अपूर्व कृष्टि
From जैनकोष
क्षपणासार/502 भाषा—
पूर्व समय विषै जे पूर्वोक्त कृष्टि करी थी (देखें संग्रहकृष्टि व अंतरकृष्टि कृष्टि-4 ) तिनि विषै 12 संग्रहकृष्टिनि की जे जघन्य (अंतर) कृष्टि, तिनतै (भी) अनंतगुणा घटता अनुभाग लिये, (ताकै) नीचे केतीक नवीन कृष्टि अपूर्व शक्ति लिये युक्त करिए है। याही तै इसका नाम अधस्तन कृष्टि जानना। भावार्थ–जो पहले से प्राप्त न हो बल्कि नवीन की जाये उसे अपूर्व कहते हैं। कृष्टिकरण काल के प्रथम समय में जो कृष्टियाँ की गयीं वे तो पूर्वकृष्टि हैं। परंतु द्वितीय समय में जो कृष्टि की गयीं वे अपूर्वकृष्टि हैं, क्योंकि इनमें प्राप्त जो उत्कृष्ट अनुभाग है वह पूर्व कृष्टियों के जघन्य अनुभाग से भी अनंतगुणा घटता है। अपूर्व अनुभाग के कारण इसका नाम अपूर्वकृष्टि है और पूर्व की जघन्य कृष्टि के नीचे बनायी जाने के कारण इसका नाम अधस्तनकृष्टि है। पूर्व समय विषै करी जो कृष्टि, तिनिके समान ही अनुभाग लिये जो नवीन कृष्टि, द्वितीयादि समयों में की जाती है वे पार्श्वकृष्टि कहलाती हैं, क्योंकि समान होने के कारण पंक्ति विषै, पूर्वकृष्टि के पार्श्व में ही उनका स्थान है।
-और देखें कृष्टि ।