अपूर्वकरण: Difference between revisions
From जैनकोष
Jyoti Sethi (talk | contribs) No edit summary |
(Imported from text file) |
||
(One intermediate revision by the same user not shown) | |||
Line 11: | Line 11: | ||
<span class="GRef">पंचसंग्रह / प्राकृत / अधिकार 1/17-19</span> <p class="PrakritText">भिण्णसमयट्ठिएहि दु जीवेहि ण होइ सव्वहा सरिसो। करणेहिं एसमयट्ठिएहिं सरिसो विसरिओ वा ॥17॥ एयम्मि गुणट्ठाणो विसरिसमयट्ठिएहिं जीवेहिं। पुव्वमपत्ता जम्हा होंति अपुव्वा हु परिणामा ॥18॥ तारिसपरिणामट्ठियजीवा हु जिणेहिं गलियतिमिरेहिं। मोहस्सऽपुव्वकरणाखवणुवसमणुज्जया भणिया ॥19॥</p> | <span class="GRef">पंचसंग्रह / प्राकृत / अधिकार 1/17-19</span> <p class="PrakritText">भिण्णसमयट्ठिएहि दु जीवेहि ण होइ सव्वहा सरिसो। करणेहिं एसमयट्ठिएहिं सरिसो विसरिओ वा ॥17॥ एयम्मि गुणट्ठाणो विसरिसमयट्ठिएहिं जीवेहिं। पुव्वमपत्ता जम्हा होंति अपुव्वा हु परिणामा ॥18॥ तारिसपरिणामट्ठियजीवा हु जिणेहिं गलियतिमिरेहिं। मोहस्सऽपुव्वकरणाखवणुवसमणुज्जया भणिया ॥19॥</p> | ||
<p class="HindiText">= इस गुणस्थान में, भिन्न समयवर्ती जीवों में करण अर्थात् परिणामों की अपेक्षा कभी भी सादृश्य नहीं पाया जाता। किंतु एक समयवर्ती जीवों में सादृश्य और वैसादृश्य दोनों ही पाये जाते हैं ॥14॥ इस गुणस्थान में यतः विभिन्न समय स्थित जीवों के पूर्व में अप्राप्त अपूर्व परिणाम होते हैं, अतः उन्हें अपूर्वकरण कहते हैं ॥18॥ इस प्रकार के अपूर्वकरण परिणामों में स्थित जीव मोहकर्म के क्षपण या उपशमन करने में उद्यत होते हैं, ऐसा अज्ञान तिमिर वीतरागी जिनों ने कहा है ॥17-19॥ </p> | <p class="HindiText">= इस गुणस्थान में, भिन्न समयवर्ती जीवों में करण अर्थात् परिणामों की अपेक्षा कभी भी सादृश्य नहीं पाया जाता। किंतु एक समयवर्ती जीवों में सादृश्य और वैसादृश्य दोनों ही पाये जाते हैं ॥14॥ इस गुणस्थान में यतः विभिन्न समय स्थित जीवों के पूर्व में अप्राप्त अपूर्व परिणाम होते हैं, अतः उन्हें अपूर्वकरण कहते हैं ॥18॥ इस प्रकार के अपूर्वकरण परिणामों में स्थित जीव मोहकर्म के क्षपण या उपशमन करने में उद्यत होते हैं, ऐसा अज्ञान तिमिर वीतरागी जिनों ने कहा है ॥17-19॥ </p> | ||
<p> | <p><span class="GRef">(धवला पुस्तक 1/1,1,17/116-118/183)</span>, <span class="GRef">( गोम्मट्टसार जीवकांड / मूल गाथा 51,52,54/140)</span>, <span class="GRef">(पंचसंग्रह / संस्कृत / अधिकार 1/35-37)</span>।</p> | ||
<span class="GRef">धवला पुस्तक 1/1,1,16/180/1</span> <p class="SanskritText">करणाः परिणामाः, न पूर्वाः अपूर्वाः। नानाजीवापेक्षया प्रतिसमयमादितः क्रमप्रवृद्धासंख्येयलोकपरिणामस्यास्य गुणस्यांतर्विवक्षितसमयवर्तिप्राणिनो व्यतिरिच्यान्यसमवयवर्तिप्राणिभिरप्राप्या अपूर्वा अत्रतनपरिणामैरसमाना इति यावत्। अपूर्वाश्च ते करणाश्चापूर्वकरणाः।</p> | <span class="GRef">धवला पुस्तक 1/1,1,16/180/1</span> <p class="SanskritText">करणाः परिणामाः, न पूर्वाः अपूर्वाः। नानाजीवापेक्षया प्रतिसमयमादितः क्रमप्रवृद्धासंख्येयलोकपरिणामस्यास्य गुणस्यांतर्विवक्षितसमयवर्तिप्राणिनो व्यतिरिच्यान्यसमवयवर्तिप्राणिभिरप्राप्या अपूर्वा अत्रतनपरिणामैरसमाना इति यावत्। अपूर्वाश्च ते करणाश्चापूर्वकरणाः।</p> | ||
<p class="HindiText">= करण शब्द का अर्थ परिणाम है, और जो पूर्व अर्थात् पहिले नहीं हुए उन्हें अपूर्व कहते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि नाना जीवों की अपेक्षा आदि से लेकर प्रत्येक समय में क्रम से बढ़ते हुए असंख्यातलोक प्रमाण परिणाम वाले इस गुणस्थान के अंतर्गत विवक्षित समयवर्ती जीवों को छोड़कर अन्य समयवर्ती जीवों के द्वारा अप्राप्य परिणाम अपूर्व कहलाते हैं। अर्थात् विवक्षित समयवर्ती जीवों के परिणामों से भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम असमान अर्थात् विलक्षण होते हैं। इस तरह प्रत्येक समय में होनेवाले अपूर्व परिणामों को अपूर्वकरण कहते हैं।</p> | <p class="HindiText">= करण शब्द का अर्थ परिणाम है, और जो पूर्व अर्थात् पहिले नहीं हुए उन्हें अपूर्व कहते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि नाना जीवों की अपेक्षा आदि से लेकर प्रत्येक समय में क्रम से बढ़ते हुए असंख्यातलोक प्रमाण परिणाम वाले इस गुणस्थान के अंतर्गत विवक्षित समयवर्ती जीवों को छोड़कर अन्य समयवर्ती जीवों के द्वारा अप्राप्य परिणाम अपूर्व कहलाते हैं। अर्थात् विवक्षित समयवर्ती जीवों के परिणामों से भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम असमान अर्थात् विलक्षण होते हैं। इस तरह प्रत्येक समय में होनेवाले अपूर्व परिणामों को अपूर्वकरण कहते हैं।</p> | ||
Line 35: | Line 35: | ||
<span class="GRef">धवला पुस्तक 1/1,1,16/181/4</span> <p class="SanskritText">अक्षपकानुपशमकानां कथं तद्व्यपदेशश्चेन्न, भाविनि भूतवदुपचारतस्तत्सिद्धेः। सत्येवमतिप्रसंगः स्यादिति चेन्न, असति प्रतिबंधरि मरणे नियमेन चारित्रमोहक्षपणोपशमकारिणां तदुन्मुखानामुपचारभाजामुपलंभात्। </p> | <span class="GRef">धवला पुस्तक 1/1,1,16/181/4</span> <p class="SanskritText">अक्षपकानुपशमकानां कथं तद्व्यपदेशश्चेन्न, भाविनि भूतवदुपचारतस्तत्सिद्धेः। सत्येवमतिप्रसंगः स्यादिति चेन्न, असति प्रतिबंधरि मरणे नियमेन चारित्रमोहक्षपणोपशमकारिणां तदुन्मुखानामुपचारभाजामुपलंभात्। </p> | ||
<p class="HindiText">= प्रश्न-आठवें गुणस्थान में न तो कर्मो का क्षय ही होता है, और न उपशम ही फिर इस गुणस्थानवर्ती जीवों को क्षपक और उपशमक कैसे कहा जा सकता है? उत्तर-नहीं; क्योंकि भावी अर्थ में भूतकालीन अर्थ के समान उपचार कर लेने से आठवें गुणस्थान में क्षपक और उपशमक व्यवहार की सिद्धि हो जाती है। प्रश्न-इस प्रकार मानने पर तो अतिप्रसंग दोष प्राप्त हो जायेगा। उत्तर-नहीं, क्योंकि प्रतिबंधक मरण के अभाव में नियम से चारित्र-मोह का उपशम करनेवाले तथा चारित्रमोह का क्षय करने वाले, अतएव उपशमन व क्षपण के सन्मुख हुए और उपचार से क्षपक या उपशमक संज्ञा को प्राप्त होने वाले जीवों के आठवें गुणस्थान में भी क्षपक या उपशमक संज्ञा बन जाती है</p> | <p class="HindiText">= प्रश्न-आठवें गुणस्थान में न तो कर्मो का क्षय ही होता है, और न उपशम ही फिर इस गुणस्थानवर्ती जीवों को क्षपक और उपशमक कैसे कहा जा सकता है? उत्तर-नहीं; क्योंकि भावी अर्थ में भूतकालीन अर्थ के समान उपचार कर लेने से आठवें गुणस्थान में क्षपक और उपशमक व्यवहार की सिद्धि हो जाती है। प्रश्न-इस प्रकार मानने पर तो अतिप्रसंग दोष प्राप्त हो जायेगा। उत्तर-नहीं, क्योंकि प्रतिबंधक मरण के अभाव में नियम से चारित्र-मोह का उपशम करनेवाले तथा चारित्रमोह का क्षय करने वाले, अतएव उपशमन व क्षपण के सन्मुख हुए और उपचार से क्षपक या उपशमक संज्ञा को प्राप्त होने वाले जीवों के आठवें गुणस्थान में भी क्षपक या उपशमक संज्ञा बन जाती है</p> | ||
<p> | <p><span class="GRef">(धवला पुस्तक 5/1,7,9/205/4)</span></p> | ||
<span class="GRef">धवला पुस्तक 5/1,7,9/205/2</span> <p class="PrakritText">उवसमसमणसत्तिसमण्णिदअपुव्वकरणस्य तदत्थित्ताविरोहा।</p> | <span class="GRef">धवला पुस्तक 5/1,7,9/205/2</span> <p class="PrakritText">उवसमसमणसत्तिसमण्णिदअपुव्वकरणस्य तदत्थित्ताविरोहा।</p> | ||
<p class="HindiText">= उपशमन शक्तिसे समन्वित अपूर्वकरणसंयतके औपशमिक भावके अस्तित्वको माननेमें कोई विरोध नहीं है।</p> | <p class="HindiText">= उपशमन शक्तिसे समन्वित अपूर्वकरणसंयतके औपशमिक भावके अस्तित्वको माननेमें कोई विरोध नहीं है।</p> | ||
Line 57: | Line 57: | ||
== पुराणकोष से == | == पुराणकोष से == | ||
<p class="HindiText"> चौदह गुणस्थानों में आठवाँ गुणस्थान । इस गुणस्थान में जीव के प्रतिक्षण अपूर्व-अपूर्व (नये-नये) परिणाम होते हैं । इस करण मे अध:करण के समान जीव स्थिति और अनुभाग बंध तो कम करता ही रहता है साथ ही वह स्थिति और अनुभाग बंध का संक्रमण और निर्जरा करता हुआ उन दीपों के अग्रभाग को भी नष्ट कर देता है । ऐसे जीव उपशमक और क्षपक दोनों प्रकारों के होते हैं । <span class="GRef"> महापुराण 20. 252-255, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 3. | <p class="HindiText"> चौदह गुणस्थानों में आठवाँ गुणस्थान । इस गुणस्थान में जीव के प्रतिक्षण अपूर्व-अपूर्व (नये-नये) परिणाम होते हैं । इस करण मे अध:करण के समान जीव स्थिति और अनुभाग बंध तो कम करता ही रहता है साथ ही वह स्थिति और अनुभाग बंध का संक्रमण और निर्जरा करता हुआ उन दीपों के अग्रभाग को भी नष्ट कर देता है । ऐसे जीव उपशमक और क्षपक दोनों प्रकारों के होते हैं । <span class="GRef"> महापुराण 20. 252-255, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_3#80|हरिवंशपुराण - 3.80]], [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_3#83|83]] , [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_3#142|142]] </span>देखें [[ गुणस्थान ]]</p> | ||
Latest revision as of 14:39, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
जीवों के परिणामों में क्रम पूर्वक विशुद्धि की वृद्धियों के स्थानों को गुणस्थान कहते हैं। मोक्षमार्ग में 14 गुणस्थानों का निर्देश किया गया है। तहाँ अपूर्वकरण नाम का आठवाँ गुणस्थान है।
• इस गुणस्थान के स्वामित्व संबंधी गुणस्थान, जीव समास, मार्गणा स्थानादि 20 प्ररूपणाएँ। - देखें सत् ।
• इस गुणस्थान की सत् (अस्तित्व), संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव व अल्पबहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ। -देखें वह वह नाम ।
• इस गुणस्थान में कर्म प्रकृतियों का बंध, उदय व सत्त्व।-देखें वह वह नाम ।
• इस गुणस्थान में कषाय, योग व संज्ञाओं का सद्भाव तथा तत्संबंधी शंकाएँ।-देखें वह वह नाम ।
• इस गुणस्थान की पुनः पुनः प्राप्ति की सीमा।-देखें संयम - 2
• इस गुणस्थान में मृत्यु का विधि-निषेध।-देखें मरण - 3।
• सभी गुणस्थानों में आय के अनुसार व्यय होने का नियम।-देखें मार्गणा ।
पंचसंग्रह / प्राकृत / अधिकार 1/17-19
भिण्णसमयट्ठिएहि दु जीवेहि ण होइ सव्वहा सरिसो। करणेहिं एसमयट्ठिएहिं सरिसो विसरिओ वा ॥17॥ एयम्मि गुणट्ठाणो विसरिसमयट्ठिएहिं जीवेहिं। पुव्वमपत्ता जम्हा होंति अपुव्वा हु परिणामा ॥18॥ तारिसपरिणामट्ठियजीवा हु जिणेहिं गलियतिमिरेहिं। मोहस्सऽपुव्वकरणाखवणुवसमणुज्जया भणिया ॥19॥
= इस गुणस्थान में, भिन्न समयवर्ती जीवों में करण अर्थात् परिणामों की अपेक्षा कभी भी सादृश्य नहीं पाया जाता। किंतु एक समयवर्ती जीवों में सादृश्य और वैसादृश्य दोनों ही पाये जाते हैं ॥14॥ इस गुणस्थान में यतः विभिन्न समय स्थित जीवों के पूर्व में अप्राप्त अपूर्व परिणाम होते हैं, अतः उन्हें अपूर्वकरण कहते हैं ॥18॥ इस प्रकार के अपूर्वकरण परिणामों में स्थित जीव मोहकर्म के क्षपण या उपशमन करने में उद्यत होते हैं, ऐसा अज्ञान तिमिर वीतरागी जिनों ने कहा है ॥17-19॥
(धवला पुस्तक 1/1,1,17/116-118/183), ( गोम्मट्टसार जीवकांड / मूल गाथा 51,52,54/140), (पंचसंग्रह / संस्कृत / अधिकार 1/35-37)।
धवला पुस्तक 1/1,1,16/180/1करणाः परिणामाः, न पूर्वाः अपूर्वाः। नानाजीवापेक्षया प्रतिसमयमादितः क्रमप्रवृद्धासंख्येयलोकपरिणामस्यास्य गुणस्यांतर्विवक्षितसमयवर्तिप्राणिनो व्यतिरिच्यान्यसमवयवर्तिप्राणिभिरप्राप्या अपूर्वा अत्रतनपरिणामैरसमाना इति यावत्। अपूर्वाश्च ते करणाश्चापूर्वकरणाः।
= करण शब्द का अर्थ परिणाम है, और जो पूर्व अर्थात् पहिले नहीं हुए उन्हें अपूर्व कहते हैं। इसका तात्पर्य यह है कि नाना जीवों की अपेक्षा आदि से लेकर प्रत्येक समय में क्रम से बढ़ते हुए असंख्यातलोक प्रमाण परिणाम वाले इस गुणस्थान के अंतर्गत विवक्षित समयवर्ती जीवों को छोड़कर अन्य समयवर्ती जीवों के द्वारा अप्राप्य परिणाम अपूर्व कहलाते हैं। अर्थात् विवक्षित समयवर्ती जीवों के परिणामों से भिन्न समयवर्ती जीवों के परिणाम असमान अर्थात् विलक्षण होते हैं। इस तरह प्रत्येक समय में होनेवाले अपूर्व परिणामों को अपूर्वकरण कहते हैं।
अभिधान राजेंद्रकोश/अपुव्वकरण"अपूर्वमपूर्वां क्रियां गच्छतीत्यपूर्वकरणम्। तत्र च प्रथमसमय एव स्थितिघातरसघातगुणश्रेणिगुणसंक्रमाः अन्यश्च स्थितिबंधः इत्येते पंचाप्यधिकारा यौगपद्येन पूर्वमप्रवृत्ताः प्रवर्त्तंते इत्यपूर्वकरणम्।
= अपूर्व-अपूर्व क्रिया को प्राप्त करता होने से अपूर्वकरण है। तहाँ प्रथम समय से ही-स्थितिकांडकघात, अनुभागकांडकघात, गुणश्रेणीनिर्जरा, गुणसंक्रमण और स्थितिबंधापसरण ये पाँच अधिकार युगपत् प्रवर्त्तते हैं। क्योंकि ये इससे पहिले नहीं प्रवर्तते इसलिए इसे अपूर्वकरण कहते हैं।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 13/14स एवातीतसंज्वलनकषायमंदोदये सत्यपूर्वपरमाह्लादैकसुखानुभूतिलक्षणापूर्वकरणोपशमकक्षपकसंज्ञोऽष्टमगुणस्थानवर्त्ती भवति
= वही (सप्तगुणस्थानवर्ती साधु) अतीत संज्वलन कषाय का मंद उदय होने पर अपूर्व, परम आह्लाद सुख के अनुभवरूप अपूर्वकरण में उपशमक या क्षपक नामक अष्टम गुणस्थानवर्ती होता है।
• अपूर्वकरण के चार आवश्यक, परिणाम तथा अनिवृत्तिकरण के साथ इसका भेद।-देखें कारण - 5।
• अपूर्वकरण लब्धि। देखें करण - 5।
पंचसु गुणेषु कोऽत्रनगुणश्चेत्क्षपकस्य क्षायिकः उपशमकस्यौपशमिकः।.....सम्यक्त्वापेक्षया तुक्षपकस्य क्षायिको भावः दर्शनमोहनीयक्षयमविधाय क्षपकश्रेण्यारोहणानुपत्तेः। उपशमकस्यौपशमिकः क्षायिको वा भावः, दर्शनमोहोपशमक्षयाभ्यां विनोपशमश्रेण्यारोहणानुपलंभात्।
= प्रश्न-पाँच प्रकार के भावों में-से इस गुणस्थान में कौन-सा भाव पाया जाता है? उत्तर-(चारित्र की अपेक्षा) क्षपक के क्षायिक और उपशम के औपशमिक भाव पाया जाता है।....सम्यग्दर्शन की अपेक्षा तो क्षपक के क्षायिक भाव होता है, क्योंकि जिसने दर्शनमोहनीय का क्षय नहीं किया है, वह क्षपक श्रेणी पर नहीं चढ़ सकता है। और उपशम के औपशमिक या क्षायिकभाव होता है, क्योंकि जिसने दर्शनमोहनीय का उपशम अथवा क्षय नहीं किया है, वह उपशमश्रेणी पर नहीं चढ़ सकता है।
तत्र कर्मप्रकृतीनां नोपशमो नापि क्षयः।
= तहाँ अपूर्वकरण गुणस्थान में, कर्म प्रकृतियों का न उपशम है और न क्षय।
धवला पुस्तक 1/1,1,27/211/3अपुव्वकरणे ण एक्कं पि कम्ममुवसमदि। किंतु अपुव्वकरणो पडिसमयणंतगुण-विसोहीए वढ्ढंतो अंतोमुहुत्तेण एक्केक्कंट्ठिदिखंडयं घादेंतो संखेज्जसहस्साणि ट्ठिदिखंडयाणि घादेदि, तत्तियमेत्ताणि ट्ठिदिबंधोसरणाणि करेदि।
= अपूर्वकरण गुणस्थान में एक भी कर्म का उपशम नहीं होता है। किंतु अपूर्वकरण गुणस्थानवाला जीव प्रत्येक समय में अनंतगुणी विशुद्धि से बढ़ता हुआ एक-एक अंतर्मुहूर्त में एक एक स्थितिखंडों का घात करता हुआ संख्यात हजार स्थितिखंडों का घात करता है। उतने ही स्थिति बंधापसरणों को करता है।
धवला पुस्तक 1/1,1,27/216/9सो ण एक्कं वि कम्मं क्खवेदि, किंतु समयं पडि असंखेज्जगुणसरूवेण पदेस णिज्जरं करेदि। अंतोमुहुत्तेण एक्केक्कं ट्ठिदिकंडयं घादेंतो अप्पणो कालब्भंतरे संखेज्जसहस्साणि ट्ठिदिखंडयाणि घादेदि। तत्तियाणि चेव ट्ठिदिबंधोसरणाणि वि करेदि। तेहिंतो संखेग्जसहस्सगुणे अणुभागकंडयवादे करदि।
= वह एक भी कर्म का क्षय नहीं करता है, किंतु प्रत्येक समय में असंख्यातगुणित रूप से कर्मप्रदेशों की निर्जरा करता है। एक-एक अंतर्मुहूर्त में एक स्थिति कांडक का घात करता हुआ अपने काल के भीतर संख्यात हजार स्थिति कांडकों का घात करता है। और उतने ही स्थिति बंधापसरण करता है। तथा उनसे संख्यात हजार गुणे अनुभागकांडकों का घात करता है।
पूर्वत्रोत्तरत्र च उपशमं क्षयं वापेक्ष्य उपशमकः क्षपक इति च घृतघटवदुपचर्यते।
= आगे होने वाले उपशम या क्षय की दृष्टि से इस गुणस्थान में भी उपशमक और क्षपक व्यवहार घी के घड़े की तरह हो जाता है।
धवला पुस्तक 1/1,1,16/181/4अक्षपकानुपशमकानां कथं तद्व्यपदेशश्चेन्न, भाविनि भूतवदुपचारतस्तत्सिद्धेः। सत्येवमतिप्रसंगः स्यादिति चेन्न, असति प्रतिबंधरि मरणे नियमेन चारित्रमोहक्षपणोपशमकारिणां तदुन्मुखानामुपचारभाजामुपलंभात्।
= प्रश्न-आठवें गुणस्थान में न तो कर्मो का क्षय ही होता है, और न उपशम ही फिर इस गुणस्थानवर्ती जीवों को क्षपक और उपशमक कैसे कहा जा सकता है? उत्तर-नहीं; क्योंकि भावी अर्थ में भूतकालीन अर्थ के समान उपचार कर लेने से आठवें गुणस्थान में क्षपक और उपशमक व्यवहार की सिद्धि हो जाती है। प्रश्न-इस प्रकार मानने पर तो अतिप्रसंग दोष प्राप्त हो जायेगा। उत्तर-नहीं, क्योंकि प्रतिबंधक मरण के अभाव में नियम से चारित्र-मोह का उपशम करनेवाले तथा चारित्रमोह का क्षय करने वाले, अतएव उपशमन व क्षपण के सन्मुख हुए और उपचार से क्षपक या उपशमक संज्ञा को प्राप्त होने वाले जीवों के आठवें गुणस्थान में भी क्षपक या उपशमक संज्ञा बन जाती है
(धवला पुस्तक 5/1,7,9/205/4)
धवला पुस्तक 5/1,7,9/205/2उवसमसमणसत्तिसमण्णिदअपुव्वकरणस्य तदत्थित्ताविरोहा।
= उपशमन शक्तिसे समन्वित अपूर्वकरणसंयतके औपशमिक भावके अस्तित्वको माननेमें कोई विरोध नहीं है।
धवला पुस्तक 5/1,7,9/206/1अपुव्वकरणस्स अविट्ठकम्मस्स कंध खइयो भावो। ण तस्स वि कम्मक्खयणिमित्तपरिणामुवलंभादो।....उवयारेण वा अपुव्वकरणस्स खइओ भावो। उवयारे आसयिज्जमाणे अइप्पसंगो किण्ण होदीदि चे ण, पच्चासत्तीदो अइप्पसंगपडिसेहादो।
= प्रश्न:- किसी भी कर्म के नष्ट नहीं करने वाले अपूर्वकरण संयत के क्षायिकभाव कैसे माना जा सकता है? उत्तर-नहीं, क्योंकि उसके भी कर्म क्षय के निमित्तभूत परिणाम पाये जाते हैं।....अथवा उपचार से अपूर्वकरणसंयत के क्षायिकभाव मानना चाहिए। प्रश्न-इस प्रकार सर्वत्र उपचार का आश्रय करने पर अतिप्रसंग दोष क्यों न आयेगा? उत्तर-नहीं, क्योंकि प्रत्यासत्ति अर्थात् समीपवर्ती अर्थ के प्रसंग से अतिप्रसंग दोष का प्रतिबंध हो जाता है।
धवला पुस्तक 7/2,1,49/93/5खवगुवसामगअपुव्वकरणपढमसमयप्पहुडि थोवथोवक्खवणुवसामणकज्जणिप्पत्तिदंसणादो। पडिसमयं कज्जणिप्पत्तीए विणा चरिमसमए चेव णिप्पज्जमाणकज्जाणुवलंभादो च।
= क्षपक व उपशामक अपूर्वकरण के प्रथम समय से लगाकर थोड़े-थोड़े क्षपण व उपशामन रूप कार्य की निष्पत्ति देखी जाती है। यदि प्रत्येक समय कार्य की निष्पत्ति न हो तो अंतिम समय में भी कार्य पूरा होता नहीं पाया जा सकता।
देखें सम्यग्दर्शन - IV.2.10 दर्शनमोह का उपशम करने वाला जीव उपद्रव आने पर भी उसका उपशम किये बिना नहीं रहता।
पुराणकोष से
चौदह गुणस्थानों में आठवाँ गुणस्थान । इस गुणस्थान में जीव के प्रतिक्षण अपूर्व-अपूर्व (नये-नये) परिणाम होते हैं । इस करण मे अध:करण के समान जीव स्थिति और अनुभाग बंध तो कम करता ही रहता है साथ ही वह स्थिति और अनुभाग बंध का संक्रमण और निर्जरा करता हुआ उन दीपों के अग्रभाग को भी नष्ट कर देता है । ऐसे जीव उपशमक और क्षपक दोनों प्रकारों के होते हैं । महापुराण 20. 252-255, हरिवंशपुराण - 3.80, 83 , 142 देखें गुणस्थान