आकाश: Difference between revisions
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खाली जगह (Space) को आकाश कहते हैं। इसे एक सर्व व्यापक | | ||
== सिद्धांतकोष से == | |||
<p class="HindiText">खाली जगह (Space) को आकाश कहते हैं। इसे एक सर्व व्यापक अखंड अमूर्त द्रव्य स्वीकार किया गया है। जो अपने अंदर सर्व द्रव्यों को समाने की शक्ति रखता है यद्यपि यह अखंड है पर इसका अनुमान कराने के लिए इसमें प्रदेशों रूप खंडों की कल्पना कर ली जाती है। यह स्वयं तो अनंत है परंतु इसके मध्यवर्ती कुछ मात्र भाग में ही अन्य द्रव्य अवस्थित हैं। उसके इस भाग का नाम लोक है और उससे बाहर शेष सर्व आकाश का नाम अलोक है। अवगाहना शक्ति की विचित्रता के कारण छोटे-से लोक में अथवा इसके एक प्रदेश पर अनंतानंत द्रव्य स्थित हैं।</p> | |||
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<li class="HindiText"><strong>भेद व लक्षण</strong></li> | |||
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<li class="HindiText">[[ #1.1 | आकाश सामान्य का लक्षण]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #1.2 | आकाश द्रव्यों के भेद]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #1.3 | लोकाकाश व अलोकाकाश के लक्षण]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #1.4 | प्राणायाम संबंधी आकाश मंडल]]</li> | |||
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<li class="HindiText"><strong>आकाश निर्देश</strong></li> | |||
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<li class="HindiText">[[ #2.1 | आकाश का आकार]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #2.2 | आकाश के प्रदेश]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #2.3 | आकाश द्रव्य के विशेष गुण]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #2.4 | आकाश के 16 सामान्य विशेष स्वभाव]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #2.5 | आकाश का आधार]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #2.6 | अखंड आकाश में खंड कल्पना]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #2.7 | लोकाकाश व अलोकाकाश की सिद्धि]]</li> | |||
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<li class="HindiText"><strong>अवगाहना संबंधी विषय</strong></li> | |||
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<li class="HindiText">[[ #3.1 | सर्वावगाहना गुण आकाश में ही है अन्य द्रव्य में नहीं तथा हेतु]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #3.2 | लोकाकाशमें अवगाहना गुण का माहात्मय]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #3.3 | लोक/अस. प्रदेशों पर एकानेक जीवों की अवस्थान विधि]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #3.4 | अवगाहना गुणों की सिद्धि]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #3.5 | असं. प्रदेशी लोक में अनंत द्रव्यों के अवगाह की सिद्धि]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #3.6 | एक प्रदेश पर अनंत द्रव्यों के अवगाह की सिद्धि]]</li> | |||
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<li class="HindiText"><strong>अन्य संबंधित विषय</strong></li> | |||
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<p class="HindiText">• अन्य द्रव्यों मे भी अवगाहन गुण - देखें [[ अवगाहन ]]</p> | |||
<p class="HindiText">• अमूर्त आकाश के साथ मूर्त द्रव्यों के स्पर्श संबंधी - देखें [[ स्पर्श#2 | स्पर्श - 2]]</p> | |||
<p class="HindiText">• लोकाकाशमें वर्तना का निमित्त - देखें [[ काल#2 | काल - 2]]</p> | |||
<p class="HindiText">• अवगाहन गुण उदासीन कारण है -दे कारण III/2</p> | |||
<p class="HindiText">• आकाशका अक्रियावत्त्व - देखें [[ द्रव्य#3 | द्रव्य - 3]]</p> | |||
<p class="HindiText">• आकाशमें प्रदेश कल्पना तथा युक्ति - देखें [[ द्रव्य#4 | द्रव्य - 4]]</p> | |||
<p class="HindiText">• आकाश द्रव्य अस्तिकाय है - देखें [[ अस्तिकाय ]]</p> | |||
<p class="HindiText">• आकाश द्रव्यकी संख्या - देखें [[ संख्या#3 | संख्या - 3]]</p> | |||
<p class="HindiText">• लोकाकाश के विभाग का कारण धर्मास्तिकाय - देखें [[ धर्माधर्म#1 | धर्माधर्म - 1]]</p> | |||
<p class="HindiText">• लोकाकाश में उत्पादादि की सिद्ध - देखें [[ उत्पाद व्ययध्रौव्य#3 | उत्पाद व्ययध्रौव्य - 3]]</p> | |||
<p class="HindiText">• शब्द आकाश का गुण नहीं - देखें [[ शब्द#2 | शब्द - 2]]</p> | |||
<p class="HindiText">• द्रव्यों को आकाश प्रतिष्ठित कहना व्यवहार है - देखें [[ द्रव्य#5 | द्रव्य - 5]]</p> | |||
<p class="HindiText">1. भेद व लक्षण</p> | |||
<p class="HindiText" id="1.1"><b>1. आकाश का सामान्य का लक्षण</b></p> | |||
<span class="GRef">तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 5/4,6,7,18</span> <p class="SanskritText">नित्यावस्थितान्यरूपाणि ॥4॥ आ आकाशादेकद्रव्याणि ॥6॥ निष्क्रियाणि च ॥7॥ आकाशस्यावगाहः ॥18॥</p> | |||
<p class="HindiText">= आकाश द्रव्य नित्य अवस्थित और अरूपी है ॥5॥ तथा एक अखंड द्रव्य है ॥6॥ व निष्क्रिय है ॥7॥ और अवगाह देना इसका उपकार है ॥18॥</p> | |||
<span class="GRef">पंचास्तिकाय/मूल 90</span> <p class="PrakritText">सव्वेसिं जीवाणं सेसाणं तह य पुग्गलाणं च। जं देदि विवरमखिलं तं लोगे हवदि आगासं ॥90॥</p> | |||
<p class="HindiText">= लोक में जीवों को और पुद्गलों को वैसे ही शेष समस्त द्रव्यों का जो संपूर्ण अवकाश देता है वह आकाश द्रव्य है।</p> | |||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 5/18/284</span> <p class="SanskritText">जीवपुद्गलादीनामवगाहिनामवकाशदानमवगाह आकाशस्योपकारो वेदितव्यः॥</p> | |||
<p class="HindiText">= अवगाहन करने वाले जीव और पुद्गलों को अवकाश देना आकाश का उपकार जानना चाहिए। </p> | |||
<p class="HindiText"><span class="GRef">(गोमम्टसार जीवकाण्ड/जीव तत्त्व प्रदीपिका/605/1060/4)</span></p> | |||
<span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 5/1/21-22/434 </span><p class="SanskritText">आकाशंतेऽस्मिन द्रव्याणि स्वयं चाकाशत इत्याकाशम् ॥21॥ अवकाशदानाद्वा ॥22॥</p> | |||
<p class="HindiText">= जिसमें जीवादि द्रव्य अपनी-अपनी पर्यायों के साथ प्रकाशमान हों तथा जो स्वयं अपने को प्रकाशित भी करे वह आकाश है ॥21॥ अथवा जो अन्य सर्व द्रव्यों को अवकाश दे वह आकाश है।</p> | |||
<span class="GRef">धवला पुस्तक 4/1,3,1/4/7</span> <p class="PrakritText">आगासं सपदेसं तु उड्ढाधो तिरओविय। खेत्तलोगं वियाणाहि अणंतजिण-देसिदं ॥4॥</p> | |||
<p class="HindiText">= आकाश सप्रदेशी है, और वह ऊपर, नीचे और तिरछे सर्वत्र फैला हुआ है। उसे ही क्षेत्र लोक जानना चाहिए। उसे जिन भगवान ने अनन्त कहा है।</p> | |||
<span class="GRef">नयचक्रवृहद् गाथा 98</span> <p class="PrakritText">चेयणरहियममुत्तं अवगाहलक्खणं च सव्वगयं...। तं णहदव्वं जिणुद्दिट्ठं ॥98॥</p> | |||
<p class="HindiText">= जो चेतन रहित अमूर्त सर्वद्रव्यों को अवगाह देनेवाला सर्व व्यापी है = उसको जिनेंद्र भगवान ने आकाश द्रव्य कहा है।</p> | |||
<span class="GRef">द्रव्यसग्रह/मूल/19/57</span> <p class="PrakritText">अवगासदाणजोग्गं जीवादीणं वियाण आयासम्... ॥19॥</p> | |||
<p class="HindiText">= जो जीवादि द्रव्यों को अवकाश देने वाला है उसको जिनेंद्रदेव के द्वारा कहा हुआ आकाश द्रव्य जानो।</p> | |||
<p class="HindiText"><span class="GRef">(नियमसार / तात्पर्यवृत्तिगाथा 9/24)</span></p> | |||
<p class="HindiText" id="1.2"><b>2. आकाश द्रव्यों के भेद</b></p> | |||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 5/12/278</span> </span><p class="SanskritText">आकाशं, द्विधाविभक्तं लोकाकाशमेलोकाकाशं चेति।</p> | |||
<p class="HindiText">= आकाश द्रव्य दो प्रकार का है-लोकाकाश और अलोकाकाश।</p> | |||
<p class="HindiText"><span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 5/12/18/456/10)</span>, <span class="GRef">( नयचक्रवृहद् गाथा 98</span>. <span class="GRef">( द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 19)</span></p> | |||
<p class="HindiText" id="1.3"><b>3. लोकाकाश व आलोकाकाशके लक्षण</b></p> | |||
<span class="GRef">पंचास्तिकाय / / मूल या टीका गाथा 91</span> <p class="PrakritText">जीवा पुग्गलकाया धम्माधम्मा य लोगदोणण्ण। तत्तो अणण्णमण्णं आयासं अंतवदिरित्त ॥91॥</p> | |||
<p class="HindiText">= जीव पुद्गलकाय, धर्म, अधर्म (तथा काल) लोक के अनन्य हैं। अंतरहित ऐसा आकाश उससे (लोक से) अनन्य तथा अन्य है।</p> | |||
<span class="GRef">बारसाणुवेक्खा गाथा 39</span> <p class="PrakritText">जीवादि पयट्ठाणं समवाओ सो णिरुच्चये लोगो। तिविहो हवेई लोगो अहमज्झिमउड्भेयेणं ॥39॥ </p> | |||
<p class="HindiText">= जीवादि छः पदार्थों का जो समूह है उसे लोक कहते हैं। और वह अधोलोक, ऊर्ध्वलोक व मध्यलोक के भेद से तीन प्रकार का है।</p> | |||
<p class="HindiText"><span class="GRef">(कार्तिकेयानुप्रेक्षा/मूल116)</span></p> | |||
<span class="GRef">मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 540</span> <p class="PrakritText">लोयदि लाओयदि पल्लोयदिसल्लोयदिति एगत्थो तह्माजिणेहिं कसिणं तेणेसो वुच्चदे लोओ ॥540॥ </p> | |||
<p class="HindiText">= जिस कारण से जिनेंद्र भगवान् का मतिश्रुतज्ञान की अपेक्षा साधारण रूप देखा गया है, मनःपर्यय ज्ञान की अपेक्षा कुछ उससे भी विशेष और केवलज्ञान की अपेक्षा संपूर्ण रूप से देखा गया है इसलिए वह लोक कहा जाता है।</p> | |||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 5/12/278</span> <p class="SanskritText">धर्माधर्मादीनि द्रव्याणि यत्र लोक्यंते स लोक इति।</p> | |||
<p class="SanskritText">स यत्र तल्लोकाकाशम्। ततो बहिः सर्वतोऽनंतालोकाकाशम्।</p> | |||
<p class="HindiText">= जहाँ धर्मादि द्रव्य विलोके जाते हैं उसे लोक कहते हैं। उससे बाहर सर्वत्र अनंत अलोकाकाश है।</p> | |||
<p class="HindiText"><span class="GRef">(तिलोयपण्णति/प.4/164-135)</span>, <span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 5/12/18/456/7)</span>, <span class="GRef">( धवला पुस्तक 4/1,3,9/1)</span>, <span class="GRef">( पंचास्तिकाय संग्रह / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 87/138)</span>, <span class="GRef">( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 128/180)</span>, <span class="GRef">(नयचक्रवृहद् गाथा 99)</span>, <span class="GRef">( द्रव्यसंग्रह मूल 20)</span>, <span class="GRef">(पंचास्तिकाय संग्रह / तात्पर्यवृत्ति / गाथा 22/48)</span>, <span class="GRef">( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 22)</span> <span class="GRef">( त्रिलोकसार गाथा 5)</span></p> | |||
<span class="GRef">धवला पुस्तक 13/5,5,50/288/3</span> <p class="SanskritText">को लोकः। लोक्यंत उपलभ्यंते यस्मिन् जीवादयः पदार्थोः स लोकः।</p> | |||
<p class="HindiText">= <b>प्रश्न</b> - लोक किसे कहते है? <b>उत्तर</b> - जिसमें जीवादि पदार्थ देखे जाते हैं अर्थात् उपलब्ध होते हैं उसे लोक कहते हैं।</p> | |||
<p class="HindiText">(म.प्र.4/13), <span class="GRef">( नयचक्रवृहद् गाथा 142-143)</span></p> | |||
<p class="HindiText" id="1.4"><b>4. प्राणायाम संबंधी आकाश मंडल</b></p> | |||
<span class="GRef">ज्ञानसार श्लोक 57 </span><p class="SanskritText">अग्निः त्रिकोणः रक्तः कृष्णश्चः प्रभंजनः तथावृतः। चतुष्कोणं पीतं पृथ्वी स्वेतं जलं शुद्धचंद्राभम् ॥57॥</p> | |||
<p class="HindiText">= अग्नि त्रिकोण लाल रंग, पवन गोलाकार श्याम वर्ण, पृथ्वी चौकोण पीत वर्ण, तथा जल अर्ध चंद्राकार शीतल चंद्र समान होता है।</p> | |||
<p class="HindiText"><b>2. आकाश निर्देश</b></p> | |||
<p class="HindiText" id="2.1"><b>1. आकाश का आकार</b></p> | |||
<span class="GRef">आचारसार 3/24 </span><p class="SanskritText">व्योमामूर्त स्थितं नित्यं चतुरस्रं सम घनम्। अवगाहनाहेतवश्चांतानंत प्रदेशकम् ॥24॥</p> | |||
<p class="HindiText">= आकाश द्रव्य अमूर्त है, नित्य अवस्थित है, घनाकार चौकोर है, अवगाहना का हेतु है, अनंतानंत प्रदेशी है।</p> | |||
<p class="HindiText" id="2.2"><b>2. आकाश के प्रदेश</b></p> | |||
<span class="GRef">तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 5/9</span> <p class="SanskritText">आकाशस्यानंताः ॥9॥</p> | |||
<p class="HindiText">= आकाश द्रव्य के अनंत प्रदेश हैं</p> | |||
<p class="HindiText"><span class="GRef">( द्रव्यसंग्रह 25 )</span> <span class="GRef">(नियमसार / मूल या टीका गाथा 36)</span> <span class="GRef">(गोम्मट्टसार जीवकांड / मूल गाथा 587/1025)</span></p> | |||
<span class="GRef">प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 135/191</span> <p class="SanskritText">सर्वव्याप्यनंतप्रदेशप्रस्ताररूपत्वादाकाशस्य च प्रदेशवत्त्वम्।</p> | |||
<p class="HindiText">= सर्वव्यापी अनंत प्रदेशों के विस्तार रूप होने से आकाश प्रदेशवान् है।</p> | |||
<p class="HindiText" id="2.3"><b>3. आकाश द्रव्य के विशेष गुण</b></p> | |||
<span class="GRef">तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 5/18</span> <p class="SanskritText">आकाशस्यावगाहः ॥18॥</p> | |||
<p class="HindiText">= अवगाहन देना आकाश द्रव्य का उपकार है।</p> | |||
<span class="GRef">धवला पुस्तक 15/33/7 </span><p class="PrakritText">ओगाहणलक्खणमायासदव्वं।</p> | |||
<p class="HindiText">= आकाश द्रव्य का असाधारण लक्षण अवगाहन देना है।</p> | |||
<span class="GRef">आलापपद्धति अधिकार 2/1/134</span> <p class="SanskritText">आकाशद्रव्ये अवगाहनाहेतुत्वमर्मूतत्वमचेतनत्वमिति।</p> | |||
<p class="HindiText">= आकाश द्रव्य के अवगाहना हेतुत्व, अमूर्तत्व और अचेतनत्व में (विशेष) गुण हैं।</p> | |||
<span class="GRef">प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 133</span> <p class="SanskritText">विशेषगुणो हियुगपतसर्वद्रव्याणां साधारणावगाहहेतुत्वामाकाशस्य।</p> | |||
<p class="HindiText">= युगपत् सर्व द्रव्यों के साधरण अवगाह का हेतुत्व आकाश का विशेष गुण है।</p> | |||
<p class="HindiText" id="2.4"><b>4. आकाश के 16 सामान्य विशेष स्वभाव</b></p> | |||
<span class="GRef">नयचक्रवृहद् गाथा 70</span> <p class="PrakritText">इगवीसं तु सहावा दोण्हं (1) तिण्हं (2) तु सोडसा भणिया। पंचदसा पुण काले दव्वसहावा (3) य णयव्वा ॥70॥</p> | |||
<p class="HindiText">= जीव व पुद्गलके 21 स्वभाव, धर्म, अधर्म, और आकाश द्रव्य के 16 स्वभाव, तथा कालद्रव्य के 15 स्वभाव कहे गये हैं।</p> | |||
<p class="HindiText"><span class="GRef">(आलापपद्धति अधिकार 4)</span></p> | |||
<span class="GRef">नयचक्रवृहद् गाथा 70</span> <p class="HindiText">(सद्रूप, असद्रूप, नित्य, अनित्य, एक, अनेक, भेद, अभेद, भव्य, अभव्य, स्वभाव, विभाव, चैतन्य, अचैतन्य, मूर्त, अमूर्त, एक प्रदेशी, अनेक प्रदेशी, शुद्ध, अशुद्ध, उपचरित, अनुपचरित, एकांत, अनेकांत। इन चौबीसमें-से अनेक, भव्य, अभव्य, विभाव, चैतन्य, मूर्त, एक प्रदेशत्व, अशुद्ध। इन आठ रहित 16 सामान्य विशेष स्वभाव आकाश द्रव्यमें हैं) </p> | |||
<p class="HindiText"><span class="GRef">(आलापपद्धति अधिकार 4)</span></p> | |||
<p class="HindiText" id="2.5"><b>5. आकाश का आधार</b></p> | |||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 3/1/204</span> <p class="SanskritText">आकाशमात्मप्रतिष्ठम्।</p> | |||
<p class="HindiText">= आकाश द्रव्य स्वयं अपने आधार से स्थिति है।</p> | |||
<p class="HindiText"><span class="GRef">( सर्वार्थसिद्धि अध्याय 5/12/277)</span> <span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 3/1/8/160/16)</span></p> | |||
<span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 5/12/2-4/454 </span><p class="SanskritText">आकाशस्यापि अन्याधारकल्पनेति चेत्, न; स्वप्रतिष्ठत्वात् ॥2॥ ततोऽधिकप्रमाणद्रव्यांतराधाराभावत् ॥3॥ तथा चानवस्थानिवृत्तिः ॥4॥</p> | |||
<p class="HindiText">= <b>प्रश्न</b> - आकाश का भी कोई अन्य आधार होना चाहिए? <b>उत्तर</b> - नहीं, वह स्वयं अपने आधार पर ठहरा हुआ है ॥2॥ उससे अधिक प्रमाण वाले दूसरे द्रव्य का अभाव होने के कारण भी उसका आधारभूत कोई दूसरा नहीं हो सकता ॥3॥ यदि किसी दूसरे आधार की कल्पना की जाये तो उससे अनवस्था दोष का प्रसंग आयेगा, परंतु स्वयं अपना आधारभूत होनेसे वह नहीं आ सकता है।</p> | |||
<p class="HindiText" id="2.6"><b>6. अखंड आकाशमें खंड कल्पना</b></p> | |||
<span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 5/8/5-6/450/3</span> <p class="SanskritText">एकद्रव्यस्य प्रदेशकल्पना उपचारतः स्यात्। उपचारश्च मिथ्योक्तिर्न तत्त्वपरीक्षायामधिक्रियते प्रयोजनाभावात्। न हि मृगतृष्णिकया मृषार्थात्मिकया जलकृत्यं क्रियते इति: तन्न: किं कारणम्। मुख्यक्षेत्राविभागात्। मुख्य एव क्षेत्रविभागः, अन्यो हि घटावगाह्यः आकाशप्रदेशः इतरावगाह्यश्चान्य इति। यदि अन्यत्वं न स्यात् व्याप्तित्वं व्याहन्यते ॥5॥ निरवयवत्वानुपपत्तिरिति चेत्; न; द्रव्यविभागाभावत् ॥6॥</p> | |||
<p class="HindiText">= एक द्रव्य यद्यपि अविभागी है वह घट की तरह संयुक्त द्रव्य नहीं है। फिर भी उसमें प्रवेश वास्तविक हैं उपचार से नहीं। घर के द्वारा जो आकाश का क्षेत्र अवगाहित किया जाता है वह पटादि के द्वारा नहीं। दोनों जुदे-जुदे हैं। यदि प्रदेश भिन्नता न होती तो वह सर्वव्यापी नहीं हो सकता था। अतः द्रव्य अविभागी होकर भी प्रदेशशून्य नहीं हैं। अनेक प्रदेशी होते हुए भी द्रव्यरूप से उन प्रदेशों के विभाग न होने के कारण निरवयव और अखंड द्रव्य मानने में कोई बाधा नहीं है।</p> | |||
<span class="GRef">प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 140/198 </span><p class="SanskritText">अस्ति चाविभागैकद्रव्यत्वेऽप्यंशकल्पनमाकाशस्य, सर्वेषामणुनामवकाशदानस्यान्यथानुपपत्तेः। यदि पुनराकाशस्यांशा न स्युरिति मतिस्तदांगुलीयलं नभसि प्रसार्य निरूप्यतां किमेकं क्षेत्रं किमनेकम्॥</p> | |||
<p class="HindiText">= आकाश अविभाग (अखंड) एक द्रव्य है। फिर भी उसमें (प्रदेश रूप) खंड कल्पना हो सकती है, क्योंकि यदि, ऐसा न हो तो सब परमाणुओं को अवकाश देना नहीं बनेगा। ऐसा होनेपर भी, यदि आकाश के अंश नहीं होते (अर्थात् अंश कल्पना नहीं की जाती) ऐसी मान्यता हो तो आकाश में दो अँगुलिया फैलाकर बताइये कि दो अंगुलियों का एक क्षेत्र है या अनेक? (अर्थात् यह दो अंगुल आकाश है यह व्यवहार तभी बनेगा जबकि अखंड द्रव्य में खंड कल्पना स्वीकार की जाये।)</p> | |||
<span class="GRef">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 27/75</span> <p class="SanskritText">निर्विभागद्रव्यस्यापि विभागकल्पनमायातं घटाकाशपटाकाशमित्यादिवदिति। </p> | |||
<p class="HindiText">= घटाकाश व पटाकाश की तरह विभाग रहित आकाश द्रव्य की भी विभाग कल्पना सिद्ध हुई। </p> | |||
<p class="HindiText"><span class="GRef">(पंचास्तिकाय संग्रह / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 5/15)</span></p> | |||
<p class="HindiText" id="2.7"><b>7. लोकाकाश व अलोकाकाश की सिद्धि</b></p> | |||
<span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 5/18/10-13/467/24</span> <p class="SanskritText">अजातत्वादभाव इति चेत् न; असिद्धेः ॥10॥ ...द्रव्यार्थिकगुणभावे पर्यायार्थिकप्रधान्यात् स्वप्रत्ययागुरुलघुगुणवृद्धिहानिविकल्पापेक्षया अवगाहकजीवपुद्गलपरप्रत्ययावगाहभेदविवक्षया च आकाशस्य जातत्वोपपत्तेः हेतोरसिद्धि:। अथवा, व्ययोत्पादौ आकाशस्य दृश्यते। यथा चरमसमयस्यासर्वज्ञस्य सर्वज्ञत्वेनोत्यादस्तथोपलब्धेः असर्वज्ञत्वेन व्ययस्तथानुपलब्धेः; एवं चरमसमयस्यासर्वज्ञस्य साक्षादनुपलभ्यमाकाशं सर्वज्ञत्वोपपत्तौ उपलभ्यत इति उपलभ्यत्वेनोत्पन्नमनुपलभ्यत्वेन च विनष्टम्। अनावृत्तिराकाशमिति चेत; न; नामवत् तत्सिद्धेः ॥11॥ ...यथा नाम वेदनादि अमूर्तत्वात् अनावृत्यपिसदस्तीत्यभ्युपगम्यते, तथा आकाशमपि वस्तुभूतमित्यवसेयम्। शब्दलिंगत्वादिति चेत्; नः पौद्गलिकत्वात् ॥12॥ प्रधान विकार आकाशमिति चेत; नः तत्परिणामाभावात् आत्मवत् ॥13॥</p> | |||
<p class="HindiText">= <b>प्रश्न</b> - आकाश उत्पन्न नहीं हुआ इसलिए उसका अभाव है? <b>उत्तर</b> - आकाश को अनुत्पन्न कहना असिद्ध है। क्योंकि द्रव्यार्थिक की गौणता और पर्यायार्थिक की मुख्यता होने पर अगुरुलघु गुणों की वृद्धि और हानि के निमित्त से स्वप्रत्यय उत्पाद व्यय और अवगाहक जीव पुद्गलों के परिणमन के अनुसार परप्रत्यय उत्पाद व्यय आकाश में होते ही रहते हैं। जैसे-कि अंतिम समय में असर्वज्ञता का विनाश होकर किसी मनुष्य को सर्वज्ञता उत्पन्न हुई हो तो आकाश पहले अनुपलभ्य था वही पीछे सर्वज्ञ को उपलभ्य हो गया। अतः आकाश भी अनुपलभ्यत्वेन विनष्ट होकर उपलभ्यत्वेन उत्पन्न हुआ ॥10॥ <b>प्रश्न</b> - आकाश आवरणाभाव मात्र है? <b>उत्तर</b> - नहीं किंतु वस्तुभूत है। जेसे कि नाम और वेदनादि अमूर्त होने से अनावरणरूप होकर भी सत् हैं, उसी तरह आकाश भी ॥11॥ <b>प्रश्न</b> - अवकाश देना यह आकाश का लक्षण नहीं हैं? क्योंकि उसका लक्षण शब्द है। <b>उत्तर</b> - ऐसा नहीं है क्योंकि शब्द पौद्गलिक है और आकाश अमूर्तिक। <b>प्रश्न</b> - आकाश तो प्रधान का विकार है? <b>उत्तर</b> - नहीं क्योंकि नित्य तथा निष्क्रिय व अनंत रूप प्रधान के आत्मा की भांति विकार ही नहीं हो सकता।</p> | |||
<p class="HindiText">(विशेष देखें तत्त्वार्थसार अधिकार - 1.परि...पृ. 166/शोलापुर वाले पं. बंशीधर) ।</p> | |||
<span class="GRef">पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 23</span> <p class="SanskritText">सोऽप्यलोको न शून्योऽस्ति षड्भिर्द्रव्यैरशेषतः। व्योममात्रवशेषत्वाद् व्योमात्मा केवलं भवेत् ॥23॥</p> | |||
<p class="HindiText">= वह अलोक भी संपूर्ण छहों द्रव्यों से शून्य नहीं है किंतु आकाश मात्र शेष रहने से वह अन्य पाँच द्रव्यों से रहित केवल आकाशमय है।</p> | |||
<p class="HindiText"><b>3. अवगाहना संबंधी विषय</b></p> | |||
<p class="HindiText"id="3.1"><b>1. सर्वावगाहना गुण आकाश में ही है अन्य द्रव्य में नहीं तथा हेतु</b></p> | |||
<span class="GRef">प्रवचनसार/तत्त्व प्रदीपिका/133</span> <p class="SanskritText">विशेषगुणो हि युगपत्सर्वद्रव्याणां साधारणावगाहहेतुत्वमाकाशस्य...एवममूर्तानां विशेषगुणसंक्षेपाधिगमे लिंगम्। तत्रैककालमेव सकलद्रव्यसाधारणावगाहसंपादनमसर्वगतत्वादेव शेषद्रव्यणामसंभवदाकाशमधिगमयति।</p> | |||
<p class="HindiText">= युगपत् सर्व द्रव्यों के साधारण अवगाह का हेतुत्व आकाश का विशेष गुण है।...इस प्रकार अमूर्त द्रव्यों के विशेष गुणों का ज्ञान होने पर अमूर्त द्रव्यों को जानने के लिए लिंग प्राप्त होते हैं। (अर्थात् विशेष गुणों के द्वारा अमूर्त द्रव्यों का ज्ञान होता है)..वहाँ एक ही काल में समस्त द्रव्यों के साधारण अवगाह का संपादन (अवगाह हेतुत्व रूप लिंग) आकाश को बतलाता है, क्योंकि शेष द्रव्यों के सर्वगत न होने से उनके यह संभव नहीं है।</p> | |||
<p class="HindiText" id="3.2"><b>2. लोकाकाश में अवगाहना गुण का माहात्म्य</b></p> | |||
<span class="GRef">धवला पुस्तक 4/1,3,2/24/2</span> <p class="PrakritText">तम्हा ओगहणलक्खणेण सिद्धलोगागासस्स ओगाहणमाहप्पमाइरियपरंपरागदोवदेसेण भणिस्सामो। तं जहा-उस्सेहघणंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्ते खेत्ते सुहुमणिगोदजीवस्स जहण्णोगाहणा भवदि। तम्हि ट्ठिदघणलोगमेत्तजीवपदेसेसु पडिपदेसमभव सिद्धिएहि अणंतगुणा सिद्धाणमणंतभागमेत्ता होदूण ट्ठिदओरालियशरीरपरमाणूणं तं चेव खेत्तभोगासं जादि। पुणो आरालियसरीरपरमाणूहिंतो अणंतगुणाणं तेजइयसरीरपरमाणूणं पि तम्हि चेव खेत्ते आगोहणा भवदि।...तेजइयपरमाणूहिंतो अणंतगुणा कम्मइपरमाणू तेणेव जीवेण मिच्छत्तादिकारणेहिं संचिदापडिपदेसमभवसिद्धिएहि अणंतगुणा सिद्धाणमणंतभागमेत्ता तत्थ भवंति, तेसिं पि तम्हि चेव खेत्ते ओगाहणा भवदि। पुणो ओरालिय-तेजा-कम्मइय-विस्ससोवचयाणं पदिक्कं सव्वजीवेहि अणंतगुणाणं पडिपरमाणुम्हि तत्तियमेत्ताणं तम्हि चेव खेत्ते ओगाहणा भवदि। एवमेगजीवेणच्छिदअंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्ते जहण्णखेत्तम्हि समाणोगाहणा होदूण विदिओ जीवो तत्थेव अच्छदि। एवमणंताणंताणं समाणोगाहणाणं जीवाणं तम्हि चेव खेत्ते ओगाहणा भवदि। तदो अवरो जीवो तम्हि चेव मज्झिमपदेसमंतिमं काऊण उवव्वणो। एदस्स वि ओगाहणाए अणंताणंत जीवा समाणोगाहणा अच्छंति त्ति पुव्वं व परूवेदव्वं। एवमेगेपदेसा सव्वदिसासु वड्ढावेदव्वा जाव लोगो आवुण्णो त्ति।</p> | |||
<p class="HindiText">= अब हम अवगाहण लक्षण से प्रसिद्ध लोकाकाश के अवगाहन माहात्म्य को आचार्य परंपरागत उपदेश के अनुसार कहते हैं। वह इस प्रकार है-उत्सेधांगुल के असंख्यातवें भाग मात्र क्षेत्र में सूक्ष्म निगोदिया जीव की जघन्य अवगाहना है। उस क्षेत्र में स्थित घनलोक मात्र जीव के प्रदेश में-से प्रत्येक प्रदेश पर अभव्य जीवों से अनंतगुणे और सिद्धों के अनंतवें भाग मात्र होकर के स्थित औदारिक शरीर के परमाणुओं का वही क्षेत्र अवकाश पने को प्राप्त होता है। पुनः औदारिक शरीर के परमाणुओं से अनंतगुणे तेजस्कशरीर के परमाणुओं की भी उसी क्षेत्र में अवगाहना होती है। तैजस परमाणुओं से अनंतगुणे उस ही जीव के द्वारा मिथ्यात्व अविरति आदि कारणों से संचित और प्रत्येक प्रदेश पर अभव्य जीवों से अनंतगुणे तथा सिद्धों के अनंतवें भाग मात्र कर्म परमाणु उस क्षेत्र में रहते है। इसलिए उन कर्म परमाणुओं की भी उस ही क्षेत्र में अवगाहना होती है। पुनः औदारिक शरीर, तैजस शरीर और कार्माण शरीर के विस्रसोपचयों का जो कि प्रत्येक सर्व जीवों से अनुंतगुणे हैं और प्रत्येक परमाणु पर उतने ही प्रमाण है। उसकी भी उसी ही क्षेत्र में अवगाहना होती है। इस प्रकार एक जीव से व्याप्त अंगुल के असंख्यात्वे भागमात्र उसी जघन्य क्षेत्र में समान अवगाहना वाला होकर के दूसरा जीव भी रहता है। इसी प्रकार समान अवगाहना वाले अनंतानंत जीवों की उसी ही क्षेत्र में अवाहना होती है। तत्पश्चात् दूसरा कोई जीव उसी क्षेत्र में उसके मध्यवर्ती प्रदेश को अपनी अवगाहना का अंतिम प्रदेश करके उत्पन्न हुआ। इस जीव की भी अवगाहना में समान अवगाहना वाले अनंतानंत जीव रहते हैं। इस प्रकार यहाँ भी पूर्व के समान प्ररुपणा करनी चाहिए। इस प्रकार लोक के परिपूर्ण होने तक सभी दिशाओं में लोक का एक एक प्रदेश बढ़ाते जाना चाहिए।</p> | |||
<p class="HindiText" id="3.3"><b> 3. लोक/असं.प्रदेशों पर एकानेक जीवों की अवस्थान विधि</b></p> | |||
<span class="GRef">तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 5/15</span> <p class="SanskritText">(लोकाकाशस्य) असंख्येयभागादिषु जीवनाम् (अवगाहः)।</p> | |||
<p class="HindiText">= जीवों का अवगाह लोकाकाश के असंख्यातवें भाग को आदि लेकर सर्वलोक पर्यंत होता है।</p> | |||
<span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 5/15/3-4/457/31</span> <p class="SanskritText">लोकस्य प्रदेशाः असंख्येया भागाः कृताः, तत्रैकस्मिन्नसंख्येयभागे एको जीवोऽवतिष्ठते। तथा द्वित्रिचतुरादिष्वपि असंख्येयभागेषु आ सर्वलोकादवगाहः प्रत्येतव्यः। नानाजीवानाम् तु सर्वलोक एव।...असंख्येस्याऽसंख्येयविकल्पत्वात्। अजघन्योत्कृष्टासंख्येयस्या हि असंख्येय विकल्पाः अतोऽवगाहविकल्पो जीवानां सिद्धः।</p> | |||
<span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 5/8/4/449/33</span> <p class="SanskritText">जीवः तावत्प्रदेशोऽपि संहरणविसर्पणस्वभावत्वात् कर्मनिर्वर्तितं शरीरमणु महाद्वा अधितिष्ठंस्तावदवगाह्य वर्तते। यदा तु लोकपूरणं भवति तदा मंदरस्याधश्चित्रवज्रपटलयोर्मध्ये जीवस्याष्टौ मध्यप्रदेशाः व्यवतिष्ठंते, इतरे प्रदेशाः ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् च कृत्स्नं लोकाकाशं व्यश्नुवते।</p> | |||
<p class="HindiText">= लोक के असंख्यात प्रदेश हैं, उनके असंख्यात भाग किये जायें। एक असंख्येय भाग में भी जीव रहता है तथा दो तीन चार आदि असंख्येय भागों में और संपूर्ण लोक में जीवों का अवगाह समझना चाहिए। नाना जीवों की अवगाह तो सर्व लोक है। असंख्यात के भी असंख्यात विकल्प हैं। और अजघन्योत्कृष्ट असंख्येय के असंख्येय विकल्प हैं। अतः जीवों के अवगाह में भेद भी हो जाता है। तथा जीव के असंख्यातप्रदेशी होने पर भी संकोचविस्तार शील होने से कर्म के अनुसार प्राप्त छोटे या बड़े शरीर में तत्प्रमाण होकर रहता है जब इसकी समुद्घात काल में लोकपूरण अवस्था होती है तब इसके मध्यवर्ती आठ प्रदेश सुमेरु पर्वतके नीचे चित्र और वज्रपटलके मध्य के आठ प्रदेशों पर स्थित हो जाते हैं, बाकी प्रदेश ऊपर नीचे चारों ओर फैल जाते है।</p> | |||
<p class="HindiText" id="3.4"><b>4. अवगाहना गुणों की सिद्धि</b></p> | |||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 5।18/284</span> <p class="SanskritText">यद्यवकाशदानमस्य स्वभावो वज्रादिभिर्लोष्टदीनां भित्त्यादिभिर्गवादीनां च व्याघातो न प्राप्नोति। दृश्यते च व्याघातः। तस्मादस्यावकाशदानं हीयते इति। नैष दोषः, वज्रलोष्टादीनां स्थूलनांपरस्पर व्याघात इति नास्यावकाशदानसामर्थ्य हीयते तत्रावगाहिनामेवव्याघातात्। वज्रादयः पुनः स्थूलत्वात्परस्परं प्रत्यवकाशदानं न कुर्वंतीति नासावाकाशदोषः ये खलु पुद्गलाः सूक्ष्मास्ते परस्परं प्रत्यवकाशदानं कुर्वंति। यद्येवं नेदमाकाशस्यासाधारणं लक्षणम्; इतरेषामपि तत्सद्भावादिति। तन्न; सर्वपदार्थोनां साधारणावगाहनहेतुत्वमस्यासाधारणं लक्षणमिति नास्ति दोषः। अलोकाकाशे तद्भावादभाव इति चेत्; न; स्वाभावापरित्यागात्।</p> | |||
<p class="HindiText">= <b>प्रश्न</b> - यदि अवकाश देना आकाश का स्वभाव है तो वज्रादिक से लोढा आदि का और भीत आदि से गाय का व्याघात नहीं प्राप्त होता, किंतु व्याघात तो देखा जाता है इससे मालूम होता है कि अवकाश देना आकाश का स्वभाव नहीं ठहरता है? <b>उत्तर</b> - यह कोई दोष नहीं है क्योंकि वज्र और लोढा आदिक स्थूल पदार्थ हैं इसलिए इनका आपस में व्याघात है, अतः आकाश की अवगाह देने रूप सामर्थ्य नहीं नष्ट होती। यहाँ जो व्याघात दिखाई देता है वह अवगाहन करने वाले पदार्थों का ही है। तात्पर्य यह है कि वज्रादित स्थूल पदार्थ हैं, इसलिए वे परस्पर में अवकाश नहीं देते हैं यह कुछ आकाश का दोष नहीं है। हाँ जो पुद्गल सूक्ष्म होते हैं वे परस्पर अवकाश देते हैं। <b>प्रश्न</b> - यदि ऐसा है तो यह आकाश का असाधारण लक्षण नहीं रहता, क्योंकि दूसरे पदार्थो में भी इसका सद्भाव पाया जाता है? <b>उत्तर</b> - नहीं, क्योंकि आकाश द्रव्य सब पदार्थों को अवकाश देने में साधारण कारण है यही इसका असाधारण लक्षण है, इसलिए कोई दोष नहीं है। <b>प्रश्न</b> - अलोकाकाश में अवकाश देने रूप स्वभाव नहीं पाया जाता, इससे ज्ञात होता है कि यह आकाश का स्वभाव नहीं है? <b>उत्तर</b> - नहीं, क्योंकि कोई भी द्रव्य अपने स्वभाव का त्याग नहीं करता।</p> | |||
<span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 5/1/23/434/6</span> <p class="SanskritText">अलोकाकाशस्यावकाशदानाभावात्तदभाव इति चेत्; न; तत्सामर्थ्याविरहात् ॥23॥ ...क्रियानिमित्तत्वेऽपि रूढिविशेषबललाभात् गोशब्दवत् तदभावेऽपि प्रवर्तते</p> | |||
<p class="HindiText">= <b>प्रश्न</b> - अलोकाकाश में द्रव्यों का अवगाहन न होने से यह उसका स्वभाव घटित नहीं होता? <b>उत्तर</b> - शक्ति की दृष्टि से उसमें भी आकाश का व्यवहार होता है। क्रिया का निमित्तपना होने पर भी रूढि विशेष के बल से भी अलोकाकाश को आकाश संज्ञा प्राप्त हो जाती है, जिस प्रकार बैठी हुई गऊ में चलन क्रिया का अभाव होने पर भी चलन शक्ति के कारण गौ शब्द की प्रवृत्ति देखी जाती है।</p> | |||
<span class="GRef">गोम्मट्टसार जीवकांड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 605/1060/5</span> <p class="SanskritText">ननु क्रियावतोरवगाहिजीवपुद्गलयोरेवावकाशदानं युक्तं धर्मादीनां तु निष्क्रियाणां नित्यसंबद्धानां तत् कथम्? इति तन्न उपचारेण तत्सिद्धेः। यथा गमानाभावेऽपि सर्वगतामाकाशमित्युच्यते सर्वत्र सद्भवात् तथा धर्मादीनां अवगाहनक्रियाया अभावेऽपि सर्वत्र दर्शनात् अवगाह इत्युपचर्यते।</p> | |||
<p class="HindiText">= <b>प्रश्न</b> - जो अवगाह क्रियावान तौ जीव पुद्गल हैं तिनिको अवकाश देना युक्त कहा। बहुरि धर्मादिक द्रव्य तो निष्क्रिय हैं, नित्य संबंध को धरैं हैं नवीन नाहीं आये जिनको अवकाश देना संभवै। ऐसे इहाँ कैसे कहिये सो कहौ? <b>उत्तर</b> - जो उपचार करि कहिये हैं जैसे गमन का अभाव होते संतै भी सर्वत्र सद्भाव की अपेक्षा आकाश को सर्वगत कहिये तैसे धर्मादि द्रव्यनिकैं अवगाह क्रिया का अभाव होते संतै भी लोक विषै सर्वत्र सद्भाव की अपेक्षा अवगाहन का उपचार कीजिये है। </p> | |||
<p class="HindiText"><span class="GRef">(सर्वार्थसिद्धि अध्याय 5/18/284/3)</span> <span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 5/18/2/466/18)</span>।</p> | |||
<p class="HindiText" id="3.5"><b>5. असंख्यात प्रदेशी लोक में अनंत द्रव्यों के अवगाहन की सिद्धि</b></p> | |||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 5/10/275</span> <p class="SanskritText">स्यादेतदसंख्यातप्रदेशो लोकः अनंतप्रदेशस्यांतानंतप्रदेशस्य च स्कंधस्याधिकरणमिति विरोधः....नैष दोषः; सूक्ष्मपरिणामावगाहशक्तियोगात्। परमाण्वादयो हि सूक्ष्मभावेन परिणता एकै कस्मिंनप्याकाशप्रदेशेऽनंतानंता अवतिष्ठंते अवगाहनशक्तिश्चैषाव्याहतास्ति। तस्मादेकस्मिन्नपि प्रदेशे अनंतानंतानामवस्थानं न विरुध्यते। (नायमेकांतः-अल्पेऽधिकरणे महद्द्व्यं नावतिष्ठते इति....प्रत्यविशेषः संघातविशेषः इत्यर्थः।...संहृतविसर्पितचंपकादिगंधादिवत् 6/राजवार्तिक )</p> | |||
<p class="HindiText">= <b>प्रश्न</b> - लोक असंख्यात प्रदेश वाला है इसलिए वह अनंतानंत प्रदेश वाले स्कंध का आधार है इस बात के मानने में विरोध आता है। <b>उत्तर</b> - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि सूक्ष्म परिणमन होने से और अवगाहन शक्ति के निमित्त से अनंत या अनंतानंत प्रदेश वाले पुद्गल स्कंधों का आकाश आधार हो जाता है। सूक्ष्म रूप से परिणत हुए परमाणु आकाश के एक-एक प्रदेश में अनंतानंत ठहर जाते हैं। इनकी यह अवगाहन शक्ति व्याघात रहित है। इसलिए आकाश के एक प्रदेश में भी अनंतानंत पुद्गलों का अवस्थान विरोध को प्राप्त नहीं होंता। फिर यह कोई एकांतिक नियम नहीं है कि छोटे आधार में बड़ा द्रव्य ठहर ही नहीं सकता हो। पुद्गलों में विशेष प्रकार सघन संघात होने से क्षेत्र में बहुतों का अवस्थान हो जाता है जैसे कि छोटी-सी चंपा की कली में सूक्ष्म रूप से बहुत से गंधावयव रहते हैं, पर वे ही जब फैलते हैं तो समस्त दिशाओं को व्याप्त कर लेते हैं।</p> | |||
<p class="HindiText"><span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 5/10/3-6/453/14)</span></p> | |||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 5/14/279</span> <p class="SanskritText">अवगाहनस्वभावत्वात्सूक्ष्मपरिणामाच्च मूर्तिमतामप्यवगाहो न विरुध्यते एकापवरके अनेकप्रदीपप्रकाशावस्थानवत्। आगमप्रामाण्याच्च तथाऽध्यवसेयम्।</p> | |||
<p class="HindiText">= (पुद्गलों का) अवगाहन स्वभाव है और सूक्ष्म रूप से परिणमन हो जाता है इसलिए एक मकान में जिस प्रकार अनेक दीपकों का प्रकाश रह जाता है उसी प्रकार-मूर्तमान पुद्गलों का एक जगह अवगाह विरोध को प्राप्त नहीं होता तथा आगम प्रमाण से यह बात जानी जाती है।</p> | |||
<p class="HindiText"><span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 5/13/4-6/427)</span></p> | |||
<span class="GRef">राजवार्तिक अध्याय 5/15/5/458/7</span> <p class="SanskritText">प्रमाणविरोधादवगाहायुरिति चेत्।...तन्न; किं कारणम् जीवद्वै विध्यात्। द्विविधा जीवा; बादराः सूक्ष्माश्चेति। तत्र बादराः सप्रतिघातशरीराः। सूक्ष्मा जीवाः सूक्ष्मपरिणामादेव सशरीरत्वेऽपि परस्परेण बादरैश्च न प्रतिहंयंत इत्यप्रतिघातशरीराः। ततो यत्रैकसूक्ष्मनिगोतजीवस्तिष्ठति तत्रानंतानंताः साधारणशरीराः वसंति। बादराणां च मनुष्यादीनां शरीरेषु सस्वेदजसंमूर्च्छनजादीनां जीवानां प्रतिशरीरं बहूनामवस्थानमिति नास्तयवगाहविरोधः। यदि बादरा एव जीवा अभविष्यन्नपितर्हि अवगाहविरोधोऽजनिष्यत। कथं सशरीरस्यात्मनोऽप्रतिघातत्वमिति चेत् दृष्टत्वात् दृश्यते हि बालाग्रकोटिमात्रछिद्ररहितं धनबहलायसभित्तितले वज्रमयकपाटे बहिः समंतात् वज्रलेपलिप्ते अपवरके देवदत्तस्य मृतस्य मूर्तिमज्ज्ञानावरणादिकर्मतैजसकार्माणशरीरसंबंधित्वेऽपि गृहमभित्त्वैवनिर्गमनम्, तथा सूक्ष्मनिगोतानामप्यप्रतिघातित्वं वेदितव्यम्॥</p> | |||
<p class="HindiText">= <b>प्रश्न</b> - द्रव्य प्रमाण से जीव राशि अनंतानंत है तो वह असंख्यात प्रदेश प्रमाण लोकाकाश में कैसे रह सकती है? <b>उत्तर</b> - जीव बादर और सूक्ष्म के भेद से दो प्रकार के हैं। बादर जीव सप्रतिघात शरीरी होते हैं पर सूक्ष्म जीवों का सूक्ष्म परिणमन होने के कारण सशरीरी होने पर भी न तो बादरों से प्रतिघात होता है और न परस्पर ही। वे अप्रतिघातशरीरी होते हैं इसलिए जहाँ एक सूक्ष्म निगोद जीव रहता है वहीं अनंतानंत साधारण सूक्ष्म शरीरी रहते हैं। बादर मनुष्यादि के शरीरों में भी संस्वेदज आदि अनेक सम्मूर्छन जीव रहते हैं। यदि सभी जीव बादर ही होते तो अवगाह में गड़बड़ पड सकती थी। सशरीरी आत्मा भी अप्रतिघाति है यह बात तो अनुभव सिद्ध है। निश्छिद्र लोहे के मकान से, जिसमें वज्र के किवाड़ लगे हों, और वज्रलेप भी जिसमें किया गया हो, मर कर जीव कार्माण शरीर के साथ निकल जाता है। यह कार्माण शरीर मूर्तिमान ज्ञानावरणादि कर्मों का पिंडर है। तैजस शरीर भी इसके साथ सदा रहता है। मरण काल में इन दोनों शरीरों के साथ जीव वज्रमय कमरे से निकल जाता है और उस कमरे में कहीं भी छेद या दरार नहीं पड़ती। इसी तरह सूक्ष्म निगोदिया जीवों का शरीर भी अप्रतिघाती ही समझना चाहिए।</p> | |||
<span class="GRef">धवला पुस्तक 4/1,3,2/22/4</span> <p class="PrakritText">कधमणंता जीवा असंखेज्जपदेसिए लोए अच्छंति। ...लोगमज्झम्हि जदि होंति, तो लोगस्स असंख्येज्जदिभागमेत्तेहि चेव जीवेहि होदव्वमिदि? - णेदं घडदे, पोग्गलाणं पि असंखेज्जत्तप्पसंगादो...लोगमेत्ता परमाणू भवंति,... लोगमेत्तपरमाणूहि कम्मसरीरघड-पड-त्थंभादिसु एगो वि ण णिप्पज्जदे, अणंताणंतपरमाणुसमुदयसमागमेण विणा एक्किस्से ओसण्णासण्णियाए वि सभवाभावा। होदु चे ण, सयलपोग्गलदव्वस्स अणुवलद्धिप्पसंगादो, सव्वजीवाणमक्कमेण केवलणाणुप्पत्तिप्पसंगादो, च। एवमइप्पसंगो माहोदि त्ति अवगेज्झमाण जीवाजीवसत्तण्णहाणुववत्तीदो अवगाहणधम्मिओलोगागासो त्तिइच्छि दव्वो खीरकुंभस्स मधुकंभो व्व। </p> | |||
<p class="HindiText">= <b>प्रश्न</b> - असंख्यात प्रदेश वाले लोक में अनंत संख्या वाले जीव कैसे रह सकते हैं?..यदि लोक के मध्य में जीव रहते हैं (अलोक में नहीं) तो वे लोक के असंख्यातवें भाग मात्र में ही होने चाहिए? <b>उत्तर</b> - शंकाकार का उक्त कथन घटित नहीं होता, क्योंकि उक्त कथन के मान लेने पर पुद्गलों के भी असंख्यातपने का प्रसंग आता है।...अर्थात् लोकाकाश के प्रदेश प्रमाण ही परमाणु होंगे...तथा उन लोकप्रमाण परमाणुओं के द्वारा कर्म, शरीर, घटपट और स्तंभ आदिकों में-से एक भी वस्तु निष्पन्न नहीं हो सकती हैं, क्योंकि, अनंतानंत परमाणुओं के समुदाय का समागम हुए बिना एक अवसन्नपन्न संज्ञक भी स्कंध होना संभव नहीं है। <b>प्रश्न</b> - एक भी वस्तु निष्पन्न नहीं होवे, तो भी क्या हानि है? <b>उत्तर</b> - नहीं क्योंकि, ऐसा मानने पर समस्त पुद्गल द्रव्य की अनुपलब्धि का प्रसंग आता है, तथा सर्व जीवों के एक साथ ही केवलज्ञान की उत्पत्ति का भी प्रसंग प्राप्त होता है। (क्योंकि इतने मात्र परमाणुओं से यदि किसी प्रकार संभव भी हो तो भी एक ही जीव का कार्माण शरीर बन पायेगा अन्य सर्व जीव कर्मरहित हो जायेंगे)...इस प्रकार अतिप्रसंग दोष न आवे, इसलिए अवगाह्यमान जीव और अजीव द्रव्यों की सत्ता अन्यथा न बनने से क्षीर कुंभ का मधुकुंभ के समान अवगाहन धर्म वाला लोकाकाश है, ऐसा मान लेना चाहिए।</p> | |||
<span class="GRef">धवला पुस्तक 3/1,2,45/258/1</span> <p class="PrakritText">79228162514264337593543950336 एत्तियमेत्तमणुसपज्जत्तरासिम्हि संखेज्जपदरं गुलेहिं गुणिदे माणुसखेत्तादो संखेज्जगुणत्तप्पसंगा।...संखेज्जुसेहंगुलमेत्तोगाहणो मणुसपज्जत्तरासी सम्मादि त्ति णासंकणिज्जं, सव्वुक्कस्सोगाहणमणुसपज्जत्तरासिम्हि संखेज्जपमाणपदरं गुलमेत्तोगाहणगुणगारमुहवित्थारुवलं भादो।</p> | |||
<p class="HindiText">= <b>प्रश्न</b> - 79228162514264337593543950336 इतनी मनुष्य पर्याप्तराशि को सख्यात प्रतरांगुलों (मनुष्य का निवास क्षेत्र) से गुणा किया जाये तो उस प्रमाण को मनुष्य क्षेत्र से (45 लाख योजन व्यास = 1600903065460 1.19\256 वर्ग योजन = 9442510496819434000000000 प्रतरांगुल। इसमें-से दो समुद्रों का क्षेत्रफल घटाने पर शेष = 619708466816416200000000 प्रतरांगुल। अंतर्दीप तो हैं पर उनमें मनुष्य अत्यल्प होने से विवक्षा में नहीं लिये) संख्यात प्रसंग आ जावेगा। ...उसमें संख्यात् उत्सेधांगुल मात्र अवगाहना से युक्त मनुष्य पर्याप्त राशि समा जायेगी (अधिक नहीं)। <b>उत्तर</b> - सो ठीक नहीं, क्योंकि सबसे उत्कृष्ट अवगाहना से युक्त मनुष्य पर्याप्तराशि में संख्यात प्रमाण प्रतरांगुल मात्र अवगाहन के गुणकार का मुख विस्तार पाया जाता है (न कि सब मनुष्यों का)।</p> | |||
<span class="GRef">पंचास्तिकाय संग्रह / तात्पर्यवृत्ति / गाथा 90/150</span> <p class="SanskritText">अनंतानंतजीवात्सेभ्योऽप्यनंतगुणाः पुद्गला लोकाकाशप्रमितप्रदेशप्रमाणाः कालाणवो धर्माधर्मौ चेति सर्वे कथमवकाशं लभंत इति। भगवानाह। एकापवरके अनेकप्रदीपप्रकाशवदेकगूढनागरसगद्याणके बहुसुवर्णदेकस्मिनुष्टीक्षीरघटे मधुघटवदेकसिमन् भूमिगूहे जयघंटादिवद्विशिष्टावगाहगुणेनासंख्येयप्रदेशऽपि लोके अनंतसंख्या अपि जीवादयोऽवकाशं लभंत इत्यभिप्रायः।</p> | |||
<p class="HindiText">= <b>प्रश्न</b> - जीव अनंतानंत हैं, उसमें भी अनंत गुणे पुद्गल द्रव्य हैं, लोकाकाश प्रदेश प्रमाण काल द्रव्य है, तथा एक धर्म द्रव्य व एक अधर्म द्रव्य है। असंख्यात् प्रदेशी लोक में ये सब कैसे अवकाश पाते हैं? <b>उत्तर</b> - एक घर में जिस प्रकार अनेक दीपकों का प्रकाश समा रहा है, जिस प्रकार एक छोटे से गुटके में बहुत-सी सुवर्ण की राशि रहती है उष्ट्री के एक घट दूध में एक शहद का घड़ा समा जाता है, तथा एक भूमि गृह में जय-जय व घंटादि के शब्द समा जाते हैं, उसी प्रकार असंख्यात प्रदेशी लोक में विशिष्ट अवगाहन शक्ति के कारण जीवादि अनंत पदार्थ सहज अवकाश पा लेते हैं।</p> | |||
<p class="HindiText"><span class="GRef">(द्रव्यसग्रह/मूल 20/59)</span></p> | |||
<p class="HindiText" id="3.6"><b>6. एक प्रदेश पर अनंत द्रव्यों के अवगाह की सिद्धि</b></p> | |||
<span class="GRef">सर्वार्थसिद्धि अध्याय 5/10/275</span> <p class="SanskritText">परमाण्वादयो हि सूक्ष्मभावेन परिणता एकैकस्मिंनप्याकाशप्रदेशेऽनंतानंताः अवतिष्ठंते।</p> | |||
<p class="HindiText">= सूक्ष्म रूप से परिणत हुए पुद्गल परमाणु आकाश के एक-एक प्रदेश पर अनंतानंत ठहर सकते हैं।</p> | |||
<p><span class="GRef">(राजवार्तिक अध्याय 5/10/3-6/453)</span> (विशेष देखें [[ आकाश#3.5 | आकाश - 3.5]]।)</p> | |||
<span class="GRef">धवला पुस्तक 14/5,6,531/445/1</span> <p class="PrakritText">एगपदेसियस्स पोग्गलस्स होदु णाम एगागासपदेसे अवट्ठाणं, कथं दुपदेसिय-तिपदेसियसंखेज्जासंखेज्ज-अणंतपदेसियक्खंधाणंणतत्थावट्ठाणं ण, तत्थ अणंतोगाहगुणस्स संभवादो। तं पि कुदो णव्वदे जीव-पोगगलाणमाणं तियत्तण्णहाणुव्वत्ती दो।</p> | |||
<p class="HindiText">= <b>प्रश्न</b> - एक प्रदेशी पुद्गल का एक आकाश प्रदेश में अवस्थान होवो परंतु द्विप्रदेशी, त्रिप्रदेशी, संख्यात प्रदेशी, असंख्यात् प्रदेशी और अनंत प्रदेशी स्कंधों का वहाँ अवस्थान कैसे हो सकता है? <b>उत्तर</b> - नहीं। क्योंकि वहाँ अनंत को अवगाहन करने का गुण संभव है। <b>प्रश्न</b> - सो भी कैसे? <b>उत्तर</b> - जीव व पुद्गलों की अनंतपने की अन्यथा उपपत्ति संभव नहीं।</p> | |||
<span class="GRef">प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 140/198</span> <p class="SanskritText">स खल्वेकोऽपिशेषपंचद्रव्यप्रदेशानां सौक्ष्म्यपरिणतानंतपरमाणुस्कंधानां चावकाशदानसमर्थः।</p> | |||
<p class="HindiText">= वह आकाश का एक प्रदेश भी बाकी के पाँच द्रव्यों के प्रदेशों को तथा परम सूक्ष्मता रूप से परिणमे हुए अनंत परमाणुओं के स्कंधों को अवकाश देने के लिए समर्थ है।</p> | |||
<span class="GRef">द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 27</span> <p class="PrakritText">जावदियं आयासं अविभागीपुग्गलाणुउट्टद्धं। तं खु पदेसं जाणे सव्वाणुट्टुणदाणरिहं ॥27॥</p> | |||
<p class="HindiText">= जितना आकाश अविभागी पुद्गलाणु से रोका जाता है, उसको सर्व परमाणुओं को स्थान देने में समर्थ प्रदेश जानो॥</p> | |||
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== पुराणकोष से == | |||
<div class="HindiText"> <p class="HindiText"> जीव, अजीव, धर्म, अधर्म और काल का अवगाहक द्रव्य । यह स्पर्श रहित, क्रिया रहित और अमूर्त तथा सर्वत्र व्याप्त है । <span class="GRef"> महापुराण 24.138, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 72, 58.54 </span></p> | |||
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Latest revision as of 14:40, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
खाली जगह (Space) को आकाश कहते हैं। इसे एक सर्व व्यापक अखंड अमूर्त द्रव्य स्वीकार किया गया है। जो अपने अंदर सर्व द्रव्यों को समाने की शक्ति रखता है यद्यपि यह अखंड है पर इसका अनुमान कराने के लिए इसमें प्रदेशों रूप खंडों की कल्पना कर ली जाती है। यह स्वयं तो अनंत है परंतु इसके मध्यवर्ती कुछ मात्र भाग में ही अन्य द्रव्य अवस्थित हैं। उसके इस भाग का नाम लोक है और उससे बाहर शेष सर्व आकाश का नाम अलोक है। अवगाहना शक्ति की विचित्रता के कारण छोटे-से लोक में अथवा इसके एक प्रदेश पर अनंतानंत द्रव्य स्थित हैं।
- भेद व लक्षण
- आकाश निर्देश
- आकाश का आकार
- आकाश के प्रदेश
- आकाश द्रव्य के विशेष गुण
- आकाश के 16 सामान्य विशेष स्वभाव
- आकाश का आधार
- अखंड आकाश में खंड कल्पना
- लोकाकाश व अलोकाकाश की सिद्धि
- अवगाहना संबंधी विषय
- सर्वावगाहना गुण आकाश में ही है अन्य द्रव्य में नहीं तथा हेतु
- लोकाकाशमें अवगाहना गुण का माहात्मय
- लोक/अस. प्रदेशों पर एकानेक जीवों की अवस्थान विधि
- अवगाहना गुणों की सिद्धि
- असं. प्रदेशी लोक में अनंत द्रव्यों के अवगाह की सिद्धि
- एक प्रदेश पर अनंत द्रव्यों के अवगाह की सिद्धि
- अन्य संबंधित विषय
• अन्य द्रव्यों मे भी अवगाहन गुण - देखें अवगाहन
• अमूर्त आकाश के साथ मूर्त द्रव्यों के स्पर्श संबंधी - देखें स्पर्श - 2
• लोकाकाशमें वर्तना का निमित्त - देखें काल - 2
• अवगाहन गुण उदासीन कारण है -दे कारण III/2
• आकाशका अक्रियावत्त्व - देखें द्रव्य - 3
• आकाशमें प्रदेश कल्पना तथा युक्ति - देखें द्रव्य - 4
• आकाश द्रव्य अस्तिकाय है - देखें अस्तिकाय
• आकाश द्रव्यकी संख्या - देखें संख्या - 3
• लोकाकाश के विभाग का कारण धर्मास्तिकाय - देखें धर्माधर्म - 1
• लोकाकाश में उत्पादादि की सिद्ध - देखें उत्पाद व्ययध्रौव्य - 3
• शब्द आकाश का गुण नहीं - देखें शब्द - 2
• द्रव्यों को आकाश प्रतिष्ठित कहना व्यवहार है - देखें द्रव्य - 5
1. भेद व लक्षण
1. आकाश का सामान्य का लक्षण
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 5/4,6,7,18
नित्यावस्थितान्यरूपाणि ॥4॥ आ आकाशादेकद्रव्याणि ॥6॥ निष्क्रियाणि च ॥7॥ आकाशस्यावगाहः ॥18॥
= आकाश द्रव्य नित्य अवस्थित और अरूपी है ॥5॥ तथा एक अखंड द्रव्य है ॥6॥ व निष्क्रिय है ॥7॥ और अवगाह देना इसका उपकार है ॥18॥
पंचास्तिकाय/मूल 90
सव्वेसिं जीवाणं सेसाणं तह य पुग्गलाणं च। जं देदि विवरमखिलं तं लोगे हवदि आगासं ॥90॥
= लोक में जीवों को और पुद्गलों को वैसे ही शेष समस्त द्रव्यों का जो संपूर्ण अवकाश देता है वह आकाश द्रव्य है।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 5/18/284
जीवपुद्गलादीनामवगाहिनामवकाशदानमवगाह आकाशस्योपकारो वेदितव्यः॥
= अवगाहन करने वाले जीव और पुद्गलों को अवकाश देना आकाश का उपकार जानना चाहिए।
(गोमम्टसार जीवकाण्ड/जीव तत्त्व प्रदीपिका/605/1060/4)
राजवार्तिक अध्याय 5/1/21-22/434
आकाशंतेऽस्मिन द्रव्याणि स्वयं चाकाशत इत्याकाशम् ॥21॥ अवकाशदानाद्वा ॥22॥
= जिसमें जीवादि द्रव्य अपनी-अपनी पर्यायों के साथ प्रकाशमान हों तथा जो स्वयं अपने को प्रकाशित भी करे वह आकाश है ॥21॥ अथवा जो अन्य सर्व द्रव्यों को अवकाश दे वह आकाश है।
धवला पुस्तक 4/1,3,1/4/7
आगासं सपदेसं तु उड्ढाधो तिरओविय। खेत्तलोगं वियाणाहि अणंतजिण-देसिदं ॥4॥
= आकाश सप्रदेशी है, और वह ऊपर, नीचे और तिरछे सर्वत्र फैला हुआ है। उसे ही क्षेत्र लोक जानना चाहिए। उसे जिन भगवान ने अनन्त कहा है।
नयचक्रवृहद् गाथा 98
चेयणरहियममुत्तं अवगाहलक्खणं च सव्वगयं...। तं णहदव्वं जिणुद्दिट्ठं ॥98॥
= जो चेतन रहित अमूर्त सर्वद्रव्यों को अवगाह देनेवाला सर्व व्यापी है = उसको जिनेंद्र भगवान ने आकाश द्रव्य कहा है।
द्रव्यसग्रह/मूल/19/57
अवगासदाणजोग्गं जीवादीणं वियाण आयासम्... ॥19॥
= जो जीवादि द्रव्यों को अवकाश देने वाला है उसको जिनेंद्रदेव के द्वारा कहा हुआ आकाश द्रव्य जानो।
(नियमसार / तात्पर्यवृत्तिगाथा 9/24)
2. आकाश द्रव्यों के भेद
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 5/12/278
आकाशं, द्विधाविभक्तं लोकाकाशमेलोकाकाशं चेति।
= आकाश द्रव्य दो प्रकार का है-लोकाकाश और अलोकाकाश।
(राजवार्तिक अध्याय 5/12/18/456/10), ( नयचक्रवृहद् गाथा 98. ( द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 19)
3. लोकाकाश व आलोकाकाशके लक्षण
पंचास्तिकाय / / मूल या टीका गाथा 91
जीवा पुग्गलकाया धम्माधम्मा य लोगदोणण्ण। तत्तो अणण्णमण्णं आयासं अंतवदिरित्त ॥91॥
= जीव पुद्गलकाय, धर्म, अधर्म (तथा काल) लोक के अनन्य हैं। अंतरहित ऐसा आकाश उससे (लोक से) अनन्य तथा अन्य है।
बारसाणुवेक्खा गाथा 39
जीवादि पयट्ठाणं समवाओ सो णिरुच्चये लोगो। तिविहो हवेई लोगो अहमज्झिमउड्भेयेणं ॥39॥
= जीवादि छः पदार्थों का जो समूह है उसे लोक कहते हैं। और वह अधोलोक, ऊर्ध्वलोक व मध्यलोक के भेद से तीन प्रकार का है।
(कार्तिकेयानुप्रेक्षा/मूल116)
मूलाचार / आचारवृत्ति / गाथा 540
लोयदि लाओयदि पल्लोयदिसल्लोयदिति एगत्थो तह्माजिणेहिं कसिणं तेणेसो वुच्चदे लोओ ॥540॥
= जिस कारण से जिनेंद्र भगवान् का मतिश्रुतज्ञान की अपेक्षा साधारण रूप देखा गया है, मनःपर्यय ज्ञान की अपेक्षा कुछ उससे भी विशेष और केवलज्ञान की अपेक्षा संपूर्ण रूप से देखा गया है इसलिए वह लोक कहा जाता है।
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 5/12/278
धर्माधर्मादीनि द्रव्याणि यत्र लोक्यंते स लोक इति।
स यत्र तल्लोकाकाशम्। ततो बहिः सर्वतोऽनंतालोकाकाशम्।
= जहाँ धर्मादि द्रव्य विलोके जाते हैं उसे लोक कहते हैं। उससे बाहर सर्वत्र अनंत अलोकाकाश है।
(तिलोयपण्णति/प.4/164-135), (राजवार्तिक अध्याय 5/12/18/456/7), ( धवला पुस्तक 4/1,3,9/1), ( पंचास्तिकाय संग्रह / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 87/138), ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 128/180), (नयचक्रवृहद् गाथा 99), ( द्रव्यसंग्रह मूल 20), (पंचास्तिकाय संग्रह / तात्पर्यवृत्ति / गाथा 22/48), ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 22) ( त्रिलोकसार गाथा 5)
धवला पुस्तक 13/5,5,50/288/3
को लोकः। लोक्यंत उपलभ्यंते यस्मिन् जीवादयः पदार्थोः स लोकः।
= प्रश्न - लोक किसे कहते है? उत्तर - जिसमें जीवादि पदार्थ देखे जाते हैं अर्थात् उपलब्ध होते हैं उसे लोक कहते हैं।
(म.प्र.4/13), ( नयचक्रवृहद् गाथा 142-143)
4. प्राणायाम संबंधी आकाश मंडल
ज्ञानसार श्लोक 57
अग्निः त्रिकोणः रक्तः कृष्णश्चः प्रभंजनः तथावृतः। चतुष्कोणं पीतं पृथ्वी स्वेतं जलं शुद्धचंद्राभम् ॥57॥
= अग्नि त्रिकोण लाल रंग, पवन गोलाकार श्याम वर्ण, पृथ्वी चौकोण पीत वर्ण, तथा जल अर्ध चंद्राकार शीतल चंद्र समान होता है।
2. आकाश निर्देश
1. आकाश का आकार
आचारसार 3/24
व्योमामूर्त स्थितं नित्यं चतुरस्रं सम घनम्। अवगाहनाहेतवश्चांतानंत प्रदेशकम् ॥24॥
= आकाश द्रव्य अमूर्त है, नित्य अवस्थित है, घनाकार चौकोर है, अवगाहना का हेतु है, अनंतानंत प्रदेशी है।
2. आकाश के प्रदेश
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 5/9
आकाशस्यानंताः ॥9॥
= आकाश द्रव्य के अनंत प्रदेश हैं
( द्रव्यसंग्रह 25 ) (नियमसार / मूल या टीका गाथा 36) (गोम्मट्टसार जीवकांड / मूल गाथा 587/1025)
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 135/191
सर्वव्याप्यनंतप्रदेशप्रस्ताररूपत्वादाकाशस्य च प्रदेशवत्त्वम्।
= सर्वव्यापी अनंत प्रदेशों के विस्तार रूप होने से आकाश प्रदेशवान् है।
3. आकाश द्रव्य के विशेष गुण
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 5/18
आकाशस्यावगाहः ॥18॥
= अवगाहन देना आकाश द्रव्य का उपकार है।
धवला पुस्तक 15/33/7
ओगाहणलक्खणमायासदव्वं।
= आकाश द्रव्य का असाधारण लक्षण अवगाहन देना है।
आलापपद्धति अधिकार 2/1/134
आकाशद्रव्ये अवगाहनाहेतुत्वमर्मूतत्वमचेतनत्वमिति।
= आकाश द्रव्य के अवगाहना हेतुत्व, अमूर्तत्व और अचेतनत्व में (विशेष) गुण हैं।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 133
विशेषगुणो हियुगपतसर्वद्रव्याणां साधारणावगाहहेतुत्वामाकाशस्य।
= युगपत् सर्व द्रव्यों के साधरण अवगाह का हेतुत्व आकाश का विशेष गुण है।
4. आकाश के 16 सामान्य विशेष स्वभाव
नयचक्रवृहद् गाथा 70
इगवीसं तु सहावा दोण्हं (1) तिण्हं (2) तु सोडसा भणिया। पंचदसा पुण काले दव्वसहावा (3) य णयव्वा ॥70॥
= जीव व पुद्गलके 21 स्वभाव, धर्म, अधर्म, और आकाश द्रव्य के 16 स्वभाव, तथा कालद्रव्य के 15 स्वभाव कहे गये हैं।
(आलापपद्धति अधिकार 4)
नयचक्रवृहद् गाथा 70
(सद्रूप, असद्रूप, नित्य, अनित्य, एक, अनेक, भेद, अभेद, भव्य, अभव्य, स्वभाव, विभाव, चैतन्य, अचैतन्य, मूर्त, अमूर्त, एक प्रदेशी, अनेक प्रदेशी, शुद्ध, अशुद्ध, उपचरित, अनुपचरित, एकांत, अनेकांत। इन चौबीसमें-से अनेक, भव्य, अभव्य, विभाव, चैतन्य, मूर्त, एक प्रदेशत्व, अशुद्ध। इन आठ रहित 16 सामान्य विशेष स्वभाव आकाश द्रव्यमें हैं)
(आलापपद्धति अधिकार 4)
5. आकाश का आधार
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 3/1/204
आकाशमात्मप्रतिष्ठम्।
= आकाश द्रव्य स्वयं अपने आधार से स्थिति है।
( सर्वार्थसिद्धि अध्याय 5/12/277) (राजवार्तिक अध्याय 3/1/8/160/16)
राजवार्तिक अध्याय 5/12/2-4/454
आकाशस्यापि अन्याधारकल्पनेति चेत्, न; स्वप्रतिष्ठत्वात् ॥2॥ ततोऽधिकप्रमाणद्रव्यांतराधाराभावत् ॥3॥ तथा चानवस्थानिवृत्तिः ॥4॥
= प्रश्न - आकाश का भी कोई अन्य आधार होना चाहिए? उत्तर - नहीं, वह स्वयं अपने आधार पर ठहरा हुआ है ॥2॥ उससे अधिक प्रमाण वाले दूसरे द्रव्य का अभाव होने के कारण भी उसका आधारभूत कोई दूसरा नहीं हो सकता ॥3॥ यदि किसी दूसरे आधार की कल्पना की जाये तो उससे अनवस्था दोष का प्रसंग आयेगा, परंतु स्वयं अपना आधारभूत होनेसे वह नहीं आ सकता है।
6. अखंड आकाशमें खंड कल्पना
राजवार्तिक अध्याय 5/8/5-6/450/3
एकद्रव्यस्य प्रदेशकल्पना उपचारतः स्यात्। उपचारश्च मिथ्योक्तिर्न तत्त्वपरीक्षायामधिक्रियते प्रयोजनाभावात्। न हि मृगतृष्णिकया मृषार्थात्मिकया जलकृत्यं क्रियते इति: तन्न: किं कारणम्। मुख्यक्षेत्राविभागात्। मुख्य एव क्षेत्रविभागः, अन्यो हि घटावगाह्यः आकाशप्रदेशः इतरावगाह्यश्चान्य इति। यदि अन्यत्वं न स्यात् व्याप्तित्वं व्याहन्यते ॥5॥ निरवयवत्वानुपपत्तिरिति चेत्; न; द्रव्यविभागाभावत् ॥6॥
= एक द्रव्य यद्यपि अविभागी है वह घट की तरह संयुक्त द्रव्य नहीं है। फिर भी उसमें प्रवेश वास्तविक हैं उपचार से नहीं। घर के द्वारा जो आकाश का क्षेत्र अवगाहित किया जाता है वह पटादि के द्वारा नहीं। दोनों जुदे-जुदे हैं। यदि प्रदेश भिन्नता न होती तो वह सर्वव्यापी नहीं हो सकता था। अतः द्रव्य अविभागी होकर भी प्रदेशशून्य नहीं हैं। अनेक प्रदेशी होते हुए भी द्रव्यरूप से उन प्रदेशों के विभाग न होने के कारण निरवयव और अखंड द्रव्य मानने में कोई बाधा नहीं है।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 140/198
अस्ति चाविभागैकद्रव्यत्वेऽप्यंशकल्पनमाकाशस्य, सर्वेषामणुनामवकाशदानस्यान्यथानुपपत्तेः। यदि पुनराकाशस्यांशा न स्युरिति मतिस्तदांगुलीयलं नभसि प्रसार्य निरूप्यतां किमेकं क्षेत्रं किमनेकम्॥
= आकाश अविभाग (अखंड) एक द्रव्य है। फिर भी उसमें (प्रदेश रूप) खंड कल्पना हो सकती है, क्योंकि यदि, ऐसा न हो तो सब परमाणुओं को अवकाश देना नहीं बनेगा। ऐसा होनेपर भी, यदि आकाश के अंश नहीं होते (अर्थात् अंश कल्पना नहीं की जाती) ऐसी मान्यता हो तो आकाश में दो अँगुलिया फैलाकर बताइये कि दो अंगुलियों का एक क्षेत्र है या अनेक? (अर्थात् यह दो अंगुल आकाश है यह व्यवहार तभी बनेगा जबकि अखंड द्रव्य में खंड कल्पना स्वीकार की जाये।)
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 27/75
निर्विभागद्रव्यस्यापि विभागकल्पनमायातं घटाकाशपटाकाशमित्यादिवदिति।
= घटाकाश व पटाकाश की तरह विभाग रहित आकाश द्रव्य की भी विभाग कल्पना सिद्ध हुई।
(पंचास्तिकाय संग्रह / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 5/15)
7. लोकाकाश व अलोकाकाश की सिद्धि
राजवार्तिक अध्याय 5/18/10-13/467/24
अजातत्वादभाव इति चेत् न; असिद्धेः ॥10॥ ...द्रव्यार्थिकगुणभावे पर्यायार्थिकप्रधान्यात् स्वप्रत्ययागुरुलघुगुणवृद्धिहानिविकल्पापेक्षया अवगाहकजीवपुद्गलपरप्रत्ययावगाहभेदविवक्षया च आकाशस्य जातत्वोपपत्तेः हेतोरसिद्धि:। अथवा, व्ययोत्पादौ आकाशस्य दृश्यते। यथा चरमसमयस्यासर्वज्ञस्य सर्वज्ञत्वेनोत्यादस्तथोपलब्धेः असर्वज्ञत्वेन व्ययस्तथानुपलब्धेः; एवं चरमसमयस्यासर्वज्ञस्य साक्षादनुपलभ्यमाकाशं सर्वज्ञत्वोपपत्तौ उपलभ्यत इति उपलभ्यत्वेनोत्पन्नमनुपलभ्यत्वेन च विनष्टम्। अनावृत्तिराकाशमिति चेत; न; नामवत् तत्सिद्धेः ॥11॥ ...यथा नाम वेदनादि अमूर्तत्वात् अनावृत्यपिसदस्तीत्यभ्युपगम्यते, तथा आकाशमपि वस्तुभूतमित्यवसेयम्। शब्दलिंगत्वादिति चेत्; नः पौद्गलिकत्वात् ॥12॥ प्रधान विकार आकाशमिति चेत; नः तत्परिणामाभावात् आत्मवत् ॥13॥
= प्रश्न - आकाश उत्पन्न नहीं हुआ इसलिए उसका अभाव है? उत्तर - आकाश को अनुत्पन्न कहना असिद्ध है। क्योंकि द्रव्यार्थिक की गौणता और पर्यायार्थिक की मुख्यता होने पर अगुरुलघु गुणों की वृद्धि और हानि के निमित्त से स्वप्रत्यय उत्पाद व्यय और अवगाहक जीव पुद्गलों के परिणमन के अनुसार परप्रत्यय उत्पाद व्यय आकाश में होते ही रहते हैं। जैसे-कि अंतिम समय में असर्वज्ञता का विनाश होकर किसी मनुष्य को सर्वज्ञता उत्पन्न हुई हो तो आकाश पहले अनुपलभ्य था वही पीछे सर्वज्ञ को उपलभ्य हो गया। अतः आकाश भी अनुपलभ्यत्वेन विनष्ट होकर उपलभ्यत्वेन उत्पन्न हुआ ॥10॥ प्रश्न - आकाश आवरणाभाव मात्र है? उत्तर - नहीं किंतु वस्तुभूत है। जेसे कि नाम और वेदनादि अमूर्त होने से अनावरणरूप होकर भी सत् हैं, उसी तरह आकाश भी ॥11॥ प्रश्न - अवकाश देना यह आकाश का लक्षण नहीं हैं? क्योंकि उसका लक्षण शब्द है। उत्तर - ऐसा नहीं है क्योंकि शब्द पौद्गलिक है और आकाश अमूर्तिक। प्रश्न - आकाश तो प्रधान का विकार है? उत्तर - नहीं क्योंकि नित्य तथा निष्क्रिय व अनंत रूप प्रधान के आत्मा की भांति विकार ही नहीं हो सकता।
(विशेष देखें तत्त्वार्थसार अधिकार - 1.परि...पृ. 166/शोलापुर वाले पं. बंशीधर) ।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध श्लोक 23
सोऽप्यलोको न शून्योऽस्ति षड्भिर्द्रव्यैरशेषतः। व्योममात्रवशेषत्वाद् व्योमात्मा केवलं भवेत् ॥23॥
= वह अलोक भी संपूर्ण छहों द्रव्यों से शून्य नहीं है किंतु आकाश मात्र शेष रहने से वह अन्य पाँच द्रव्यों से रहित केवल आकाशमय है।
3. अवगाहना संबंधी विषय
1. सर्वावगाहना गुण आकाश में ही है अन्य द्रव्य में नहीं तथा हेतु
प्रवचनसार/तत्त्व प्रदीपिका/133
विशेषगुणो हि युगपत्सर्वद्रव्याणां साधारणावगाहहेतुत्वमाकाशस्य...एवममूर्तानां विशेषगुणसंक्षेपाधिगमे लिंगम्। तत्रैककालमेव सकलद्रव्यसाधारणावगाहसंपादनमसर्वगतत्वादेव शेषद्रव्यणामसंभवदाकाशमधिगमयति।
= युगपत् सर्व द्रव्यों के साधारण अवगाह का हेतुत्व आकाश का विशेष गुण है।...इस प्रकार अमूर्त द्रव्यों के विशेष गुणों का ज्ञान होने पर अमूर्त द्रव्यों को जानने के लिए लिंग प्राप्त होते हैं। (अर्थात् विशेष गुणों के द्वारा अमूर्त द्रव्यों का ज्ञान होता है)..वहाँ एक ही काल में समस्त द्रव्यों के साधारण अवगाह का संपादन (अवगाह हेतुत्व रूप लिंग) आकाश को बतलाता है, क्योंकि शेष द्रव्यों के सर्वगत न होने से उनके यह संभव नहीं है।
2. लोकाकाश में अवगाहना गुण का माहात्म्य
धवला पुस्तक 4/1,3,2/24/2
तम्हा ओगहणलक्खणेण सिद्धलोगागासस्स ओगाहणमाहप्पमाइरियपरंपरागदोवदेसेण भणिस्सामो। तं जहा-उस्सेहघणंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्ते खेत्ते सुहुमणिगोदजीवस्स जहण्णोगाहणा भवदि। तम्हि ट्ठिदघणलोगमेत्तजीवपदेसेसु पडिपदेसमभव सिद्धिएहि अणंतगुणा सिद्धाणमणंतभागमेत्ता होदूण ट्ठिदओरालियशरीरपरमाणूणं तं चेव खेत्तभोगासं जादि। पुणो आरालियसरीरपरमाणूहिंतो अणंतगुणाणं तेजइयसरीरपरमाणूणं पि तम्हि चेव खेत्ते आगोहणा भवदि।...तेजइयपरमाणूहिंतो अणंतगुणा कम्मइपरमाणू तेणेव जीवेण मिच्छत्तादिकारणेहिं संचिदापडिपदेसमभवसिद्धिएहि अणंतगुणा सिद्धाणमणंतभागमेत्ता तत्थ भवंति, तेसिं पि तम्हि चेव खेत्ते ओगाहणा भवदि। पुणो ओरालिय-तेजा-कम्मइय-विस्ससोवचयाणं पदिक्कं सव्वजीवेहि अणंतगुणाणं पडिपरमाणुम्हि तत्तियमेत्ताणं तम्हि चेव खेत्ते ओगाहणा भवदि। एवमेगजीवेणच्छिदअंगुलस्स असंखेज्जदिभागमेत्ते जहण्णखेत्तम्हि समाणोगाहणा होदूण विदिओ जीवो तत्थेव अच्छदि। एवमणंताणंताणं समाणोगाहणाणं जीवाणं तम्हि चेव खेत्ते ओगाहणा भवदि। तदो अवरो जीवो तम्हि चेव मज्झिमपदेसमंतिमं काऊण उवव्वणो। एदस्स वि ओगाहणाए अणंताणंत जीवा समाणोगाहणा अच्छंति त्ति पुव्वं व परूवेदव्वं। एवमेगेपदेसा सव्वदिसासु वड्ढावेदव्वा जाव लोगो आवुण्णो त्ति।
= अब हम अवगाहण लक्षण से प्रसिद्ध लोकाकाश के अवगाहन माहात्म्य को आचार्य परंपरागत उपदेश के अनुसार कहते हैं। वह इस प्रकार है-उत्सेधांगुल के असंख्यातवें भाग मात्र क्षेत्र में सूक्ष्म निगोदिया जीव की जघन्य अवगाहना है। उस क्षेत्र में स्थित घनलोक मात्र जीव के प्रदेश में-से प्रत्येक प्रदेश पर अभव्य जीवों से अनंतगुणे और सिद्धों के अनंतवें भाग मात्र होकर के स्थित औदारिक शरीर के परमाणुओं का वही क्षेत्र अवकाश पने को प्राप्त होता है। पुनः औदारिक शरीर के परमाणुओं से अनंतगुणे तेजस्कशरीर के परमाणुओं की भी उसी क्षेत्र में अवगाहना होती है। तैजस परमाणुओं से अनंतगुणे उस ही जीव के द्वारा मिथ्यात्व अविरति आदि कारणों से संचित और प्रत्येक प्रदेश पर अभव्य जीवों से अनंतगुणे तथा सिद्धों के अनंतवें भाग मात्र कर्म परमाणु उस क्षेत्र में रहते है। इसलिए उन कर्म परमाणुओं की भी उस ही क्षेत्र में अवगाहना होती है। पुनः औदारिक शरीर, तैजस शरीर और कार्माण शरीर के विस्रसोपचयों का जो कि प्रत्येक सर्व जीवों से अनुंतगुणे हैं और प्रत्येक परमाणु पर उतने ही प्रमाण है। उसकी भी उसी ही क्षेत्र में अवगाहना होती है। इस प्रकार एक जीव से व्याप्त अंगुल के असंख्यात्वे भागमात्र उसी जघन्य क्षेत्र में समान अवगाहना वाला होकर के दूसरा जीव भी रहता है। इसी प्रकार समान अवगाहना वाले अनंतानंत जीवों की उसी ही क्षेत्र में अवाहना होती है। तत्पश्चात् दूसरा कोई जीव उसी क्षेत्र में उसके मध्यवर्ती प्रदेश को अपनी अवगाहना का अंतिम प्रदेश करके उत्पन्न हुआ। इस जीव की भी अवगाहना में समान अवगाहना वाले अनंतानंत जीव रहते हैं। इस प्रकार यहाँ भी पूर्व के समान प्ररुपणा करनी चाहिए। इस प्रकार लोक के परिपूर्ण होने तक सभी दिशाओं में लोक का एक एक प्रदेश बढ़ाते जाना चाहिए।
3. लोक/असं.प्रदेशों पर एकानेक जीवों की अवस्थान विधि
तत्त्वार्थसूत्र अध्याय 5/15
(लोकाकाशस्य) असंख्येयभागादिषु जीवनाम् (अवगाहः)।
= जीवों का अवगाह लोकाकाश के असंख्यातवें भाग को आदि लेकर सर्वलोक पर्यंत होता है।
राजवार्तिक अध्याय 5/15/3-4/457/31
लोकस्य प्रदेशाः असंख्येया भागाः कृताः, तत्रैकस्मिन्नसंख्येयभागे एको जीवोऽवतिष्ठते। तथा द्वित्रिचतुरादिष्वपि असंख्येयभागेषु आ सर्वलोकादवगाहः प्रत्येतव्यः। नानाजीवानाम् तु सर्वलोक एव।...असंख्येस्याऽसंख्येयविकल्पत्वात्। अजघन्योत्कृष्टासंख्येयस्या हि असंख्येय विकल्पाः अतोऽवगाहविकल्पो जीवानां सिद्धः।
राजवार्तिक अध्याय 5/8/4/449/33
जीवः तावत्प्रदेशोऽपि संहरणविसर्पणस्वभावत्वात् कर्मनिर्वर्तितं शरीरमणु महाद्वा अधितिष्ठंस्तावदवगाह्य वर्तते। यदा तु लोकपूरणं भवति तदा मंदरस्याधश्चित्रवज्रपटलयोर्मध्ये जीवस्याष्टौ मध्यप्रदेशाः व्यवतिष्ठंते, इतरे प्रदेशाः ऊर्ध्वमधस्तिर्यक् च कृत्स्नं लोकाकाशं व्यश्नुवते।
= लोक के असंख्यात प्रदेश हैं, उनके असंख्यात भाग किये जायें। एक असंख्येय भाग में भी जीव रहता है तथा दो तीन चार आदि असंख्येय भागों में और संपूर्ण लोक में जीवों का अवगाह समझना चाहिए। नाना जीवों की अवगाह तो सर्व लोक है। असंख्यात के भी असंख्यात विकल्प हैं। और अजघन्योत्कृष्ट असंख्येय के असंख्येय विकल्प हैं। अतः जीवों के अवगाह में भेद भी हो जाता है। तथा जीव के असंख्यातप्रदेशी होने पर भी संकोचविस्तार शील होने से कर्म के अनुसार प्राप्त छोटे या बड़े शरीर में तत्प्रमाण होकर रहता है जब इसकी समुद्घात काल में लोकपूरण अवस्था होती है तब इसके मध्यवर्ती आठ प्रदेश सुमेरु पर्वतके नीचे चित्र और वज्रपटलके मध्य के आठ प्रदेशों पर स्थित हो जाते हैं, बाकी प्रदेश ऊपर नीचे चारों ओर फैल जाते है।
4. अवगाहना गुणों की सिद्धि
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 5।18/284
यद्यवकाशदानमस्य स्वभावो वज्रादिभिर्लोष्टदीनां भित्त्यादिभिर्गवादीनां च व्याघातो न प्राप्नोति। दृश्यते च व्याघातः। तस्मादस्यावकाशदानं हीयते इति। नैष दोषः, वज्रलोष्टादीनां स्थूलनांपरस्पर व्याघात इति नास्यावकाशदानसामर्थ्य हीयते तत्रावगाहिनामेवव्याघातात्। वज्रादयः पुनः स्थूलत्वात्परस्परं प्रत्यवकाशदानं न कुर्वंतीति नासावाकाशदोषः ये खलु पुद्गलाः सूक्ष्मास्ते परस्परं प्रत्यवकाशदानं कुर्वंति। यद्येवं नेदमाकाशस्यासाधारणं लक्षणम्; इतरेषामपि तत्सद्भावादिति। तन्न; सर्वपदार्थोनां साधारणावगाहनहेतुत्वमस्यासाधारणं लक्षणमिति नास्ति दोषः। अलोकाकाशे तद्भावादभाव इति चेत्; न; स्वाभावापरित्यागात्।
= प्रश्न - यदि अवकाश देना आकाश का स्वभाव है तो वज्रादिक से लोढा आदि का और भीत आदि से गाय का व्याघात नहीं प्राप्त होता, किंतु व्याघात तो देखा जाता है इससे मालूम होता है कि अवकाश देना आकाश का स्वभाव नहीं ठहरता है? उत्तर - यह कोई दोष नहीं है क्योंकि वज्र और लोढा आदिक स्थूल पदार्थ हैं इसलिए इनका आपस में व्याघात है, अतः आकाश की अवगाह देने रूप सामर्थ्य नहीं नष्ट होती। यहाँ जो व्याघात दिखाई देता है वह अवगाहन करने वाले पदार्थों का ही है। तात्पर्य यह है कि वज्रादित स्थूल पदार्थ हैं, इसलिए वे परस्पर में अवकाश नहीं देते हैं यह कुछ आकाश का दोष नहीं है। हाँ जो पुद्गल सूक्ष्म होते हैं वे परस्पर अवकाश देते हैं। प्रश्न - यदि ऐसा है तो यह आकाश का असाधारण लक्षण नहीं रहता, क्योंकि दूसरे पदार्थो में भी इसका सद्भाव पाया जाता है? उत्तर - नहीं, क्योंकि आकाश द्रव्य सब पदार्थों को अवकाश देने में साधारण कारण है यही इसका असाधारण लक्षण है, इसलिए कोई दोष नहीं है। प्रश्न - अलोकाकाश में अवकाश देने रूप स्वभाव नहीं पाया जाता, इससे ज्ञात होता है कि यह आकाश का स्वभाव नहीं है? उत्तर - नहीं, क्योंकि कोई भी द्रव्य अपने स्वभाव का त्याग नहीं करता।
राजवार्तिक अध्याय 5/1/23/434/6
अलोकाकाशस्यावकाशदानाभावात्तदभाव इति चेत्; न; तत्सामर्थ्याविरहात् ॥23॥ ...क्रियानिमित्तत्वेऽपि रूढिविशेषबललाभात् गोशब्दवत् तदभावेऽपि प्रवर्तते
= प्रश्न - अलोकाकाश में द्रव्यों का अवगाहन न होने से यह उसका स्वभाव घटित नहीं होता? उत्तर - शक्ति की दृष्टि से उसमें भी आकाश का व्यवहार होता है। क्रिया का निमित्तपना होने पर भी रूढि विशेष के बल से भी अलोकाकाश को आकाश संज्ञा प्राप्त हो जाती है, जिस प्रकार बैठी हुई गऊ में चलन क्रिया का अभाव होने पर भी चलन शक्ति के कारण गौ शब्द की प्रवृत्ति देखी जाती है।
गोम्मट्टसार जीवकांड / जीव तत्त्व प्रदीपिका टीका गाथा 605/1060/5
ननु क्रियावतोरवगाहिजीवपुद्गलयोरेवावकाशदानं युक्तं धर्मादीनां तु निष्क्रियाणां नित्यसंबद्धानां तत् कथम्? इति तन्न उपचारेण तत्सिद्धेः। यथा गमानाभावेऽपि सर्वगतामाकाशमित्युच्यते सर्वत्र सद्भवात् तथा धर्मादीनां अवगाहनक्रियाया अभावेऽपि सर्वत्र दर्शनात् अवगाह इत्युपचर्यते।
= प्रश्न - जो अवगाह क्रियावान तौ जीव पुद्गल हैं तिनिको अवकाश देना युक्त कहा। बहुरि धर्मादिक द्रव्य तो निष्क्रिय हैं, नित्य संबंध को धरैं हैं नवीन नाहीं आये जिनको अवकाश देना संभवै। ऐसे इहाँ कैसे कहिये सो कहौ? उत्तर - जो उपचार करि कहिये हैं जैसे गमन का अभाव होते संतै भी सर्वत्र सद्भाव की अपेक्षा आकाश को सर्वगत कहिये तैसे धर्मादि द्रव्यनिकैं अवगाह क्रिया का अभाव होते संतै भी लोक विषै सर्वत्र सद्भाव की अपेक्षा अवगाहन का उपचार कीजिये है।
(सर्वार्थसिद्धि अध्याय 5/18/284/3) (राजवार्तिक अध्याय 5/18/2/466/18)।
5. असंख्यात प्रदेशी लोक में अनंत द्रव्यों के अवगाहन की सिद्धि
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 5/10/275
स्यादेतदसंख्यातप्रदेशो लोकः अनंतप्रदेशस्यांतानंतप्रदेशस्य च स्कंधस्याधिकरणमिति विरोधः....नैष दोषः; सूक्ष्मपरिणामावगाहशक्तियोगात्। परमाण्वादयो हि सूक्ष्मभावेन परिणता एकै कस्मिंनप्याकाशप्रदेशेऽनंतानंता अवतिष्ठंते अवगाहनशक्तिश्चैषाव्याहतास्ति। तस्मादेकस्मिन्नपि प्रदेशे अनंतानंतानामवस्थानं न विरुध्यते। (नायमेकांतः-अल्पेऽधिकरणे महद्द्व्यं नावतिष्ठते इति....प्रत्यविशेषः संघातविशेषः इत्यर्थः।...संहृतविसर्पितचंपकादिगंधादिवत् 6/राजवार्तिक )
= प्रश्न - लोक असंख्यात प्रदेश वाला है इसलिए वह अनंतानंत प्रदेश वाले स्कंध का आधार है इस बात के मानने में विरोध आता है। उत्तर - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि सूक्ष्म परिणमन होने से और अवगाहन शक्ति के निमित्त से अनंत या अनंतानंत प्रदेश वाले पुद्गल स्कंधों का आकाश आधार हो जाता है। सूक्ष्म रूप से परिणत हुए परमाणु आकाश के एक-एक प्रदेश में अनंतानंत ठहर जाते हैं। इनकी यह अवगाहन शक्ति व्याघात रहित है। इसलिए आकाश के एक प्रदेश में भी अनंतानंत पुद्गलों का अवस्थान विरोध को प्राप्त नहीं होंता। फिर यह कोई एकांतिक नियम नहीं है कि छोटे आधार में बड़ा द्रव्य ठहर ही नहीं सकता हो। पुद्गलों में विशेष प्रकार सघन संघात होने से क्षेत्र में बहुतों का अवस्थान हो जाता है जैसे कि छोटी-सी चंपा की कली में सूक्ष्म रूप से बहुत से गंधावयव रहते हैं, पर वे ही जब फैलते हैं तो समस्त दिशाओं को व्याप्त कर लेते हैं।
(राजवार्तिक अध्याय 5/10/3-6/453/14)
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 5/14/279
अवगाहनस्वभावत्वात्सूक्ष्मपरिणामाच्च मूर्तिमतामप्यवगाहो न विरुध्यते एकापवरके अनेकप्रदीपप्रकाशावस्थानवत्। आगमप्रामाण्याच्च तथाऽध्यवसेयम्।
= (पुद्गलों का) अवगाहन स्वभाव है और सूक्ष्म रूप से परिणमन हो जाता है इसलिए एक मकान में जिस प्रकार अनेक दीपकों का प्रकाश रह जाता है उसी प्रकार-मूर्तमान पुद्गलों का एक जगह अवगाह विरोध को प्राप्त नहीं होता तथा आगम प्रमाण से यह बात जानी जाती है।
(राजवार्तिक अध्याय 5/13/4-6/427)
राजवार्तिक अध्याय 5/15/5/458/7
प्रमाणविरोधादवगाहायुरिति चेत्।...तन्न; किं कारणम् जीवद्वै विध्यात्। द्विविधा जीवा; बादराः सूक्ष्माश्चेति। तत्र बादराः सप्रतिघातशरीराः। सूक्ष्मा जीवाः सूक्ष्मपरिणामादेव सशरीरत्वेऽपि परस्परेण बादरैश्च न प्रतिहंयंत इत्यप्रतिघातशरीराः। ततो यत्रैकसूक्ष्मनिगोतजीवस्तिष्ठति तत्रानंतानंताः साधारणशरीराः वसंति। बादराणां च मनुष्यादीनां शरीरेषु सस्वेदजसंमूर्च्छनजादीनां जीवानां प्रतिशरीरं बहूनामवस्थानमिति नास्तयवगाहविरोधः। यदि बादरा एव जीवा अभविष्यन्नपितर्हि अवगाहविरोधोऽजनिष्यत। कथं सशरीरस्यात्मनोऽप्रतिघातत्वमिति चेत् दृष्टत्वात् दृश्यते हि बालाग्रकोटिमात्रछिद्ररहितं धनबहलायसभित्तितले वज्रमयकपाटे बहिः समंतात् वज्रलेपलिप्ते अपवरके देवदत्तस्य मृतस्य मूर्तिमज्ज्ञानावरणादिकर्मतैजसकार्माणशरीरसंबंधित्वेऽपि गृहमभित्त्वैवनिर्गमनम्, तथा सूक्ष्मनिगोतानामप्यप्रतिघातित्वं वेदितव्यम्॥
= प्रश्न - द्रव्य प्रमाण से जीव राशि अनंतानंत है तो वह असंख्यात प्रदेश प्रमाण लोकाकाश में कैसे रह सकती है? उत्तर - जीव बादर और सूक्ष्म के भेद से दो प्रकार के हैं। बादर जीव सप्रतिघात शरीरी होते हैं पर सूक्ष्म जीवों का सूक्ष्म परिणमन होने के कारण सशरीरी होने पर भी न तो बादरों से प्रतिघात होता है और न परस्पर ही। वे अप्रतिघातशरीरी होते हैं इसलिए जहाँ एक सूक्ष्म निगोद जीव रहता है वहीं अनंतानंत साधारण सूक्ष्म शरीरी रहते हैं। बादर मनुष्यादि के शरीरों में भी संस्वेदज आदि अनेक सम्मूर्छन जीव रहते हैं। यदि सभी जीव बादर ही होते तो अवगाह में गड़बड़ पड सकती थी। सशरीरी आत्मा भी अप्रतिघाति है यह बात तो अनुभव सिद्ध है। निश्छिद्र लोहे के मकान से, जिसमें वज्र के किवाड़ लगे हों, और वज्रलेप भी जिसमें किया गया हो, मर कर जीव कार्माण शरीर के साथ निकल जाता है। यह कार्माण शरीर मूर्तिमान ज्ञानावरणादि कर्मों का पिंडर है। तैजस शरीर भी इसके साथ सदा रहता है। मरण काल में इन दोनों शरीरों के साथ जीव वज्रमय कमरे से निकल जाता है और उस कमरे में कहीं भी छेद या दरार नहीं पड़ती। इसी तरह सूक्ष्म निगोदिया जीवों का शरीर भी अप्रतिघाती ही समझना चाहिए।
धवला पुस्तक 4/1,3,2/22/4
कधमणंता जीवा असंखेज्जपदेसिए लोए अच्छंति। ...लोगमज्झम्हि जदि होंति, तो लोगस्स असंख्येज्जदिभागमेत्तेहि चेव जीवेहि होदव्वमिदि? - णेदं घडदे, पोग्गलाणं पि असंखेज्जत्तप्पसंगादो...लोगमेत्ता परमाणू भवंति,... लोगमेत्तपरमाणूहि कम्मसरीरघड-पड-त्थंभादिसु एगो वि ण णिप्पज्जदे, अणंताणंतपरमाणुसमुदयसमागमेण विणा एक्किस्से ओसण्णासण्णियाए वि सभवाभावा। होदु चे ण, सयलपोग्गलदव्वस्स अणुवलद्धिप्पसंगादो, सव्वजीवाणमक्कमेण केवलणाणुप्पत्तिप्पसंगादो, च। एवमइप्पसंगो माहोदि त्ति अवगेज्झमाण जीवाजीवसत्तण्णहाणुववत्तीदो अवगाहणधम्मिओलोगागासो त्तिइच्छि दव्वो खीरकुंभस्स मधुकंभो व्व।
= प्रश्न - असंख्यात प्रदेश वाले लोक में अनंत संख्या वाले जीव कैसे रह सकते हैं?..यदि लोक के मध्य में जीव रहते हैं (अलोक में नहीं) तो वे लोक के असंख्यातवें भाग मात्र में ही होने चाहिए? उत्तर - शंकाकार का उक्त कथन घटित नहीं होता, क्योंकि उक्त कथन के मान लेने पर पुद्गलों के भी असंख्यातपने का प्रसंग आता है।...अर्थात् लोकाकाश के प्रदेश प्रमाण ही परमाणु होंगे...तथा उन लोकप्रमाण परमाणुओं के द्वारा कर्म, शरीर, घटपट और स्तंभ आदिकों में-से एक भी वस्तु निष्पन्न नहीं हो सकती हैं, क्योंकि, अनंतानंत परमाणुओं के समुदाय का समागम हुए बिना एक अवसन्नपन्न संज्ञक भी स्कंध होना संभव नहीं है। प्रश्न - एक भी वस्तु निष्पन्न नहीं होवे, तो भी क्या हानि है? उत्तर - नहीं क्योंकि, ऐसा मानने पर समस्त पुद्गल द्रव्य की अनुपलब्धि का प्रसंग आता है, तथा सर्व जीवों के एक साथ ही केवलज्ञान की उत्पत्ति का भी प्रसंग प्राप्त होता है। (क्योंकि इतने मात्र परमाणुओं से यदि किसी प्रकार संभव भी हो तो भी एक ही जीव का कार्माण शरीर बन पायेगा अन्य सर्व जीव कर्मरहित हो जायेंगे)...इस प्रकार अतिप्रसंग दोष न आवे, इसलिए अवगाह्यमान जीव और अजीव द्रव्यों की सत्ता अन्यथा न बनने से क्षीर कुंभ का मधुकुंभ के समान अवगाहन धर्म वाला लोकाकाश है, ऐसा मान लेना चाहिए।
धवला पुस्तक 3/1,2,45/258/1
79228162514264337593543950336 एत्तियमेत्तमणुसपज्जत्तरासिम्हि संखेज्जपदरं गुलेहिं गुणिदे माणुसखेत्तादो संखेज्जगुणत्तप्पसंगा।...संखेज्जुसेहंगुलमेत्तोगाहणो मणुसपज्जत्तरासी सम्मादि त्ति णासंकणिज्जं, सव्वुक्कस्सोगाहणमणुसपज्जत्तरासिम्हि संखेज्जपमाणपदरं गुलमेत्तोगाहणगुणगारमुहवित्थारुवलं भादो।
= प्रश्न - 79228162514264337593543950336 इतनी मनुष्य पर्याप्तराशि को सख्यात प्रतरांगुलों (मनुष्य का निवास क्षेत्र) से गुणा किया जाये तो उस प्रमाण को मनुष्य क्षेत्र से (45 लाख योजन व्यास = 1600903065460 1.19\256 वर्ग योजन = 9442510496819434000000000 प्रतरांगुल। इसमें-से दो समुद्रों का क्षेत्रफल घटाने पर शेष = 619708466816416200000000 प्रतरांगुल। अंतर्दीप तो हैं पर उनमें मनुष्य अत्यल्प होने से विवक्षा में नहीं लिये) संख्यात प्रसंग आ जावेगा। ...उसमें संख्यात् उत्सेधांगुल मात्र अवगाहना से युक्त मनुष्य पर्याप्त राशि समा जायेगी (अधिक नहीं)। उत्तर - सो ठीक नहीं, क्योंकि सबसे उत्कृष्ट अवगाहना से युक्त मनुष्य पर्याप्तराशि में संख्यात प्रमाण प्रतरांगुल मात्र अवगाहन के गुणकार का मुख विस्तार पाया जाता है (न कि सब मनुष्यों का)।
पंचास्तिकाय संग्रह / तात्पर्यवृत्ति / गाथा 90/150
अनंतानंतजीवात्सेभ्योऽप्यनंतगुणाः पुद्गला लोकाकाशप्रमितप्रदेशप्रमाणाः कालाणवो धर्माधर्मौ चेति सर्वे कथमवकाशं लभंत इति। भगवानाह। एकापवरके अनेकप्रदीपप्रकाशवदेकगूढनागरसगद्याणके बहुसुवर्णदेकस्मिनुष्टीक्षीरघटे मधुघटवदेकसिमन् भूमिगूहे जयघंटादिवद्विशिष्टावगाहगुणेनासंख्येयप्रदेशऽपि लोके अनंतसंख्या अपि जीवादयोऽवकाशं लभंत इत्यभिप्रायः।
= प्रश्न - जीव अनंतानंत हैं, उसमें भी अनंत गुणे पुद्गल द्रव्य हैं, लोकाकाश प्रदेश प्रमाण काल द्रव्य है, तथा एक धर्म द्रव्य व एक अधर्म द्रव्य है। असंख्यात् प्रदेशी लोक में ये सब कैसे अवकाश पाते हैं? उत्तर - एक घर में जिस प्रकार अनेक दीपकों का प्रकाश समा रहा है, जिस प्रकार एक छोटे से गुटके में बहुत-सी सुवर्ण की राशि रहती है उष्ट्री के एक घट दूध में एक शहद का घड़ा समा जाता है, तथा एक भूमि गृह में जय-जय व घंटादि के शब्द समा जाते हैं, उसी प्रकार असंख्यात प्रदेशी लोक में विशिष्ट अवगाहन शक्ति के कारण जीवादि अनंत पदार्थ सहज अवकाश पा लेते हैं।
(द्रव्यसग्रह/मूल 20/59)
6. एक प्रदेश पर अनंत द्रव्यों के अवगाह की सिद्धि
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 5/10/275
परमाण्वादयो हि सूक्ष्मभावेन परिणता एकैकस्मिंनप्याकाशप्रदेशेऽनंतानंताः अवतिष्ठंते।
= सूक्ष्म रूप से परिणत हुए पुद्गल परमाणु आकाश के एक-एक प्रदेश पर अनंतानंत ठहर सकते हैं।
(राजवार्तिक अध्याय 5/10/3-6/453) (विशेष देखें आकाश - 3.5।)
धवला पुस्तक 14/5,6,531/445/1
एगपदेसियस्स पोग्गलस्स होदु णाम एगागासपदेसे अवट्ठाणं, कथं दुपदेसिय-तिपदेसियसंखेज्जासंखेज्ज-अणंतपदेसियक्खंधाणंणतत्थावट्ठाणं ण, तत्थ अणंतोगाहगुणस्स संभवादो। तं पि कुदो णव्वदे जीव-पोगगलाणमाणं तियत्तण्णहाणुव्वत्ती दो।
= प्रश्न - एक प्रदेशी पुद्गल का एक आकाश प्रदेश में अवस्थान होवो परंतु द्विप्रदेशी, त्रिप्रदेशी, संख्यात प्रदेशी, असंख्यात् प्रदेशी और अनंत प्रदेशी स्कंधों का वहाँ अवस्थान कैसे हो सकता है? उत्तर - नहीं। क्योंकि वहाँ अनंत को अवगाहन करने का गुण संभव है। प्रश्न - सो भी कैसे? उत्तर - जीव व पुद्गलों की अनंतपने की अन्यथा उपपत्ति संभव नहीं।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका / गाथा 140/198
स खल्वेकोऽपिशेषपंचद्रव्यप्रदेशानां सौक्ष्म्यपरिणतानंतपरमाणुस्कंधानां चावकाशदानसमर्थः।
= वह आकाश का एक प्रदेश भी बाकी के पाँच द्रव्यों के प्रदेशों को तथा परम सूक्ष्मता रूप से परिणमे हुए अनंत परमाणुओं के स्कंधों को अवकाश देने के लिए समर्थ है।
द्रव्यसंग्रह / मूल या टीका गाथा 27
जावदियं आयासं अविभागीपुग्गलाणुउट्टद्धं। तं खु पदेसं जाणे सव्वाणुट्टुणदाणरिहं ॥27॥
= जितना आकाश अविभागी पुद्गलाणु से रोका जाता है, उसको सर्व परमाणुओं को स्थान देने में समर्थ प्रदेश जानो॥
पुराणकोष से
जीव, अजीव, धर्म, अधर्म और काल का अवगाहक द्रव्य । यह स्पर्श रहित, क्रिया रहित और अमूर्त तथा सर्वत्र व्याप्त है । महापुराण 24.138, हरिवंशपुराण 72, 58.54