ईषत्प्राग्भार: Difference between revisions
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<span class="GRef"> भगवती आराधना/2133 </span> <span class="PrakritText">ईसिप्पब्भाराए उवरिं अत्थदि सो जोयणम्मिसदिए । धुवमचलमजरठाण लोगसिहरमस्सिदो सिद्धो । </span>=<span class="HindiText"> सिद्धभूमि ‘'''ईषत्प्राग्भार'''’ पृथिवी के ऊपर स्थित है । एक योजन में कुछ कम है । ऐसे निष्कंप व स्थिर स्थान में सिद्ध प्राप्त होकर तिष्ठते है । </span><br /> | |||
<span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/8/652-658 </span> <span class="PrakritGatha">सव्वट्ठसिद्धिइंदयकेदणदंडादु उवरि गंतुणं । बारसजोयणमेत्तं अट्ठमिया चेट्ठदे पुढवी ।642। पुव्वावरेण तीए उवरिमहेट्ठिमतलेसु पत्तेक्कं । वासो हवेदि एक्का रज्जू रुवेण परिहीणा ।653। उत्तरदक्खिणभाए दीहा किंचूणसत्तरज्जूओ । वेत्तासण संठाणा सा पुढवी अट्ठजोयणबहला ।654। जुत्ता घणोवहिघणाणितणुवादेहि तिहि समीरेहिं । जोयण बीससहस्सं पमाण बहलेहिं पत्तेक्कं ।655। एदाए बहुमज्झे खेत्तं णामेण ईसिपब्भारं । अज्जुणसवण्णसरिसं णाणारयणेहिं परिपुण्णं ।656। उत्तणधवलछत्तोवमाणसंठाणसुंदरं एदं । पंचत्तालं जोयणयाअंगुलं पि यंताम्मि । अट्ठमभूमज्झगदो तप्परिही मणुवखेत्तपरिहिसमो ।658। </span>= <span class="HindiText">सर्वार्थसिद्धि इंद्रक के ध्वजदंड से 12 योजनमात्र ऊपर जाकर आठवीं पृथिवी स्थित है ।652। उसके उपरिम और अधस्तन तल में से प्रत्येक तल का विस्तार पूर्व पश्चिम में रूप से रहित (अर्थात् वातवलयों की मोटाई से रहित) एक राजू प्रमाण है ।653। वेत्रासन के सदृश वह पृथिवी उत्तर दक्षिण भाग में कुछ कम (वातवलयों की मोटाई से रहित) सात राजू लंबी है । इसकी मोटाई आठ योजन है ।654। यह पृथिवी घनोदधिवात, धनवात और तनुवात इन तीन वायुओं से युक्त है । इनमें से प्रत्येक वायु का बाहल्य 20,000 योजन प्रमाण है ।655। उसके बहुमध्य भाग में चाँदी एवं सुवर्ण सदृश और नाना रत्नों से परिपूर्ण '''ईषत्प्राग्भार''' नामक क्षेत्र है ।656। यह क्षेत्र उत्तान धवल छत्र के सदृश (या ऊँधे कटोरे के सदृश- त्रिलोकसार/558 ) आकार से सुंदर और 4500,000 योजन (मनुष्य क्षेत्र) प्रमाण विस्तार से संयुक्त है ।657। उसका मध्य बाहल्य (मोटाई) आठ योजन है और उसके आगे घटते-घटते अंत में एक अंगुलमात्र । अष्टम भूमि में स्थित सिद्धक्षेत्र की परिधि मनुष्य क्षेत्र की परिधि के समान है ।658। <span class="GRef">( हरिवंशपुराण/6/126-132 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/359-361 ); ( त्रिलोकसार/556-558 ); ( क्षपणासार/649/766) । </span> </span><br /> | |||
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Latest revision as of 14:40, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
भगवती आराधना/2133 ईसिप्पब्भाराए उवरिं अत्थदि सो जोयणम्मिसदिए । धुवमचलमजरठाण लोगसिहरमस्सिदो सिद्धो । = सिद्धभूमि ‘ईषत्प्राग्भार’ पृथिवी के ऊपर स्थित है । एक योजन में कुछ कम है । ऐसे निष्कंप व स्थिर स्थान में सिद्ध प्राप्त होकर तिष्ठते है ।
तिलोयपण्णत्ति/8/652-658 सव्वट्ठसिद्धिइंदयकेदणदंडादु उवरि गंतुणं । बारसजोयणमेत्तं अट्ठमिया चेट्ठदे पुढवी ।642। पुव्वावरेण तीए उवरिमहेट्ठिमतलेसु पत्तेक्कं । वासो हवेदि एक्का रज्जू रुवेण परिहीणा ।653। उत्तरदक्खिणभाए दीहा किंचूणसत्तरज्जूओ । वेत्तासण संठाणा सा पुढवी अट्ठजोयणबहला ।654। जुत्ता घणोवहिघणाणितणुवादेहि तिहि समीरेहिं । जोयण बीससहस्सं पमाण बहलेहिं पत्तेक्कं ।655। एदाए बहुमज्झे खेत्तं णामेण ईसिपब्भारं । अज्जुणसवण्णसरिसं णाणारयणेहिं परिपुण्णं ।656। उत्तणधवलछत्तोवमाणसंठाणसुंदरं एदं । पंचत्तालं जोयणयाअंगुलं पि यंताम्मि । अट्ठमभूमज्झगदो तप्परिही मणुवखेत्तपरिहिसमो ।658। = सर्वार्थसिद्धि इंद्रक के ध्वजदंड से 12 योजनमात्र ऊपर जाकर आठवीं पृथिवी स्थित है ।652। उसके उपरिम और अधस्तन तल में से प्रत्येक तल का विस्तार पूर्व पश्चिम में रूप से रहित (अर्थात् वातवलयों की मोटाई से रहित) एक राजू प्रमाण है ।653। वेत्रासन के सदृश वह पृथिवी उत्तर दक्षिण भाग में कुछ कम (वातवलयों की मोटाई से रहित) सात राजू लंबी है । इसकी मोटाई आठ योजन है ।654। यह पृथिवी घनोदधिवात, धनवात और तनुवात इन तीन वायुओं से युक्त है । इनमें से प्रत्येक वायु का बाहल्य 20,000 योजन प्रमाण है ।655। उसके बहुमध्य भाग में चाँदी एवं सुवर्ण सदृश और नाना रत्नों से परिपूर्ण ईषत्प्राग्भार नामक क्षेत्र है ।656। यह क्षेत्र उत्तान धवल छत्र के सदृश (या ऊँधे कटोरे के सदृश- त्रिलोकसार/558 ) आकार से सुंदर और 4500,000 योजन (मनुष्य क्षेत्र) प्रमाण विस्तार से संयुक्त है ।657। उसका मध्य बाहल्य (मोटाई) आठ योजन है और उसके आगे घटते-घटते अंत में एक अंगुलमात्र । अष्टम भूमि में स्थित सिद्धक्षेत्र की परिधि मनुष्य क्षेत्र की परिधि के समान है ।658। ( हरिवंशपुराण/6/126-132 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/359-361 ); ( त्रिलोकसार/556-558 ); ( क्षपणासार/649/766) ।
अधिक जानकारी के लिये देखें मोक्ष - 1.7
पुराणकोष से
ऊर्ध्वलोक की अंतिम भूमि । यह पृथिवी ऊपर की ओर किये हुए धवल छत्र के आकार में है । पुनर्भव से रहित महासुख संपन्न, तथा स्वात्मशक्ति से युक्त सिद्ध परमेष्ठी की यहाँ स्थित है । पद्मपुराण 105, 173-174, हरिवंशपुराण - 6.40