्यार्थतयावस्थानाच्च।
= इस प्रकार विशेष विवक्षा में `कारणमेव' यह एवकार का भी विरोध नहीं है।
राजवार्तिक अध्याय 1/1/5/5/1एवंभूतनयवक्तव्यवशात् ज्ञानदर्शनपर्यायपरिणत आत्मैव ज्ञानं दर्शनं च तत्स्वाभाव्यात्।
= एवंभूत नय की दृष्टि से ज्ञान क्रिया में परिणत आत्मा ही ज्ञान है और दर्शन क्रिया से परिणत आत्मा ही दर्शन है, क्योंकि ऐसा ही उसका स्वरूप है।
श्लोकवार्तिक 2/1/6/49-52/403तत्र प्रश्नवशात्कश्चिद्विधौ शब्दः प्रवर्तते। स्यादस्त्येवाखिलं यद्वत्स्वरूपादिचतुष्टयात् ।49।
= तिस सात प्रकार के (सप्त भंग) वाचक शब्दों में कोई शब्द तो प्रश्न के वश से विधान करने में प्रवृत्त हो रहा है, जैसे कि स्वद्रव्यादि चतुष्टय से पदार्थ कथंचित् अस्तिरूप ही है। (इसी प्रकार कोई शब्द निषेध करने में प्रवृत्त हो रहा है जैसे पर द्रव्यादि की अपेक्षा पदार्थ कथंचित् नास्तिरूप है। इत्यादि)।
श्लोकवार्तिक पुस्तक 2/1/6/56/474/30येनात्मनानेकांतस्तेनात्मनानेकांत एवेत्येकांतानुषंगोऽपि नानिष्टः। प्रमाणसाधनस्यैवानेकांतत्वसिद्धेः नयसाधंयैकांतव्यवस्थितेः।
= जिस विपक्षित प्रमाण रूप से अनेकांत है, उस स्वरूप से अनेकांत ही है, ऐसा एकांत होने का प्रसंग भी अनिष्ट नहीं है। क्योंकि प्रमाण करके साधे गये विषय को ही अनेकांतपना सिद्ध है और नय के द्वारा साधन किये विषय को एकांतपना व्यवस्थित हो रहा है।
पंचास्तिकाय संग्रह / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 11द्रव्यार्थार्पणायामनुपन्नमनुच्छेदं सत्स्वभावमेव द्रव्यम्।
= द्रव्यार्थिक नय से तो द्रव्य उत्पाद व्यय रहित केवल सत्स्वभाव ही है।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा / मूल या टीका गाथा 261जं वत्थु अणेयंतं एयंतं तं पि होदि सविपेक्खं। सुयणाणेण णएहि य णिरवेक्खं दीसदे णेव।
= जो वस्तु अनेकांत रूप है वही सापेक्ष दृष्टि से एकांत रूप भी है। श्रुतज्ञान की अपेक्षा अनेकांत रूप है और नयों की अपेक्षा एकांत रूप है। बिना अपेक्षा के वस्तु का स्वरूप नहीं ही देखा जा सकता है।
नियमसार / तात्पर्यवृत्तिगाथा 169व्यवहारेण व्यवहारप्रधानत्वात् निरुपरागशुद्धात्मस्वरूपं नैव जानाति, यदि व्यवहारनयविवक्षया कोऽपि जिननाथतत्त्वविचारलब्धः कदाचिदेवं वक्ति चेत् तस्य न खलु दूषणमिति।
= व्यवहार से व्यवहार की प्रधानता के होने के कारण, `निरुपराग शुद्धात्म स्वरूप को नहीं ही जानता है, ऐसा यदि व्यवहार नय की विवक्षा से कोई जिननाथ के तत्त्व विचार में निपुण जीव कदाचित् कहे तो उसको वास्तव में दूषण नहीं है।
पंचास्तिकाय/तात्त्पर्यवृत्ति 56/106/10क्षायिकस्तु केवलज्ञानादिरूवो यद्यपि वस्तुवृत्त्या शुद्धबुद्धेकजीवस्वभावः तथापि कर्मक्षयेणोत्पन्नत्वादुपचारेण कर्मजनित एव।
= केवलज्ञानादि रूप जो क्षायिक भाव वह यद्यपि वस्तुवृत्तिसे शुद्ध-बुद्ध एक जीव स्वभाव है, तथापि कर्मके क्षयसे उत्पन्न होनेके कारण उपचारसे कर्मजनित ही है।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 16/52/10जीवसंयोगेनोत्पन्नत्वाद् व्यवहारेण जीवशब्दो भण्यते, निश्चयेन पुनः पुद्गलस्वरूप एवेति।
= जीव के संयोग से उत्पन्न होने के कारण व्यवहार नय की अपेक्षा जीव शब्द कहा जाता है, किंतु निश्चय नय से तो वह शब्द पुद्गल रूप ही है।
न्यायदीपिका 3/$85स्यादेकमेव वस्तु द्रव्यात्मना न नाना। द्रव्य रूपसे अर्थात् सत्ता सामान्यकी अपेक्षा वस्तु कथंचित् एक ही है, अनेक नहीं।
न्यायदीपिका अधिकार 3/$82/126/9द्रव्यार्थिकनयाभिप्रायेण स्वर्णं स्यादेवमेव, पर्यायार्थिकनयाभिप्रायेण स्यादनेकमेव।
= द्रव्यार्थिक नयके अभिप्रायसे स्वर्ण कथंचित् एक ही है और पर्यायार्थिक नयके अभिप्रायसे (कड़ा आदि रूप) कथंचित् अनेक ही हैं।
5. बिना प्रयोगके भी एवकारका ग्रहण स्वतः हो ही जाता है
श्लोकवार्तिक पुस्तक /1,6/श्लोक 56/257सोऽप्रयुक्तोऽपि वा तज्ज्ञैस्सर्वत्रार्थात्प्रतीयते। यथैवकारोऽयोगादिव्यवच्छेदप्रयोजनः।
= स्याद्वाद के जानने वाले बुद्धिमान जन यदि अनेकांत रूप अर्थ के प्रकाशक स्यात् का प्रयोग न भी करें तो प्रमाणादि सिद्ध अनेकांत वस्तु के स्वभाव से ही सर्वत्र स्वयं ऐसे भासता है जैसे बिना प्रयोग भी अयोगादि के व्यवच्छेद का बोधक एवकार शब्द।
कषायपाहुड़ पुस्तक 1/1,13-14/श्लोक 123/307अंतर्भूतैवकारार्थाः गिरः सर्वा स्वभावतः/123/
= जितने भी शब्द हैं उनमें स्वभाव से ही एवकार का अर्थ छिपा हुआ रहता है।
न्यायदीपिका अधिकार 3/$81उदाहृतवाक्येनापि सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणां मोक्षकारणत्वमेव न संसारकारणमिति विषयविभागेन कारणाकारणात्मकत्वं प्रतिपाद्यते। सर्वं वाक्यं सावधारणम् इति न्यायात्।
= इस पूर्व (सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः) उद्धृत वाक्य के द्वारा भी सम्यग्दर्शन सम्यग्ज्ञान सम्यग्चारित्र इन तीनों में मोक्ष कारणता ही है संसार कारणता नहीं, इस प्रकार विषय विभाग पूर्वक कारणता और अकारणता का प्रतिपादन करने से वस्तु अनेकांत स्वरूप कही जाती है। यद्यपि उक्त वाक्य में अवधारण करनेवाला कोई एवकार जैसा शब्द नहीं है तथापि `सभी वाक्य अवधारण सहित होते हैं' इस न्याय से उसका ग्रहण स्वतः हो जाता है।
6. एवकार का प्रयोजन इष्टार्थावधारण
कषायपाहुड़ पुस्तक 1,13-14 श्लोक 123/307एवकारप्रयोगोऽयमिष्टतो नियमाय सः ॥123॥
= जहाँ भी एवकार का प्रयोग किया जाता है वहाँ वह इष्ट के अवधारण के लिए किया जाता है।
श्लोकवार्तिक पुस्तक 2/1/6/53/446/25अथास्त्येव सर्वमित्यादिवाक्ये विशेष्यविशेषणसंबंधसामांयावद्योतनार्थम् एवकारोऽन्यत्र पदप्रयोगे नियतपदार्थावद्योतनार्थोऽपीति निजगुस्तदा न दोषः।
= `अस्त्येव सर्वं' सभी पदार्थ हैं ही इत्यादि वाक्यों में तो सामान्य रूप से विशेष्य विशेषण संबंध को प्रगट करने के लिए एवकार लगाना चाहिए। तथा दूसरे स्थलों पर इस पद के प्रयोग करने पर नियमित पदार्थों को प्रगट करने के लिए भी एवकार लगाना चाहिए। इस प्रकार कहेंगे तो कोई दोष नहीं है। यह स्याद्वाद सिद्धांत के अनुकूल है।
7. एवकार का प्रयोजन अन्य योग व्यवच्छेद
धवला पुस्तक 11/4,2,6,177/श्लोक 7,8/317/10विशेष्याभ्यां क्रियया च सहोदितः। पार्थो धनुर्धरो नीलं सरोजमिति वा यथा ।7। अयोगमपरैर्योगमत्यंतायोगमेव च। व्यवच्छिनत्ति धर्मस्य निपातो व्यतिरेचकः ।8।
= निपात अर्थात् एवकार व्यतिरेचक अर्थात् निवर्तक या नियामक होता है। विशेषण-विशेष्य और क्रिया के साथ कहा गया निपात क्रम से अयोग, अपरयोग (अन्य योग) और अत्यंतायोग व्यवच्छेद करता है। जैसे-`पार्थो धनुर्धरः' और `नीलं सरोजम्' इन वाक्यों के साथ प्रयुक्त एवकार (विशेष देखो `एव')
कषायपाहुड़ पुस्तक 1/1,13-14/श्लोक 124/307निरस्यंती परस्यार्थं स्वार्थं कथयति श्रुतिः। तमो विधुन्वती भास्यं यथा भासयति प्रभा ॥124॥
= जिस प्रकार प्रभा अंधकार का नाश करती है, और प्रकाश्य पदार्थों को प्रकाशित करती है, उसी प्रकार शब्द दूसरे शब्द के अर्थ का निराकरण करता है और अपने अर्थ को कहता है।
श्लोकवार्तिक 2/1,6/ श्लोक 53/431वाक्येऽवधारणं तावदनिष्टार्थ निवृत्तये। कर्त्तव्यमन्यथानुक्तसमत्वात् तस्य कुत्रचित्।
= किसी वाक्य में `एव' का प्रयोग अनिष्ट अभिप्राय के निराकरण करनेके लिए किया जाता है, अन्यथा अविवक्षित अर्थ स्वीकार करना पड़े।
स्याद्वादमंजरी श्लोक 22/267/23एवकारः प्रकारांतरव्यवच्छेदार्थः।
= एवकार प्रकारांतर के व्यवच्छेद के लिए है।
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति टीका / गाथा 115/162/20अत्र तु स्यात्पदस्येव यदेवकारग्रहणं तन्नयसप्तभंगीज्ञापनार्थमिति भावार्थः।
= यहाँ जो स्यात् पदवत् ही एवकार का ग्रहण किया है वह नय सप्तभंगी के ज्ञापनार्थ है, ऐसा भावार्थ जानना।
3. सम्यगेकांत की इष्टता व इसका कारण
1. वस्तु के सर्व धर्म अपने पृथक्-पृथक् स्वभाव में स्थित हैं
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 107एकस्मिन् द्रव्ये यः सत्तागुणस्तन्न द्रव्यं नान्यो गुणो न पर्यायो, यच्च द्रव्यमन्यो गुणः पर्यायो वा स न सत्तागुण इतीतरेतरस्य यस्तस्याभावः स तदभावलक्षणोऽत्तद्भावोऽंयत्वनिबंधनभूतः।
= एक द्रव्य में जो सत्ता गुण है वह द्रव्य नहीं है, अन्य गुण नहीं है, या पर्याय नहीं है। और जो द्रव्य, अन्य गुण या पर्याय है वह सत्ता गुण नहीं है, - इस प्रकार एक दूसरे में जो `उसका अभाव' अर्थात् `तद्रूप होने का अभाव' है वह तद् अभाव लक्षण `अतद्भाव' है जो कि अन्यत्व का कारण है।
2. किसी एक धर्म की विवक्षा होने पर उस समय वस्तु उतनी मात्र ही प्रतीत होती है
श्लोकवार्तिक पुस्तक 2/1,6,53/444/20ज्ञानं हि स्याद् ज्ञेयं स्याद् ज्ञानम्।....न च ज्ञानं स्वतः परतो वा, येन रूपेण ज्ञेयं तेन ज्ञेयमेव येन तु ज्ञानं तेन ज्ञानमेवेत्यवधारणे स्याद्वादिविरोधः सम्यगेकांतस्य तथोपगमात्।
= ज्ञान कथंचित् ज्ञेय है और कथंचित् ज्ञान है स्याद्वादियोंके यहाँ इस प्रकारका नियम करनेपर भी कोई विरोध नहीं है कि ज्ञान स्व अथवा परकी अपेक्षासे जाननेवाले होकर जिस स्वभावसे ज्ञेय है, उससे ज्ञेय है, उससे ज्ञेय ही है और जिस स्वरूपसे ज्ञान है उससे ज्ञान ही है।
पंचास्तिकाय संग्रह / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 8येन स्वरूपेणोत्पादस्तत्तथोत्पादैकलक्षणमेव, येन स्वरूपेणोच्छेदस्तत्तथोच्छेदैकलक्षणमेव, येन स्वरूपेण ध्रौव्यं तत्तथा ध्रौव्यैकलक्षणमेव, तत उत्पद्यमानोच्छिद्यमानावतिष्ठमानानां वस्तुनः स्वरूपाणां प्रत्येकं त्रैलक्षण्याभावादत्रिलक्षणत्वं त्रिलक्षणायाः।
= जिस स्वरूपसे उत्पाद है उसका उस प्रकार से `उत्पाद' एक ही लक्षण है। जिस स्वरूपसे व्यय है उसका उस प्रकारसे व्यय एक ही लक्षण है और जिस स्वरूपसे ध्रौव्य है उस प्रकारसे ध्रौव्य एक ही लक्षण है। इसलिए वस्तुके उत्पन्न होनेवाले, नष्ट होनेवाले और ध्रुव रहनेवाले स्वरूपोंमेंसे प्रत्येकको त्रिलक्षणका अभाव होनेसे त्रिलक्षणा-सत्ताको अत्रिलक्षणपना है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 114सर्वस्य हि वस्तुनः सामान्यविशेषात्मकत्वात्तत्स्वरूपमुत्पश्यतां यथाक्रमं सामान्यविशेषौ परिच्छंती द्वे किल चक्षुषी द्रव्यार्थिकं पर्यायार्थिकं चेति। तत्र पर्यायार्थिकमेकांतनिमीलितं विधाय केवलोन्मीलितेन द्रव्यार्थिकेन यदावलोक्यते तदा.....तत्सर्वं जीवद्रव्यमिति प्रतिभाति। यदा तु द्रव्यार्थिकमेकांतनिमीलितं विघाय केवलोन्मीलितेन पर्यायार्थिकेनावलोक्यते तदा.....विशेषाननेकानवलोकयतामनवलोकितसामान्यानामन्यदन्यत् प्रतिभाति। यदा तु ते उभे अपि द्रव्यार्थिकपर्यायार्थिके तुल्यकालोन्मीलिते विधाय तत इतश्चावलोक्यते तदा....जीवसामान्यं जीवसामान्ये च व्यवस्थिता विशेषाश्चतुल्यकालमेवावलोक्यंते।
= वास्तवमें सभी वस्तु सामान्यविशेषात्मक होनेसे वस्तुका स्वरूप देखनेवालोंके क्रमशः सामान्य और विशेषको जाननेवाली दो आँखें हैं-द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक। इनमेंसे पर्यायार्थिक चक्षुको सर्वथा बंद करके जब मात्र खुले हुए द्रव्यार्थिक चक्षुके द्वारा देखा जाता है तब `वह सब जीव द्रव्य है' ऐसा दिखाई देता है। और जब द्रव्यार्थिक चक्षुको सर्वथा बंद करके मात्र खुले हुए पर्यायार्थिक चक्षुके द्वारा देखा जाता है तब पर्यायस्वरूप अनेक विशेषोंको देखनेवाले और सामान्यको न देखनेवालें जीवोंकी (वह जीव द्रव्य नारक, मनुष्यादि रूप) अन्य अन्य भासित होता है। और जब उन द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक दोनों आँखोंको एक ही साथ खोलकर उनके द्वारा देखा जाता है तब जीव सामान्य तथा जीव सामान्यमें रहनेवाले पर्यायस्वरूप विशेष तुल्यकालमें ही अर्थात् युगपत् ही दिखाई देते हैं। (और भी देखें अगले शीर्षक में पंचाध्यायी x` के श्लोक)
3. एक धर्म मात्र वस्तुको देखते हुए अन्य धर्म उस समय विवक्षित नहीं होते
- देखें स्याद्वाद - 3 (गौण होते हैं पर निषिद्ध नहीं)
कार्तिकेयानुप्रेक्षा/मूल 264णाणा धम्म जुदं पि य एयं धम्मं पि बुच्चदे अत्थं। तस्सेय विवक्खादो णत्थि विवक्खा हु सेसाणं ॥264॥
= नाना धर्मोंसे युक्त भी पदार्थ के एक धर्मको नय कहता है, क्योंकि उस समय उसी धर्मकी विवक्षा है, शेष धर्मोंकी विवक्षा नहीं है।
पंचाध्यायी / पूर्वार्ध श्लोक 299,302,339,340,757तन्न यतः सदिति स्यादद्वैतं द्वैतभावभागपि च। तत्र विधौ विधिमात्रं तदिह निषेधे निषेधमात्रं स्यात् ॥299॥ अपि च निषिधत्वे सति नहि वस्तुत्वं विधेरभावत्वात्। उभयात्मकं यदि खलु प्रकृतं न कथं प्रतीयेत ॥302॥ अयमर्थो वस्तु यदा केवलमिह दृश्यते न परिणामः। नित्यं तदव्ययादिह सर्वं स्यादन्वयार्थ नययोगात् ॥339॥ अपि च यदा परिणामः केवलमिह दृश्यते न किल वस्तु। अभिनवभावानभिनवभावाभावादनित्यमंशनयात् ॥340॥ नास्ति च तदिह विशेषैः सामान्यस्य विवक्षितायां वा। सामान्यैरितरस्य च गौणत्वे सति भवति नास्ति नयः ॥757॥
= यद्यपि सत् द्वैतभावको धारण करनेवाला है तब भी अद्वैत है; क्योंकि, सत्में विधि विवक्षित होनेपर वह सत् केवल विधिरूप ही प्रतीत होता है। और निषेध विवक्षित होनेपर केवल निषेध ही ॥299॥ निषेधत्व विवक्षित होनेके समय अविवक्षित होनेके कारण विधिको वस्तुपना नहीं है ॥302॥ सारांश यह है कि जिस समय केवल वस्तु दृष्टिगत होती है परिणाम दृष्टिगत नहीं होता, उस समय यहाँपर द्रव्यार्थिक नयकी अपेक्षासे वस्तुत्वका नाश नहीं होनेके कारणसे सभी वस्तु नित्य हैं ॥339॥ अथवा जिस समय यहाँ पर केवल परिणाम दृष्टिगत होता है, वस्तु दृष्टिगत नहीं होती, उस समय पर्यायार्थिक नयकी अपेक्षासे नवीन-पर्यायकी उत्पत्ति और पूर्व-पर्यायके अभाव होनेसे सब ही वस्तु अनित्य हैं ॥340॥ और यहाँपर वस्तु, सामान्यकी विवक्षामें विशेष धर्मकी गौणता होनेपर विशेषधर्मोंके द्वारा नहीं है। अथवा इतरकी विवक्षामें अर्थात् विशेषकी विवक्षामें सामान्यधर्मकी गौणता होने पर, सामान्य धर्मोंके द्वारा नहीं है। इस प्रकार जो कथन है वह नास्तित्व-नय है ॥757॥ (विशेष देखें स्याद्वाद - 3)
4. ऐसा सापेक्ष एकांत हमें इष्ट है
स्वयम्भू स्तोत्र/मूल 62यथैकशः कारकमर्थसिद्धये, समीक्ष्य शेषं स्वसहायकारकम्। तथैव सामान्यविशेषमातृका, नयास्तवेष्टा गुणमुख्यकल्पतः ॥62॥
= जिस प्रकार एक एक कारक, शेष अन्यको अपना सहायकरूप कारक अपेक्षित करके अर्थकी सिद्धिके लिए समर्थ होता है, उसी प्रकार आपके मतमें सामान्य और विशेषसे उत्पन्न होनेवाले अथवा सामान्य और विशेषको विषय करनेवाले जो नय हैं वे मुख्य और गौणकी कल्पनासे इष्ट हैं।
धवला पुस्तक 1/1,1,95/335/4नियमेऽभ्युपगम्यमाने एकांतवादः प्रसजतीति चेन्न, अनेकांतगर्भैकांतस्य सत्त्वाविरोधात्।
= प्रश्न-`तीसरे गुणस्थानमें पर्याप्त ही होते हैं' इस प्रकार नियमके स्वीकार करनेपर तो एकांतवादके सद्भाव माननेमें कोई विरोध नहीं आता।
4. मिथ्या एकांत निराकरण
1. मिथ्या एकांत इष्ट नहीं है
स्वयम्भू स्तोत्र/मूल 98अनेकांतात्मदृष्टिस्ते सतो शून्यो विपर्ययः। ततः सर्वं मृषोक्तं स्यात्तदयुक्तं स्वघाततः ॥98॥
= आपकी अनेकांतदृष्टि सच्ची है और विपरीत इसके जो एकांत मत हैं वे शून्यरूप असत् हैं। अतः जो कथन अनेकांतदृष्टिसे रहित है वह सब मिथ्या है; क्योंकि, वह अपना ही घातक है। अर्थात् अनेकांतके बिना एकांत की स्वरूप-प्रतिष्ठा बन ही नहीं सकती।
स्याद्वादमंजरी श्लोक 26/297य एव दोषाः किल नित्यवादे विनाशवादेऽपि समस्त एव। परस्परध्वंसिषु कंटकेषु जयत्यधृष्यं जिनशासनं ते ॥26॥
= जिस प्रकार वस्तुको सर्वथा नित्य माननेमें दोष आते हैं, वैसे ही उसे सर्वथा अनित्य माननेमें दोष आते हैं। जैसे एक कंटक (पाँवमें चुभे) दूसरे कंटकको निकालता है या नाश करता है, वैसे ही नित्यवादी और अनित्यवादी परस्पर दूषणोंको दिखाकर एक दूसरे का निराकरण करते हैं। अतएव जिनेंद्र भगवान्का शासन अर्थात् अनेकांत, बिना परिश्रमके ही विजयी है।
2. एवकार का मिथ्या प्रयोग अज्ञानसूचक है
स्याद्वादमंजरी श्लोक 24/291/13उक्त प्रकारेण उपाधिभेदेन वास्तवं विरोधाभावमप्रबुध्यैवाज्ञात्वैव एवकारोऽअवधारणे। स च तेषां सम्यग्ज्ञानस्याभाव एव न पुनर्लेशतोऽपि भाव इति व्यनक्ति।
= इस प्रकार सप्तभंगीवाद में नाना अपेक्षाकृत विरोधाभाव को न समझकर अस्तित्व और नास्तित्व धर्मों में स्थूल रूप से दिखाई देनेवाले विरोध से भयभीत होकर, अस्तित्व आदि धर्मों में नास्तित्व आदि धर्मों का निषेध करने वाले एवकारका अवधारण करना, उन एकांतवादियोंमें सम्यग्ज्ञानका अभाव सूचित करता है। उनको लेशमात्र भी सम्यग्ज्ञान का सद्भाव नहीं है ऐसा व्यक्त करता है।
3. मिथ्या-एकांत का कारण पक्षपात है
धवला पुस्तक 1/1,1,37/222/3दोण्हं मज्झे एक्कस्सेव संगहे कीरमाणे वज्जभीरुत्तं विणट्टति। दोण्हं पि संगहं करेंताणमाइरियाणं वज्जभीरुत्ताविणासादो।
= दोनों प्रकार के वचनों या पक्षों में-से किसी एक ही वचन के संग्रह करने पर पापभीरुता निकल जाती है, अर्थात् उच्छ्रंखलता आ जाती है। अतएव दोनों प्रकार के वचनों का संग्रह करनेवाले आचार्यों के पापभीरुता नष्ट नहीं होती, अर्थात् बनी रहती है।
4. मिथ्या एकांतका कारण संकीर्ण दृष्टि है
पद्मनन्दि पंचविंशतिका 4/7भूरिघर्मात्मकं तत्त्वं दुःश्रुतेर्मंदबुद्धयः। जात्यंधहस्तिरूपेण ज्ञात्वा नश्यंति केचन ।7।
= जिस प्रकार जंमांध पुरुष हाथी के यथार्थ स्वरूप को नहीं ग्रहण कर पाता है, किंतु उसके किसी एक ही अंग को पकड़ कर उसे ही हाथी मान लेता है, ठीक इसी प्रकार से कितने ही मंदबुद्धि मनुष्य एकांतवादियों के द्वारा प्ररूपित खोटे शास्त्रों के अभ्यास से पदार्थ को सर्वथा एकरूप ही मानकर उसके अनेक धर्मात्मक स्वरूप को नहीं जानते हैं और इसीलिए वे विनाश को प्राप्त होते हैं।
5. मिथ्या एकांत में दूषण
स्वयम्भू स्तोत्र 24,42न सर्वथा नित्यमुदेत्यपैति, न च क्रियाकारकमत्र युक्तम्। नैवासतो जन्म सतो न नाशो, दीपस्तमः पुद्गलभावतोऽस्ति ।24। तदेव च स्यान्न तदेव च स्यात्, तथाप्रतीतेस्तव तत्कथंचित्। नात्यंतमंयत्वमनंयता च, विधेर्निषेधस्य च शून्यदोषात् ॥42॥
= यदि वस्तु सर्वथा नित्य हो तो वह उदय अस्तको प्राप्त नहीं हो सकती, और न उसमें क्रिया कारककी ही योजना बन सकती है। जो सर्वथा असत् है उसका कभी जन्म नहीं होता और जो सत् है उसका कभी नाश नहीं होता। दीपक भी बुझनेपर सर्वथा नाशको प्राप्त नहीं होता, किंतु उस समय अंधकाररूप पुद्गल-पर्यायको धारण किये हुए अपना अस्तित्व रखता है ॥24॥ आपका वह तत्त्व कथंचित् तद्रूप है और कथंचित् तद्रूप नहीं है। क्योंकि, वैसे ही सत् असत् रूपकी प्रतीति होती है। स्वरूपादि चतुष्टयरूप विधि और पररूपादि चतुष्टयरूप निषेधके परस्परमें अत्यंत भिन्नता तथा अभिन्नता नहीं है, क्योंकि वैसा माननेपर शून्य दोष आता है।
नयचक्रवृहद् गाथा 67णिरवेक्खे एयंते संकरआदिहि ईसिया भावा। णो णिजकज्जे अरिहा विवरीए ते वि खलु अरिहा ॥67॥
= निरपेक्ष-एकांत मानने पर, इच्छित भी भाव, संकर आदि दोषों के द्वारा अपना कार्य करने में समर्थ नहीं हो सकते। तथा सापेक्ष माननेपर वे ही समर्थ हो जाते हैं।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 27एकांतेन ज्ञानमात्मेति ज्ञानस्याभावोऽचेतनत्वमात्मनो विशेषगुणाभावादभावो वा स्यात्। सर्वथात्मा ज्ञानमिति निराश्रयत्वात् ज्ञानस्याभाव आत्मनः शेषपर्यायाभावस्तदविनाभाविनस्तस्याप्यभावः स्यात्।
= यदि यह माना जाये कि एकांत से ज्ञान आत्मा है तो, (ज्ञान गुण ही आत्म द्रव्य हो जाने से) ज्ञान का अभाव हो जायेगा, और (ऐसा होने से) आत्मा के अचेतनता आ जायेगी, अथवा (सहभावी अन्य सुख वीर्य आदि) विशेष गुणों का अभाव होने से आत्मा का अभाव हो जायेगा। यदि यह माना जाये कि सर्वथा आत्मा ज्ञान है तो (आत्मद्रव्य एक ज्ञान गुण रूप हो जायेगा, इसलिए ज्ञान का कोई आधारभूत द्रव्य नहीं रहेगा, अतः)। निराश्रयता के कारण ज्ञान का अभाव हो जायेगा और उनके साथ ही अविनाभाव संबंधवाले आत्मा का भी अभाव हो जायेगा।
समयसार / आत्मख्याति गाथा 348/कलश 208आत्मानं परिशुद्धमीप्सुभिरतिव्याप्तिं प्रपद्यांधकैः, कालोपाधिबलादशुद्धिमधिकां तत्रापि मत्वा परैः। चैतन्यं क्षणिकं प्रकल्प्य पृथुकैः शुद्धर्जुसूत्रे रतेरात्मा व्युज्झित एष हारवदहो निःसूत्रमुक्तेक्षिभिः ॥208॥
= आत्मा को सर्वथा शुद्ध चाहने वाले अन्य किन्हीं अंधबौद्धों ने काल की उपाधि के कारण भी आत्मा में अधिक अशुद्धि मानकर अतिव्याप्ति को प्राप्त होकर, शुद्ध ऋजुसूत्र नय में रत होते हुए चैतन्य को क्षणिक कल्पित करके, इस आत्मा को छोड़ दिया; जैसे हार के सूत्र (डोरे) को न देखकर मात्र मोतियों को ही देखनेवाले हार को छोड़ देते हैं।
पद्मनंदि पंचविंशतिका अधिकार 1/137व्यापी नैव शरीर एव यदसावात्मा स्फुरत्यन्वहं, भूतानन्वयतो न भूतजनितो ज्ञानी प्रकृत्या यतः। नित्ये वा क्षणिकेऽथवा न कथमप्यर्थ क्रिया युज्यते, तत्रैकत्वमपि प्रमाणदृढया भेदप्रतीत्याहतम् ॥137॥
= आत्मा व्यापी नहीं है, क्योंकि, वह निरंतर शरीर में ही प्रतिभासित होता है। वह भूतों से उत्पन्न भी नहीं है, क्योंकि, उसके साथ भूतों का अन्वय नहीं देखा जाता है, तथा वह स्वभाव से ज्ञाता भी है। उसको सर्वथा नित्य अथवा क्षणिक स्वीकार करने पर उसमें किसी प्रकार से अर्थ क्रिया नहीं बन सकती है। उसमें एकत्व भी नहीं है, क्योंकि वह प्रमाण से दृढ़ता को प्राप्त हुई भेद प्रतीति द्वारा बाधित है।
6. मिथ्या एकांत निषेध का प्रयोजन
राजवार्तिक अध्याय 8/1/598तिनकूं नोके समझ मिथ्यात्वकी निवृत्ति होय, ऐसा उपाय करना। यथार्थ जिनागमकूं जान अन्यमतका प्रसंग छोड़ना। अरु अनादिसे पर्याय बुद्धि जो नैसर्गिक मिथ्यात्व ताकूं छोड़ अपना स्वरूपको यथार्थ जान बंधसूं निवृत्त होना।
5. एकांत मिथ्यात्व निर्देश
1. एकांत मिथ्यात्व का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 8/1/375/5इदमेवेत्यमेवेति धर्मिधर्मपोरभिनिवेश एकांतः। "पुरुष एवेदं सर्वम्" इति वा नित्य एव वा अनित्य एवेति।
= यही है, इसी प्रकार है, धर्म और धर्मी में एकांत रूप अभिप्राय रखना एकांत-मिथ्यादर्शन है। जैसे यह सब जग परब्रह्मरूप ही है। या सब पदार्थ अनित्य ही हैं या नित्य ही हैं।
(राजवार्तिक अध्याय 8/1/28/564/18); ( तत्त्वार्थसार अधिकार 5/4)।
धवला पुस्तक 8/3,6,20/3अत्थि चेव, णत्थि चेव; एगमेव, अणेगमेव; सावयवं चेव, निरवयवं चेव; णिच्चमेव, अणिच्चमेव; इच्चाइओ एयंताहिणिवेसो एयंतमिच्छत्तं।
= सत् ही है, असत् ही है, एक ही है, अनेक ही है, सावयव ही है, निरवयव ही है; नित्य ही है; अनित्य ही है; इत्यादिक एकांत अभिनिवेशको एकांत मिथ्यात्व कहते हैं।
स्वयंभू स्त्रोत्र / श्लोक 41स्वरूपेणेव स्वरूपेणापि सत्त्वमित्याद्येकांतः।
= स्वरूप की भाँति पररूपसे भी सत् है, ऐसा मानना एकांत है।
2. 363 एकांत-मिथ्यामत निर्देश
भावपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 135असियसय किरियवाई अक्किरियाणं च होइ चुलसीदी। सत्तट्ठी अण्णाणी वेणैया होंति बत्तीसा ॥135॥
= क्रियावादियों के 180; अक्रियावादियों के 84; अज्ञानवादियों के 67; और वैनयिक वादियों के 32 भेद हैं। सब मिलकर 363 होते हैं।
(सर्वार्थसिद्धि अध्याय 8/1/375/10 पर उद्धृत उपरोक्त गाथा); (राजवार्तिक अध्याय 8/1/8/561/32); (ज्ञानार्णव अधिकार 4/22 में उद्धृत दो श्लोक); ( हरिवंश पुराण सर्ग 10/47-48); (गोम्मट्टसार कर्मकांड / मूल गाथा 876/1062); ( गोम्मट्टसार जीवकांड / गोम्मट्टसार जीवकांड जीव तत्त्व प्रदीपिका| जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 360/770)
3. एकांत मिथ्यात्व के अनेकों भंग
राजवार्तिक अध्याय 8/1/594(आप्तमीमांसा का सार) स्वामी समंतभद्राचार्य ने आप्तपरीक्षा के अर्थ देवागम स्तोत्र (आप्त मीमांसा) रच्या है। तामैं सत्यार्थ आप्त का तौ स्थापन और असत्यार्थ का निराकरण के निमित्त दस पक्ष स्थाप्ये हैं-1. अस्ति-नास्ति; 2. एक-अनेक; 3. नित्य-अनित्य; 4. भेद-अभेद; 5. अपेक्ष-अनपेक्ष; 6. दैव-पुरुषार्थ; 7. अंतरंग-बहिरंग; 8. हेतु-अहेतु; 9. अज्ञानतै बंध और स्तोकज्ञान से मोक्ष; 10. परकै दुःख और आपकै सुख करै तो पाप-परकै सुख अर आपकै दुःख करै तो पुण्य। ऐसे 10 पक्ष विषै सप्त भंग लगाय 70 भंग भये। तिनिका सर्वथा एकांत विषै दूषण दिखाये हैं। जाने ए कहे सो तौ आप्ताभास हैं, अर अनेकांत साधै हैं ते दूषण रहित हैं। ते सर्वज्ञ वीतरागके भाषे हैं।
4. कुछ एकांत दर्शनों का निर्देश
श्वेताश्वरोपनिषद् 1/2कालः स्वभावो नियतिर्यदृच्छा भूतानि योनिः पुरुषश्चेति चित्तम्। संयोग एषां न त्वात्मभावादात्माप्यनीशः सुख-दुःखहेतोः ।2।
= आत्मा को सुख-दुःख स्वयं अपने से नहीं होते, बल्कि काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा, पृथिवी आदि चतुर्भूत, योनि, पुरुष व चित्त इन 9 बातों के संयोग से होता है, क्योंकि आत्मा सुख दुःख भोगने में स्वतंत्र नहीं है।
धवला पुस्तक 9/4,1,45/79/208पढमो अबंधयाणं विदियो तेरासियाणं बोद्धव्वो। तदियो य णियदिपक्खे हवदि चउत्थो ससमयम्मि ।79।
= इनमें प्रथम अधिकार अबंधकों का, और द्वितीय त्रैराशिक अर्थात् आजीविकों का जानना चाहिए। तृतीय अधिकार नियति पक्ष में और चतुर्थ अधिकार स्वसमय में है।
राजवार्तिक अध्याय 8/1/वा./पृष्ठयज्ञार्थं पशवः सृष्टाः स्वयमेव स्वयंभुवा (मनुस्मृति 5/39) 22/563; अग्निहोत्रं जुहुयात् स्वर्गकामः (मैत्रा. 6/36)। 27/564; पुरुष एवेदं सर्वं यच्च भूतं यच्च भव्यम् (ऋगवेद 10/90)। 27/564; पंक्ति 9।; एवं परोपदेशनिमित्तमिथ्यादर्शनविकल्पाः अन्ये च संख्येया योज्या; उह्याः, परिणामविकल्पात् असंख्येयाश्च भवंति, अनंताश्च अनुभागभेदात्। 27/564 पंक्ति 14।
= यज्ञार्थं ही पशुओं की सृष्टि स्वयं स्वयंभू भगवान ने की है (मनुस्मृति 5/39); स्वर्ग की इच्छा करनेवालों को अग्निहोत्र करना चाहिए (मैत्र 6/36); जो कुछ भी हो चुका है या होनेवाला है वह सर्व पुरुष ही है (ऋगवेद 10/90); और इस प्रकार परोपदेश निमित्तक-मिथ्यादर्शन के विकल्प अन्य भी संख्यात रूप से लगा लेने चाहिए। परिणामों के भेद से वे ही असंख्यात हैं और अनुभाग के भेदसे वे ही अनंत हैं।
धवला पुस्तक 9/4,1,45/पृष्ठ/पंक्तिसूत्रे अष्टाशीतिशतसहस्रपदैः 8800000 पूर्वोक्तसर्वदृष्टयो निरूप्यंते, अबंधकः अलेपकः अभोक्ता अकर्ता निर्गुणः सर्वगतः अद्वैतः नास्ति जीवः समुदयजनितः सर्वं नास्ति बाह्यार्थो नास्ति सर्वं निरात्मकं सर्वं क्षणिकं अक्षणिकमद्वैतमित्यादयो दर्शनभेदाश्च निरूप्यंते। (207/4) त्रयीगतमिथ्यात्वसंख्याप्रतिपादिकेयं (208/3)
= सूत्र अधिकार में अठासी लाख 8800000 पदों द्वारा पूर्वोक्त सब मतों का निरूपण किया जाता है। इसके अतिरिक्त-जीव अबंधक है; अलेपक है; अभोक्ता है; अकर्ता है; निर्गुण है; व्यापक है; अद्वैत है; जीव नहीं है; जीव (पृथिवी आदि चार भूतों के) समुदाय से उत्पन्न होता है; सब नहीं है अर्थात् शून्य है; बाह्य पदार्थ नहीं हैं; सब निरात्मक हैं, सब क्षणिक हैं; सब अक्षणिक अर्थात् नित्य है; अथवा अद्वैत है; इत्यादि दर्शनभेदों का भी इसमें निरूपण किया जाता है। यह त्रयीगत मिथ्यात्व के भेदों का प्रतिपादक है।
गोम्मटसार कर्मकांड 877,887-893,894/1063-1073;
= 1. कालवाद; 2. ईश्वरवाद; 3. आत्मवाद; 4. नियतिवाद; 5. स्वभाववाद ॥877॥ 6. अज्ञानवाद ॥887॥ 7. विनयवाद ॥888॥; 8. पौरुषवाद ॥890॥; 9. दैववाद ॥891॥; 10. संयोगवाद ॥892॥; 11. लोकवाद ॥893॥
गोम्मट्टसार कर्मकांड / मूल गाथा 894/1073जावदिया वयणवहा तावदिया चेव होंति णयवादा। जावदिया णयवादा तावदिया चेव होंति परसमयाः ॥894॥
= जितने वचन के मार्ग हैं तितने ही नयवाद हैं। जितने नयवाद हैं तितने ही परसमय हैं।
षड्दर्शन समुच्चय 2,3दर्शनानि षडेवात्र मूलभेदव्यपेक्षया। देवता तत्त्वभेदेन ज्ञातव्यानि मनीषिभिः ॥2॥ बौद्धं नैयायिकं सांख्यं जैनं वैशेषिकं तथा। जैमिनीयं च नामानि दर्शनानाममून्यहो ॥3॥
= मूल भेदों की अपेक्षा दर्शन छह हैं-बौद्ध, नैयायिक, सांख्य, जैन, वैशेषिक तथा जैमिनीय।
• जैनाभासी संघ-देखें इतिहास - 6।
नीतिसार/सोमदेवसूरि 9गोपुच्छकः श्वेतवासो द्राविडो यापनीयः। निःपिच्छिकश्चेति पंचैते जैनाभासाः प्रकीर्तिताः।
= गोपुच्छक, श्वेतांबर, द्रविड़, यापनीय, निष्पिच्छ, ये पाँच जैनाभास कहे गये हैं।
(बोधपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 6/75 पर उद्धृत); ( दर्शनपाहुड़ / मूल या टीका गाथा 11/11 में उद्धृत); (दर्शनसार / पृष्ठ 24 पर उद्धृत); विशेष देखें इतिहास - 5।
दर्शनसार /पृष्ठ 41 पर उद्धृत"कष्ठासंघो भुवि ख्यातो जानंति नृसुरासुराः। तत्र गच्छाश्च चत्वारो राजंते विश्रुताः क्षितौ ॥1॥ श्री नंदितटसंज्ञश्च माथुरो बागड़ाभिधः। लाड़बागड़ इत्येते विख्याताः क्षितिमंडले ॥2॥" (सुरेंद्रकीर्ति)।
= पृथिवी पर कष्ठासंघ विख्यात है। उसे नर, सुर व असुर सब जानते हैं। उस संघ में चार गच्छ पृथिवी पर स्थित हैं-1. श्रीनंदितट; 2. माथुरगच्छ; 3. बागड़-गच्छ; 4. लाड़-बागड़ गच्छ।
5. एकांत मत सूची
इनका स्वरूप - देखें वह वह नाम ।
नं. नाम । मत
1 अक्रियावाद । एकस्वतंत्रवाद
2 अज्ञानवाद । एकस्वतंत्रवाद
3 अद्वैतवाद । एकस्वतंत्रवाद
4 अनित्यवाद । एकस्वतंत्रवाद
5 अभाववाद । एकस्वतंत्रवाद
6 अवक्तव्यवाद । एकस्वतंत्रवाद
7 अश्वलायन । क्रियावादी
8 अस्थूण । विनयवादी
9 आजीवक । त्रैराशिवाद एकस्वतंत्रदर्शन
10 आत्मवाद । त्रैराशिवाद एकस्वतंत्रदर्शन
11 ईश्वरवाद । त्रैराशिवाद एकस्वतंत्रदर्शन
12 उदयनाचार्य । वैशेषिक दर्शन
13 उलूकमत । अक्रियावादी
14 एतिकायन । अज्ञानवादी
15 ऐंद्रदत्त । विनयवादी
16 औपमन्यु । विनयवादी
17 कणाद । असत्वादी
18 कण्व । अज्ञानवादी
19 कपिल । सांख्यदर्शन
20 काणोविद्ध । क्रियावादी
21 कालवाद । एकस्वतंत्रवाद
22 काष्ठासंघ । जैनाभास
23 कुथुमि । अज्ञानवादी
24 कौत्किल । क्रियावादी
25 कौशिक । क्रियावादी
26 गार्ग्य । अक्रियावादी
27 गौतम । असत्कार्यवाद
28 चारित्रवाद । क्रियावाद
29 चार्वाकमत । एक दर्शन
30 जतुकर्ण । विनयवादी
31 जैमिनी । मीमांसक
32 तापस । विनयवादी
33 त्रिवर्गगतवाद । एकस्वतंत्रवाद
34 त्रैराशिकवाद । एकस्वतंत्रवाद
35 दर्शनवाद । श्रद्धानवाद
36 दैववाद । एकस्वतंत्रवाद
37 द्रविड़संघ । जैनाभास
38 द्रव्यवाद । सांख्यदर्शन
39 नारायण । अज्ञानवादी
40 नास्तिक । चार्वाक
41 नित्यवाद । एकस्वतंत्रवाद
42 निमित्तवाद । परतंत्रवाद
43 नियतिवाद । एकस्वतंत्रवाद
44 नैयायिक । एकदर्शन
45 पाराशर । विनयवादी
46 पुरुषवाद । सांख्यमत
47 पुरुषार्थवाद । एकवाद
48 पूरण । मस्करीमत
49 पैप्पलाद । अज्ञानवादी
50 प्रकृतिवाद । सांख्य द.
51 प्रधानवाद । सांख्य द.
52 बादरायण । अज्ञानवाद
53 बौद्ध । एकदर्शन
54 ब्रह्मवाद । अद्वैतवाद
55 भट्टप्रभाकर । मीमांसक
56 भिल्लक । जैनाभासीसंघ
57 मरीचि । क्रियावादी
58 मस्करी । अज्ञानवादी
59 माठर । अक्रियावादी
60 मांडलीक । क्रियावादी
61 माथुर । जैनाभासीस घ
62 मध्यदिन । अज्ञानवादी
63 मीमांसा । एकदर्शन
64 मुंड । क्रियावादी
65 मोद । अज्ञानवादी
66 मौद्गलायन । अक्रियावा. बौद्ध
67 याज्ञिक । एकमत
68 यापनीय । जैनाभासीसंघ
69 योगमत । सांख्य दर्शन
70 रोमश । क्रियावादी
71 रोमहर्षिणी । विनयवादी
72 लोकवाद । एकवाद
73 वल्कल । अज्ञानवादी
74 वशिष्ठ । विनयवादी
75 वसु । अज्ञानवादी
76 वाल्मीकि । विनयवादी
77 विज्ञानवाद । अद्वैतवाद
78 विनयवाद । एकवाद
79 विपरीतवाद । मिथ्यात्वका एक भेद
80 वेदांत । एक दर्शन
81 वैयाकरणीय । वैशेषिक द.
82 वैशेषिक । एक दर्शन
83 व्याघ्रभूति । अक्रियावादी
84 व्यास एलापुत्र । विनयवादी
85 शब्दाद्वैत । अद्वैतवाद
86 शिवमत । वैशेषिक
87 शून्यवाद । बौद्ध
88 श्रद्धानवाद । एकवाद
89 संयोगवाद । एकवाद
90 सत्यदत्त । विनयवादी
91 सदाशिववाद । सांख्य
92 सम्यक्त्ववाद । श्रद्धानवाद
93 सांख्य । एक दर्शन
94 स्वतंत्रवाद । एक वाद
95 स्वभाववाद । एक वाद
96 हरिमश्रु । क्रियावादी
97 हारित । क्रियावादी