अलोकाकाश: Difference between revisions
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<p class="SanskritText">स यत्र तल्लोकाकाशम्। ततो बहिः सर्वतोऽनंतालोकाकाशम्।</p> | |||
<p class="HindiText">= जहाँ धर्मादि द्रव्य विलोके जाते हैं उसे लोक कहते हैं। उससे बाहर सर्वत्र अनंत अलोकाकाश है।</p> | |||
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<p> आकाश के लोकाकाश और अलोकाकाश इन दो भेदों में दूसरा भेद― चौदह राजु प्रमाण लोक के बाहर का | <div class="HindiText"> <p class="HindiText"> आकाश के लोकाकाश और अलोकाकाश इन दो भेदों में दूसरा भेद― चौदह राजु प्रमाण लोक के बाहर का अनंतआकाश । यह अनंत विस्तारयुक्त तथा अनंत प्रदेशों से युक्त और अन्य द्रव्यों से रहित है । यहाँ धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय का अभाव होने से जीव और पुद्गल की न गति है और न स्थिति । इसके मध्य में असंख्यात प्रदेशी तथा लोकाकाश से मिश्रित अनादि और अनंत लोक स्थित है । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_31#15|पद्मपुराण - 31.15]], </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_4#1|हरिवंशपुराण - 4.1-4]], 2.110, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 16.133 </span></p> | ||
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Latest revision as of 14:39, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 5/12/278
धर्माधर्मादीनि द्रव्याणि यत्र लोक्यंते स लोक इति।
स यत्र तल्लोकाकाशम्। ततो बहिः सर्वतोऽनंतालोकाकाशम्।
= जहाँ धर्मादि द्रव्य विलोके जाते हैं उसे लोक कहते हैं। उससे बाहर सर्वत्र अनंत अलोकाकाश है।
देखें आकाश - 1.2।
पुराणकोष से
आकाश के लोकाकाश और अलोकाकाश इन दो भेदों में दूसरा भेद― चौदह राजु प्रमाण लोक के बाहर का अनंतआकाश । यह अनंत विस्तारयुक्त तथा अनंत प्रदेशों से युक्त और अन्य द्रव्यों से रहित है । यहाँ धर्मास्तिकाय और अधर्मास्तिकाय का अभाव होने से जीव और पुद्गल की न गति है और न स्थिति । इसके मध्य में असंख्यात प्रदेशी तथा लोकाकाश से मिश्रित अनादि और अनंत लोक स्थित है । पद्मपुराण - 31.15, हरिवंशपुराण - 4.1-4, 2.110, वीरवर्द्धमान चरित्र 16.133