ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 105
From जैनकोष
एक सौ पांचवां पर्व
अथानंतर तृण और काष्ठ से भरी उस वापी को देख श्रीराम व्याकुलचित्त होते हुए इस प्रकार विचार करने लगे कि ॥11॥ गुणों की पुंज, महा सौंदर्य से संपन्न एवं कांति और शील से युक्त इस कांता को अब पुनः कैसे देख सकूँगा ॥2॥ खिली हुई मालती की माला के समान सुकुमार शरीर को धारण करने वाली यह कांता निश्चित ही अग्नि के द्वारा स्पृष्ट होते ही नाश को प्राप्त हो जायगी ॥3।। यदि यह राजा जनक के कुल में उत्पन्न नहीं हुई होती तो इस लोकापवाद को तथा अग्नि में मरण को प्राप्त नहीं होती ॥4॥ इसके बिना मैं क्षण भर के लिए भी और किससे सुख प्राप्त कर सकूँगा ? इसके साथ वन में निवास करना भी अच्छा है पर इसके बिना स्वर्ग में रहना भी शोभा नहीं देता ।।5।। यह भी महा निश्चिंत हृदया है कि मरने के लिए उद्यत हो गई। अब दृढ़ता के साथ अग्नि में प्रवेश करने वाली है सो इसे कैसे रोका जाय ? लोगों के समक्ष रोकने में लज्जा उत्पन्न हो रही है ॥6॥ उस समय बड़े जोर से हल्ला करने वाला यह सिद्धार्थ नामक क्षुल्लक भी चुप बैठा है, अतः इसे रोकने में क्या बहाना करूँ? ॥7।। अथवा जिसने जिस प्रकार के मरण का अर्जन किया है नियम से वह उसी मरण को प्राप्त होता है उसे रोकने के लिए कौन समर्थ है ? ।।8।। उस समय जब कि यह पतिव्रता लवणसमुद्र के ऊपर हरकर ले जाई जा रही थी तब 'यह मुझे नहीं चाहती है' इस भाव से कुपित हो रावण ने खड̖ग से इसका शिर क्यों नहीं काट डाला ? जिससे कि यह इस अत्यंत दुस्तर संशय को प्राप्त हुई है ॥9-10॥ मर जाना अच्छा है परंतु दुःसह वियोग अच्छा नहीं है क्योंकि श्रुति तथा स्मृति को हरण करने वाला वियोग कोई अत्यंत निंदित पदार्थ है ।।11।। विरह तो जीवन-पर्यंत के लिए चित्त का संताप प्रदान करता रहता है और 'मर गई' यह सुन उस संबंधी कथा और इच्छा तत्काल छूट जाती है ॥12॥ इस प्रकार राम के चिंतातुर होने पर वापी में अग्नि जलाई जाने लगी । दयावती स्त्रियाँ रो उठीं ॥13॥
तदनंतर अत्यधिक उठते हुए धूम से आकाश अंधकारयुक्त हो गया और ऐसा जान पड़ने लगा मानो असमय में प्राप्त हुए वर्षाकालीन मेघों से ही व्याप्त हो गया हो ।।14।। उस समय जगत् ऐसा जान पड़ने लगा मानो भ्रमरों से युक्त, कोकिलाओं से युक्त अथवा कबूतरों से युक्त दूसरा ही जगत् उत्पन्न हुआ है ॥15।। सूर्य आच्छादित हो गया सो ऐसा जान पड़ता था मानो दया से आहृदय होने के कारण उस प्रकार के उपसर्ग को देखने के लिए असमर्थ होता हुआ शीघ्र ही कहीं जा छिपा हो ॥16।। उस वापी में ऐसी भयंकर अग्नि प्रज्वलित हुई कि समस्त दिशाओं में जिसका महावेग फैल रहा था और जो कोशों प्रमाण लंबी-लंबी ज्वालाओं से विकराल थी ॥17॥ उस समय उस अग्नि को देख इस प्रकार संशय उत्पन्न होता था कि क्या एक साथ उदित हुए हजारों सूर्यों से आकाश आच्छादित हो रहा है ? अथवा पाताललोक के पलाश वृक्षों का समूह क्या सहसा ऊपर उठ आया है ? अथवा आकाश को क्या प्रलयकालीन संध्या ने घेर लिया है ? अथवा यह समस्त जगत् एक सुवर्णरूप होने की तैयारी कर रहा है अथवा समस्त संसार बिजलीमय हो रहा है अथवा जीतने की इच्छा से क्या दूसरा चलता-फिरता मेरु ही उत्पन्न हुआ है ? ॥18-20॥
तदनंतर जिसका मन अत्यंत दृढ़ था ऐसी सीता ने उठकर क्षणभर के लिए कायोत्सर्ग किया, भावना से प्राप्त जिनेंद्र भगवान् की स्तुति की, ऋषभादि तीर्थंकरों को नमस्कार किया, सिद्ध परमेष्ठी, समस्त साधु और मुनिसुव्रत जिनेंद्र, जिनके कि तीर्थ की उस समय हर्ष के धारक एवं परम ऐश्वर्य से युक्त देव असुर और मनुष्य सदा सेवा करते हैं और मन में स्थित सर्व प्राणि हितैषी आचार्य के चरणयुगल इन सबको नमस्कार कर उदात्त गांभीर्य और अत्यधिक विनय से युक्त सीता ने कहा ।।21-24॥ कि मैंने राम को छोड़कर किसी अन्य मनुष्य को स्वप्न में भी मन-वचन और काय से धारण नहीं किया है यह मेरा सत्य है ।।25।। यदि मैं यह मिथ्या कह रही हूँ तो यह अग्नि दूर रहने पर भी मुझे क्षण भर में भस्मभाव को प्राप्त करा दे― राख का ढेर बना दे ॥26॥ और यदि मैंने राम के सिवाय किसी अन्य मनुष्य को मन से भी धारण नहीं किया है तो विशुद्धि से सहित मुझे यह अग्नि नहीं जलावे ॥27।। यदि मैं मिथ्यादृष्टि, पापिनी, क्षुद्रा और व्यभिचारिणी होऊँगी तो यह अग्नि मुझे जला देगी और यदि सदाचार में स्थित सती होऊँगी तो नहीं जला सकेगी ॥28॥
इतना कहकर उस देवी ने उस अग्नि में प्रवेश किया परंतु आश्चर्य की बात कि वह अग्नि स्फटिक के समान स्वच्छ, सुखदायी तथा शीतल जल हो गई ॥29॥ मानो सहसा पृथिवी को फोड़ कर वेग से उठते हुए जल से वह वापिका लबालब भर गई तथा चंचल तरंगों से व्याप्त हो गई ॥30॥ वहाँ अग्नि थी इस बात की सूचना देने वाले न लूगर, न काष्ठ, न अंगार और न तृणादिक कुछ भी दिखाई देते थे ॥31।। उस वापिका में ऐसी भयंकर भँवरें उठने लगी जिनके कि चारों ओर फेनों के समूह चक्कर लगा रहे थे जो अत्यधिक वेग से सुशोभित थीं तथा अत्यंत गंभीर थीं ॥32।। कहीं मृदंग जैसा शब्द होने से 'गुलु गुल' शब्द होने लगा, कहीं 'भुं भुंदभुंभ' की ध्वनि उठने लगी और कहीं 'पट पट' की आवाज आने लगी ॥33॥ उस वापी में कहीं हुँकार, कहीं लंबी-चौड़ी धूंकार, कहीं दिमिदिमि, कहीं जुगुद् जुगुद्, कहीं कल कल ध्वनि, कहीं शसद-भसद, और कहीं चाँदी के घंटा जैसी आवाज आ रही थी ॥34-35।। इस प्रकार जिसमें क्षोभ को प्राप्त हुए समुद्र के समान शब्द उठ रहा था ऐसी वह वापी क्षणभर में तट पर स्थित मनुष्यों को डुबाने लगी ॥36॥ वह जल क्षणभर में घुटनों के बराबर, फिर नितंब के बराबर, फिर निमेष मात्र में स्तनों के बराबर हो गया ॥37॥ वह जल पुरुष प्रमाण नहीं हो पाया कि उसके पूर्व ही पृथिवी पर चलने वाले लोग भयभीत हो उठे तथा क्या करना चाहिए इस विचार से दुःखी विद्याधर आकाश में जा पहुँचे ॥38॥ तदनंतर तीव्र वेग से युक्त जल जब कंठ का स्पर्श करने लगा तब लोग व्याकुल हो कर मंचों पर चढ़ गये किंतु थोड़ी देर बाद वे मंच भी डूब गये ॥39॥ तदनंतर जब वह जल शिर को उल्लंघन कर गया तब कितने ही लोग तैरने लगे। उस समय उनकी एक भुजा वस्त्र तथा बच्चों को संभालने के लिए ऊपर की ओर उठ रही था ॥40॥ "हे देवि ! रक्षा करो, हे मान्ये ! हे लक्ष्मि ! हे सरस्वति ! हे महाकल्याणि ! हे धर्मसहिते ! हे सर्वप्राणि हितैषिणि ! रक्षा करो ॥41।। हे महापतिव्रते ! हे मुनिमानसनिर्मले ! दया करो। इस प्रकार जल से भयभीत मनुष्यों के मुख से शब्द निकल रहे थे ॥42॥
तदनंतर वापीरूपी वधू, तरंगरूपी हाथों के द्वारा कमल के मध्यभाग के समान कोमल एवं नखों से सुशोभित राम के चरणयुगल का स्पर्श कर क्षणभर में सौम्यदशा को प्राप्त हो गई। उसकी मलिन भँवरें शांत हो गई और उसका भयंकर शब्द छूट गया। इससे लोग भी सुखी हुए ॥43-44॥ वह वापी क्षण भर में नील कमल, सफेद कमल तथा सामान्य कमलों से व्याप्त हो गई और सुगंधि से मदोन्मत्त भ्रमर समूह के संगीत से मनोहर दिखने लगी ॥45॥ सुंदर शब्द करने वाले क्रौंच, चक्रवाक, हंस तथा बदक आदि पक्षियों के समूह से सुशोभित हो गई ॥46॥ मणि तथा स्वर्ण निर्मित सीढ़ियों और लहरों के बीच में स्थित मरकतमणि की कांति के समान कोमल पुष्पों से उसके किनारे अत्यंत सुंदर दिखने लगे ॥47॥
अथानंतर उस वापी के मध्य में एक विशाल, विमल, शुभ, खिला हुआ तथा अत्यंत कोमल सहस्त्र दल कमल प्रकट हुआ और उस कमल के मध्य में एक ऐसा सिंहासन स्थित हुआ कि जिसका आकार नाना प्रकार के बेल-बूटों से व्याप्त था, जो रत्नों के प्रकाश रूपी वस्त्र से वेष्टित था, और कांति से चंद्रमंडल के समान था ।।48-49॥ तदनंतर 'डरो मत' इस प्रकार उत्तम देवियाँ जिसे सांत्वना दे रही थीं ऐसी सीता सिंहासन पर बैठाई गई। उस समय आश्चर्यकारी अभ्युदय को धारण करने वाली सीता लक्ष्मी के समान सुशोभित हो रही थी ॥50।। आकाश में स्थित देवों के समूह ने संतुष्ट होकर पुष्पांजलियों के साथ-साथ 'बहुत अच्छा, बहुत अच्छा' यह शब्द छोड़े ॥51॥ गुंजा नाम के मनोहर वादित्र गूंजने लगे, नगाड़े जोरदार शब्द करने लगे, नांदी लोग अत्यधिक हर्षित हो उठे, काहल मधुर शब्द करने लगे, शंखों के समूह बज उठे, तूर्य गंभीर शब्द करने लगे, बाँसुरी स्पष्ट शब्द कर उठी तथा काँसे की झाँझ मधुर शब्द करने लगीं ॥52-53।। वल्गित, वेडित, उद्धृष्ट तथा क्रुष्ट आदि के करने में तत्पर, संतोष से युक्त विद्याधरों के समूह परस्पर एक दूसरे से मिलकर नृत्य करने लगे ॥54॥ सब ओर से यही ध्वनि आकाश और पृथिवी के अंतराल को व्याप्त कर उठ रही थी कि श्रीमान् राजा जनक की पुत्री और श्रीमान् बलभद्र श्रीराम की परम अभ्युदयवती पत्नी की जय हो ॥55॥ अहो बड़ा आश्चर्य है, बड़ा आश्चर्य है इसका शील अत्यंत निर्मल है ।।55-56॥
तदनंतर माता के अकृत्रिम स्नेह में जिनके हृदय डूब रहे थे ऐसे लवण और अंकुश शीघ्रता से जल को तैर कर सीता के पास पहुँच गये ॥57॥ पुत्रों की प्रीति से बढ़ी हुई सीता ने आश्वासन देकर जिनके मस्तक पर सूंघा था तथा जिनका शरीर विनय से नम्रीभूत था ऐसे दोनों पुत्र उसके दोनों ओर खड़े हो गये ॥58।। अग्नि में शुद्ध हुई स्वर्णमय यष्टि के समान जिसका शरीर अत्यधिक प्रभा के समूह से व्याप्त था तथा जो कमलरूपी गृह में निवास कर रही थी ऐसी सीता को देख बहुत भारी अनुराग से अनुरक्त चित्त होते हुए राम उसके पास गये ।।59-60।। और बोले कि हे देवि ! प्रसन्न होओ, तुम कल्याणवती हो, उत्तम मनुष्यों के द्वारा पूजित हो, तुम्हारा मुख शरद् ऋतु के पूर्ण चंद्रमा के समान है, तथा तुम अत्यंत अद्भुत चेष्टा की करने वाली हो ॥61।। अब ऐसा अपराध फिर कभी नहीं करूँगा अथवा अब तुम्हारा दुःख बीत चुका है। हे साध्वि ! मेरा दोष क्षमा करो ॥62।। तुम आठ हजार स्त्रियों की परमेश्वरी हो। उनके मस्तक पर विद्यमान हो, आज्ञा देओ और मेरे ऊपर भी अपनी प्रभुता करो ॥63।। हे सति ! जिसका चित्त अज्ञान के आधीन था ऐसे मेरे द्वारा लोकापवाद के भय से दिया दुःख तुमने प्राप्त किया है ।।64।। हे प्रिये ! अब वन-अटवी सहित तथा विद्याधरों से युक्त इस समुद्रांत पृथिवी में मेरे साथ इच्छानुसार विचरण करो ॥65।। समस्त जगत् के द्वारा परम आदरपूर्वक पूजी गई तुम, अपने पृथिवी तल पर देवों के समान भोगों को भोगो ॥66॥ हे देवि ! उदित होते हुए सूर्य के समान तथा इच्छानुसार गमन करने वाले पुष्पक विमान पर आरूढ़ हो तुम मेरे साथ सुमेरु के शिखरों को देखो अर्थात् मेरे साथ सर्वत्र भ्रमण करो ॥67॥ हे कांते ! जो-जो स्थान तुम्हारे चित्त को हरण करने वाले हैं उन उन स्थानों में मुझ आज्ञाकारी के साथ यथेच्छ क्रीड़ा की जाय ॥68॥ हे मनस्विनि ! देवांगनाओं के समान विद्याधरों की उत्कृष्ट स्त्रियों से घिरी रह कर तुम शीघ्र ही ऐश्वर्य का उपभोग करो। तुम्हारे सब मनोरथ सिद्ध हुए हैं ॥69॥ हे प्रशंसनीये ! मैं दोष रूपी सागर में निमग्न हूँ तथा विवेक से रहित हूँ। अब तुम्हारे समीप आया हूँ सो प्रसन्न होओ और क्रोध का परित्याग करो ।।70।।
तदनंतर सीता ने कहा कि हे राजन् ! मैं किसी पर कुपित नहीं हूँ, तुम इस तरह विषाद को क्यों प्राप्त हो रहे हो ? ॥71।। इसमें न तुम्हारा दोष है न देश के अन्य लोगों का। यह तो परिपाक में आने वाले अपने कर्म के द्वारा दिया हुआ फल है ॥72॥ हे बलदेव ! मैंने तुम्हारे प्रसाद से देवों के समान भोग भोगे हैं इसलिए उनकी इच्छा नहीं । अब तो वह काम करूँगी जिससे फिर स्त्री न होना पड़े ॥73॥ इन विनाशी, क्षुद्र प्राप्त हुए आकुलतामय अत्यंत कठोर एवं मूर्ख मनुष्यों के द्वारा सेवित इन भोगों से मुझे क्या प्रयोजन है ? ।।74।। लाखों योनियों के मार्ग में भ्रमण करती-करती इस भारी दुःख को प्राप्त हुई हूँ। अब मैं दुःखों का क्षय करने की इच्छा से जैनेश्वरी दीक्षा धारण करती हूँ ॥75॥ यह कह उसने निःस्पृह हो अशोक के नवीन पल्लव तुल्य हाथ से स्वयं केश उखाड़ कर राम के लिए दे दिये ॥76॥ इंद्रनील मणि के समान कांति वाले अत्यंत कोमल मनोहर केशों को देख राम मूर्च्छा को प्राप्त हो पृथिवी पर गिर पड़े ॥77।। इधर जब तक चंदन आदि के द्वारा राम को सचेत किया जाता है तब तक सीता पृथ्वीमति आर्यिका से दीक्षित हो गई ।।78॥
तदनंतर देवकृत प्रभाव से जिसके सब विघ्न दूर हो गये थे ऐसी पतिव्रता सीता वस्त्रमात्र परिग्रह को धारण करने बालो आर्यिका हो गई ॥79॥ महाव्रतों के द्वारा जिसका शरीर पवित्र हो चुका था तथा जो महासंवेग को प्राप्त थी ऐसी सीता देव और असुरों के समागम से सहित उत्तम उद्यान में चली गई ।।80।। इधर मोतियों की माला, गोशीर्षचंदन तथा व्यजन आदि की वायु से जब राम की मूर्च्छा दूर हुई तब वे उसी दिशा की ओर देखने लगे परंतु वहाँ सीता को न देख उन्हें दशों दिशाएँ शून्य दिखने लगीं। अंत में शोक और क्रोध के कारण कलुषित चित्त होते हुए महागज पर सवार हो चले ।।81-82।। उस समय उनके शिर पर सफेद छत्र फहरा रहा था, चमरों के समूह ढोरे जा रहे थे, तथा वे स्वयं अनेक राजाओं से घिरे हुए थे। इसलिए देवों से आवृत इंद्र के समान जान पड़ते थे, उन्होंने लांगल नामक शस्त्र हाथ में ले रक्खा था, तरुण कोकनद-रक्त कमल के समान उनकी कांति थी और वे क्षण-क्षण में लोचन बंद कर लेते थे तदनंतर उच्च स्वर के धारक राम ने ऐसे वचन कहे जो आत्मीयजनों को भी भय देने वाले थे ॥83-84॥
उन्होंने कहा कि प्रिय प्राणी की मृत्यु हो जाना श्रेष्ठ है परंतु विरह नहीं; इसीलिए मैंने पहले दृढ़चित्त हो कर अग्नि-प्रवेश की अनुमति दी थी ।।85।। जब यह बात थी तब फिर क्यों अविवेकी देवों ने सीता का यह अतिशय किया जिससे कि उसने यह दीक्षा का उपक्रम किया ॥86॥ हे देवो! यद्यपि उसने केश उखाड़ लिये हैं तथापि तुम लोग यदि उस दशा में भी उसे मेरे लिए शीघ्र नहीं सौंप देते हो तो मैं आज से तुम्हें अदेव कर दूंगा-देव नहीं रहने दूंगा और जगत् को आकाश बना दूंगा ॥87॥ न्याय की व्यवस्था करने वाले देवों द्वारा मेरी पत्नी कैसे हरी जा सकती है ? वे मेरे सामने खड़े हों तथा शस्त्र ग्रहण करें, कहाँ गये वे सब ? ॥88। इस प्रकार जो अनेक चेष्टाएँ कर रहे थे तथा विविध नीति को जानने वाले लक्ष्मण जिन्हें अनेक उपायों से सांत्वना दे रहे थे ऐसे राम, जहाँ देवों का समागम था ऐसे उद्यान में पहुँचे ॥89॥
तदनंतर उन्होंने मुनियों में श्रेष्ठ उन सर्वभूषण केवली को देखा कि जो गांभीर्य और धैर्य से संपन्न थे, उत्तम सिंहासन पर विराजमान थे ॥90।। जलती हुई अग्नि से कहीं अधिक कांति को धारण कर रहे थे, परम ऋद्धियों से युक्त थे, शरणागत मनुष्यों के पाप को जलाने वाले शरीर को धारण कर रहे थे ॥91। जो केवलज्ञान रूपी तेज के द्वारा देवों में भी सुशोभित हो रहे थे, मेघों के आवरण से रहित उदित हुए सूर्य मंडल के समान जान पड़ते थे, ॥92॥ जो चक्षुरूपी कुमुदिनियों के लिए प्रिय थे, अथवा कलंकरहित चंद्रमा के समान थे, और मंडलाकार परिणत अपने शरीर के उत्तम तेज से आवृत थे ॥93॥
तदनंतर जो अभी-अभी ध्यान से उन्मुक्त हुए थे तथा सर्व सुरासुर जिन्हें नमस्कार करते थे ऐसे उन मुनिश्रेष्ठ को देखकर राम हाथी से नीचे उतर कर उनके समीप गये ॥94॥ तत्पश्चात् गृहस्थों के स्वामी श्रीराम ने शांत हो भक्तिपूर्वक अंजलि जोड़ प्रदक्षिणा देकर उन मुनिराज को मन-वचन-काय से नमस्कार किया ॥95॥ अथानंतर उन मुनिराज की शरीर संबंधी कांति के कारण जिनके मुकुट निष्प्रभ हो गये थे तथा लज्जा के कारण ही मानो चमकते हुए कुंडलों द्वारा जिनके कपोल आलिंगित थे, जिन्होंने भावपूर्वक नमस्कार किया था, और जो हाथ जोड़कर मस्तक से लगाये हुए थे ऐसे देवेंद्र वहाँ नरेंद्र के समान यथायोग्य बैठे थे ॥96-97॥ नाना अलंकारों को धारण करने वाले चारों प्रकार के देव, मुनिराज के समीप ऐसे दिखाई देते थे मानो सूर्य के समीप उसकी किरणें ही हो ॥98॥ मुनिराज के निकट स्थित राजाधिराज राम भी ऐसे सुशोभित हो रहे थे मानो सुमेरु के शिखर के समीप कल्पवृक्ष ही हो ।।99।। मुकुट और कुंडलों से सुशोभित लक्ष्मण भी, किसी पर्वत के समीप स्थित बिजली से सहित मेघ के समान सुशोभित हो रहे थे ॥100। महाशत्रुओं को भय देने में निपुण सुंदर शत्रुघ्न भी द्वितीय कुवेर के समान सुशोभित हो रहा था ॥101॥ गुण और सौभाग्य के तरकस तथा उत्तम लक्षणों से युक्त वे दोनों वीर लवण और अंकुश सूर्य और चंद्रमा के समान सुशोभित हो रहे थे ॥102।। वस्त्रमात्र परिग्रह को धारण करने वाली आर्या सीता यद्यपि बाह्य अलंकारों से रहित थी तथापि वह ऐसी सुशोभित हो रही थी मानो सूर्य की मूर्ति से ही संबद्ध हो ॥103॥
तदनंतर धर्मश्रवण के इच्छुक तथा विनय से सुशोभित समस्त मनुष्य और देव जब यथायोग्य पृथिवी पर बैठ गये तब शिष्य समूह में प्रधान, अभयनिनाद नामक, धीर वीर मुनि ने संदेह रूपी संताप को शांत करने के लिए सर्वभूषण मुनिराज से पूछा ।।104-105॥ तदनंतर मुनिराज ने वह वचन कहे कि जो अत्यंत विस्तृत थे, चातुर्यपूर्ण थे, शुद्ध थे, तत्त्वार्थ के प्रतिपादक थे, मुनियों के प्रबोधक थे और कर्मों का क्षय करने वाले थे ॥106॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि उस समय उन योगिराज ने विद्वानों तथा महात्माओं के लिए जो रहस्य कहा था वह समुद्र के समान भारी था। हे श्रेणिक ! मैं तो यहाँ उसका एक कण ही कहता हूँ ॥107।। उन परम योगी ने जो वस्तुतत्त्व का निरूपण किया था वह प्रशस्त दर्शन और ज्ञान के धारक पुरुषों के लिए आनंद देने वाला था तथा भव्य जीवों को इष्ट था ॥10॥
उन्होंने कहा कि यह लोक अनंत अलोकाकाश के मध्य में स्थित दो मृदंगों के समान है, नीचे, बीच में तथा ऊपर की ओर स्थित है ।।106।। इस तरह तीन प्रकार से स्थित होने के कारण इस लोक को त्रिलोक अथवा त्रिविध कहते हैं। मेरु पर्वत के नीचे सात भूमियाँ हैं ॥110॥ उनमें पहली भूमि रत्नप्रभा है जिसके अब्बहुल भाग को छोड़कर ऊपर के दो भागों में भवनवासी तथा व्यंतर देव रहते हैं । उस रत्नप्रभा के नीचे महाभय उत्पन्न करने वाली शर्कराप्रभा, बालुकाप्रभा, पंकप्रभा, धूमप्रभा, तमःप्रभा और महातमःप्रभा नाम की छह भूमियाँ और हैं जो अत्यंत तीव्र दुःख को देने वाली हैं तथा निरंतर घोर अंधकार से व्याप्त रहती हैं ।।111-112॥ उनमें से कितनी ही भूमियाँ संतप्त लोहे के तल के समान दुःखदायी गरम स्पर्श होने के कारण अत्यंत विषम और दुर्गम हैं तथा कितनी ही शीत की तीव्र वेदना से युक्त हैं। उन भूमियों में चर्बी और रुधिर की कीच मची रहती है ।।113।। जिनके शरीर सड़ गये हैं ऐसे अनेक कुत्ते, सर्प तथा मनुष्यादि की जैसी मिश्रित गंध होती है वैसी ही उन भूमियों की बतलाई गई है ॥114॥ वहाँ नाना प्रकार के दुःख-समूह के कारणों को साथ में ले आने वाली महाशब्द करती हुई प्रचंड वायु चलती है ॥115।। स्पर्शन तथा रसना इंद्रिय के वशीभूत जीव उस कर्म का संचय करते हैं कि जिससे वे लोहे के पिंड के समान भारी हो उन नरकों में पड़ते हैं ॥116॥ हिंसा, झूठ, चोरी, परस्त्री संग तथा परिग्रह से निवृत्त नहीं होने वाले मनुष्य पाप के भार से बोझिल हो नरकों में उत्पन्न होते हैं ॥117। जो मनुष्य-जन्म पाकर निरंतर भोगों में आसक्त रहते हैं ऐसे प्रचंडकर्मा मनुष्य नरकभूमि में जाते हैं ॥118।। जो जीव स्वयं पाप करते हैं, दूसरे से कराते है तथा अनुमोदन करते हैं, वे रौद्र तथा आर्तध्यान में तत्पर रहने वाले जीव नरकायु को प्राप्त होते हैं ॥119।। वज्रोपम दीवालों में ठूंस-ठूंस कर भरे हुए पापी जीव नरकों की अग्नि से जलाये जाते हैं और तब वे महाभयंकर शब्द करते हैं ॥120।। जलती हुई अग्नि के समूह से भयभीत हो नारकी, शीतल जल की इच्छा करते हुए वैतरणी नदी की ओर जाते हैं और उसमें अपने शरीर को छोड़ते हैं अर्थात् गोता लगाते हैं ॥121।। गोता लगाते ही अत्यंत तीव्र क्षार के कारण उनके जले हुए शरीर में भारी वेदना होती है। तदनंतर मृगों की तरह भयभीत हो उस असिपत्रवन में पहुँचते हैं ।।122॥ जहाँ कि पापी जीव छाया की इच्छा से इकट्ठे होते हैं परंतु छाया के बदले खड्ग, बाण, चक्र तथा भाले आदि शस्त्रों से छिन्न भिन्न दशा को प्राप्त होते हैं ॥123॥ तीक्ष्ण वायु से कंपित नरक के वृक्षों से प्रेरित तीक्ष्ण अस्त्रों के समूह से वे शरण रहित नारकी छिन्न-भिन्न हो जाते हैं ।।124॥ जिनके पैर, भुजा, स्कंध, कर्ण, मुख, आँख और नाक आदि अवयव कट गये हैं तथा जिनके तालु, शिर, पेट और हृदय विदीर्ण हो गये हैं ऐसे लोग वहाँ गिरते रहते हैं ॥12॥ जिनके पैर ऊपर को उठे हुए हैं ऐसे कितने ही नारकी दूसरे बलवान् नारकियों के द्वारा कुंभीपाक में पकाये जाते हैं और कितने ही कठोर शब्द करते हुए घानियों में पेल दिये जाते हैं ॥126।। तीव्र क्रोध से युक्त शत्रुओं ने जिन्हें मुद्गर से पीड़ित किया है ऐसे कितने ही नारकी अत्यंत तीव्र वेदना से व्याकुल हो पृथिवी पर लोट जाते हैं ॥127॥ तीव्र प्यास से पीड़ित दीन हीन नारकी विह्वल हो पानी माँगते हैं पर पानी के बदले उन्हें पिघला हुआ राँगा और ताँबा दिया जाता है ।।128॥ निकलते हुए तिलगों से भयंकर उस राँगा आदि के द्रव को देखकर वे प्यासे नारकी काँप उठते हैं, उनके चित्त फिर जाते है तथा कंठ आँसुओं से भर जाते हैं ॥129।। वे कहते हैं कि मुझे प्यास नहीं है, छोड़ो-छोड़ो मैं जाता हूँ पर नहीं चाहने पर भी उन्हें बलात् वह द्रव पिलाया जाता है ॥130।। चिल्लाते हुए उन नारकियों को पृथिवी पर गिराकर तथा लोहे के डंडे से उनका मुख फाड़कर उसमें बलात् विष, रक्त तथा ताँबा आदि का द्रव डाला जाता है ॥131॥ वह द्रव उनके कंठ को जलाता और हृदय को फोड़ता हुआ पेट में पहुँचता है और मल की राशि के साथ-साथ बाहर निकल जाता है ।।132॥ तदनंतर जब वे पश्चाताप से दुःखी होते हैं तब उन दीन हीन नारकियों को नरक भूमि के रक्षक मिथ्या शास्त्रों द्वारा कथित पाप का स्मरण दिलाते है ॥133।। वे कहते हैं कि उस समय तुमने बोलने में चतुर होने के कारण गुरुजनों का उल्लंघन कर 'मांस निर्दोष है' यह कहा था सो अब तुम्हारा वह कहना कहाँ गया ? ॥134॥ 'नाना प्रकार के मांस और मदिरा के द्वारा किया हुआ श्राद्ध अधिक फलदायी होता है’, ऐसा जो तुमने पहले कहा था सो अब तुम्हारा वह कहना कहाँ गया ? ॥135॥ यह कहकर उन्हें विक्रिया युक्त नारकी बड़ी निर्दयता से मार-मारकर उन्हीं का शरीर खिलाते हैं तथा वे अत्यंत दीन चेष्टाएँ करते हैं ॥136॥ 'राज्य-अवस्था स्वप्न-दर्शन के समान निःसार है। यह स्मरण दिलाकर उन्हीं से उत्पन्न हुए विडंबनाकारी उन्हें पीडित करते हैं और वे करुणक्रंदन करते हैं ॥137।। गौतमस्वामी कहते हैं कि हे राजन् ! पाप करने वाले जीव नारकियों की भूमि में क्षणभर के लिए भी विश्राम लिये बिना पूर्वोक्त प्रकार के दुःख पाते रहते हैं ॥138।। इसलिए हे शांत हृदय के धारक सत्पुरुषो ! 'यह अधर्म का फल अत्यंत दुःसह है' ऐसा जानकर जिन शासन की सेवा करो ॥139।। अनंतरवर्ती रत्नप्रभाभूमि भवनवासी देवों की निवास भूमि है यह पहले ज्ञात कर चुके हैं। इसके सिवाय देवारण्य वन, सागर तथा द्वीप आदि भी उनके निवास के योग्य स्थान हैं ॥140॥
पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति ये पाँच स्थावर और एक त्रस ये जीवों के छह निकाय कहे गये हैं ॥141॥ धर्म, अधर्म, आकाश, काल, जीव और पुद्गल के भेद से द्रव्य छह प्रकार के हैं ऐसा श्री जिनेंद्रदेव ने रहस्य सहित कहा है ॥142॥ प्रत्येक पदार्थ का सप्तभंगी द्वारा निरूपण करने का जो मार्ग है वह प्रशस्त मार्ग माना गया है । प्रमाण और नय के द्वारा पदार्थों का कथन होता है। पदार्थ के समस्त विरोधी धर्मों का एक साथ वर्णन करना प्रमाण है और किसी एक धर्म का सिद्ध करना नय है ॥143॥ एकेंद्रिय, दो इंद्रिय, तीन इंद्रिय, चार इंद्रिय और पाँच इंद्रिय जीवों में बिना किसी विरोध के सत्त्व-सत्ता-नाम का गुण रहता है और यह अपने प्रतिपक्ष-विरोधी तत्त्व से सहित होता है ।।144॥ वे जीव शरीर की अपेक्षा सूक्ष्म और बादर के भेद से दो प्रकार के जानना चाहिए। उन्हीं जीवों के फिर पर्याप्तक और अपर्याप्तक की अपेक्षा दो भेद और भी कहे गये हैं ॥145।। जीवद्रव्य के भव्य अभव्य आदि भेद भी कहे गये हैं परंतु यह सब भेद संसार अवस्था में ही होते हैं, सिद्ध जीव इन सब भेदों रहित कहे गये हैं ॥146।।
ज्ञेय और दृश्य स्वभावों में जीव का जो अपनी शक्ति से परिणमन होता है वह उपयोग कहलाता है, उपयोग ही जीव का स्वरूप है, यह उपयोग ज्ञान दर्शन के भेद से दो प्रकार का है ॥147॥ ज्ञानोपयोग मतिज्ञानादि के भेद से आठ प्रकार का है, और दर्शनोपयोग चक्षुर्दर्शन आदि के भेद से चार प्रकार का है। जीव के संसारी और मुक्त की अपेक्षा दो भेद हैं तथा संसारी जीव संज्ञी और असंज्ञी भेद से दो प्रकार के हैं ।।148॥ वनस्पतिकायिक तथा पृथिवीकायिक आदि स्थावर कहलाते हैं, शेष त्रस कहे जाते हैं। जो स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और कर्ण इन पाँचों इंद्रियों से सहित हैं वे पंचेंद्रिय कहलाते हैं ॥149॥ पोतज, अंडज तथा जरायुज जीवों के गर्भजन्म कहा गया है तथा देवों और नारकियों के उपपाद जन्म बतलाया गया है ॥150॥ शेष जीवों की उत्पत्ति का कारण सम्मूर्च्छन जन्म है । इस तरह गर्भ, उपपाद और सम्मूर्च्छन की अपेक्षा जन्म के तीन भेद हैं परंतु तीव्र दुःखों से सहित योनियों अनेक प्रकार की कही गई हैं ॥151॥ औदारिक, वैक्रियिक, आहारक, तैजस और कार्मण ये पाँच शरीर हैं। ये शरीर आगे-आगे सूक्ष्म-सूक्ष्म हैं ऐसा जानना चाहिए ॥152।। औदारिक, वैक्रियिक और आहारक ये तीन शरीर प्रदेशों की अपेक्षा उत्तरोत्तर असंख्यात गुणित हैं तथा तैजस और कार्मण ये दो शरीर उत्तरोत्तर अनंत गुणित हैं। तैजस और कार्मण ये दो शरीर आदि संबंध से युक्त हैं अर्थात् जीव के साथ अनादि काल से लगे हुए हैं और उपर्युक्त पाँच शरीरों में से एक साथ चार शरीर तक हो सकते हैं ॥15॥
मध्यम लोक में जंबूद्वीप को आदि लेकर शुभ नाम वाले असंख्यात द्वीप और लवणसमुद्र को आदि लेकर असंख्यात समुद्र कहे गये हैं ॥154॥ ये द्वीप-समुद्र पूर्व के द्वीप-समुद्र से दूने विस्तार वाले हैं, पूर्व-पूर्व को घेरे हुए हैं तथा वलय के आकार हैं। सबके बीच में जंबूद्वीप कहा गया है ॥155।। जंबूद्वीप मेरु पर्वतरूपी नाभि से सहित है, गोलाकार है तथा एक लाख योजन विस्तार वाला है, इसकी परिधि तिगुनी से कुछ अधिक कही गई है ॥156॥ उस जंबूद्वीप में पूर्व से पश्चिम तक लंबे हिमवान्, महाहिमवान्, निषध, नील, रुक्मी और शिखरी ये छह कुलाचल हैं। ये सभी समुद्र के जल से मिले हैं तथा इन्हीं के द्वारा जंबूद्वीप संबंधी क्षेत्रों का विभाग हुआ है ॥157-158।। यह भरत क्षेत्र है इसके आगे हैमवत, उसके आगे हरि, उसके आगे विदेह, उसके आगे रम्यक, उसके आगे हैरण्यवत और उसके आगे ऐरावत― ये सात क्षेत्र जंबूद्वीप में हैं। इसी जंबूद्वीप में गंगा, सिंधु आदि चौदह नदियाँ हैं। धातकीखंड तथा पुष्करार्ध में जंबूद्वीप से दूनी-दूनी रचना है ॥159-160।। मनुष्य, मानुषोत्तर पर्वत के इसी ओर रहते हैं, इनके आर्य और म्लेच्छ की अपेक्षा मूल में दो भेद हैं तथा इनके उत्तर भेद असंख्यात हैं ।।161॥ देवकुरु, उत्तरकुरु रहित विदेह क्षेत्र, तथा भरत और ऐरावत इन तीन क्षेत्रों में कर्मभूमि है और देवकुरु, उत्तर कुरु तथा अन्य क्षेत्र भोगभूमि के क्षेत्र हैं ॥162॥ मनुष्यों की उत्कृष्ट स्थिति तीन पल्य की और जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त की है। तिर्यंचों की उत्कृष्ट तथा जघन्य स्थिति मनुष्यों के समान तीन पल्य और अंतर्मुहूर्त की है ॥163॥
व्यंतर देवों के किन्नर आदि आठ भेद जानना चाहिए। इन सबके क्रीड़ा के स्थान यथायोग्य कहे गये हैं ॥164।। व्यंतर और ज्योतिषी देवों का निवास ऊपर मध्यलोक में है। इनमें ज्योतिषी देवों का चक्र देदीप्यमान कांति का धारक है, मेरु पर्वत की प्रदक्षिणा देता हुआ निरंतर चलता रहता है तथा सूर्य और चंद्रमा उसके राजा हैं ॥165॥ ज्योतिश्चक्र के ऊपर संख्यात हजार योजन व्यतीत कर कल्पवासी देवों का महालोक शुरू होता है यही अवलोक कहलाता है ॥166॥ ऊर्ध्वलोक में सौधर्म, ऐशान, सानत्कुमार, माहेंद्र, ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लांतव, कापिष्ठ, शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहस्त्रार, आनत, प्राणत और आरण, अच्युत ये आठ युगलों में सोलह स्वर्ग हैं ।।167-169॥ उनके ऊपर ग्रैवेयक कहे गये हैं जिनमें अहमिंद्र रूपसे उत्कृष्ट देव स्थित हैं। (नव ग्रैवेयक के आगे नव अनुदिश हैं और उनके ऊपर) विजय, वैजयंत, जयंत, अपराजित तथा सर्वार्थसिद्धि ये पाँच अनुत्तर विमान हैं ॥170-171।। इस लोकत्रय के ऊपर उत्तम देदीप्यमान तथा महा आश्चर्य से युक्त सिद्धक्षेत्र है जो कर्म बंधन से रहित जीवों का स्थान जानना चाहिए ॥172।। ऊपर ईषत्प्राग्भार नाम की वह शुभ पृथ्वी है, जो ऊपर की ओर किये हुए धवलछत्र के आकार है, शुभरूप है, और जिसके ऊपर पुनर्भव से रहित, महासुख संपन्न तथा स्वात्मशक्ति से युक्त सिद्धपरमेष्ठी विराजमान रहते हैं ॥173-174।।
तदनंतर इसी बीच में राम ने कहा कि हे भगवन् ! उन कर्मरहित जीवों के संसार भाव से रहित तथा दुःख से दूर कैसा सुख होता है ? ॥175।। इसके उत्तर में केवली भगवान ने कहा कि इस तीन लोक का जो सुख है वह आकुलतारूप, विनाशात्मक तथा दुरंत होने के कारण दुःखरूप ही माना गया है ।।176।। आठ प्रकार के कर्म से परतंत्र इस संसारी जीव को कभी रंच मात्र भी सुख नहीं होता ॥177॥ जिस प्रकार लोहे से वेष्टित सुवर्णपिंड की अपनी निज की कांति नष्ट हो जाती है उसी प्रकार कर्म से वेष्टित जीव की अपनी निज की कांति बिलकुल ही नष्ट हो जाती है ॥178॥ इस संसार के प्राणी निरंतर जन्म-जरा-मरण तथा बीमारी आदि के हजारों एवं मानसिक महादुखों से पीडित रहते हैं अतः यहाँ क्या सुख है ? ॥179॥ विषय-जन्यसुख खड्गधारा पर लगे हुए मधु के स्वाद के समान है, स्वर्ग का सुख जले हुए घाव पर चंदन के लेप के समान है और चक्रवर्ती का सुख विषमिश्रित अन्न के समान है ॥180।। किंतु सिद्ध भगवान का जो सुख है वह नित्य है, उत्कृष्ट है, आबाधा से रहित है, अनुपम है, और आत्मस्वभाव से उत्पन्न है ॥181॥ जिनकी निद्रा नष्ट हो चुकी है उन्हें शयन से क्या ? नीरोग मनुष्यों को औषधि से क्या ? सर्वज्ञ तथा कृतकृत्य मनुष्यों को दीपक तथा सूर्य आदि से क्या ? शत्रुओं से रहित निर्भीक मनुष्यों के लिए आयुधों से क्या? देखते-देखते जिनके पूर्ण रूप में सब मनोरथ सिद्ध हो गये हैं ऐसे मनुष्यों को चेष्टा से क्या ? और आत्मसंबंधी महासुख से संतुष्ट मनुष्यों को भोजनादि से क्या प्रयोजन है ? इंद्र लोग भी सिद्धों के जिस सुख की सदा उन्मुख रहकर इच्छा करते रहते हैं यद्यपि यथार्थ में उस सुख की उपमा नहीं है तथापि तुम्हें समझाने के लिए सिद्धों के उस आत्मसुख के विषय में कुछ कहता हूँ ॥182-185॥ चक्रवर्ती सहित समस्त मनुष्य और इंद्र सहित समस्त देव अनंत काल में जिस सांसारिक सुख का उपभोग करते हैं वह कर्म रहित सिद्ध भगवान के अनंतवें भाग सुख की भी सदृशता को प्राप्त नहीं होता। ऐसा सिद्धों का सुख है ॥186-187।। साधारण मनुष्यों की अपेक्षा राजा सुखी हैं, राजाओं की अपेक्षा चक्रवर्ती सुखी हैं, चक्रवर्तियों की अपेक्षा व्यंतर देव सुखी हैं, व्यंतर देवों की अपेक्षा ज्योतिष देव सुखी हैं ॥188।। ज्योतिष देवों की अपेक्षा भवनवासी देव सुखी हैं, भवनवासियों की अपेक्षा कल्पवासी देव सुखी हैं, कल्पवासी देवों की अपेक्षा ग्रैवेयक वासी सुखी हैं, ग्रैवेयक वासियों की अपेक्षा अनुत्तर वासी सुखी हैं ॥189॥ और अनुत्तरवासियों से अनंतानंत गुणित सुखी सिद्ध जीव हैं । सिद्ध जीवों के सुख से उत्कृष्ट दूसरा सुख नहीं है ॥190॥ अनंत दर्शन, अनंत ज्ञान, अनंतवीर्य और अनंतसुख यह चतुष्टय आत्मा का निज स्वरूप है और वह सिद्धों में विद्यमान है॥191॥ परंतु संसारी जीवों के वे ही ज्ञान दर्शन आदि कर्मों के उपशम में भेद होने से तथा बाह्य वस्तुओं के निमित्त से अनेक प्रकार के होते हैं ॥192॥ शब्द आदि इंद्रियों के विषयों से होने वाला सुख व्याधिरूपी कीलों के द्वारा शल्य युक्त है इसलिए शरीर से होने वाले सुख में सुख की आशा करना मोहजनित आशा है ॥193॥ जो गमनागमन से विमुक्त हैं, जिनके समस्त क्लेश नष्ट हो चुके हैं एवं जो लोक के मुकुट स्वरूप हैं अर्थात् लोकाग्र में विद्यमान हैं उन सिद्धों का सुख अपनी समानता नहीं रखता ॥194॥ जिनका दर्शन और ज्ञान लोकालोक को प्रकाशित करने वाला है, वे क्षुद्र द्रव्यों को प्रकाशित करने वाले सूर्य के समान नहीं कहे जा सकते ॥195।। जो हाथ पर स्थित आँवले के सर्व भागों के जानने में असमर्थ है ऐसा छद्मस्थ पुरुषों का ज्ञान सिद्धों के समान नहीं है ॥196॥ त्रिकाल संबंधी समस्त पदार्थों के विषय में एक केवली ही ज्ञान दर्शन से संपन्न होता है, अन्य नहीं ॥197।। सिद्ध और संसारी जीवों में जिस प्रकार यह ज्ञान दर्शन का भेद है उसी प्रकार उनके सुख और वीर्य में भी यह भेद समझना चाहिए ॥198॥ यथार्थ में सिद्धों के दर्शन, ज्ञान और सुख को संपूर्ण रूप से केवली ही जानते हैं अन्य लोगों के वचन तो उपमा रूप ही होते हैं ।।199।। यह जिनेंद्र भगवान का स्थान-सिद्धपद, अभव्य जीवों को अप्राप्य है, भले ही वे अनेक यत्नों से सहित हों तथा अत्यधिक काय-क्लेश करने वाले हों॥200। इसका कारण भी यह है कि वे अनादि काल से संबद्ध तथा विरह से रहित अविद्यारूपी गृहिणी का निरंतर आलिंगन कर शयन करते रहते हैं ॥201॥ इनके विपरीत मुक्तिरूपी स्त्री के आलिंगन करने में जिनकी उत्कंठा बढ़ रही है ऐसे भव्य जीव तपश्चरण में स्थित होकर बड़ी कठिनाई से दिन व्यतीत करते हैं अर्थात् वे जिस किसी तरह संसार का समय बिताकर मुक्ति प्राप्त करना चाहते हैं ।।202।। जो मुक्ति प्राप्त करने की शक्ति से रहित हैं वे अभव्य कहलाते हैं और जिन्हें मुक्ति प्राप्त होगी वे भव्य कहे जाते हैं ।।203॥ सर्वभूषण केवली कहते हैं कि हे रघुनंदन! जिनेंद्रशासन को छोड़कर अन्यत्र सर्व प्रकार का यत्न होने पर भी कर्मों का क्षय नहीं होता है ॥204॥ अज्ञानी जीव जिस कर्म को अनेक करोड़ों भवों में क्षीण कर पाता है उसे तीन गुप्तियों का धारक ज्ञानी मनुष्य एक मुहूर्त में ही क्षण कर देता है ।।205।। यह बात संसार में भी प्रसिद्ध है कि यथार्थ में निरंजन-निष्कलंक परमात्मा का दर्शन वही कर पाते हैं जिनके कि कर्म क्षीण हो गये हैं ॥206॥ यह सारहीन संसार का मार्ग तो अनेक लोगों ने पकड़ रक्खा है पर इससे परमार्थ की प्राप्ति नहीं, अतः परमार्थ की प्राप्ति के लिए एक जिनशासन को ही ग्रहण करो ॥207॥
इस प्रकार सकलभूषण के वचन सुनकर श्रीराम ने प्रणाम कर कहा कि हे नाथ ! इस संसार-सागर से पार लगाओ ॥208॥ उन्होंने यह भी पूछा कि हे भगवन् ! जघन्य मध्यम तथा उत्तम के भेद से भव्य जीव तीन प्रकार के हैं सो ये संसार-वास से किसी विधि से छूटते हैं ? ।।20।। तब सर्वभूषण भगवान ने कहा कि जैनेंद्र शासन-जैनधर्म में सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र इनकी एकता ही को मोक्ष का मार्ग बताया है ॥210।। इनमें से तत्त्वों का श्रद्धान करना सम्यग्दर्शन कहलाता है। अनंत गुण और अनंत पर्यायों को धारण करने वाला तत्त्व चेतन, अचेतन के भेद से दो प्रकार का है ॥211।। स्वभाव अथवा परोपदेश के द्वारा भक्तिपूर्वक जो तत्त्व को ग्रहण करता है वह जिनमत का श्रद्धालु सम्यग्दृष्टि जीव कहा गया है ॥212॥ शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्य दृष्टि प्रशंसा और प्रत्यक्ष ही उदार मनुष्यों में दोषादि लगाना― उनकी निंदा करना ये सम्यग्दर्शन के पाँच अतिचार हैं ॥213॥ परिणामों की स्थिरता रखना, जिनायतन आदि धर्म क्षेत्रों में रमण करना-स्वभाव से उनका अच्छा लगना, उत्तम भावनाएँ भाना तथा शंकादि दोषों से रहित होना ये सब सम्यग्दर्शन को शुद्ध रखने के उपाय हैं ॥214॥ सर्वज्ञ के शासन में कही हुई विधि के अनुसार सम्यग्ज्ञान पूर्वक जितेंद्रिय मनुष्य के द्वारा जो आचरण किया जाता है वह सम्यग्चारित्र कहलाता है ॥215॥ जिसमें इंद्रियों का वशीकरण और वचन तथा मन का नियंत्रण होता है वही निष्पाप― निर्दोष सम्यग्चारित्र कहलाता है ॥216।। जिसमें न्यायपूर्ण प्रवृत्ति करने वाले त्रस स्थावर जीवों पर अहिंसा की जाती है उसे सम्यग्चारित्र कहते हैं ॥217॥ जिसमें मन और कानों को आनंदित करने वाले, स्नेहपूर्ण, मधुर, सार्थक और कल्याणकारी वचन कहे जाते हैं उसे सम्यग्चारित्र कहते हैं ॥218।। जिसमें अदत्तवस्तु के ग्रहण में मन, वचन, काय से निवृत्ति की जाती है तथा न्यायपूर्ण दी हुई वस्तु ग्रहण की जाती है उसे सम्यक्चारित्र कहते हैं ॥219।। जहाँ देवों के भी पूज्य और महापुरुषों के भी कठिनता से धारण करने योग्य शुभ ब्रह्मचर्य धारण किया जाता है वह सम्यग्चारित्र कहलाता है ॥220।। जिसमें मोक्षमार्ग में महाविघ्नकारी मूर्च्छा के त्यागपूर्वक परिग्रह का त्याग किया जाता है उसे सम्यग्चारित्र कहते हैं ।।221।। जिसमें मुनियों के लिए परपीडा से रहित तथा श्रद्धा आदि गुणों से सहित दान दिया जाता है उसे सम्यक्चारित्र कहते हैं ॥222।। जिसमें विनय, नियम, शील, ज्ञान, दया, दम और मोक्ष के लिए ध्यान धारण किया जाता है उसे सम्यग्चारित्र कहते हैं ।।223।। इस प्रकार इन गुणों से सहित, 'जिन शासन में कथित, परम अभ्युदय का कारण जो सम्यक्चारित्र है, कल्याण प्राप्ति के लिए उसका सेवन करना चाहिए ।।225॥ सम्यग्दृष्टि जीव शक्य कार्य को करता है और अशक्य कार्य की श्रद्धा रखता है परंतु जो शक्त अर्थात् समर्थ होता है वह चारित्र धारण करता है ।।225।। जिसमें पूर्वोक्त समीचीन महागुण नहीं हैं उसमें सम्यक्चारित्र नहीं है, और न उसका संसार से निकलना होता है ॥226।। जिसमें दया, दम, क्षमा नहीं हैं, संवर नहीं है, ज्ञान नहीं है, और परित्याग नहीं हैं उसमें धर्म नहीं रहता ।।227॥ जिसमें धर्म के लिए हिंसा, झूठ, चोरी, कुशील और परिग्रह का आश्रय किया जाता है वहाँ धर्म नहीं है ॥228॥ जो मूर्खहृदय दीक्षा लेकर पाप में प्रवृत्ति करता है उस आरंभी के न चारित्र है और न उसे मुक्ति प्राप्त होती है ॥229॥ जिसमें धर्म के बहाने सुख प्राप्त करने के लिए छह काय के जीवों की पीडा की जाती है उस धर्म से कल्याण की प्राप्ति नहीं होती ॥230।। जो मारना, ताडना, बाँधना, आँकना तथा दोहना आदि कार्य करता है तथा गाँव, खेत आदि में आसक्त रहता है उस अनात्मज्ञ का दीक्षा लेना क्या है ? ॥231॥ जो वस्तुओं के खरीदने और बेचने में आसक्त है, स्वयं भोजनादि पकाता है अथवा दूसरे से याचना करता है, और स्वर्णादि परिग्रह साथ रखता है, ऐसे आत्महीन दीक्षित मनुष्य को क्या मुक्ति प्राप्त होगी ? ॥232॥ जो अविवेकी मनुष्य दीक्षित होकर मर्दन, स्नान, संस्कार, माला, धूप तथा विलेपन आदि का सेवन करते हैं वे मोक्षगामी नहीं हैं― उन्हें मोक्ष प्राप्त नहीं होता ॥233॥ जो अपनी बुद्धि से हिंसा को निर्दोष कहते हुए शास्त्र वेष तथा चारित्र में दोष लगाते हैं वे मूढ़ता से सहित हैं-मिथ्यादृष्टि हैं ॥234।। जो गाँव में एक रात और नगर में पाँच रात रहता है, निरंतर ऊपर की ओर भुजा उठाये रहता है, महीने-महीने में एक बार भोजन करता है, मृगों के साथ अटवी में शयन करता है, उन्हीं के साथ विचरण करता है, भृगुपात भी करता है, मौन से रहता है, और परिग्रह का त्याग करता है, वह मिथ्यादर्शन से दूषित होने के कारण कुलिंगी है तथा मोक्ष के कारण जो सम्यग्दर्शनादि उनसे रहित है। ऐसा जीव पैरों से चलकर किसी अगम्य स्थान अथवा मोक्ष को प्राप्त नहीं कर सकता ॥235-237।। जो धर्म बुद्धि से अग्निप्रवेश तथा जलप्रवेश आदि पाप करता है वह आत्महित के मार्ग में मूढ है और दुर्गति को प्राप्त होता है ॥238॥ जो रौद्र और आर्तध्यान में आसक्त है, काम पर जिसने विजय प्राप्त नहीं की है, जो खोटे काम करता है तथा उपाय से विपरीत प्रवृत्ति करता है उसकी निंदित गति-कुगति होती है ॥239॥ जो मनुष्य मिथ्यादर्शन से युक्त होकर भी धर्म बुद्धि से साधु और असाधु के लिए दान देता है वह विपुल अभ्युदय को देने वाले पुण्य कर्म का बंध करता है ॥240॥ यद्यपि ऐसा जीव स्वर्ग में उस धर्म का फल भोगता है तथापि वह सम्यग्दृष्टि को प्राप्त होने वाले फल के लाख में से एक भाग के भी बराबर नहीं है ॥241॥ जो मनुष्य उत्कृष्ट सम्यग्दर्शन धारण करते हैं तथा चारित्र से प्रेम रखते हैं वे इस लोक में भी प्रशंसनीय होते हैं और मरने के बाद देवलोक में प्रधान होते हैं ॥242।। मिथ्यादृष्टि कुलिंगी मनुष्य, बड़े प्रयत्न से क्लेश उठाकर भी देवों का किंकर बन तुच्छ फल को प्राप्त होता है। भावार्थ-मिथ्यादृष्टि कुलिंगी मनुष्य यद्यपि तपश्चरण के अनेक क्लेश उठाता है तथापि वह उसके फलस्वरूप स्वर्ग में उत्तम पद प्राप्त नहीं कर पाता किंतु देवों का किंकर होकर हीन फल प्राप्त कर पाता है ॥243॥ सम्यग्दृष्टि मनुष्य, सात आठ भवों में मनुष्य और देव पर्याय में परिभ्रमण से उत्पन्न हुए सुख को भोगता हुआ अंत में मुनिदीक्षा धारणकर मुक्त हो जाता है ॥244॥ वीतराग सर्वज्ञ देव के द्वारा दिखाये हुए इस मार्ग को विषयी मनुष्य प्राप्त नहीं करना चाहता ॥245॥ जो आशारूपी पाश से मजबूत बँधे हैं, मोह से अत्यधिक आक्रांत हैं, तृष्णारूपी घर में लाकर डाले गये हैं, पापरूपी जंजीर को धारण कर रहे हैं तथा स्पर्श और रस को पाकर जो दुःख को ही सुख मान बैठे हैं इस तरह नाना प्रकार के शरण रहित बेचारे दीन प्राणी निरंतर क्लेश उठाते रहते हैं ॥246-247॥ यह प्राणी मृत्यु से डरता है पर उससे छुटकारा नहीं हो पाता । इसी प्रकार निरंतर सुख चाहता है पर उसकी प्राप्ति नहीं हो पाती ॥248।। इस प्रकार निष्फल भय और काम से वश हुआ यह प्राणी निरुपाय हो मात्र संताप को प्राप्त होता रहता है ॥249।। निरंतर आशा से घिरा हुआ यह प्राणी भोग भोगने की चेष्टा करता है परंतु जिस प्रकार मच्छर स्वर्ण में संतोष नहीं करता उसी प्रकार यह प्राणी धर्म में धैर्य धारण नहीं करता ॥250।। संक्लेश रूपी अग्नि से संतप्त हुआ यह प्राणी बहुत प्रकार के आरंभ करने में तत्पर रहता है परंतु किसी भी प्रयोजन को प्राप्त नहीं हटा अपितु इसके पास का जो सुख है वह भी चला जाता है ॥251।। यह जीव पूर्वकृत पाप के कारण मनोभिलषित पदार्थ को प्राप्त नहीं होता किंतु अत्यंत दुर्जन बहुत भारी अनर्थ को प्राप्त होता है ॥252।। 'मैं यह कर चुका, यह करता हूँ और यह आगे करूँगा।' इस प्रकार मनुष्य निश्चय कर लेता है पर कभी मरूँगा भी इस बात का कोई विचार नहीं करते ॥253।। मृत्यु इस बात की प्रतीक्षा नहीं करती कि प्राणी, कौन काम कर चुके और कौन काम नहीं कर पाये। वह तो जिस प्रकार सिंह मृग पर आक्रमण करता है उसी प्रकार असमय में भी आक्रमण कर बैठती है ॥254॥ अहो ! मिथ्यादृष्टि मनुष्य, अहित को हित, दुःख को सुख, अनित्य को नित्य, भयदायक को शरणदायक, हित को अहित, सुख को दुःख, रक्षक को अरक्षक और ध्रुव को अध्रुव समझते हैं। इस प्रकार कहना पड़ता है कि मिथ्यादृष्टि मनुष्यों की व्यवस्था अन्य प्रकार ही है ॥255-256।। यह मनुष्य रूपी जंगली हाथी, भार्या रूपी बंधन में पड़कर बंध को प्राप्त होता है अथवा यह मनुष्यरूपी मत्स्य विषयरूपी मांस में आसक्त हो बंध का अनुभव करता है ।।257।। कुटुंबरूपी बहुत कीचड़ से युक्त एवं लंबे-चौड़े मोहरूपी महासागर में फंसा हुआ यह प्राणी दुबले-पतले भैंसे के समान छटपटाता हुआ दुःखी हो रहा है ॥258।। बेड़ियों से बँधे हुए मनुष्य का अंधे कुएं से छुटकारा हो सकता है परंतु स्नेह रूपी पाश से बँधा प्राणी उससे बड़ी कठिनाई से छूट पाता है ॥259॥ जिसका पाना मनुष्यलोक में भी अत्यंत दुर्लभ है ऐसी जिनेंद्र प्रतिपादित बोधि को प्राप्त करने के लिए अभव्य प्राणी योग्य नहीं है। इसी प्रकार जिनेंद्र कथित रत्नत्रय मार्ग को भी प्राप्त करने के लिए अभव्य समर्थ नहीं हैं ॥260॥ तीव्र कर्ममल कलंक से युक्त रहने वाले अभव्य जीव, निरंतर संसाररूपी चक्र पर आरूढ हो क्लेश उठाते हुए घूमते रहते हैं ॥261॥
तदनंतर हाथ जोड़ मस्तक से लगाकर राम ने कहा कि हे भगवन् ! क्या मैं भव्य हूँ? और किस उपाय से मुक्त होऊँगा? ॥262॥ मैं अंतःपुर से सहित इस पृथिवी को छोड़ने के लिए समर्थ हूँ, परंतु एक लक्ष्मण का उपकार छोड़ने के लिए समर्थ नहीं हूँ ॥263।। मैं बिना किसी आधार के स्नेहरूपी सागर की तरंगों में तैर रहा हूँ, सो हे मुनींद्र ! अवलंबन देकर मेरी रक्षा करो ॥264॥ तदनंतर भगवान् सर्वभूषण केवली ने कहा कि हे राम ! तुम शोक करने के योग्य नहीं हो। आपको बलदेव का वैभव अवश्य भोगना चाहिए। जिस प्रकार इंद्र स्वर्ग की राज्यलक्ष्मी को प्राप्त होता है उसी प्रकार यहाँ की राज्य लक्ष्मी को पाकर तुम अंत में जिनेश्वर दीक्षा को धारण करोगे तथा केवलज्ञानमय मोक्षधाम को प्राप्त होओगे ॥265-266॥ इस प्रकार केवली भगवान् का उपदेश सुनकर जिन्हें हर्षातिरेक से रोमांच निकल आये थे, जिनके नेत्र विकसित थे, जो श्रीमान् थे एवं प्रसन्नमुख थे ऐसे श्रीराम धैर्य-सुख संतोष से युक्त हुए।॥267॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि वहाँ जो भी सुर-असुर और मनुष्य थे वे राम को चरमशरीरी जानकर आश्चर्य से चकित हो गये तथा अत्यंत प्रसन्नचित्त हो केवलीरूपी सूर्य के द्वारा प्रकाशित वस्तुतत्त्व की प्रशंसा करने लगे ॥26॥
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध श्रीरविषेणाचार्य द्वारा कथित पद्मपुराण में राम के धर्म श्रवण का वर्णन करने वाला एक सौ पाँचवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥105।।