ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 31
From जैनकोष
अथानंतर राजा श्रेणिकने गौतमस्वामी से पूछा कि हे गणनायक ! इष्टजनों से सहित, राजा अनरण्य के पुत्र राजा दशरथ ने इस विभूति को पाकर क्या किया ? ॥1॥ हे महायश के धारक! राम और लक्ष्मण का पुरातन वृत्तांत आपको ही विदित है इसलिए वह सब वृत्तांत मुझ से कहिए ॥2॥ इस प्रकार पूछे गये महातेजस्वी मुनिराज ने कहा कि हे राजन् ! इनका जैसा वृत्तांत सर्वज्ञदेव ने कहा है वैसा कहता हूँ तू सुन ।। 3 ।। वे कहने लगे कि किसी समय राजा दशरथ ने समस्त जानने वाले सर्वभूतहित नामक हितकारी मुनिराज को प्रणाम कर उनसे अपना संशय पूछा ॥4॥ उन्होंने कहा कि हे स्वामिन् ! मैंने बहुत से जन्म धारण किये हैं पर मैं उनमें से एक भी भव को नहीं जानता जबकि आपके द्वारा सब विदित हैं ॥5॥ हे भगवन् ! मैं उन्हें जानना चाहता हूँ सो कहिए । आपके प्रसाद से मोह नष्ट करने के लिए मैं आपकी पूजा करता हूँ ॥6॥ इस प्रकार भवांतर सुनने के लिए उद्यत राजा दशरथ से सर्वभूतहित मुनि निम्नांकित वचन कहने लगे ॥7॥
उन्होंने कहा कि हे राजन् ! सुन । हे सद्बुद्धि के धारक ! तुमने जो पूछा है वह सब मैं कहूँगा! तुमने इस संसार में समंतात् भ्रमण कर जिस प्रकार सद्बुद्धि प्राप्त की है वह सब मैं निवेदन करूंगा ॥8॥ दुःख देने वाले इस महान् संसार में केवल तुमने ही भ्रमण नहीं किया है किंतु कर्मों का संचय करने वाले अन्य लोगों ने भी कर्मोदय से इसमें भ्रमण किया है ॥9॥ हे राजन् ! इस जगत्त्रय में अपना हित चाहने वाले प्राणियों की दशाएँ उत्तम, मध्यम और जघन्य के भेद से तीन प्रकार की वर्णित की गयी हैं ॥10॥ उनमें से अभव्य जीव की दशा जघन्य है, भव्य की मध्यम है और सिद्धों की उत्तम है । जिनेंद्र भगवान् ने सिद्धगति को पुनरागमन से रहित तथा कल्याणकारिणी बतलाया है ॥11॥ यह सिद्धगति शुद्ध है तथा सनातन सुख को देने वाली है । इंद्रियरूपी व्रणरोग से पीड़ित तथा मोह से अंधे मनुष्य इसे नहीं देख सकते हैं ॥12॥ जो मनुष्य श्रद्धा और संवेग से रहित हैं तथा हिंसादि पाँच पापों से निवृत्त नहीं हैं उनको चतुर्गति में भ्रमण कराने वाली गति अर्थात् दशा होती है । उनकी यह गति अत्यंत उग्र तमो गुण और रजो गुण से युक्त रहती है ॥13।। अभव्य जीवों की गति अतिशय दुःखपूर्ण तथा विनाश से रहित है और भव्य जीवों की गति मोक्ष प्राप्त करने वाली है अर्थात् अभव्य जीव सदा चतुर्गति में ही भ्रमण करते हैं और भव्यजीवों में किन्हीं का निर्वाण भी हो जाता है ॥14॥ जहाँ तक धर्माधर्मादि द्रव्य पाये जाते हैं उसे लोक कहते हैं और बाकी समस्त आकाश अलोक कहलाता है । संसार के समस्त प्राणी पृथिवी आदि षट̖काय को धारण करने वाले हैं ।। 15 ।। यह जीव राशि अनंत है । इसका क्षय नहीं होता है । इसके लिए बालू के कण, आकाश अथवा चंद्रमा, सूर्य आदि की किरणे दृष्टांत हैं अर्थात् जिस प्रकार बालू के कणों का अंत नहीं है, आकाश का अंत नहीं है और चंद्र तथा सूर्य की किरणों का अंत नहीं है उसी प्रकार जीवराशि का भी अंत नहीं है ।। 16 ।। चर-अचर पदार्थों अर्थात् त्रसस्थावर जीवों से सहित ये तीनों लोक अनादि, अनंत है, स्वकीय कर्मों के समूह से सहित हैं तथा नाना योनियों के जीव इनमें भ्रमण करते रहते हैं ॥17॥ आज तक जितने सिद्ध हुए हैं, जो वर्तमान में सिद्ध हो रहे हैं और जो अनंतकाल तक सिद्ध होंगे वे जिनेंद्रदेव के द्वारा देखे हुए धर्म के द्वारा ही होंगे अन्य किसी प्रकार से नहीं ॥18॥ जो पापकर्म के कारण संशयरूपी कलंक से व्याप्त है तथा धर्म की भावना अर्थात् संस्कार रहित है उसके सम्यग्दर्शन कैसे हो सकता है? ॥19॥ जो मनुष्य श्रद्धा से रहित है उसके धर्म और धर्म के फल कहाँ से प्राप्त हो सकते हैं ? जिनकी आत्मा सम्यग्दर्शन से रहित है, जो अत्यंत उग्र कर्मरूपी काँचली से सब ओर से वेष्टित हैं जो मिथ्याधर्म में अनुरक्त हैं और जो आत्महित से दूर रहते हैं उन प्राणियों को अत्यंत दुःख देने वाला अज्ञान ही प्राप्त होता है ।। 20-21॥
अथानंतर हस्तिनापुर नगर में एक उपास्ति नाम का गृहस्थ था । उसकी दीपिनी नाम की स्त्री थी । वह दीपिनी मिथ्या अभिमान से पूर्ण थी, श्रद्धा से रहित थी, क्रोध तथा मात्सर्यरूपी विष को धारण करने वाली थी, दुष्ट भावों से युक्त थी, उसके शब्द सदा साधुओं की निंदा करने में तत्पर रहते थे । वह न कभी स्वयं किसी को आहार देती थी और न देते हुए किसी दूसरे की अनुमोदना करती थी । यदि कोई दानादि सत्कार्यों में प्रवृत्त होता था तो उसे वह प्रयत्नपूर्वक मना करती थी । इत्यादि अनेक महादोषों से युक्त थी और कुतीर्थ की भावना से युक्त थी । इस प्रकार समय व्यतीत कर वह भयंकर तथा पाररहित संसार सागर में भ्रमण करने लगी ।। 22-25 ।। इसके विपरीत उपास्ति देहिदेहि अर्थात् ‘देओ’ ‘देओ’ इन दो अक्षरों का अच्छी तरह अभ्यास कर-अत्यधिक दान देकर पुण्य कर्म के प्रभाव से अंद्रकपुरनामा नगर में मद्रनामा गृहस्थ और उसकी धारिणीनामा स्त्री के धारण नाम का भाग्यशाली एवं अनेक बंधुजनों से युक्त पुत्र हुआ । उसकी नयनसुंदरी नाम की स्त्री थी ॥26-27।।
वह योग्य देश तथा काल में प्राप्त हुए साधुओं के लिए शुद्धभाव से आहार देता था । जिसके फलस्वरूप अंत में समाधिपूर्वक शरीर का त्याग कर धातकीखंडद्वीप संबंधी विदेह क्षेत्र में मेरु पर्वत की उत्तर दिशा में विद्यमान कुरुक्षेत्र में आर्य हुआ । वहाँ तीन पल्य तक भोग भोगकर स्वर्ग में उत्पन्न हुआ ॥28-29॥ वहाँ से च्युत होकर पुष्कलावती नगरी में राजा नंदिघोष और वसुधा रानी के नंदिवर्धन नाम का पुत्र हुआ ॥30॥ एक दिन राजा नंदिघोष उत्कृष्ट धर्म श्रवण कर प्रबोध को प्राप्त हुआ और नंदिवर्धन को पृथिवी-पालन का भार सौंप यशोधर मुनिराज के समीप दीक्षा लेकर महातप करने लगा । तथा अंत में विधिपूर्वक शरीर त्याग कर स्वर्ग में उत्पन्न हुआ ॥31-32॥
इधर नंदिवर्धन गृहस्थ का धर्म धारण करने में लीन एवं पंच-नमस्कार मंत्र की आराधना करने में तत्पर था । वह एक करोड़ पूर्व तक महाभोगों को भोग कर तथा संन्यास से शरीर छोड़कर पंचम स्वर्ग में गया । वहाँ से च्युत होकर इसी विदेह क्षेत्र में सुमेरु पर्वत के पश्चिम की ओर विजया पर्वतपर स्थित शशिपुरनामा नगर में राजा रत्नमाली और रानी विद्युल्लता के सूर्यंजय नाम का पुत्र हुआ ॥33-35॥
अथानंतर एक समय महाबलवान् राजा रत्नमाली युद्ध करने के लिए उस सिंहपुर नगर की ओर चला जहाँ कि राजा वज्रलोचन रहता था ॥36।। वह देदीप्यमान सुंदर रथ, पैदल सेना, हाथी, घोड़े तथा नाना प्रकार के शस्त्रों से अंधकार उत्पन्न करने वाले अत्यंत बलवान् सामंतों से सहित था ॥37 ।। जो क्रोध के कारण ओंठ डंस रहा था, जिसके हाथ में धनुष था, जिसका शरीर कवच से आच्छादित था, जो आग्नेय विद्या से शत्रु का स्थान जलाना चाहता था, जो रथ के अग्रभाग पर आरूढ़ था, जो वेगशाली था एवं भयंकर आकार का धारक था । ऐसे उस रत्नमाली को आकाश में स्थित देख सहसा किसी देव ने इस प्रकार कहा ॥38-39॥ कि हे रत्न मालिन् ! तूने यह क्या आरंभ कर रखा है ? क्रोध को छोड़ और स्मरण कर, मैं तेरा पूर्व वृत्तांत कहता हूँ ॥40॥
इसी भरत क्षेत्र की गांधारीनामा नगरी में एक भूति नाम का राजा था । उपमन्यु उसके पुरोहित का नाम था । राजा और पुरोहित दोनों ही मांसभोजी तथा नीचकार्य करने वाले थे॥41॥ एक बार कमलगर्भनामा मुनि का व्याख्यान सुनकर राजा भूति ने व्रत लिया कि अब मैं ऐसे पाप का आचरण फिर कभी नहीं करूंगा ॥42॥ इस व्रत के प्रभाव से उसने इतने पुण्य का संचय किया कि उससे स्वर्ग को पाँच पल्य प्रमाण आयु का बंध हो सकता था, परंतु उपमन्यु पुरोहित के उपदेश से उसका यह सब पुण्य भस्म-भाव को प्राप्त हो गया अर्थात् नष्ट हो गया । उसने उस पुण्यभाव को छोड़ दिया । उसी समय शत्रुओं ने आक्रमण कर पुरोहित के साथ-साथ उसे मार डाला ।। 43-44॥ पुरोहित का जीव मरकर हाथी हुआ सो युद्ध में घायल हो अन्य दुःखी जीवों को जिसका मिलना दुर्लभ था ऐसे पंच नमस्कार मंत्र को पाकर उसी गांधारी के राजा भूति के बुद्धिमान् पुत्र की योजनगंधा नामा स्त्री के अरिसूदन नाम का पुत्र हुआ ।।45-46।। कमल गर्भ मुनिराज के दर्शन कर अरिसूदन को पूर्व जन्म का स्मरण हो आया जिससे विरक्त होकर उसने दीक्षा ले ली और मरकर शतार नामक ग्यारहवें स्वर्ग में देव हुआ । इस तरह मैं वही पुरोहित का जीव देव हूँ और तू राजा भूति का जीव मरकर मंदारण्यनामा वन में मृग हुआ सो वहाँ दावानल में जलकर उसने अकाम निर्जरा की उसके फलस्वरूप वह क्लिज नाम का नीच पुरुष हुआ । उस पर्याय में तूने जो दारुण कार्य किये-तीव्र पाप किये उनके फलस्वरूप त शर्कराप्रभा नामक दूसरे नरक गया ।।47-49।। तदनंतर स्नेह के संस्कार से मैंने वहाँ जाकर तुझे संबोधा जिसके प्रभाव से निकलकर तू यह रत्नमाली विद्याधर हुआ है ॥50॥ तूने क्या वे दुःख नहीं पाये हैं ?इस प्रकार देव के कहते ही रत्न माली का मन नाना दुर्गतियों से भयभीत हो गया । इस वृत्तांत के सुनने से रत्नमाली का पुत्र सूर्यंजय भी परम वैराग्य को प्राप्त हो गया इसलिए उस पुण्यात्मा के साथ ही साथ राजा रत्नमाली, सूर्यंजय के पुत्र कुलनंद को राज्य देकर तिलकसुंदरनामा प्रशांत आचार्य की शरण में पहुँचा ॥51-53 ।। तदनंतर सूर्यंजय तपकर महाशुक्र स्वर्ग में गया और वहाँ से च्युत होकर राजर्षि अनरण्य के दशरथ नाम का पुत्र हुआ ॥54॥ सर्वभूतहित मुनि कहते हैं कि तू थोड़े ही पुण्य के द्वारा उपास्ति आदि भवों में वटबीज की तरह शुभोदय से वृद्धि को प्राप्त हुआ है ॥55॥ तू राजा दशरथ उपास्ति का जीव है और नंदिवर्धन की पर्याय में जो तेरा पिता नंदिघोष था वह तप कर ग्रैवेयक गया और वहाँ से च्युत होकर मैं सर्वभूतहित हुआ हूँ॥56॥ तथा उसके अनुकूल रहने वाले जो भूति और उपमन्यु के जीव थे वे पुण्य के प्रभाव से क्रमशः राजा जनक एवं कनक हुए हैं ।। 57॥ वास्तव में इस संसार में न तो कोई पर है और न अपना है । शुभाशुभ कर्मों के कारण जीव का यह जन्म-मरण रूप परिवर्तन होता रहता है ॥58॥ इस प्रकार पूर्वभव का वृत्तांत सुन अनरण्य का पुत्र राजा दशरथ प्रतिबोध को प्राप्त हुआ तथा सब प्रकार का संशय छोड़ विनीत हो संयम धारण करने के सम्मुख हुआ ॥59।। संपूर्ण आदर के साथ उसने गुरु के चरणों की पूजा की, उन्हें प्रणाम किया और तदनंतर निर्मल हृदय हो नगर में प्रवेश किया ॥60॥ उसने मन में विचार किया कि यह महामंडलेश्वर का पद बुद्धिमान् राम के लिए देकर मैं मुनिव्रत धारण करूँ ॥61॥ धर्मात्मा तथा स्थिर चित्त का धारक राम अपने भाइयों के साथ जिसके पूर्व, पश्चिम तथा दक्षिण में तीन समुद्र हैं ऐसी इस भरत क्षेत्र की पृथ्वी का पालन करने में समर्थ है ॥62 । इस प्रकार राज्य के मोह से विमुख और मुक्ति के लिए चित्त धारण करने वाले राजा दशरथ ऐसा विचार कर रहे थे कि उसी समय निर्मल चांदनी ही जिसका वस्त्र थी, चंद्रमा ही जिसका मुख था और कमल ही जिसके नेत्र थे ऐसी शरदऋतुरूपी स्त्री हिम से डरकर ही मानो कहीं जा छिपी ॥63-64॥ और लगातार हिम के पड़ने से जिसने कमलों को कांतिरहित कर दिया था तथा शीतल वायु से जिसने समस्त संसार को व्याकुल बना दिया था ऐसा हेमंत काल आ पहुँचा ॥65॥ जिनके ओठ तथा पैरों के किनारे फट गये थे, जो पीठ पर पुराने चिथड़े धारण किये हुए थे, जिनके दंत वीणा के समान शब्द कर रहे थे, जिनके मस्तक के बाल रूखे तथा बिखरे हुए थे, निरंतर अग्नि के तापने से जिनकी गोद तथा जाँघे तीतर के पंख के समान मटमैली हो गयी थीं, जिनका चित्त पेट भरने की चिंता से दुःखी रहता था, जो शरीर की कांति से पके हुए त्रपुषफल के वल्कल के समान श्यामवर्ण थे, दुष्ट भार्या के वचनरूपी शस्त्रों से जिनका हृदय छिल गया था, जो लकड़ी आदि के लाने में लगे रहते थे, जो दिनभर सूर्य के द्वारा तपाये जाते थे, जो कुल्हाड़ी आदि हथियारों को धारण करते थे तथा जो भट्ट पड़ जाने से कठोर कंधों को धारण करते थे तथा जो शाकभाजी आदि से पेट भरते थे, ऐसे निर्धन मनुष्य जीर्ण-शीर्ण कटियों में उस हेमंत काल को बडे कष्ट से व्यतीत करते थे ॥66-70॥ और इनसे विपरी अक्षीण धन के कारण निश्चिंत थे वे उत्तमोत्तम महलों में रहते थे, शीत के समागम को हरने वाले तथा धूप की सुगंधि से सुवासित उत्कृष्ट वस्त्रों से उनके शरीर ढ के रहते थे, स्वर्ण तथा चाँदी आदि के पात्र में रखे हुए, छह रस के स्वादिष्ट, सुगंधित तथा स्निग्ध आहार को लीलापूर्वक ग्रहण करते थे, उनके शरीर केशर से लिप्त तथा कालागुरु की धूप से सुवासित रहते थे, उनके नेत्र झरोखों की ओर झाँका करते थे, वे गीत, नृत्य आदि परम विनोद को प्राप्त होते रहते थे, माला तथा आभूषणों से युक्त रहते थे, सुभाषितों के कहने में तत्पर रहते थे और विनीत, कला निपुण तथा सुंदर रूप की धारक उत्तम स्त्रियों के साथ पुण्योदय से क्रीड़ा करते थे ॥71-75 ।। आचार्य कहते हैं कि इस संसार में पुण्य से सुख प्राप्त होता है और पाप से दुःख मिलता है । प्राणी अपने कर्मों के अनुरूप ही सब प्रकार का फल प्राप्त करते हैं ॥76 ।। ।
तदनंतर उस समय संसारवास से अत्यंत भयभीत राजा दशरथ, मुक्तिरूपी स्त्री के आलिंगन की आकांक्षा करते हुए भोग वस्तुओं से विरक्त हो गये ।।77।। जिसने पृथिवी पर घुटने और हस्त टेककर नमस्कार किया था ऐसे द्वारपाल को उन्होंने तत्काल आज्ञा दी कि हे भद्र ! मंत्रियों से सहित अपने सामंतों को बुला लाओ ॥78।। द्वारपाल ने द्वार पर अपने ही समान दूसरे पुरुष को नियुक्त कर राजाज्ञा का पालन किया । सामंत और मंत्रीगण आकर तथा नमस्कार कर यथा स्थान बैठ गये ॥79।। उन्होंने राजा से कहा कि हे नाथ ! आज्ञा दीजिए, क्या कार्य है ? तब राजा ने विनय से भरी सभा से कहा कि मैंने निश्चय किया है कि दीक्षा धारण करूँ।।80॥ तदनंतर मंत्रियों तथा गण्यमान-प्रमुख राजाओं ने कहा कि हे नाथ ! इस समय आपकी ऐसी बुद्धि के उत्पन्न होने में क्या कारण है ? ॥81 ।। तब राजा ने कहा कि अये ! यह समस्त संसार सूखे तृण के समान निरंतर मृत्युरूपी अग्नि से जल रहा है इस बात को आप प्रत्यक्ष देख रहे हैं ।। 82 ।। आज मैंने अभी-अभी मुनिराज के मुख से जिनेंद्रप्रणीत उस शास्त्र का श्रवण किया है कि जिसे अभव्य जीव ग्रहण नहीं कर सकते, जो भव्य जीवों के ग्रहण करने के योग्य है, सुर और असुर जिसे नमस्कार करते हैं, जो प्रशस्त है, मोक्षसुख को देने वाला है, तीन लोक में प्रकट है, सूक्ष्म है । विशुद्ध है तथा उपमा से रहित है ।। 83-84 ।। समस्त भावों में सम्यक्त्व भाव हो उत्कृष्ट तथा निर्मल भाव है यही मुक्ति का मार्ग है । गरु चरणों के प्रसाद से आज मैंने उसे प्राप्त किया है ।। 85 ।। जिसमें नाना जन्मरूपी बड़े-बड़े भँवर उठ रहे हैं, जो मोहरूपी कीचड़ से भरी है, कुतकरूपी मगरमच्छों से व्याप्त है, महादुःखरूपी तरंगों से युक्त है, मृत्युरूपी कल्लोलों से सहित है, मिथ्यात्वरूपी जल से भरी है, जिसमें रुदनरूपी भयंकर शब्द हो रहा है, जो विधर्म अर्थात् मिथ्याधर्मरूपी वेग से बह रही है तथा नरकरूपी समुद्र के पास जा रही है, ऐसी संसाररूपी नदी का स्मरण कर देखो । भय से मेरे अंग सब ओर से कंपित हो रहे हैं ।। 86-88 । आप लोग मोह के वशीभूत हो व्यर्थ ही कुछ मत कहिए अर्थात् मुझे रोकिए नहीं क्योंकि प्रकट स्थान में सूर्य के विद्यमान रहते अंधकार का निवास कैसे हो सकता है ? ।।89।। आप लोग मेरे प्रथम पुत्र का शीघ्र ही राज्याभिषेक कीजिए जिससे मैं निर्विघ्न हो तपोवन में प्रवेश कर सकूँ ।। 90॥ ऐसा कहने पर महाराज का दृढ़ निश्चय जानकर मंत्री तथा सामंतवर्ग परम शोक को प्राप्त हुए । सभी के मस्तक नीचे हो रहे ॥91॥ वे अँगुली से भूमि को खोदने लगे, उनके नेत्र आंसुओं से व्याप्त हो गये और सभी क्षणभर में प्रभाहीन हो चुपचाप बैठ रहे ॥92 ।। प्राणनाथ निश्चितरूप से निर्ग्रंथ व्रत को धारण करने वाले हैं । यह सुनकर समस्त अंतःपुर एकत्रित हो परम शोक को प्राप्त हुआ ॥93।। स्त्रियों ने जो विनोद प्रारंभ कर रखे थे उन्हें छोड़कर आँसुओं से नेत्र भर लिये तथा आभूषणों का अत्यधिक शब्द करती हुई वे रुदन करने लगीं ॥14॥
पिता को विरक्त देख भरत भी प्रतिबोध को प्राप्त हुआ । वह विचार करने लगा कि अहो ! यह स्नेह का बंधन बड़ा कष्टकारी तथा दुःख से छेदने योग्य है ।। 15 ।। वह सोचने लगा कि सम्यक्ज्ञान को प्राप्त हुए पिता को इस अव्यापार अर्थात् नहीं करने योग्य चिंता से क्या प्रयोजन है ? जब ये दीक्षा ही लेना चाहते हैं तब इन्हें राज्य को चिंता क्यों होनी चाहिए ? ॥96॥ मुझे किसी से पूछने की कोई आवश्यकता नहीं है, मैं तो तीव्र दुःख से भरे संसार के क्षय का कारण जो तपोवन है उसमें शीघ्र ही प्रवेश करता हूँ ॥97॥ रोगों के घर स्वरूप इस नश्वर शरीर से भी मुझे क्या प्रयोजन है ? फिर भाई-बंधु जो अपने-अपने कर्म का फल भोग रहे हैं उनसे क्या प्रयोजन हो सकता है ? ॥98॥ मोह से अंधा हुआ यह प्राणी अकेला ही जन्मरूपी वृक्षों से व्याप्त इस दुःखदायी अटवी में भ्रमण करता रहता है ।। 99॥
तदनंतर कलाओं के कलाप को जानने वालो केकयी चेष्टाओं से भरत का अभिप्राय जानकर अत्यधिक शोक करने लगी ॥100 ।। वह सोचने लगी कि भर्ता और गुणी पुत्र दोनों ही मेरे नहीं हो रहे हैं अर्थात् दोनों ही दीक्षा धारण करने के लिए उद्यत हैं । इन दोनों को रोकने के लिए मैं किस निश्चित उपाय का अवलंबन करूँ ? ॥101॥ इस प्रकार चिंता को प्राप्त तथा अत्यंत व्याकुल हृदय को धारण करने वाली केकया के मन में शीघ्र ही स्वीकृत वर माँगने की बात याद आ गयी ॥102 ।। वह अपने विचारों में दृढ़ राजा दशरथ के पास बड़ी प्रसन्नता से गयी और बहुत भारी तेज के साथ अर्द्धासन पर बैठकर बोली कि हे नाथ ! आपने उस समय प्रसन्न होकर समस्त राजाओं और पत्नियों के सामने कहा था कि जो तू चाहेगी दूंगा । सो हे नाथ ! इस समय वह वर मुझे दीजिए । सत्यधर्म के कारण उज्ज्वल तथा निर्मल जो आपकी कीर्ति है, वह दान के प्रभाव से समस्त संसार में फैल रही है ।। 103-105 ।। तदनंतर राजा दशरथ ने कहा कि हे प्रिये ! तू अपना अभिप्राय बता । हे उत्कृष्ट अभिप्राय को धारण करने वाली प्रिये ! जो तुझे इष्ट हो सो माँग । अभी देता हूँ ॥106॥ राजा के इस प्रकार कहने पर जिसने उसका निश्चय जान लिया था ऐसी केकयी आँसू डालती हुई बोली कि हे नाथ ! आपने ऐसा कठोर चित्त किस कारण किया है? बताइए, हम लोगों ने ऐसा कौन-सा अपराध किया है कि जिससे आप हम लोगों को छोड़ने के लिए उद्यत हुए हैं । हे राजन् ! आप तो यह जानते ही हैं कि हमारा जीवन आपके अधीन है ॥107-108॥ जिनेंद्र भगवान् के द्वारा कही हुई दीक्षा अत्यंत कठिन है उसे धारण करने की आज आपने बुद्धि क्यों की ? ।।109 ।। हे प्राणवल्लभ ! आपका यह शरीर इंद्र के समान भोगों से पालित हुआ है सो अत्यंत कठिन नाना प्रकार का मुनिपना कैसे धारण करेगा ? ॥110॥
केकयी के इस प्रकार कहने पर राजा दशरथ ने कहा कि प्रिये ! समर्थ के लिए क्या भार है ? तू तो केवल अपना मनोरथ बता! जो मुझे करना है उसे मैं अब अवश्य ही प्राप्त होऊँगा ॥111।। पति के इस प्रकार कहने पर प्रदेशिनीनामा अंगुलि से पृथिवी को खोदती हुई केकयी ने मुख नीचा कर कहा कि हे नाथ ! मेरे पुत्र के लिए राज्य प्रदान कीजिए ॥112॥ तब दशरथ ने कहा कि हे प्रिये ! इसमें लज्जा की क्या बात है ? तुमने अपनी धरोहर मेरे पास रख छोड़ी थी सो इस समय जैसा तुम चाहती हो वैसा ही हो । शोक छोड़ो, आज तुमने मुझे ऋणमुक्त कर दिया । क्या कभी मैंने तुम्हारा कहा अन्यथा किया है ? ॥113-114 ।। उसी समय उन्होंने उत्तम लक्षणों से युक्त नमस्कार करते हुए विनयी राम को बुलाकर कुछ खिन्न चित्त से कहा ॥115॥ कि हे वत्स ! कला की पार गामिनी इस चतुर केकयी ने पहले भयंकर युद्ध में अच्छी तरह मेरे सारथि का काम किया था ॥116 ।। उस समय संतुष्ट होकर मैंने पत्नियों तथा राजाओं के सामने प्रतिज्ञा की थी जो यह चाहे सो दूं । परंतु उस समय इसने वह वर मेरे पास न्यासरूप में रख छोड़ा था ॥117॥ अब किसी की अपेक्षा नहीं रखने वाली यह तेजस्विनी किसी खास अभिप्राय से उस वर को इस प्रकार मांग रही है कि मेरे पुत्र के लिए राज्य दीजिए ॥118॥ उस समय प्रतिज्ञा कर इस समय यदि इसके लिए इसकी इच्छानुरूप वर नहीं देता हूँ तो संसार के आलंबन से उन्मुक्त होकर भरत दीक्षा ले लेगा ।। 119 ।। और यह पुत्र के शोक से प्राण छोड़ देगी तथा असत्य व्यवहार के कारण उत्पन्न हुई मेरी अपकीर्ति इस संसार में सर्वत्र फैल जावेगी ।। 120॥ साथ ही यह मर्यादा भी नहीं है कि समर्थ बड़े पुत्र को छोड़कर छोटे पुत्र को राज्य-लक्ष्मी रूपी स्त्री का समागम प्राप्त कराया जाये ।। 12 ।। जब भरत के लिए समस्त राज्य दे दिया जायेगा तब क्षत्रिय-संबंधी परम तेज को धारण करने वाले तुम लक्ष्मण के साथ कहाँ जाओगे? यह मैं नहीं जानता हूँ । तुम पंडित-निपुण पुरुष हो । अतः बताओ कि इस दुःखपूर्ण बहुत भारी चिंता को बात के मध्य में स्थित रहने वाला मैं क्या करूँ ? ॥122-123 ।।
तदनंतर उत्तम अभिप्राय के कारण जिनका चित्त अतिशय प्रसन्न था और जो अपनी दृष्टि पैरों पर लगाये हुए थे ऐसे राम ने उत्तम विनय को धारण करते हुए इस प्रकार कहा कि हे पिताजी ! आप अपने सत्य-व्रत की रक्षा कीजिए और मेरी चिंता छोड़िए । यदि आप अपकीर्ति को प्राप्त होते हैं तो मुझे इंद्र की लक्ष्मी से भी क्या प्रयोजन है ? ॥124-125 ।। निश्चय से उत्पन्न हुए तथा घर की इच्छा रखने वाले पुत्र को वही कार्य करना चाहिए कि जिससे माता-पिता किंचित् भी शोक को प्राप्त न हों ॥126 ।। जो पिता को पवित्र करे अथवा शोक से उसकी रक्षा करे यही पुत्र का पुत्रपना है, ऐसा विद्वान् लोग कहते हैं ।। 127।।
इधर जब तक पिता-पुत्र के बीच सभा को अनुरक्त करने वाली यह कथा चल रही थी तब तक मैं संसार को नष्ट करूं ऐसा दृढ़ निश्चय कर भरत महल से नीचे उतर पड़ा । यह देख लोग हाहाकार करने लगे । पिता ने स्नेह से दुःखी चित्त होकर उसे रोका । वह पिता का आज्ञाकारी था अतः रुककर सामने पृथिवी पर खड़ा होना चाहता था; परंतु पिता ने उसे गोद में बैठाकर उसका आलिंगन किया, चुंबन किया और इस प्रकार कहा कि हे पुत्र ! तू राज्य का पालन कर । मैं तपोवन के लिए जा रहा हूँ । इसके उत्तर में भरत ने कहा कि मैं राज्य की सेवा नहीं करूँगा, मैं तो दीक्षा धारण कर रहा हूँ ॥128-131॥ यह सुनकर पिता ने कहा कि हे पुत्र ! अभी तू नवीनवय से सुंदर है अतः मनुष्य-जन्म का सारभूत जो सुख है उसकी उपासना कर । पीछे वृद्ध होने पर दीक्षा धारण करना ॥132।। पिता के इस प्रकार कहने पर भरत ने कहा कि हे पिताजी ! मुझे व्यर्थ ही क्यों मोहित कर रहे हो । मृत्यु बालक अथवा तरुण की प्रतीक्षा नहीं करती ॥133॥ इसके उत्तर में पिता ने कहा कि हे पुत्र ! गृहस्थाश्रम में भी तो धर्म का संचय सुना जाता है । यद्यपि क्षुद्र मनुष्य इसे नहीं कर सकते हैं पर जो उत्तम पुरुष हैं वे तो राज्य पाकर भी करते ही हैं ॥134 ।। पिता के इस प्रकार कहने पर भरत ने कहा कि हे पिताजी ! जो इंद्रियों के वशीभूत है तथा काम-क्रोधादि से परिपूर्ण है ऐसे गृहसेवी मनुष्य की मुक्ति कैसे हो सकती है ?॥135 ।। इसके उत्तर में पिता ने कहा कि हे वत्स ! एक भव में मुक्ति किन्हीं विरले ही मुनियों को प्राप्त होती है । अधिकांश मुनियों को मुक्ति नहीं मिलती । इसलिए घर में रहकर ही धर्म धारण करो ॥136॥ पिता के इस प्रकार कहने पर भरत ने कहा कि हे पिताजी ! यद्यपि ऐसा है तथापि गृहस्थाश्रम से क्या प्रयोजन है ? क्योंकि उससे मुक्ति की प्राप्ति नहीं होती यह बिलकुल निश्चित है ।। 137॥ और दूसरी बात यह है कि मेरी मुक्ति अनुक्रम से नहीं होगी । मैं तो इसी भव से प्राप्त करूँगा । अनुक्रम से होने वाली मुक्ति दूसरे ही के योग्य है । क्या गरुड़ वेग से अन्य पक्षियों के समान होता है ? ॥138॥ क्षुद्र मनुष्य कामरूपी ज्वाला से परम दाह को प्राप्त होते हुए जिह्वा और स्पर्शन इंद्रिय संबंधी कार्य करते हैं पर उनसे उन्हें संतोष प्राप्त नहीं होता ॥139॥ कामरूपी अग्नि में ज्यों-ज्यों भोगरूपी घी डाला जाता है त्यों-त्यों वह अत्यंत वृद्धि को प्राप्त होती है और संताप को उत्पन्न करती है ॥140॥ प्रथम तो ये भोग बड़ी कठिनाई से प्राप्त होते हैं फिर इनकी रक्षा करना कठिन है । ये देखते-देखते क्षण-भर में नष्ट हो जाते हैं और इनको भोगने वाला व्यक्ति पाप के कारण नियम से परम दुःख देने वाली दुर्गति को प्राप्त होता है ।। 141॥ हे पिताजी! मैं संसार से अत्यंत भयभीत हो चुका हूँ इसलिए मुझे अनुमति दीजिए । जिससे मैं वन में जाकर विधिपूर्वक मोक्ष का कारण जो तप है उसे कर सकूँ ।। 142॥ हे पिताजी ! यदि मोक्ष-संबंधी सुख घर में भी मिल सकता है तो फिर आप ही इसका त्याग क्यों कर रहे हैं ? आप तो महाबुद्धिमान् हैं ॥143 ।। जो पुत्र को दुःख से तारे और तप की अनुमोदना करे यही तात का तातपना है ऐसा विद्वान् लोग कहते हैं ।। 144॥ यह जीव आयु, स्त्री, मित्रादि इष्टजन, पिता, माता, धन और भाई आदि को छोड़कर अकेला ही जाता है ।। 145 ।। जो अभागा चिरकाल तक देवों के भोग भोगने पर भी संतुष्ट नहीं हो सका वह मनुष्य भव के तुच्छ भोगों से किस प्रकार संतोष प्राप्त करेगा? ॥146॥
पिता दशरथ भरत के उक्त वचन सुनकर गद्गद हो गये । हर्ष से उनके शरीर में रोमांच निकल आये । वे बोले कि हे वत्स ! तू धन्य है, सचमुच ही तू प्रतिबोध को प्राप्त हुआ है और तू उत्तम भव्य है ।। 147 ।। फिर भी हे धीर ! तूने कभी भी मेरे स्नेह का भंग नहीं किया । तू विनयी मनुष्यों में सर्वश्रेष्ठ है ॥148॥ सुन, एक बार युद्ध में मेरे प्राणों का संशय उपस्थित हुआ था । उस समय तेरी माता ने सारथि का कार्य कर मेरी रक्षा की थी । उससे संतुष्ट होकर मैंने अनेक राजाओं के समक्ष प्रतिज्ञा की थी कि यह जो कुछ चाहेगी वह दूंगा ॥149 ।। मेरे ऊपर इसका यह बहुत पुराना ऋण था सो इसने आज मुझसे मांगा है । इसने बड़े सम्मान के साथ कहा है कि मेरे पुत्र के लिए राज्य दीजिए ॥150।। इसलिए हे पुत्र ! तू इंद्र के समान यह निष्कंटक राज्य कर जिससे असत्य प्रतिज्ञा के कारण मेरी अकीर्ति समस्त संसार में भ्रमण नहीं करे ॥151।। और जिसका शरीरसुख से निरंतर पालित हुआ है ऐसी यह तेरी माता इस महाशोक से दुःखी होकर प्राण छोड़ देगी ॥152।। अपत्य अर्थात् पुत्र का अपत्यपना यही है कि जो माता-पिता को शोकरूपी महासागर में नहीं गिरने देता है ऐसा विद्वज्जन कहते हैं ॥153॥
तदनंतर प्रेमपूर्ण दृष्टि से देखते हुए राम ने भी उसका हाथ पकड़कर मधुर शब्दों में इस प्रकार कहा कि हे भाई ! पिताजी ने जो कहा है वह दूसरा कौन कह सकता है ? सो ठीक ही है क्योंकि समुद्र के रत्नों की उत्पत्ति सरोवर से नहीं हो सकती ॥154-155॥ अभी तेरी अवस्था तप करने के योग्य नहीं है । इसलिए राज्य कर जिससे पिता की चंद्रमा के समान निर्मल कीर्ति फैले ॥156॥ जिसका शरीर शोक से संतप्त हो रहा है ऐसी यह तेरी माता तेरे समान भाग्यशाली पुत्र के रहते हुए यदि मरण को प्राप्त होती है तो यह ठीक नहीं होगा ॥157॥ पिता के सत्य की रक्षा करने के लिए हम शरीर को भी छोड़ सकते हैं । फिर तू बुद्धिमान होकर भी लक्ष्मी को क्यों नहीं प्राप्त हो रहा है? ॥158॥ मैं किसी नदी के किनारे, पर्वत अथवा वन में वहाँ निवास करूँगा जहाँ कोई जान नहीं सकेगा इसलिए तू इच्छानुसार राज्य कर ॥159॥ हे गणों के आलय ! मैं अपना सब भाग छोड़ मार्ग का ही आश्रय ले रहा हूँ । मैं पृथ्वी पर तुझे कुछ भी पीड़ा नहीं पहुँचाऊँगा ॥160॥ इसलिए लंबी और गरम साँस मत ले, संसार का भय छोड़, पिता की बात मान और न्याय में तत्पर रहकर पृथ्वी की रक्षा कर ।। 161 ।। हे भाई ! जिस प्रकार चंद्रमा ग्रहों के समूह को अलंकृत करता है उसी प्रकार तु इक्ष्वाकुओं के इस लक्ष्मी संपन्न, निर्मल एवं अत्यंत विशाल कुल को अलंकृत कर ॥162 ।। जो पिता के वचन की रक्षा करता हुआ देदीप्यमान होता है वही भाई का भाईपन है ऐसा विद्वानों ने कहा है ।। 163 ।। इतना कहकर राम पृथ्वीतल का स्पर्श करने वाले शिर से भावपूर्वक पिता के चरणों में प्रणाम कर लक्ष्मण के साथ उनके पास से चले गये ॥164 । इसी बीच में यद्यपि राजा दशरथ मूर्च्छा को प्राप्त हो गये तो भी किसी को इसका पता नहीं चला क्योंकि वे जिस खंभा से टिककर बैठे हुए थे मूर्च्छा के समय भी पुतले के समान उसी खंभा से टिके बैठे रहे ।। 165 ।। राम शीघ्र ही धनुष उठाकर माता के पास गये और प्रणाम कर पूछने लगे कि मैं अन्य पृथ्वी अर्थात देशांतर को जाता है ।।166।। राम की बात सुनकर माता भी आ गयी सो मानो दुःख का ज्ञान रोककर उसने सखी का कार्य किया । तदनंतर क्षणभर के बाद जब मूर्च्छा दूर हुई तथा चैतन्य प्राप्त हुआ तब आँखों में आंसू भरकर माता अपराजिता ( कौसल्या ) बोली कि हाय वत्स! तू कहाँ जा रहा है ? हे उत्तम चेष्टा के धारक पुत्र ! तू मुझे शोकरूपी महासागर में डालकर क्यों छोड़ रहा है ? ॥167-168॥ हे पुत्र ! तू बड़ा दुर्लभ है, सैकड़ों मनोरथों के बाद मैंने तुझे पाया है । जिस प्रकार शाखा का आलंबन प्रारोह अर्थात् पाया होता है उसी प्रकार माता का आलंबन पुत्र होता है ॥169 ।। इस प्रकार हृदय में चुभने वाला विलाप करती हुई माता को प्रणाम कर मातृ भक्ति में तत्पर रहने वाले रामने कहा कि माता! तुम विषाद को प्राप्त मत होओ । मैं दक्षिण दिशा में योग्य स्थान देखकर तुम्हें ले जाऊँगा । इसमें कुछ भी संशय नहीं है ।। 170-171 ।। "पिता ने, केकयी माता को वरदान देने के कारण पृथ्वी भरत के लिए दे दी है यह समाचार निश्चित ही आपके कर्णमूल तक आ गया होगा ॥172 ।। अब यह पृथिवी जहाँ समाप्त होती है उसके अंत में किसी महाअटवी में, विंध्याचल में, मलयपर्वत पर अथवा समुद्र के निकट किसी अन्य देश में हे माता! अपना स्थान बनाऊंगा ॥173 ।। सूर्य के समान जब तक मैं इस देश के समीप ही रहूँगा तब तक भरतरूपी चंद्रमा की आज्ञा ऐश्वर्य से संपन्न नहीं हो सकेगी ।। 174॥ तदनंतर जो अत्यंत दु:खी थी और जिसके नेत्र स्नेह से कातर हो उठे थे ऐसी माता रोती हुई, नम्रीभूत पुत्र का आलिंगन कर बोली कि हे पुत्र ! मेरा आज ही तेरे साथ चला जाना उचित है क्योंकि तुझे बिना देखे मैं प्राण धारण करने के लिए कैसे समर्थ हो सकूँगी ? ॥175-176 ।। पिता, पति अथवा पुत्र ये तीन ही कुलवती स्त्रियों के आधार हैं । इनमें मेरे पिता तो अपना समय पूरा कर चुके हैं और पति दीक्षा लेने के लिए उत्सुक हैं इस प्रकार इस समय मेरे जीवन का आधार एक तू ही है सो यदि तू भी मुझे छोड़ रहा है तो बता मैं किस दशा को प्राप्त होऊँ ।। 177-178॥ यह सुन राम ने कहा कि हे माता ! पृथ्वी पत्थरों से अत्यंत कठोर है आप इस ऊँची-नीची पृथ्वी पर पैरों से किस प्रकार चल सकोगी ? ॥179।। इसलिए मैं अभी अकेला ही जाता हूँ फिर सुखकारी कोई स्थान ठीक कर किसी यान के द्वारा आपको वहाँ ले जाऊँगा अतः आपका छोड़ना कैसे हुआ ? ।।180॥ हे माता ! मैं आपके चरणों का स्पर्श कर कहता हूँ कि मैं आपको ले जाने के लिए अवश्य ही आऊँगा । हे कार्य के समझने में निपुण माता ! इस समय मुझे छोड़ दे ।।181।। राम के ऐसा कहने पर माता ने उन्हें छोड़ दिया और अनेक हितकारी वचन कहकर उन्हें सांत्वना दी । अब तक पिता दशरथ प्रबोध को प्राप्त हो चुके थे इसलिए राम ने पुनः पास जाकर उन्हें प्रणाम किया ॥182।। अपराजिता के सिवाय अन्य माताओं को नमस्कार कर अनेक मधुर वचनों से उन्हें सांत्वना दी, भाई-बंधुओं का आलिंगन कर उनके साथ मधुर संभाषण किया और तदनंतर जिनका उदार हृदय विषाद से रहित था, तथा जो सर्व प्रकार के न्याय में निपुण थे ऐसे राम हृदय को प्रेम से भरकर सीता के महल में पहुँचे ।। 183-184॥ राम बोले कि--हे प्रिये ! तुम यहीं पर रहो मैं दूसरे नगर को जाता हूँ । तदनंतर उस पतिव्रता ने एक ही उत्तर दिया कि जहाँ आप रहेंगे वहीं मैं भी रहूँगी ॥185 ।। इसके पश्चात् रामने समस्त मंत्रियों से, राजाओं से तथा परिवार के अन्य लोगों से बड़े आदर के साथ पूछा । नगर में जो बुद्धिमान् मनुष्य थे उनके साथ बड़ी तत्परता से वार्तालाप किया ॥186 ।। इस समय प्रीतिवश बहुत से मित्र इकट्ठे हो गये थे जो बार-बार आलिंगन कर रहे थे, आदर से भरे हुए थे तथा जिनके नेत्र आँसुओं से व्याप्त थे । राम ने अनेक बार कहकर उन्हें वापस लौटाया ॥187 ।। तदनंतर जिनका मन मेरु पर्वत के समान स्थिर था ऐसे राम, मुख्य-मुख्य घोड़ों तथा हाथियों को स्नेहपूर्ण दृष्टि से देखते हुए पिता के घर से बाहर निकल पड़े ॥188 । यद्यपि सामंत लोग शीघ्र ही सुंदर घोड़े और हाथी ले आये परंतु परम न्याय के जानने वाले रामने उन्हें ग्रहण नहीं किया ।।189।। पति को विदेश गमन के लिए उद्यत देख, जिसके शरीर पर सुंदर वस्त्र का आवरण था, जिसके नेत्र फूले हुए कमल के समान थे ऐसी सीता भी, सास-श्वसुर को प्रणाम कर तथा मित्रजनों से पूछकर, जिस प्रकार इंद्राणी इंद्र के पीछे चलती है उसी प्रकार राम के पीछे चलने लगी ।।190-191 ।। ।
तदनंतर जिसका चित्त स्नेह से भरा हुआ था ऐसे लक्ष्मण ने जब राम को जाते हुए देखा तो नेत्रों में छलकते हुए क्रोध को धारण करता हुआ वह चिंता करने लगा कि अहो ! पिताजी ऐसा अन्याय क्यों करना चाहते हैं ? जिसमें निरंतर स्वार्थ साधन की ही आशा लगी रहती है तथा जिसमें दूसरे की कुछ भी अपेक्षा नहीं की जाती ऐसे स्त्री स्वभाव को धिक्कार हो ॥ 192-193 ।। अहो ! बड़े भाई राम महानुभाव हैं तथा पुरुषों में अत्यंत श्रेष्ठ हैं । इनके समान दुर्लभ हृदय तो मुनि के भी जब कभी ही होता है ।। 194 ।। क्या दुर्जनों को छोड़कर आज ही दूसरी सृष्टि रच डालूं या बलपूर्वक लक्ष्मी को भरत से विमुख कर दूँ ? ॥195 ।। मैं आज विधाता की बलवती सामर्थ्य को नष्ट करता हूँ और चरणों में पड़कर बड़े भाई को लक्ष्मी में उत्सुक करता हूँ ॥196॥ अथवा क्रोध के वशीभूत हो मुझे ऐसा विचार करना उचित नहीं है क्योंकि क्रोध दीक्षा धारण करने वाले मुनि को भी मोह से अंधा बना देता है ।। 197 ।। मुझे इस अनुचित विचार करने से क्या प्रयोजन है ? क्योंकि बड़े भाई राम तथा पिता ही यह कार्य उचित है अथवा अनुचित यह अच्छी तरह जानते हैं ॥198॥ हमें पिता की उज्ज्वल कीर्ति ही उत्पन्न करनी चाहिए अतः मैं चुपचाप उत्तम कार्य करने वाले बड़े भाई के ही साथ जाता हूँ ।꠰ 199।। इस प्रकार लक्ष्मण स्वयं ही क्रोध शांत कर, धनुष लेकर तथा पिता आदि समस्त जनों से पूछकर भी राम के पीछे चलने लगा । उस समय लक्ष्मण महाविनय से संपन्न था, मार्ग के योग्य उसकी वेषभूषा थी, तथा उसका वक्षःस्थल लक्ष्मी का घर था ॥200-201 ।। उस समय का दृश्य बड़ा ही करुण था । सीता के साथ राम-लक्ष्मण आगे बढ़े जाते थे और माता-पिता परिवार तथा शेष दो पुत्रों के साथ धारा-प्रवाह आँसुओं से मानो वर्षा कर रहे थे ।। 202॥ परंतु दोनों भाई दृढ़ निश्चय को प्राप्त थे और सांत्वना देने में अत्यंत निपुण थे इसलिए उन्होंने बार-बार चरणों में गिरकर माता-पिता को बड़ी कठिनाई से वापस किया ॥203 ।। उन्होंने भाई-बंधुओं को बहुत लौटाया फिर भी वे लौटे नहीं । अंत में जिस प्रकार स्वर्ग से देव बाहर निकलते हैं उसी प्रकार दोनों भाई राजमहल से बाहर निकले ॥204।। हे माता ! यह क्या हो रहा है ? यह ऐसा किसका मत था ? अर्थात् किसके कहने से यह सब हुआ है ? यह नगरी बड़ी अभागिन है अथवा नगरी ही क्यों समस्त पृथिवी अभागिन है ॥205 ।। अब हम इनके साथ ही चलेंगे, इनके साथ रहने से सब दुःख दूर हो जायेगा । ये दोनों ही दुःखरूपी पर्वत की गुहा से उद्धार करने में अत्यंत समर्थ हैं ।। 206॥ देखो, यह सीता कैसी जा रही है ? पति ने इसे साथ चलने की अनुमति दे दी है । देवर इसका सब काम ठीक कर देगा ॥207।। अहो ! जो विनयरूपी वस्त्र से आवृत होकर पति के पीछे-पीछे जा रही है ऐसी यह रूपवती जानकी अत्यंत धन्य है― बड़ी भाग्यवती है ॥208।। हमारी स्त्रियों की भी ऐसी ही गति हो । यह पतिव्रता स्त्रियों के लिए उदाहरण स्वरूप है ।। 209 ।। अहो ! देखो, जिसका मुख आँसुओं से भीग रहा है ऐसी माता को छोड़कर यह लक्ष्मण बड़े भाई के साथ जाने के लिए उद्यत हुआ है ।। 210॥ अहो ! इस लक्ष्मण की प्रीति धन्य है, भक्ति धन्य है, शक्ति धन्य है, क्षमा धन्य है और विनय का समूह धन्य है ।। 211 ।। भरत का क्या अभिप्राय था ? और राजा दशरथ ने यह क्या कर दिया ? राम-लक्ष्मण के भी यह कौन-सी बुद्धि उत्पन्न हुई है ? ॥212॥ यह सब काल, कर्म, ईश्वर, दैव, स्वभाव, पुरुष, क्रिया अथवा नियति ही कर सकती है । ऐसी विचित्र चेष्टा को और दूसरा कौन कर सकता है ? ।।213 ।। यह सब बड़ा अनुचित हो रहा है । इस स्थान के देवता कहाँ गये ? उस समय लोगों की भीड़ से इस प्रकार के शब्द निकल रहे थे ॥214।।
उस समय समस्त लोग राम-लक्ष्मण के साथ जाने के लिए उत्सुक हो रहे थे इसलिए नगरी के समस्त घर सूने हो गये थे तथा नगरी का समस्त उत्सव नष्ट हो गया था ।। 215 ।। समस्त घरों के दरवाजों की जो भूमियाँ पहले फूलों के समूह से व्याप्त रहती थीं वे उस समय शोक से भरे मनुष्यों के आंसुओं से पंकिल अर्थात् कर्दम युक्त हो गयी थी ।। 216 ।। जिस प्रकार महापवन से समुद्र की लहरें क्षोभ को प्राप्त होती हैं उसी प्रकार उत्तम मनुष्यों के द्वारा दूर हटाये गये लोगों की पंक्तियां क्षोभ को प्राप्त हो रही थीं ॥217॥ लोग पद-पद पर भक्तिवश राम की पूजा करते थे और भक्तिवश उनके साथ वार्तालाप करने के लिए उद्यत होते थे सो अत्यंत सरल प्रकृति के धारक राम उसे विघ्न मानते थे ॥218॥
तदनंतर धीरे-धीरे जिसकी किरणें मंद पड़ गयी थीं ऐसा सूर्य अस्त हो गया सो ऐसा जान पड़ता था मानो वह इस अनुचित कार्य को देखने के लिए असमर्थ होने से ही अस्त हो गया था ॥219॥ जिस प्रकार मुक्ति की इच्छा करने वाले प्रथम चक्रवर्ती भरत ने सब संपत्तियां छोड़ दी थीं उसी प्रकार दिन के अंत में सूर्य ने सब किरणें छोड़ दीं ॥220 ।। जिस प्रकार परम राग अर्थात् उत्कृष्ट प्रेम को धारण करने वाली तथा उचित-अंबर अर्थात् योग्य वस्त्र से सुशोभित सीता राम के पीछे जा रही थी उसी प्रकार परम राग अर्थात् उत्कृष्ट लालिमा और उचित-अंबर अर्थात् अभ्यस्त आकाश के समागम को प्राप्त संध्या सूर्य के पीछे जा रही थी ॥221॥ तदनंतर वस्तुओं के विशेष ज्ञान को नष्ट करने वाले अंधकार से समस्त जगत् व्याप्त हो गया सो ऐसा जान पड़ता था मानो राम के जाने से उत्पन्न शोक से ही व्याप्त हो गया हो ॥222॥ तत्पश्चात् पीछे चलने के लिए उत्सुक मनुष्यों को धोखा देने के लिए सीता सहित वे दोनों कुमार सायंकाल के समय अरहनाथ भगवान् के मंदिर में पहुँचे ॥223।। संसार को नष्ट करने वाले जिनेंद्र भगवान् का वह मंदिर सदा अलंकृत रहता था, लोग उसकी निरंतर पूजा करते थे, चंदन के जल से वहाँ की भूमि लिप्त रहती थी, उसमें तीन दरवाजे थे, ऊँचा तोरण था और दर्पणादि मंगल द्रव्यों से वह विभूषित रहता था । सो अतिशय बुद्धिमान तथा अन्य की अपेक्षा से रहित राम-लक्ष्मण ने सीता के साथ प्रदक्षिणा देकर उस मंदिर में विधिपूर्वक प्रवेश किया ॥224-225।। दो दरवाजे तक तो सब मनुष्य चले गये परंतु तीसरे दरवाजे पर द्वारपाल ने उन्हें उस प्रकार रोक दिया जिस प्रकार की मोक्ष की इच्छा करने वाले मिथ्यादृष्टि को मोहनीय कर्म रोक देता है ।। 226 ।। कमल के समान नेत्रों को धारण करने वाले राम-लक्ष्मण, अपने धनुष तथा कवच एक ओर रख भगवान् के दर्शन कर परम संतोष को प्राप्त हुए ॥227॥ तदनंतर जो मणिमयी चौकी पर विराजमान थे, सौम्य थे, जिनकी दोनों भुजाएँ नीचे की ओर लटक रही थीं, जिनका वक्षःस्थल श्रीवत्स के चिह्न से सुशोभित था, जिनके समस्त लक्षण स्पष्ट दिखाई देते थे, जिनका मुख पूर्ण चंद्रमा के समान था, जिनके नेत्र विकसित कमल के समान थे, और जिनके प्रतिबिंब की रचना भुलायी नहीं जा सकती थी । ऐसे अठारहवें अरनाथ जिनेंद्र को सर्व भाव अर्थात् मन-वचन-काय से प्रणाम कर तथा उनकी पूजा कर आदर से भरे हुए राम-लक्ष्मण मित्रजनों को चिंता करते हुए रात्रि के समय उसी मंदिर में स्थित रहे ॥228-230 ।। पुत्र वत्सल माताओं को जब पता चला कि राम-लक्ष्मण अर-जिनेंद्र के मंदिर में ठहरे हैं तब वे तत्काल दौड़ी आयीं । उस समय उनके नेत्र आंसुओं से व्याप्त थे । उन्होंने बार-बार पुत्रों का आलिंगन किया और बार-बार उनके साथ मंत्रणा-सलाह की । उन्हें पुत्रों को देखते-देखते तृप्ति ही नहीं होती थी और संकल्प-विकल्प के कारण उनकी आत्मा हिंडोले पर चढ़ी हुई के समान चंचल हो रही थी । अंत में वे पुनः राजा दशरथ के पास चली गयीं ॥231-232 ।। आचार्य कहते हैं कि सब शुद्धियों में मन की शुद्धि ही सबसे प्रशस्त है । स्त्री पुत्र और पति दोनों का आलिंगन करती है परंतु परिणाम पृथक्-पृथक् रहते हैं ।। 233॥
तदनंतर गुण-लावण्य रूप वेष आदि महाअभ्युदय को धारण करने वाली चारों मिष्टवादिनी रानियाँ मेरु के समान निश्चल पति के पास गयी और बोली कि हे वल्लभ ! शोकरूपी समुद्र में डूबते हुए इस कुलरूपी जहाज को रो को और लक्ष्मण सहित राम को वापस बुलाओ ॥234-235 ।। इसके उत्तर में राजा दशरथ ने कहा कि यह विकाररूप जगत् मेरे अधीन नहीं । मेरी इच्छानुसार यदि काम हो तो मैं तो चाहता हूँ कि समस्त प्राणियों में सदा सुख ही रहे ॥236॥ जन्म, जरा और मरणरूपी व्याधों के द्वारा किसी का घात नहीं हो परंतु कर्मो की स्थिति नाना प्रकार की है अतः कौन विवे की शोक करे ॥237।। बांधवादिक इष्ट पदार्थों के देखने में किसी को तृप्ति नहीं है सांसारिक सुख, धन और जीवन के विषय में भी किसी को संतोष नहीं है ॥238॥ कदाचित् इंद्रिय सुख की पूर्णता न हो और आयु समाप्त हो जावे तो यह प्राणी जिस प्रकार पक्षी एक वृक्ष को छोड़ कर दूसरे वृक्ष पर चला जाता है उसी प्रकार एक शरीर को छोड़कर दूसरे शरीर को प्राप्त हो जाता है ।। 239॥ आप लोग पुत्र वाली हैं अर्थात् आपके पुत्र हैं इसलिए गुणी पुत्रों को लौटा लो और निश्चिंत होकर पुत्र भोग का अभ्युदय भोगो ॥240 ।। मैं तो राज्य का अधिकार छोड़ चुका हूँ, इस पापपूर्ण चेष्टा से निवृत्त हो गया हूँ और संसार से तीव्र भय प्राप्त कर चुका हूँ इसलिए मुनिव्रत धारण करूंगा ।। 241 ।। इस प्रकार जिन्होंने अपने चित्त में दृढ़ निश्चय कर लिया था, जो सूर्य के समान तेजस्वी थे और जो समस्त मिथ्याभावों की अभिलाषारूपी दोष से रहित थे ऐसे राजा दशरथ ने सब प्रकार की उदासीनता धारण कर ली ॥242 ।।
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध रविषेणाचार्य के द्वारा कथित
पद्मचरित में राजा दशरथ के वैराग्य का वर्णन करने वाला
इकतीसवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥31॥