अभव्य: Difference between revisions
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<div class="HindiText"> <p> मोक्ष प्राप्त करने के लिए अयोग्य जीव । ऐसे प्राणी जिनेंद्र प्रतिपादित बोधि प्राप्त नहीं कर पाते, रत्नत्रय मार्ग भी इन्हें नहीं मिल पाता और ये मिथ्यात्व के उदय से दूषित रहते हैं । ऐसे जीवों का संसार सागर अनादि और अनंत होता है । ये उचित समय पर सुपात्रों को दान नहीं दे पाते और कुक्षेत्र में इनकी मृत्यु होती है । इंद्रियों के भेद से ये पांच प्रकार के होते है― एकेंद्रिय, द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय और पंचेंद्रिय । ये पाँचों भव्य और अभव्य दोनों प्रकार के होते हैं । <span class="GRef"> महापुराण 24.129,71.198, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_105#146|पद्मपुराण - 105.146]], 203, 260-261, 2.158, 7.317, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 3. 101, 106, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 16.63, </span></p> | <div class="HindiText"> <p class="HindiText"> मोक्ष प्राप्त करने के लिए अयोग्य जीव । ऐसे प्राणी जिनेंद्र प्रतिपादित बोधि प्राप्त नहीं कर पाते, रत्नत्रय मार्ग भी इन्हें नहीं मिल पाता और ये मिथ्यात्व के उदय से दूषित रहते हैं । ऐसे जीवों का संसार सागर अनादि और अनंत होता है । ये उचित समय पर सुपात्रों को दान नहीं दे पाते और कुक्षेत्र में इनकी मृत्यु होती है । इंद्रियों के भेद से ये पांच प्रकार के होते है― एकेंद्रिय, द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय और पंचेंद्रिय । ये पाँचों भव्य और अभव्य दोनों प्रकार के होते हैं । <span class="GRef"> महापुराण 24.129,71.198, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_105#146|पद्मपुराण - 105.146]], 203, 260-261, 2.158, 7.317, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_3#101|हरिवंशपुराण - 3.101]],[[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_3#106|हरिवंशपुराण - 3.106]], </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 16.63, </span></p> | ||
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Latest revision as of 14:39, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
सर्वार्थसिद्धि/2/7/161/3 सम्यग्दर्शनादिभावेन भविष्यतीति भव्यः। तद्विपरीतोऽभव्यः। = जिसके सम्यग्दर्शन आदि भाव प्रकट होने की योग्यता है वह भव्य कलहाता है। अभव्य इसका उलटा है ( राजवार्तिक/2/7/8/111/7)।
पंचसंग्रह/प्राकृत/155-156 संखेज्ज असंखेज्जा अणंतकालेण चावि ते णियमा। सिज्झंति भव्वजीवा अभव्वजीवा ण सिज्झंति।155। ...भविया सिद्धी जेसिं जीवाणं ते भवंति भवसिद्धा। तव्विवरीयाऽभव्वा संसाराओ ण सिज्झंति।156। = जो भव्य जीव हैं वे नियम से संख्यात, असंख्यात व अनंतकाल के द्वारा मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं परंतु अभव्य जीव कभी भी मोक्ष प्राप्त नहीं कर पाते हैं। जो जीव सिद्ध पद की प्राप्ति के योग्य हैं उन्हें भवसिद्ध कहते हैं। और उनसे विपरीत जो जीव संसार से छूटकर सिद्ध नहीं होते वे अभव्य हैं।155-156। ।
और देखें भव्य ।
पुराणकोष से
मोक्ष प्राप्त करने के लिए अयोग्य जीव । ऐसे प्राणी जिनेंद्र प्रतिपादित बोधि प्राप्त नहीं कर पाते, रत्नत्रय मार्ग भी इन्हें नहीं मिल पाता और ये मिथ्यात्व के उदय से दूषित रहते हैं । ऐसे जीवों का संसार सागर अनादि और अनंत होता है । ये उचित समय पर सुपात्रों को दान नहीं दे पाते और कुक्षेत्र में इनकी मृत्यु होती है । इंद्रियों के भेद से ये पांच प्रकार के होते है― एकेंद्रिय, द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, चतुरिंद्रिय और पंचेंद्रिय । ये पाँचों भव्य और अभव्य दोनों प्रकार के होते हैं । महापुराण 24.129,71.198, पद्मपुराण - 105.146, 203, 260-261, 2.158, 7.317, हरिवंशपुराण - 3.101,हरिवंशपुराण - 3.106, वीरवर्द्धमान चरित्र 16.63,