मोक्ष
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
शुद्ध रत्नत्रय की साधना से अष्ट कर्मों की आत्यंतिकी निवृत्ति द्रव्यमोक्ष है और रागादि भावों की निवृत्ति भावमोक्ष है । मनुष्य गति से ही जीव को मोक्ष होना संभव है । आयु के अंत में उसका शरीर कपूरवत् उड़ जाता है और वह स्वाभाविक ऊर्ध्व गति के कारण लोकशिखर पर जा विराजते हैं, जहाँ वह अनंतकाल तक अनंत अतींद्रिय सुख का उपभोग करते हुए अपने चरम शरीर के आकार रूप से स्थित रहते हैं और पुनः शरीर धारण करके जन्म-मरण के चक्कर में कभी नहीं पड़ते । ज्ञान ही उनका शरीर होता है । जैन दर्शनकार उसके प्रदेशों की सर्व व्यापकता स्वीकार नहीं करते हैं, न ही उसे निर्गुण व शून्य मानते हैं । उसके स्वभावभूत अनंत ज्ञान आदि आठ प्रसिद्ध गुण हैं । जितने जीव मुक्त हाते हैं उतने ही निगोद राशि से निकलकर व्यवहार राशि में आ जाते हैं, इससे लोक जीवों से रिक्त नहीं होता ।
- भेद व लक्षण
- अजीव, जीव व उभय बंध के लक्षण ।−देखें बंध - 1.5 ।
- अजीव, जीव व उभय बंध के लक्षण ।−देखें बंध - 1.5 ।
- मोक्ष व मुक्त जीव निर्देश
- सिद्ध भगवान् के अनेकों नाम ।−देखें परमात्मा ।
- अर्हंत व सिद्ध में कथंचित् भेदाभेद ।
- वास्तव में भावमोक्ष ही मोक्ष है ।
- मुक्तजीव निश्चय से स्व में रहते हैं, सिद्धालय में रहना व्यवहार है ।
- अपुनरागमन संबंधी शंका-समाधान ।
- जितने जीव मोक्ष जाते हैं उतने ही निगोद से निकलते हैं ।
- जीव मुक्त हो गया है, इसके चिह्न ।
- सिद्धों में कथंचित् विग्रहगति ।−देखें विग्रह गति ।
- सिद्ध भगवान् के अनेकों नाम ।−देखें परमात्मा ।
- सिद्धों की प्रतिमा संबंधी विचार ।−देखें चैत्य चैत्यालय - 1 ।
- सिद्धों के गुण व भाव आदि
- आठ गुणों के लक्षण आदि ।−देखें वह वह नाम ।
- सिद्धों में गुणस्थान, मार्गणास्थान आदि 20 प्ररूपणाएँ ।−देखें सत् ।
- सर्वज्ञत्व की सिद्धि ।−देखें केवलज्ञान - 5 ।
- उपरोक्त गुणों के अवरोधक कर्मों का निर्देश ।
- सूक्ष्मत्व व अगुरुलघुत्व गुणों के अवरोधक कर्मों की स्वीकृति में हेतु ।
- सिद्धों में कुछ गुणों व भावों का अभाव ।
- इंद्रिय व संयम के अभाव संबंधी शंका ।
- मोक्ष प्राप्ति योग्य द्रव्य क्षेत्र आदि
- सिद्धों में अपेक्षाकृत कथंचित् भेद- निर्देश
- मुक्तियोग्य क्षेत्र- निर्देश ।
- मुक्तियोग्य काल- निर्देश ।
- अनेक भवों की साधना से मोक्ष होता है एक भव में नहीं ।−देखें संयम - 2.10 ।
- निगोद से निकलकर सीधी मुक्तिप्राप्ति संबंधी ।–देखें जन्म - 5 ।
- मुक्तियोग्य तीर्थ निर्देश ।
- मुक्तियोग्य चारित्र निर्देश ।
- मुक्तियोग्य प्रत्येक व बोधित बुद्ध निर्देश ।
- मुक्तियोग्य ज्ञान निर्देश ।
- मोक्षमार्ग में अवधि व मनःपर्यय ज्ञान का कोई स्थान नहीं ।−देखें अवधिज्ञान - 2.6 ।
- मोक्षमार्ग में मति व श्रुतज्ञान प्रधान हैं।–देखें श्रुतज्ञान - 1.2।
- मुक्तियोग्य संहनन निर्देश ।−देखें संहनन ।
- सिद्धों में अपेक्षाकृत कथंचित् भेद- निर्देश
- गति, क्षेत्र, लिंग आदि की अपेक्षा सिद्धों में अल्पबहुत्व ।−देखें अल्पबहुत्व - 3 .1 ।
- मुक्तजीवों का मृत शरीर आकार ऊर्ध्वगमन व अवस्थान
- उनके मृत शरीर संबंधी दो धाराएँ ।
- संसार के चरम समय में मुक्त होकर ऊपर को जाते हैं ।
- ऊर्ध्व ही गमन क्यों इधर- उधर क्यों नहीं ।
- मुक्त जीव सर्वलोक में नहीं व्याप जाता ।
- सिद्धलोक से ऊपर क्यों नहीं जाते ।−देखें धर्माधर्म - 2 ।
- उनके मृत शरीर संबंधी दो धाराएँ ।
- मुक्तजीव पुरुषाकार छायावत् होते हैं ।
- मुक्तजीवों का आकार चरमदेह से किंचिदून है ।
- सिद्धलोक में मुक्तात्माओं का अवस्थान ।
- मोक्ष के अस्तित्व संबंधी शंकाएँ
- सिद्धों में जीवत्व संबंधी ।−देखें जीव - 2, 4 ।
- मोक्षसुख सद्भावात्मक है ।−देखें सुख - 2 ।
- शुद्ध निश्चय नय से न बंध है न मोक्ष ।−देखें नय - V.1.5 ।
- सिद्धों में उत्पाद व्यय ध्रौव्य ।−देखें उत्पाद - 3 ।
- मोक्ष में पुरुषार्थ का सद्भाव ।−देखें पुरुषार्थ - 1 ।
- सिद्धों में जीवत्व संबंधी ।−देखें जीव - 2, 4 ।
- भेद व लक्षण
- मोक्ष सामान्य का लक्षण
तत्त्वार्थसूत्र/10/2 बंधहेत्वभावनिर्जराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रमोक्षो मोक्षः ।2। = बंध हेतुओं (मिथ्यात्व व कषाय आदि) के अभाव और निर्जरा से सब कर्मों का आत्यंतिक क्षय होना ही मोक्ष है । ( सर्वार्थसिद्धि/1/1/7/5; 1/4/14/5 ), ( राजवार्तिक/1/4/20/27/11 ), (स्याद्वाद मंजरी/27/302/28)।
सर्वार्थसिद्धि/1/1 की उत्थानिका/1/8 निरवशेषनिराकृतकर्ममलकलंकस्या- शरीरस्यात्मनोऽचिंत्यस्वाभाविकज्ञानादिगुणमव्याबाधसुखमात्यंतिकमवस्थांतरं मोक्ष इति । = जब आत्मा कर्ममल (अष्टकर्म), कलंक (राग, द्वेष, मोह) और शरीर को अपने से सर्वथा जुदा कर देता है तब उसके जो अचिंत्य स्वाभाविक ज्ञानादि गुणरूप और अव्याबाध सुखरूप सर्वथा विलक्षण अवस्था उत्पन्न होती है, उसे मोक्ष कहते हैं । ( परमात्मप्रकाश/ मूल/2/10); ( ज्ञानार्णव/3/6-10 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/37/154/5 ); ( स्याद्वादमंजरी/8/86/3 पर उद्धृत श्लोक)।
राजवार्तिक/1/1/37/10/15 ‘मोक्ष असने’ इत्येतस्य घञ्भावसाधनो मोक्षणं मोक्षः असनं क्षेपणमित्यर्थः, स आत्यंतिकः सर्वकर्मनिक्षेपो मोक्ष इत्युच्यते । राजवार्तिक/1/4/13/26/9 मोक्ष्यते अस्यते येन असनमात्रं वा मोक्षः । राजवार्तिक/1/4/27/12 मोक्ष इव मोक्षः । क उपमार्थः । यथा निगडादिद्रव्यमोक्षात् सति स्वातंत्र्ये अभिप्रेतप्रदेशगमनादेः पुमान् सुखी भवति, तथा कृत्स्नकर्मवियोगे सति स्वाधीनात्यंतिकज्ञानदर्शनानुपमसुख आत्मा भवति । = समस्त कर्मों के आत्यंतिक उच्छेद को मोक्ष कहते हैं । मोक्ष शब्द ‘मोक्षणं मोक्षः’ इस प्रकार क्रियाप्रधान भावसाधन है, ‘मोक्ष असने’ धातु से बना है । अथवा जिनसे कर्मों का समूल उच्छेद हो वह और कर्मों का पूर्ण रूप से छूटना मोक्ष है । अथवा मोक्ष की भाँति है । अर्थात् जिस प्रकार बंधनयुक्त प्राणी बेड़ी आदि के छूट जाने पर स्वतंत्र होकर यथेच्छ गमन करता हुआ सुखी होता है, उसी प्रकार कर्म बंधन का वियोग हो जाने पर आत्मा स्वाधीन होकर आत्यंतिक ज्ञान दर्शनरूप अनुपम सुख का अनुभव करता है । ( भगवती आराधना / विजयोदया टीका/38/134/18), ( धवला 13/5, 5, 82/348/9 ) ।
नयचक्र बृहद्/159 जं अप्पसहावादो मूलोत्तरपयडिसंचियं मुच्चइ । तं मुक्खं अविरुद्धं.... ।159। = आत्म स्वभाव से मूल व उत्तर कर्म प्रकृतियों के संचय का छूट जाना मोक्ष है । और यह अविरुद्ध है ।
समयसार / आत्मख्याति /288 आत्मबंधयोर्द्विधाकरणं मोक्षः । = आत्मा और बंध को अलग- अलग कर देना मोक्ष है ।
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/4 मोक्षः साक्षादखिलकर्मप्रध्वंसनेनासादितमहानन्दलाभः । = समस्त कर्मों के नाश द्वारा साक्षात् प्राप्त किया जानेवाला महा-आनन्द का लाभ सो मोक्ष है ।
- मोक्ष के भेद
राजवार्तिक/1/7/14/40/24 सामान्यादेको मोक्षः, द्रव्यभावभोक्तव्यभेदादनेकोऽपि । = सामान्य की अपेक्षा मोक्ष एक ही प्रकार का है । द्रव्य भाव और भोक्तव्य की दृष्टि से अनेक प्रकार का है ।
धवला 13/5, 5, 823/48/1 सो मोक्खो तिविहो- जीवमोक्खो पोग्गलमोक्खो जीवपोग्गलमोक्खो चेदि । = वह मोक्ष तीन प्रकार का है−जीव मोक्ष, पुद्गल मोक्ष और जीव पुद्गल मोक्ष ।
नयचक्र बृहद्/159 तं मुक्खं अविरुद्धं दुविहं खलु दव्वभावगदं । = द्रव्य व भाव के भेद से वह मोक्ष दो प्रकार का है । ( द्रव्यसंग्रह टीका/37/154/7 )
- द्रव्य व भाव मोक्ष के लक्षण
भगवती आराधना/38/134/18 निरवशेषाणि कर्माणि येन परिणामेन क्षायिकज्ञानदर्शनयथाख्यातचारित्रसंज्ञितेन अस्यंते स मोक्षः । विश्लेषो वा समस्तानां कर्मणां । = क्षायिक ज्ञान, दर्शन व यथाख्यात चारित्र नाम वाले (शुद्धरत्नत्रयात्मक) जिन परिणामों से निरवशेष कर्म आत्मा से दूर किये जाते हैं उन परिणामों को मोक्ष अर्थात् भावमोक्ष कहते हैं और संपूर्ण कर्मों का आत्मा से अलग हो जाना मोक्ष अर्थात् द्रव्यमोक्ष है । (और भी देखें पीछे मोक्ष सामान्य का लक्षण नं - 3), ( द्रव्यसंग्रह /37/154 )।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/108/173/10 कर्मनिर्मूलनसमर्थः शुद्धात्मोपलब्धिरूपजीवपरिणामो भावमोक्षः, भावमोक्षनिमित्तेन जीवकर्मप्रदेशानां निरवशेषः पृथग्भावो द्रव्यमोक्ष इति । = कर्मों के निर्मूल करने में समर्थ ऐसा शुद्धात्मा की उपलब्धि रूप (निश्चयरत्नत्रयात्मक) जीव परिणाम भावमोक्ष है और उस भावमोक्ष के निमित्त से जीव व कर्मों के प्रदेशों का निरवशेषरूप से पृथक् हो जाना द्रव्यमोक्ष है । ( प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/84/106/15 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/28/85/14 ) ।
देखें आगे शीर्षक नं - 5 (भावमोक्ष व जीवन्मुक्ति एकार्थवाचक है ।)
स्याद्वादमंजरी/8/86/1 स्वरूपावस्थानं हि मोक्षः । = स्वरूप में अवस्थान करना ही मोक्ष है ।
- मुक्त जीव का लक्षण
पंचास्तिकाय/28 कम्ममलविप्पमुक्को उड्ढं लोगस्स अंतमधिगंता । सो सव्वणाणदरिसी लहदिं सुहमणिंदियमणंतं ।28। = कर्ममल से मुक्त आत्मा ऊर्ध्वलोक के अंत को प्राप्त करके सर्वज्ञ सर्वदर्शी अनंत अतिंद्रिय सुख का अनुभव करता है ।
सर्वार्थसिद्धि/2/10/169/7 उक्तात्पंचविधात्संसारान्निवृत्ता । ये ते मुक्ताः । = जो उक्त पाँच प्रकार के संसार से निवृत्त हैं वे मुक्त हैं ।
राजवार्तिक/2/10/2/124/23 निरस्तद्रव्यभावबंधा मुक्ताः । = जिनके द्रव्य व भाव दोनों कर्म नष्ट हो गये हैं वे मुक्त हैं ।
नयचक्र बृहद्/107 णट्ठट्ठकम्मसुद्धा असरीराणंतसोक्खणाणट्ठा । परमपहुत्तं पत्ता जे ते सिद्धा हु खलु मुक्का ।107। = जिनके अष्ट कर्म नष्ट हो गये हैं, शरीर रहित हैं, अनंतसुख व अनंतज्ञान में आसीन हैं और परम प्रभुत्व को प्राप्त हैं ऐसे सिद्ध भगवान् मुक्त हैं । (विशेष देखो आगे सिद्ध का लक्षण ।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/109/174/13 शुद्धचेतनात्मका मुक्ता.....केवलज्ञानदर्शनोपयोगलक्षणा मुक्ताः । = शुद्धचेतनात्म या केवलज्ञान व केवलदर्शनोपयोग लक्षण वाला जीव मुक्त है ।
- जीवन्मुक्त का लक्षण
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/150/216/18 भावमोक्षः केवलज्ञानोत्पत्तिः जीवन्मुक्तोऽर्हत्पदमित्येकार्थः । = भावमोक्ष, केवलज्ञान की उत्पत्ति, जीवन्मुक्त, अर्हंतपद ये सब एकार्थवाचक हैं ।
- सिद्ध जीव व सिद्धगति का लक्षण
नियमसार/72 णट्ठट्ठकम्मबंधा अट्ठमहागुणसमण्णिया परमा । लोयग्गठिदा णिच्चा सिद्धा ते एरिसा होंति ।72। = आठ कर्मों के बंधन को जिन्होंने नष्ट किया है ऐसे, आठ महागुणों सहित, परम, लोकाग्र में स्थित और नित्य; ऐसे वे सिद्ध होते हैं । (और भी देखें पीछे मुक्त का लक्षण ); ( क्रियाकलाप/3/1/2/142 )
पंच संग्रह/प्राकृत/1/गाथा नं.- अट्ठविहकम्मवियडा सीदीभूदा णिरंजणा णिच्चा । अट्ठगुणा कयकिच्चा लोयग्गणिवासिणो सिद्धा ।31। जाइजरामरणभया संजोयविओयदुक्खसण्णाओ । रोगादिया य जिस्से ण होंति सा होइ सिद्धिगई ।64। ण य इंदियकरणजुआ अवग्गहाईहिं गाहया अत्थे । णेव य इदियसुक्खा अणिंदियाणंतणाणसुहा ।74। =- जो अष्टविध कर्मों से रहित हैं, अत्यंत शांतिमय हैं, निरंजन हैं, नित्य हैं, आठ गुणों से युक्त है, कृतकृत्य हैं, लोक के अग्रभाग पर निवास करते हैं, वे सिद्ध कहलाते हैं । ( धवला 1/1, 1, 23/ गा. 127/200); ( गोम्मटसार जीवकांड/68/177 ) ।
- जहाँ पर जन्म, जरा, मरण, भय, संयोग, वियोग, दुःख, संज्ञा और रोगादि नहीं होते हैं वह सिद्धगति कहलाती है ।64। ( धवला 1/1, 1, 24/ गाथा 132/204), ( गोम्मटसार जीवकांड/152/375 )
- जो इंंद्रियों के व्यापार से युक्त नहीं हैं, अवग्रह आदि के द्वारा भी पदार्थ के ग्राहक नहीं हैं और जिनके इंदिय सुख भी नहीं है, ऐसे अतींद्रिय अनंतज्ञान और सुख वाले जीवों को इंद्रियातीत सिद्ध जानना चाहिए ।74।- उपर्युक्त तीनों गाथाओं का भाव- ( परमात्मप्रकाश/ मूल/1/16-25); ( चारित्रसार/33-34 )
धवला 1/1, 1, 1/ गाथा 26-28/48 णिहयविविहट्ठकम्मा तिहुवणसिरसेहरा विहुवदुक्खा । सुहसायरमज्झगया णिरंजणा णिच्च अट्ठगुणा ।26। अणवज्जा कयकज्जासव्वावयवेहि दिट्ठसव्वट्ठा । वज्जसिलत्थब्भग्गय पडिमं वाभेज्ज सठाणा ।27। माणुससंठाणा वि हु सव्वावयवेहि णो गुणेहि समा । सव्विंदियाण विसयं जमेगदेसे विजाणंति ।28। = जिन्होंने नानाभेदरूप आठ कर्मों का नाश कर दिया है, जो तीन लोक के मस्तक के शिखरस्वरूप हैं, दुःखों से रहित हैं, सुखरूपी सागर में निमग्न हैं, निरंजन हैं, नित्य हैं, आठ गुणों से युक्त हैं ।26। अनवद्य अर्थात् निर्दोष हैं, कृतकृत्य हैं, जिन्होंने सर्वांग से अथवा समस्त पर्यायों सहित संपूर्ण पदार्थों को जान लिया है, जो वज्रशिला निर्मित अभग्न प्रतिमा के समान अभेद्य आकार से युक्त हैं ।27। जो सब अवयवों से पुरुषाकार होने पर भी गुणों से पुरुष के समान नहीं हैं, क्योंकि पुरुष संपूर्ण इंद्रियों के विषयों को भिन्न देश में जानता है, परंतु जो प्रति प्रदेश में सब विषयों को जानते हैं, वे सिद्ध हैं ।28।
और भी देखें (लगभग उपरोक्त भावों को लेकर ही निम्नस्थलों पर भी सिद्धों का स्वरूप बताया गया है ) - ( महापुराण/21/114/-118 ); ( द्रव्यसंग्रह/14/41 ); ( तत्त्वानुशासन/120-122 )
प्रवचनसार / तात्पर्यवृत्ति/10/12/6 शुद्धात्मोपलंभलक्षणः सिद्धपर्यायः । = शुद्धात्मोपलब्धि ही सिद्ध पर्याय का (निश्चय) लक्षण है ।
- सिद्धलोक का स्वरूप
भगवती आराधना/2133 ईसिप्पब्भाराए उवरिं अत्थदि सो जोयणम्मिसदिए । धुवमचलमजरठाण लोगसिहरमस्सिदो सिद्धो । = सिद्धभूमि ‘ईषत्प्राग्भार’ पृथिवी के ऊपर स्थित है । एक योजन में कुछ कम है । ऐसे निष्कंप व स्थिर स्थान में सिद्ध प्राप्त होकर तिष्ठते है ।
तिलोयपण्णत्ति/8/652-658 सव्वट्ठसिद्धिइंदयकेदणदंडादु उवरि गंतुणं । बारसजोयणमेत्तं अट्ठमिया चेट्ठदे पुढवी ।642। पुव्वावरेण तीए उवरिमहेट्ठिमतलेसु पत्तेक्कं । वासो हवेदि एक्का रज्जू रुवेण परिहीणा ।653। उत्तरदक्खिणभाए दीहा किंचूणसत्तरज्जूओ । वेत्तासण संठाणा सा पुढवी अट्ठजोयणबहला ।654। जुत्ता घणोवहिघणाणितणुवादेहि तिहि समीरेहिं । जोयण बीससहस्सं पमाण बहलेहिं पत्तेक्कं ।655। एदाए बहुमज्झे खेत्तं णामेण ईसिपब्भारं । अज्जुणसवण्णसरिसं णाणारयणेहिं परिपुण्णं ।656। उत्तणधवलछत्तोवमाणसंठाणसुंदरं एदं । पंचत्तालं जोयणयाअंगुलं पि यंताम्मि । अट्ठमभूमज्झगदो तप्परिही मणुवखेत्तपरिहिसमो ।658। = सर्वार्थसिद्धि इंद्रक के ध्वजदंड से 12 योजनमात्र ऊपर जाकर आठवीं पृथिवी स्थित है ।652। उसके उपरिम और अधस्तन तल में से प्रत्येक तल का विस्तार पूर्व पश्चिम में रूप से रहित (अर्थात् वातवलयों की मोटाई से रहित) एक राजू प्रमाण है ।653। वेत्रासन के सदृश वह पृथिवी उत्तर दक्षिण भाग में कुछ कम (वातवलयों की मोटाई से रहित) सात राजू लंबी है । इसकी मोटाई आठ योजन है ।654। यह पृथिवी घनोदधिवात, धनवात और तनुवात इन तीन वायुओं से युक्त है । इनमें से प्रत्येक वायु का बाहल्य 20,000 योजन प्रमाण है ।655। उसके बहुमध्य भाग में चाँदी एवं सुवर्ण सदृश और नाना रत्नों से परिपूर्ण ईषत्प्राग्भार नामक क्षेत्र है ।656। यह क्षेत्र उत्तान धवल छत्र के सदृश (या ऊँधे कटोरे के सदृश- त्रिलोकसार/558 ) आकार से सुंदर और 4500,000 योजन (मनुष्य क्षेत्र) प्रमाण विस्तार से संयुक्त है ।657। उसका मध्य बाहल्य (मोटाई) आठ योजन है और उसके आगे घटते-घटते अंत में एक अंगुलमात्र । अष्टम भूमि में स्थित सिद्धक्षेत्र की परिधि मनुष्य क्षेत्र की परिधि के समान है ।658। ( हरिवंशपुराण/6/126-132 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/359-361 ); ( त्रिलोकसार/556-558 ); ( क्षपणासार/649/766) ।
तिलोयपण्णत्ति/9/3-4 अट्ठमखिदीए उवरि पण्णसब्भहियसत्तयसहस्सा । दंडाणिं गंतूणं सिद्धाणं होदि आवासो ।3। पणदोछप्पणइगि-अडणहचउसगचउखचदुरअड़कमसो । अट्ठहिदा जोयणया सिद्धाण णिवास खिदियाणं ।4। = उस (उपरोक्त) आठवीं पृथिवी के ऊपर 7050 धनुष जाकर सिद्धों का आवास है ।3। उस सिद्धों के आवास क्षेत्र का प्रमाण (क्षेत्रफल) 8404740815625/8 योजन है ।
- मोक्ष सामान्य का लक्षण
- मोक्ष व मुक्तजीव निर्देश
- अर्हंत व सिद्ध में कथंचित् भेदाभेद
धवला 1/1, 1, 1/46/2 सिद्धानामर्हतां च को भेद इति चेन्न, नष्टानष्टकर्माणः सिद्धाः नष्टघातिकर्माणोऽर्हंत इति तयोर्भेदः । नष्टेषु घातिकर्मस्वाविर्भूताशेषात्मगुणत्वान्न गुणकृतस्तयोर्भेद इति चेन्न, अघातिकर्मोदयसत्त्वोपलंभात् । तानि शुक्लध्यानाग्निनार्धदग्धत्वात्संत्यपि न स्वकार्यकर्तृणीति चेन्न, पिंडनिपाताभावान्यथानुपपत्ति: आयुष्यादिशेषकर्मोदयास्तित्वसिद्धेः । तत्कार्यस्य चतुरशीतिलक्षयोन्यात्मकस्य जातिजरामरणोपलक्षितस्य संसारस्यासत्त्वात्तेपामात्मगुणघातनसामर्थ्याभावाच्च न तयोर्गुणकृतो भेद इति चेन्न, आयुष्यवेदनीयोदययोर्जीवोर्ध्वगमनसुखप्रतिबंधकयोः सत्त्वात् । नोर्ध्वगमनमात्मगुणस्तदभावे चात्मनो विनाशप्रसंगात् । सुखमपि न गुणस्तत एव । न वेदनीयोदयो दुःखजनकः केवलिनि केवलित्वान्यथानुपपत्तेरिति चेदस्त्वेवमेव न्यायप्राप्तत्वात् । किंतु सलेपनिर्लेपत्वाभ्यां देशभेदाच्च तयोर्भेद इति सिद्धम् । = प्रश्न− सिद्ध और अर्हंतों में क्या भेद है ? उत्तर− आठ कर्मों को नष्ट करने वाले सिद्ध होते हैं और चार घातिया कर्मों को नष्ट करने वाले अरिहंत होते हैं । यही दोनों में भेद है । प्रश्न−चार घातिया कर्मों के नष्ट हो जाने पर अरिहंतों की आत्मा के समस्त गुण प्रगट हो जाते हैं, इसलिए सिद्ध और अरिहंत परमेष्ठी में गुणकृत भेद नहीं हो सकता है ? उत्तर− ऐसा नहीं है, क्योंकि अरिहंतों के अघातिया कर्मों का उदय और सत्त्व दोनों पाये जाते हैं, अतएव इन दोनों परमेष्ठियों में गुणकृत भेद भी है । प्रश्न− वे अघातिया कर्म शुक्लध्यानरूप अग्नि के द्वारा अधजले से हो जाने के कारण उदय और सत्त्वरूप से विद्यमान रहते हुए भी अपना कार्य करने में समर्थ नहीं हैं ? उत्तर− ऐसा भी नहीं है, क्योंकि शरीर के पतन का अभाव अन्यथा सिद्ध नहीं होता है, इसलिए अरिहंतों के आयु आदि शेष कर्मों के उदय और सत्त्व की (अर्थात् उनके कार्य की) सिद्धि हो जाती है । प्रश्न− कर्मों का कार्य तो चौरासी लाख योनिरूप जन्म, जरा और मरण से युक्त संसार है । वह, अघातिया कर्मों के रहने पर अरिहंत परमेष्ठी के नहीं पाया जाता है । तथा अघातिया कर्म, आत्मा के अनुजीवी गुणों के घात करने में समर्थ भी नहीं हैं । इसलिए अरिहंत और सिद्ध परमेष्ठी में गुणकृत भेद मानना ठीक नहीं है ? उत्तर−ऐसा नहीं है, क्योंकि जीव के ऊर्ध्वगमन स्वभाव का प्रतिबंधक आयुकर्म का उदय और सुख गुण का प्रतिबंधक वेदनीय कर्म का उदय अरिहंतों के पाया जाता है, इसलिए अरिहंत और सिद्धों में गुणकृत भेद मानना ही चाहिए । प्रश्न− ऊर्ध्वगमन आत्मा का गुण नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर उसके अभाव में आत्मा का भी अभाव मानना पड़ेगा । इसी कारण से सुख भी आत्मा का गुण नहीं है । दूसरे वेदनीय कर्म का उदय दुःख को भी उत्पन्न नहीं करता है, अन्यथा केवली भगवान् के केवलीपना बन नहीं सकता ? उत्तर− यदि ऐसा है तो रहो अर्थात् यदि उन दोनों में गुणकृत भेद सिद्ध नहीं होता है तो मत होओ, क्योंकि वह न्यायसंगत है । फिर भी सलेपत्व और निर्लेपत्व की अपेक्षा और देश भेद की अपेक्षा उन दोनों परमेष्ठियों में भेद सिद्ध है ।
- वास्तव में भावमोक्ष ही मोक्ष है
परमात्मप्रकाश टीका/2/4/117/13 जिनाः कर्तारः व्रजंति गच्छंति । कुत्र गच्छंति । परलोकशब्दवाच्ये परमात्मध्याने न तु कायमोक्षे चेति । = जिनेंद्र भगवान् परलोक में जाते हैं अर्थात् ‘परलोक’ इस शब्द के वाच्यभूत परमात्मध्यान में जाते हैं, काय के मोक्षरूप परलोक में नहीं ।
- मुक्त जीव निश्चय से स्व में ही रहते हैं; सिद्धालय में रहना व्यवहार से है
नियमसार / तात्पर्यवृत्ति/176/ कलश 294 लोकस्याग्रे व्यवहरणतः संस्थितो देवदेवः, स्वात्मन्युच्चैरविचलतया निश्चयेनैवमास्ते ।294। = देवाधिदेव व्यवहार से लोक के अग्र में सुस्थित हैं और निश्चय से निज आत्मा में ज्यों के त्यों अत्यंत अविचल रूप से रहते हैं ।
- अपुनरागमन संबंधी शंका- समाधान
प्रवचनसार/17 भंगविहीणो य भवो संभवपरिवज्जिदो विणासो हि ।... ।17। = उस सिद्ध भगवान् के विनाश रहित तो उत्पाद है और उत्पाद रहित विनाश है । (विशेष दे. उत्पादव्ययध्रौव्य 3.10 )।
राजवार्तिक/10/4/4-8/642-27 बंधस्याव्यवस्था अश्वादिवदिति चेत्; न; मिथ्यादर्शनाद्युच्छेदे कार्यकारणनिवृत्तेः ।4 । पुनर्बंधप्रसंगो जानतः पश्यतश्च कारुण्यादिति चेत्; न; सर्वास्रवपरिक्षयात् ।5 ।....भक्तिस्नेहकृपास्पृहादीनां रागविकल्पत्वाद्वीतरागे न ते संतीति । अकस्मादिति चेत्; अनिर्मोक्षप्रसंगः ।6 ।....मुक्तिप्राप्त्यनंतरमेव बंधोपपत्तेः । स्थानवत्वात्पात इति चेत्; न; अनास्रवत्वात् ।7 ।...आस्रवतो हि पानपात्रस्याधःपतनं दृश्यते, न चास्रवो मुक्तस्यास्ति । गौरवाभावाच्च ।8 ।...यस्य हि स्थानवत्त्वं पातकारणं तस्य सर्वेषां पदार्थानां पातः स्यात् स्थानवत्त्वाविशेषात् । राजवार्तिक/10/2/3/641/6 पर उद्धृत- ‘दग्धे बीजे यथाऽत्यंतं प्रादुर्भवति नांकुरः । कर्मबीजे तथा दग्धे न रोहति भवांकुरः । =- प्रश्न− जैसे घोड़ा एक बंधन से छूटकर भी फिर दूसरे बंधन से बँध जाता है, उस तरह जीव भी एक बार मुक्त होने के पश्चात् पुनः बँध जायेगा ? उत्तर−नहीं, क्योंकि उसके मिथ्यादर्शनादि कारणों का उच्छेद होने से बंधनरूप कार्य का सर्वथा अभाव हो जाता है ।4 । प्रश्न−समस्त जगत् को जानते व देखते रहने से उनको करुणा, भक्ति आदि उत्पन्न हो जायेंगे, जिसके कारण उनको बंध का प्रसंग प्राप्त होता है ? उत्तर−नहीं, क्योंकि समस्त आस्रवों का परिक्षय हो जाने से उनको भक्ति, स्नेह, कृपा और स्पृहा आदि जागृत नहीं होते हैं । वे वीतराग हैं, इसलिए जगत् के संपूर्ण प्राणियों को देखते हुए भी उनको करुणा आदि नहीं होती है ।5। प्रश्न−अकस्मात् ही यदि बंध हो जाये तो ? उत्तर−तब तो किसी जीव को कभी मोक्ष ही नहीं हो सकता, क्योंकि तब तो मुक्ति हो जाने के पश्चात् भी उसे निष्कारण ही बंध हो जायेगा ।6। प्रश्न−स्थानवाले होने से उनका पतन हो जायेगा ? उत्तर−नहीं, क्योंकि उनके आस्रवों का अभाव है । आस्रव वाले ही पानपात्र का अथवा गुरुत्व (भार) युक्त ही ताड़ फल आदि का पतन देखा जाता है। परंतु मुक्त जीव के न तो आस्रव है और न ही गुरुत्व है।8। यदि मात्र स्थान वाले होने से पतन होवे तो आकाश आदि सभी पदार्थों का पतन हो जाना चाहिए, क्योंकि स्थानवत्त्व की अपेक्षा सब समान हैं।
- दूसरी बात यह भी है, कि जैसे बीज के पूर्णतया जल जाने पर उससे अंकुर उत्पन्न नहीं होता है, उसी प्रकार कर्मबीज के दग्ध हो जाने पर संसाररूपी अंकुर उत्पन्न नहीं होता है। ( तत्त्वसार/8/7 ); ( स्याद्वादमंजरी/29/328/28 पर उद्धृत)।
धवला 4/1, 5, 310/477/5 ण च ते संसारे णिवदंति णट्ठासवत्तादो। = - कर्मास्रवों के नष्ट हो जाने से वे संसार में पुनः लौटकर नहीं आते।
योगसार अमितगति/अधिकार/श्लोक −न निर्वृतः सुखीभवतः पुनरायाति संसृतिं। सुखदं हि पदं हित्वा दुःखदं कः प्रपद्यते। (7/18)। युज्यते रजसा नात्मा भूयोऽपि विरजीकृतः। पृथक्कृतं कुत: स्वर्णं पुनः कीटेन युज्यते। (9-53)। = - जो आत्मा मोक्ष अवस्था को प्राप्त होकर निराकुलतामय सुख का अनुभव कर चुका वह पुनः संसार में लौटकर नहीं आता, क्योंकि ऐसा कौन बुद्धिमान् पुरुष होगा जो सुखदायी स्थान को छोड़कर दुःखदायी स्थान में आकर रहेगा। (18)।
- जिस प्रकार एक बार कीट से नियुक्त किया गया स्वर्ण पुनः कीट युक्त नहीं होता है, उसी प्रकार जो आत्मा एक बार कर्मों से रहित हो चुका है, वह पुनः कर्मों से संयुक्त नहीं होता।53।
देखें मोक्ष - 6.5, 6.6 - पुनरागमन का अभाव मानने से मोक्षस्थान में जीवों की भीड़ हो जावेगी अथवा यह संसार जीवों से रिक्त हो जायेगा ऐसी आशंकाओं को भी यहाँ स्थान नहीं है।
- जितने जीव मोक्ष जाते हैं उतने ही निगोद से निकलते हैं
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/197/441/15 कदाचिदष्टसमयाधिकषण्मासाभ्यंतरे चतुर्गतिजीवराशितो निर्गतेषु अष्टोत्तरषट्शतजीवेषु मुक्तिंगतेषु तावंतो जीवा नित्यनिगोदभवं त्यक्त्वा चतुर्गतिभवं प्राप्नुवंतीत्ययमर्थः। = कदाचित् आठ समय अधिक छह मास में चतुर्गति जीव राशि में से निकलकर 608 जीव मोक्ष जाते हैं और उतने ही जीव (उतने ही समय में) नित्य निगोद भव को छोड़कर चतुर्गतिरूप भव को प्राप्त होते हैं। (और भी देखें मोक्ष - 4.11)।
देखें मार्गणा 6(सब मार्गणा व गुणस्थानों में आय के अनुसार ही व्यय होने का नियम है)।
स्याद्वादमंजरी/29/331/13 पर उद्धृत - सिज्झंति जत्तिया खलु इह संववहारजीवरासीओ। एंति अणाइवस्सइ रासीओ तत्तिआ तम्मि।2। इति वचनाद्। यावंतश्च यतो मुक्तिं गच्छंति जीवास्तावांतोऽनादि निगोदवनस्पतिराशेस्तत्रागच्छंति। = जितने जीव व्यवहार राशि से निकलकर मोक्ष जाते हैं, उतने ही अनादि वनस्पतिराशि से निकलकर व्यवहार राशि में आ जाते हैं।
- जीव मुक्त हो गया है इसके चिह्न
देखें सल्लेखना - 6.3.4 (क्षपक के मृत शरीर का मस्तक व दंतपंक्ति यदि पक्षीगण ले जाकर पर्वत के शिक्षर पर डाल दें तो इस पर से यह बात जानी जाती है कि वह जीव मुक्त हो गया है।)
- सिद्धों को जानने का प्रयोजन
परमात्मप्रकाश/मूल/1/26 जहेउ णिम्मलु णाणमउ सिद्धिहिं णिवसइ देउ। तेहउ णिवसइ बंभु परु देहहं मं करि भेउ।26। = जैसा कार्य समयसार स्वरूप निर्मल ज्ञानमयी देव सिद्धलोक में रहते हैं, वैसा ही कारण समयसार स्वरूप परब्रह्म शरीर में निवास करता है। अतः हे प्रभाकर भट्ट ! तू सिद्ध भगवान् और अपने में भेद मत कर।
परमात्मप्रकाश टीका/1/25/30/1 तदेव मुक्तजीवसदृशं स्वशुद्धात्मस्वरूपमुपादेयमिति भावार्थः। = वह मुक्त जीव सदृश स्वशुद्धात्मस्वरूप कारणसमयसार ही उपादेय है, ऐसा भावार्थ है।
- अर्हंत व सिद्ध में कथंचित् भेदाभेद
- सिद्धों के गुण व भाव आदि
- सिद्धों के आठ प्रसिद्ध गुणों का नाम निर्देश
लघु सिद्धभक्ति/8 सम्मत्त-णाण-दंसण-वीरिय-सुहुमं तहेव अवगहणं। अगुरुलघुमव्वावाहं अट्ठगुणा होंति सिद्धाणं। = क्षायिक सम्यक्त्व, अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतवीर्य, सूक्ष्मत्व, अवगाहनत्व, अगुरुलघत्व और अव्याबाधात्व, ये सिद्धों के आठ गुण वर्णन किये गये हैं। ( वसुनंदी श्रावकाचार/537 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/14/42/2 पर उद्धृत); (परमात्मप्रकाश/टीका/1/61/61/8 पर उद्धृत); ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/617-618 ); (विशेष देखो आगे शीर्षक नं. 3-5)।
- सिद्धों में अन्य गुणों का निर्देश
भगवती आराधना/2157/1847 अकसायमवेदत्तमकारकदाविदेहदा चेव। अचलत्तमलेपत्तं च हुंति अच्चंतियाइं से।2157। = अकषायत्व, अवेदत्व, अकारकत्व, देहराहित्य, अचलत्व, अलेपत्व, ये सिद्धों के आत्यंतिक गुण होते हैं। ( धवला 13/5, 4, 26/ गाथा 31/70)।
धवला 7/2, 1, 7/ गाथा 4-11/14-15 का भावार्थ−(अनंतज्ञान, अनंतदर्शन, अनंतसुख, क्षायिक सम्यक्त्व, अकषायत्व रूप चारित्र, जन्म-मरण रहितता (अवगाहनत्व), अशरीरत्व (सूक्ष्मत्व), नीच-ऊँच रहितता (अगुरुलघुत्व), पंचक्षायिक लब्धि (अर्थात्−क्षायिकदान, क्षायिकलाभ, क्षायिकभोग, क्षायिकउपभोग और क्षायिकवीर्य) ये गुण सिद्धों में आठ कर्मों के क्षय से उत्पन्न हो जाते हैं। 4-11। (विशेष देखें आगे शीर्षक नं - 3)।
धवला 13/5, 4, 26/ श्लोक 30/69 द्रव्यतः क्षेत्रतश्चैव कालतो भावतस्तथा। सिद्धाप्तगुणसंयुक्ता गुणाः द्वादशधा स्मृताः।30। = सिद्धों के उपरोक्त गुणों में (देखें शीर्षक नं - 1) द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव की अपेक्षा चार गुण मिलाने पर बारह गुण माने गये हैं।
द्रव्यसंग्रह टीका/14/43/6 इति मध्यमरुचिशिष्यापेक्षया सम्यक्त्वादिगुणाष्टकं भणितम्। मध्यमरुचिशिष्यं प्रति पुनर्विशेषभेदनयेन निर्गतित्वं निरिंद्रियत्वं, निष्कायत्वं, निर्योगत्वं, निर्वेदत्वं, निष्कषायत्वं, निर्नामत्वं निर्गोत्रत्वं, निरायुषत्वमित्यादिविशेषगुणास्तथैवास्तित्व-वस्तुत्वप्रमेयत्वादिसामान्यगुणाः स्वागमाविरोधेनानंता ज्ञातव्या। = इस प्रकार सम्यक्त्वादि आठ गुण मध्यम रुचिवाले शिष्यों के लिए हैं। मध्यम रुचिवाले शिष्य के प्रति विशेष भेदनय के अवलंबन से गतिरहितता, इंद्रियरहितता, शरीररहितता, योगरहितता, वेदरहितता, कषायरहिता, नामरहितता, गोत्ररहितता तथा आयुरहितता आदि विशेष गुण और इसी प्रकार अस्तित्व, वस्तुत्व, प्रमेयत्वादि सामान्यगुण, इस तरह जैनागम के अनुसार अनंत गुण जानने चाहिए।
- उपरोक्त गुणों के अवरोधक कर्मों का निर्देश
प्रमाण-- ( प्रवचनसार/60 *)।
- ( धवला 7/2, 1, 7/ गाथा 4-11/14)।
- ( गोम्मटसार जीवकांड/ जीवतत्व प्रदीपिका/68/178 पर उद्धृत दो गाथाएँ)।
- ( तत्त्वसार/8/37-40 ); ( क्षपणासार/ मूल/611-613); ( परमात्मप्रकाश टीका/1/61/61/16 )।
- ( प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/61 *)।
- (पद्मनन्दी पंचविंशतिका/8/6)।
- ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1114 *)। संकेत- *= विशेष देखो नीचे इन संदर्भों की व्याख्या।
- सिद्धों के आठ प्रसिद्ध गुणों का नाम निर्देश
नं. |
कर्म का नाम |
संदर्भ नं. |
गुण का नाम |
1 |
दर्शनावरणीय |
2, 3, 4, 6 |
केवलदर्शन |
2 |
ज्ञानवरणीय |
2, 3, 4, 6 |
केवलज्ञान |
3 |
वेदनीय |
2, 3, 4 |
अनंतसुख या अव्याबाधत्व |
4 |
स्वभावघाती चारों घातियाकर्म |
1*, 5* |
’’ |
5 |
समुदितरूप से आठों कर्म |
7* |
’’ |
6 |
मोहनीय |
6. |
’’ |
7 |
आयु |
4. |
सूक्ष्मत्व या अशरीरता |
|
|
2, 3, 6 |
अवगाहनत्व या जन्म-मरणरहितता |
8 |
नाम |
4 |
’’ |
|
’’ |
2, 3, 6 |
सूक्ष्मत्व या अशरीरता |
9 |
’’ |
शीर्षक नं. 4 |
अगुरुलघुत्व या ऊँच-नीचरहितता |
10 |
गोत्रकर्म |
2, 3, 4, 6 |
’’ |
11 |
अंतराय |
2, 3, 4, 6 |
अनंतवीर्य |
|
’’ |
2 |
5 क्षायिकलब्धि |
प्रवचनसार/60 जं केवलं ति णाणं तं सोक्खं परिणामं च सो चेव । खेदो तस्स ण भणिदो जम्हा घादी खयं जादा । = जो केवलज्ञान है, वह ही सुख है और परिणाम भी वही है । उसे खेद नहीं है, क्योंकि घातीकर्म क्षय को प्राप्त हुए हैं ।
प्रवचनसार / तत्त्वप्रदीपिका/61 स्वभावप्रतिघाताभावहेतुकं हि सौख्यं । = सुख का हेतु स्वभाव-प्रतिघात का अभाव है ।
पंचाध्यायी / उत्तरार्ध /1114 कर्माष्टकं विपक्षि स्यात् सुखस्यैकगुणस्य च । अस्ति किंचिन्न कर्मैकं तद्विपक्षं ततः पृथक् ।1114। = आठों ही कर्म समुदाय रूप से एक सुख गुण के विपक्षी हैं । कोई एक पृथक् कर्म उसका विपक्षी नहीं है ।
- सूक्ष्मत्व व अगुरुलघुत्व गुणों के अवरोधक कर्मों की स्वीकृति में हेतु
परमात्मप्रकाश टीका/1/61/62/1 सूक्ष्मत्वायुष्ककर्मणा प्रच्छादितम् । कस्मादिति चेत् । विवक्षितायुः कर्मोदयेन भवांतरे प्राप्ते सत्यतींद्रियज्ञानविषयं सूक्ष्मत्वं त्यक्त्वा पश्चादिंद्रियज्ञानविषयो भवतीत्यर्थः ।....सिद्धावस्थायोग्यं विशिष्टागुरुलघुत्वं नामकर्मोदयेन प्रच्छादितम् । गुरुत्वशब्देनोच्चगोत्रजनितं महत्त्वं भण्यते, लघुत्वशब्देन नीचगोत्रजनितं तुच्छत्वमिति, तदुभयकारणभूतेन गोत्रकर्मोदयेन विशिष्टागुरुलघुत्वं प्रच्छाद्यत इति । = आयुकर्म के द्वारा सूक्ष्मत्वगुण ढका गया, क्योंकि विवक्षित आयुकर्म के उदय से भवांतर को प्राप्त होने पर अतींद्रिय ज्ञान के विषयरूप सूक्ष्मत्व को छोड़कर इंद्रियज्ञान का विषय हो जाता है । सिद्ध अवस्था के योग्य विशिष्ट अगुरुलघुत्व गुण (अगुरुलघु संज्ञक) नामकर्म के उदय से ढका गया । अथवा गुरुत्व शब्द से उच्चगोत्रजनित बड़प्पन और लघुत्व शब्द से नीचगोत्रजनित छोटापन कहा जाता है । इसलिए उन दोनों के कारणभूत गोत्रकर्म के उदय से विशिष्ट अगुरुलघुत्व का प्रच्छादन होता है ।
- सिद्धों में कुछ गुणों व भावों का अभाव
तत्त्वार्थसूत्र/10/3-4 औपशमिकादिभव्यत्वानां च ।3। अन्यत्र केवलसम्यकत्वज्ञानदर्शनसिद्धत्वेभ्यः ।4। = औपशमिक, क्षायोपशमिक व औदयिक ये तीन भाव तथा पारिणामिक भावों में भव्यत्व भाव के अभाव होने से मोक्ष होता है ।3। क्षायिक भावों में केवल सम्यक्त्व, केवलज्ञान, केवलदर्शन और सिद्धत्वभाव का अभाव नहीं होता है । ( तत्त्वसार/8/5 )।
देखें सत् 2.1 सत् की ओघप्ररूपणा (न वे संयत हैं, न असंयत और न संयतासंयत । न वे भव्य हैं और न अभव्य । न वे संज्ञी हैं और न असंज्ञी ।)
देखें जीव - 2.2.(दश प्राणों का अभाव होने के कारण वे जीव ही नहीं हैं । अधिक से अधिक उनको जीवितपूर्व कह सकते हैं ।)
सर्वार्थसिद्धि/10/4/468/11 यदि चत्वार एवावशिष्यंते, अनंतवीर्यादीनां निवृत्तिः प्राप्नोति । नैषदोषः, ज्ञानदर्शनाविनाभावित्वादनंतवीर्यादीनामविशेषः; अनंतसामर्थ्यहीनस्यानंतावबोधवृत्त्यभावाज्ज्ञानमयत्वाच्च सुखस्येति । = प्रश्न−सिद्धों के यदि चार ही भाव शेष रहते हैं, तो अनंतवीर्य आदि की निवृत्ति प्राप्त होती है ? उत्तर−यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि ज्ञानदर्शन के अविनाभावी अनंतवीर्य आदिक भी सिद्धों में अवशिष्ट रहते हैं । क्योंकि अनंत सामर्थ्य से हीन व्यक्ति के अनंतज्ञान की वृत्ति नहीं हो सकती और सुख ज्ञानमय होता है । ( राजवार्तिक/10/4/3/642/23 )।
धवला 1/1, 1, 33/ गाथा 140/248 ण वि इंदियकरणजुदा अवग्गहादीहिगाहिया अत्थे । णेव य इंदियसोक्खा अणिंदियाणंतणाणसुहा ।140। = वे सिद्ध जीव इंद्रियों के व्यापार से युक्त नहीं हैं और अवग्रहादिक क्षायोपशमिक ज्ञान के द्वारा पदार्थों को ग्रहण नहीं करते हैं, उनके इंद्रिय सुख भी नहीं हैं; क्योंकि उनका अनंतज्ञान और अनंतसुख अतींद्रिय है । ( गोम्मटसार जीवकांड/174/404 )।
- इंद्रिय व संयम के अभाव संबंधी शंका
धवला 1/1, 1, 33/248/11 तेषु सिद्धेषु भावेंद्रियोपयोगस्य सत्त्वात्सेंद्रियास्त इति चेन्न, क्षयोपशमजनितस्योपयोगस्येंद्रियत्वात् । न च क्षीणाशेषकर्मसु सिद्धेषु क्षयोपशमोऽस्ति तस्य क्षायिकभावेनापसारितत्वात् ।
धवला 1/1, 1, 130/378/8 सिद्धानां कः संयमो भवतीति चेन्नैकोऽपि । यथाबुद्धिपूर्वकनिवृत्तेरभावान्न संयतास्तत एव न संयतासंयताः नाप्यसंयताः प्रणष्टाशेषपापक्रियत्वात् । = प्रश्न−उन सिद्धों में भावेंद्रिय और तज्जन्य उपयोग पाया जाता है, इसलिए वे इंद्रिय सहित हैं ? उत्तर−नहीं, क्योंकि क्षयोपशम से उत्पन्न हुए उपयोग को इंद्रिय कहते हैं । परंतु जिनके संपूर्ण कर्म क्षीण हो गये हैं, ऐसे सिद्धों में क्षयोपशम नहीं पाया जाता है, क्योंकि वह क्षायिक भाव के द्वारा दूर कर दिया जाता है । (और भी देखें केवली - 5)। प्रश्न−सिद्ध जीवों के कौन-सा संयम होता है ? उत्तर−एक भी संयम नहीं होता है; क्योंकि उनके बुद्धिपूर्वक निवृत्ति का अभाव है । इसी प्रकार वे संयतासंयत भी नहीं हैं और असंयत भी नहीं हैं, क्योंकि उनके संपूर्ण पापरूप क्रियाएँ नष्ट हो चुकी हैं ।
- मोक्षप्राप्ति योग्य द्रव्य क्षेत्र काल आदि
- सिद्धों में अपेक्षाकृत कथंचित् भेद
तत्त्वार्थसूत्र/10/9 क्षेत्रकालगतिलिंगतीर्थचारित्रप्रत्येकबुद्धबोधितज्ञानावगाहनानंतरसंख्याल्पबहुत्वतः साध्याः ।9। = क्षेत्र, काल, गति, लिंग, तीर्थ, चारित्र, प्रत्येकबोधित, बुद्धबोधित, ज्ञान, अवगाहन, अंतर, संख्या और अल्पबहुत्व इन द्वारा सिद्धजीव विभाग करने योग्य हैं ।
- मुक्तियोग्य क्षेत्र निर्देश
सर्वार्थसिद्धि/10/9/471/11 क्षेत्रेण तावत्कस्मिन् क्षेत्रे सिध्यंति । प्रत्युत्पन्नग्राहिनयापेक्षया सिद्धिक्षेत्रे स्वप्रदेशे आकाशप्रदेशे वा सिद्धिर्भवति । भूतग्राहिनयापेक्षया जन्म प्रतिपंचदशसु कर्मभूमिषु, संहरणं प्रति मानुषक्षेत्रे सिद्धिः । = क्षेत्र की अपेक्षा–वर्तमानग्राही नय से, सिद्धिक्षेत्र में, अपने प्रदेश में या आकाश प्रदेश में सिद्धि होती है । अतीतग्राही नय से जन्म की अपेक्षा पंद्रह कर्मभूमियों में और अपहरण की अपेक्षा मानुषक्षेत्र में सिद्धि होती है । ( राजवार्तिक/10/9/2/646/18 )।
- मुक्तियोग्य काल निर्देश
सर्वार्थसिद्धि/10/9/471/13 कालेन कस्मिन्काले सिद्धिः । प्रत्युत्पन्ननयापेक्षया एकसमये सिद्धयन् सिद्धो भवति । भूतप्रज्ञापननयापेक्षया जन्मतोऽविशेषेणोत्सर्पिण्यसर्पिण्योर्जातः सिध्यति । विशेषणावसर्पिण्यां सुषमदुःषमाया अंत्ये भागे दुःषमसुषमायां च जातः सिध्यति । न तु दुःषमायां जातो दुःषमायां सिध्यति । अन्यदा नैव सिध्यति । संहरणतः सर्वस्मिन्काले उत्सर्पिण्यामवसर्पिण्यां च सिध्यति । = काल की अपेक्षा–वर्तमानग्राही नय से, एक समय में सिद्ध होता हुआ सिद्ध होता है । अतीतग्राही नय से, जन्म की अपेक्षा सामान्यरूप में उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी में उत्पन्न हुआ सिद्ध होता है । विशेष रूप से अवसर्पिणी काल में सुषमा-दुःषमा के अंत भाग में और दुःषमा-सुषमा में उत्पन्न हुआ सिद्ध होता है । दुःषमा में उत्पन्न हुआ दुःषमा में सिद्ध नहीं होता । इस काल को छोड़कर अन्य काल में सिद्ध नहीं होता है । संहरण की अपेक्षा उत्सर्पिणी और अवसर्पिणी के सब समयों में सिद्ध होता है । ( राजवार्तिक/10/9/3/646/22 )।
तिलोयपण्णत्ति/4/553, 1239 सुसुमदुसुमम्मि णामे सेसे चउसीदिलक्खपुव्वाणिं । वासतए अडमासे इगिपक्खे उसहउप्पत्ती ।553। तियवासा अडमासं पक्खं तह तदियकालअवसेसे । सिद्धो रिसहजिणिंदो वीरो तुरिमस्स तेत्तिए सेसे ।1239। = सुषमादुषमा नामक तीसरे काल के 8400,000 पूर्व, 3 वर्ष और 8½ मास शेष रहने पर भगवान् ॠषभदेव का अवतार हुआ ।553। तृतीयकाल में 3 वर्ष और 8½ मास शेष रहने पर ॠषभ जिनेंद्र तथा इतना ही चतुर्थ काल में अवशेष रहने पर वीरप्रभु सिद्धि को प्राप्त हुए ।1239। (और भी देखें महावीर - 1, 3) ।
महापुराण/41/78 केवलार्कोदयः प्रायो न भवेत् पंचमे युगे । = पंचमकाल में प्रायः केवलज्ञानरूपी सूर्य का उदय नहीं होगा ।
धवला 6/1, 9-8, 11/ पृ./पंक्ति दुस्सम (दुस्समदुस्सम), सुस्समासुस्समा-सुसमदुस्समाकालुप्पण्णमणुसाणं खवणणिवारणट्ठं ‘जम्हि जिणा’ त्ति वयणं । जम्हि काले जिणा संभवंति तम्हि चेव खवणाए पट्ठवाओ होदि, ण अण्णकालेसु । (246/1)...एदेण वक्खाणभिप्पाएण दुस्सम-अइदुस्सम-सुसमसुसम-सुसमकाले-सुप्पणाणं चेव दंसणमोहणीयक्खवणा णत्थि, अवसेसदोसु वि कालेसुप्पणाणमत्थि । कुदा । एइंदियादो आगंतूणतदियकालुप्पण्णबद्धणकुमारादीणं दंसणमोहक्खवणदंसणादो । एवं चेवेत्थ वक्खाणं पधाणं कादव्वं । = दुःषमा (दुःषमादुःषमा), सुषमासुषमा, सुषमा और सुषमादुःषमा काल में उत्पन्न हुए मनुष्यों के दर्शनमोह का क्षपण निषेध करने के लिए ‘जहाँ जिन होते हैं’ यह वचन कहा है । जिस काल में जिन संभव हैं उस ही काल में दर्शनमोह की क्षपणा का प्रस्थापक कहलाता है (किन्हीं अन्य आचार्यों के), व्याख्यान के अभिप्राय से दुःषमा, अतिदुःषमा, सुषमासुषमा और सुषमा इन चार कालों में उत्पन्न हुए जीवों के ही दर्शनमोह की क्षपणा नहीं होती है । अवशिष्ट दोनों कालों में अर्थात् सुषमादुःषमा और दुःषमासुषमा कालों में उत्पन्न हुए जीवों के दर्शनमोहनीय की क्षपणा होती है । इसका कारण यह है कि एकेंद्रिय पर्याय से आकर (इस अवसर्पिणी के) तीसरे काल में उत्पन्न हुए वर्द्धनकुमार आदिकों के दर्शनमोह की क्षपणा देखी जाती है । यहाँ पर यह व्याख्यान ही प्रधानतया ग्रहण करना चाहिए ।
देखें विदेह − (उपर्युक्त तीसरे व चौथे काल संबंधी नियम भरत व ऐरावत क्षेत्र के लिए ही हैं, विदेह क्षेत्र के लिए नहीं) ।
देखें जंबूस्वामी − (जंबूस्वामी चौथेकाल में उत्पन्न होकर पंचमकाल में मुक्त हुए । यह अपवाद हुंडावसर्पिणी के कारण से है ।)
देखें जन्म - 5.1(चरमशरीरियों की उत्पत्ति चौथे काल में ही होती है) ।
- मुक्तियोग्य गति निर्देश
शीलपाहुड़/ मूल/29 सुणहाण गद्दहाण य गोपसुमहिलाण दीसदे मोक्खो । जो सोधंति चउत्थं पिच्छिज्जंता जणेहि सव्वेहिं । = श्वान, गधे, गौ, पशु व महिला आदि किसी को मोक्ष होता दिखाई नहीं देता, क्योंकि मोक्ष तो चौथे अर्थात् मोक्ष पुरुषार्थ से होता है जो केवल मनुष्यगति व पुरुषलिंग में ही संभव है । (देखें मनुष्य - 2.2)।
सर्वार्थसिद्धि/10/9/472/5 गत्या कस्यां गतौ सिद्धिः । सिद्धिगतौ मनुष्यगतौ वा । = गतिकी अपेक्षा−सिद्धगति में या मनुष्यगति में सिद्धि होती है । (और भी देखें मनुष्य - 2.2)।
राजवार्तिक/10/9/4/646/28 प्रत्युत्पन्ननयाश्रयेण सिद्धिगतौ सिद्धयति । भूतविषयनयापेक्षया...अनंतरगतौ मनुष्यगतौ सिद्धयति । एकांतरगतौ चतसृषु गतिषु जातः सिद्धयति । = वर्तमानग्राही नय के आश्रय से सिद्धिगति में सिद्धि होती है । भूतग्राही नय से, अनंतर गति की अपेक्षा मनुष्यगति से और एकांतरगति की अपेक्षा चारों ही गतियों में उत्पन्न हुओं को सिद्धि होती है ।
- मुक्तियोग्य लिंग निर्देश
सूत्रपाहुड़/23 णवि सिज्झइ वत्थधरो जिणसासण जइ वि होइ तित्थयरो । एग्गो विमोक्खमग्गो सेसा उम्मग्गया सव्वे ।23। = जिनशासन में−तीर्थंकर भी जब तक वस्त्र धारण करते हैं तब तक मोक्ष नहीं पाते । इसलिए एक निर्ग्रंथ ही मोक्षमार्ग है, शेष सर्व मार्ग उन्मार्ग हैं ।
सर्वार्थसिद्धि/10/9/472/5 लिंगेन केन सिद्धिः अवेदत्वेन त्रिभ्यो वा वेदेभ्यः सिद्धिर्भावतो न द्रव्यतः । द्रव्यतः पुंलिंगेनैव । अथवा निर्ग्रंथलिंगेन । सग्रंथलिंगेन वा सिद्धिर्भूतपूर्वनयापेक्षया । = लिंग की अपेक्षा- वर्तमानग्राही नय से अवेदभाव से तथा भूतगोचर नय से तीनों वेदों से सिद्धि होती है । यह कथन भाववेद की अपेक्षा है द्रव्यवेद की अपेक्षा नहीं, क्योंकि द्रव्य की अपेक्षा तो पुंलिंग से ही सिद्धि होती है । (विशेष देखें वेद - 7.6)। अथवा वर्तमानग्राही नय से निर्ग्रंथलिंग से सिद्धि होती है और भूतग्राही नय से सग्रंथलिंग से भी सिद्धि होती है । (विशेष देखें लिंग )। ( राजवार्तिक/10/9/5/646/32 ) ।
- मुक्तियोग्य तीर्थ निर्देश
सर्वार्थसिद्धि/10/9/472/7 तीर्थेन तीर्थसिद्धिर्द्वेधा, तीर्थकरेतरविकल्पात् । इतरे द्विविधाः सति तीर्थंकरे सिद्धा असति चेति । = तीर्थसिद्धि दो प्रकार की होती है−तीर्थंकरसिद्ध और इतरसिद्ध । इतर दो प्रकार के होते हैं । कितने ही जीव तीर्थंकर के रहते हुए सिद्ध होते हैं और कितने ही जीव तीर्थंकर के अभाव में सिद्ध होते हैं । ( राजवार्तिक/10/9/6/647/3 )।
- मुक्तियोग्य चारित्र निर्देश
सर्वार्थसिद्धि/10/9/472/8 चारित्रेण केन सिद्धयति । अव्यपदेशेनैकचतुःपंचविकल्पचारित्रेण वा सिद्धिः । = चारित्र की अपेक्षा−प्रत्युत्पन्ननय से व्यपदेशरहित सिद्धि होती है अर्थात् न चारित्र से होती है और न अचारित्र से (देखें मोक्ष - 3.6) । भूतपूर्वनय से अनंतर की अपेक्षा एक यथाख्यात चारित्र से सिद्धि होती है और व्यवधान की अपेक्षा सामायिक, छेदोपस्थापना व सूक्ष्मसाम्यपराय इन तीन सहित चार से अथवा परिहारविशुद्धि सहित पाँच चारित्रों से सिद्धि होती है । ( राजवार्तिक/10/9/7/647/6 )।
- मुक्तियोग्य प्रत्येक व बोधित बुद्ध निर्देश
राजवार्तिक/10/9/8/647/10 केचित्प्रत्येकबुद्धसिद्धाः, परोपदेशमनपेक्ष्य स्वशक्त्यैवाविर्भूतज्ञानातिशयाः । अपरे बोधितबुद्धसिद्धाः, परोपदेशपूर्वकज्ञानपकर्षास्कंदिनः । = कुछ प्रत्येक बुद्ध सिद्ध होते हैं, जो परोपदेश के बिना स्वशक्ति से ही ज्ञानातिशय प्राप्त करते हैं । कुछ बोधित बुद्ध होते हैं जो परोपदेशपूर्वक ज्ञान प्राप्त करते हैं । ( सर्वार्थसिद्धि/10/9/472/9 ) ।
- मुक्तियोग्य ज्ञान निर्देश
सर्वार्थसिद्धि/10/9/472/10 ज्ञानेन केन । एकेन द्वित्रिचतुर्भिश्च ज्ञानविशेषैः सिद्धिः । = ज्ञान की अपेक्षा−प्रत्युत्पन्न नय से एक ज्ञान से सिद्धि होती है; और भूतपूर्वगति से मति व श्रुत दो से अथवा मति, श्रुत व अवधि इन तीन से अथवा मनःपर्ययसहित चार ज्ञानों से सिद्धि होती है । (विशेष देखें ज्ञान 1.4.11), ( राजवार्तिक/10/9/9/647/14 ) ।
- मुक्तियोग्य अवगाहना निर्देश
सर्वार्थसिद्धि/10/9/473/11 आत्मप्रदेशव्यापित्वमवगाहनम् । तद् द्विविधम्, उत्कष्टजघन्यभेदात् । तत्रोत्कृष्ट पंचधनुःशतानि पंचविंशत्युत्तराणि । जघन्यमर्धचतुर्थारत्नयो देशानाः । मध्ये विकल्पाः । एकस्मिन्नवगाहे सिद्धयति । = आत्मप्रदेश में व्याप्त करके रहना इसका नाम अवगाहना है । वह दो प्रकार की है−जघन्य व उत्कृष्ट । उत्कृष्ट अवगाहना 525 धनुष है और जघन्य अवगाहना कुछ कम 3½ अरत्नि है । बीच के भेद अनेक हैं । किसी एक अवगाहना में सिद्धि होती है । ( राजवार्तिक/10/9/10/647/15 )।
राजवार्तिक/10/9/10/647/19 एकस्मिन्नवगाहे सिद्धयंति पूर्वभावप्रज्ञापननयापेक्षया । प्रत्युत्पन्नभावप्रज्ञापने तु एतस्मिन्नेव देशोने । = भूतपूर्व नय से इन (उपरोक्त) अवगाहनाओं में से किसी भी एक में सिद्धि होती है और प्रत्युपन्न नय की अपेक्षा कुछ कम इन्हीं अवगाहनाओं में सिद्धि होती है, क्योंकि मुक्तात्माओं का आकार चरम शरीर से किंचिदून रहता है । (देखें मोक्ष - 5)] ।
- मुक्तियोग्य अंतर निर्देश
सर्वार्थसिद्धि/10/9/473/2 किमंतरम् । सिद्धयतां सिद्धानामनंतरं जघन्येन द्वौ समयौ उत्कर्षेणाष्टौ । अंतरं जघन्येनैकः समयः उत्कर्षेण षण्मासाः । = अंतर की अपेक्षा−सिद्धि को प्राप्त होने वाले सिद्धों का जघन्य अनंतर दो समय है और उत्कृष्ट अनंतर आठ समय है । जघन्य अंतर एक समय और उत्कृष्ट अंतर छह महीना है । ( राजवार्तिक/10/9/11-12/647/21 )।
देखें नीचे शीर्षक नं - 12 (छह महीने के अंतर से मोक्ष जाने का नियम है) ।
- मुक्त जीवों की संख्या
सर्वार्थसिद्धि/10/9/473/3 संख्या जघन्येन एकसमये एकः सिध्यति । उत्कर्षेणाष्टोत्तरशतसंख्याः । = संख्या की अपेक्षा−जघन्य रूप से एक समय में एक जीव सिद्ध होता है और उत्कृष्ट रूप से एक समय में 108 जीव सिद्ध होते हैं । ( राजवार्तिक/10/9/13/647/25 ) ।
धवला 14/4, 6, 116/143/10 सव्वकालमदीदकालस्स सिद्धा असंखेज्जदिभागे चेव, छम्मासमंतरिय णिव्वुइगमणणियमादो । = सिद्ध जीव सदा अतीत काल के असंख्यातवें भागप्रमाण ही होते हैं, क्योंकि छह महीने के अंतर से मोक्ष जाने का नियम है ।
- सिद्धों में अपेक्षाकृत कथंचित् भेद
- मुक्त जीवों का मृत शरीर आकार ऊर्ध्व गमन व अवस्थान
- उनके मृत शरीर संबंधी दो धारणाएँ
हरिवंशपुराण/65/12-13 गंधपुष्पादिभिर्दिव्यैः पूजितास्तनवः क्षणात् । जैनाद्या द्योतयंत्यो द्यां विलीना विद्युतो यथा ।12। स्वभावोऽयं जिनादीनां शरीरपरमाणवः । मुच्यति स्कंधतामंते क्षणात्क्षणरुचामिव ।13। = दिव्य गंध तथा पुष्प आदि से पूजित, तीर्थंकर आदि मोक्षगामी जीवों के शरीर क्षणभर में बिजली की नाईं आकाश को देदीप्यमान करते हुए विलीन हो गये ।12। क्योंकि यह स्वभाव है कि तीर्थंकर आदि के शरीर के परमाणु अंतिम समय बिजली के समान क्षणभर में स्कंधपर्याय को छोड़ देते हैं ।13।
महापुराण/47/343 −350 तदागत्य सुराः सर्वे प्रांतपूजाचिकीर्षया ।...शुचिनिर्मल ।343। शरीरं....शिविकार्पितम् । अग्नींद्ररत्नभाभासिप्रोत्तुंगमुकुटोद्भुवा ।344। चंदनागुरुकर्पूर....आदिभिः ।...अप्तवृद्धिना हुतभोजिना ।345।...तदाकारोपमर्देन पर्यायांतरमानयं ।346। तस्य दक्षिणभागेऽभूद् गणभृत्संस्क्रियानलः ।347। तस्यापरस्मिन् दिग्भागे शेषकेवलिकायगः ।... ।348। ततो भस्म समादाय पंचकल्याणभागिनः ।.....स्वललाटे भुजद्वये ।349 । कंठे हृदयदेशे च तेन संस्पृश्य भक्तितः ।350। = भगवान् ॠषभदेव के मोक्ष कल्याणक के अवसर पर अग्निकुमार देवों ने भगवान् के पवित्र शरीर को पालकी में विराजमान किया । तदनंतर अपने मुकुटों से उत्पन्न की हुई अग्नि को अगुरु, कपूर आदि सुगंधित द्रव्यों से बढ़ाकर उसमें उस शरीर का वर्तमान आकार नष्ट कर दिया और इस प्रकार उसे दूसरी पर्याय प्राप्त करा दी ।343−346 । उस अग्निकुंड के दाहिनी ओर गणधरों के शरीर का संस्कार करने वाली तथा उसके बायीं ओर सामान्य केवलियों के शरीर का संस्कार करने वाली अग्नि स्थापित की । तदनंतर इंद्र ने भगवान् ॠषभदेव के शरीर की भस्म उठाकर अपने मस्तक पर चढ़ायी ।347-350 । ( महापुराण/67/204 )।
- संसार के चरम समय में मुक्त होकर ऊपर को जाता है
तत्त्वार्थसूत्र/10/5 तदनंतरमूर्ध्वं गच्छत्यालोकांतात् ।5। = तदनंतर मुक्त जीव लोक के अंत तक ऊपर जाता है ।
तत्त्वसार/8/35 द्रव्यस्य कर्मणो यद्वदुत्पत्त्यारंभवीचयः । समं तथैव सिद्धस्य गतिर्मोक्षे भवक्षयात् ।35। = जिस प्रकार द्रव्य कर्मों की उत्पत्ति होने से जीव में अशुद्धता आती है, उसी प्रकार कर्मबंधन नष्ट हो जाने पर जीव का संसारवास नष्ट हो जाता है और मोक्षस्थान की तऱफ गमन शुरू हो जाता है ।
ज्ञानार्णव/42/59 लघुपंचक्षरोच्चारकालं स्थित्वा ततः परम् । स स्वभावाद्व्रजत्यूर्ध्वं शुद्धात्मा वीतबंधनः ।59। = लघु पाँच अक्षरों का उच्चारण जितनी देर में होता है उतने काल तक चौदहवें गुणस्थान में ठहरकर, फिर कर्मबंधन से रहित होने पर वे शुद्धात्मा स्वभाव ही से ऊर्ध्वगमन करते हैं ।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/73/125/17 सर्वतो मुक्तोऽपि । स्वाभाविकानंतज्ञानादिगुणयुक्तः सन्नेकसमयलक्षणाविग्रहगत्योर्ध्वं गच्छति । = द्रव्य व भाव दोनों प्रकार के कर्मों से सर्वप्रकार मुक्त होकर स्वाभाविक ज्ञानादि गुणों से युक्त होकर एक सामयिक विग्रहगति के द्वारा ऊपर को चले जाते हैं ।
द्रव्यसंग्रह टीका /37/154/11 अयोगिचरमसमये द्रव्यविमोक्षो भवति । = अयोगी गुणस्थानवर्ती जीव के चरम समय में द्रव्य मोक्ष होता है ।
- ऊर्ध्व ही गमन क्यों इधर-उधर क्यों नहीं
देखें गति - 1.3−6 (ऊर्ध्व गति जीव का स्वभाव है, इसलिए कर्म संपर्क के हट जाने पर वह ऊपर की ओर ही जाता है, अन्य दिशाओं में नहीं; क्योंकि संसारावस्था में जो उसकी षटोपक्रम गति देखी जाती है, वह कर्म निमित्तक होने से विभाव है, स्वभाव नहीं । परंतु यह स्वभाव ज्ञानस्वभाव की भाँति कोई त्रिकाली स्वभाव नहीं है, जो कि सिद्धशिला से आगे उसका गमन रुक जाने पर जीव के अभाव की आशंका की जाये ।
तत्त्वार्थसूत्र/10/6 −7 पूर्वप्रयोगादसंगत्वाद् बंधच्छेदात्तथागतिपरिणामाच्च ।6। आबिद्धकुलालचक्रवद्व्यपगतलेपालाबुवदेरंडबीजवदग्निशिखावच्च ।7 । = पूर्वप्रयोग से, संग का अभाव होने से बंधन के टूटने और वैसा गमन करना स्वभाव होने से मुक्तजीव ऊर्ध्व गमन करता है ।6। जैसे कि घुमाया हुआ कुम्हार का चक्र, लेप से मुक्त हुई तूमड़ी, एरंड का बीज और अग्नि की शिखा ।7 ।
धवला 1/1, 1, 1/47/2 आयुष्यवेदनीयोदययोर्जीवोर्ध्वगमनसुखप्रतिबंधकयोः सत्त्वात् । = ऊर्ध्वगमन स्वभाव का प्रतिबंधक आयुकर्म का उदय अरिहंतों के पाया जाता है ।
- मुक्तजीव सर्वलोक में नहीं व्याप जाता
सर्वार्थसिद्धि/10/4/469/2 स्यान्मतं, यदि शरीरानुविधायी जीवः तदभावात्स्वाभाविकलोकाकाशप्रदेशपरिमाणत्वात्तावद्विसर्पणं प्राप्नोतीति । नैष दोषः । कुतः । कारणाभावात् । नामकर्मसंबंधो हि संहरणविसर्पणकारणम् । तदभावात्पुनः संहरणविसर्पणाभावः । = प्रश्न−यह जीव शरीर के आकार का अनुकरण करता है (देखें जीव - 3.9) तो शरीर का अभाव होने से उसके स्वाभाविक लोकाकाश के प्रदेशों के बराबर होने के कारण जीव तत्प्रमाण प्राप्त होता है ? उत्तर−यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि जीव के तत्प्रमाण होने का कोई प्रमाण नहीं उपलब्ध होता । नामकर्म का संबंध जीव के संकोच और विस्तार का कारण है, किंतु उसका अभाव हो जाने से जीव के प्रदेशों का संकोच और विस्तार नहीं होता । ( राजवार्तिक/10/4/12 −13/643/27)।
द्रव्यसंग्रह टीका/14/144/4 कश्चिदाह−यथा प्रदीपस्य भाजनाद्यावरणे गते प्रकाशस्य विस्तारो भवति तथा देहाभावे लोकप्रमाणेन भाव्यमिति । तत्र परिहारमाह−प्रदीपसंबंधी योऽसौ प्रकाशविस्तारः पूर्वं स्वभावेनैव तिष्ठति पश्चादावरणं जातं । जीवस्य तु लोकमात्रासंख्येयप्रदेशत्वं स्वभावो भवति, यस्तु प्रदेशानां संबंधी विस्तारः स स्वभावो न भवति । कस्मादिति चेत्, पूर्वलोकमात्रप्रदेशा विस्तीर्णा निरावरणास्तिष्ठंति पश्चात् प्रदीपवदावरणं जातमेव । तन्न, किंतु पूर्वमेवानादिसंतानरूपेण शरीरेणावृत्तस्तिष्ठंति ततः कारणात्प्रदेशानां संहारो न भवति, विस्तारश्च शरीरनामकर्माधीन एव न च स्वभावस्तेन कारणेन शरीराभावे विस्तारो न भवति । अपरमप्युदाहरणं दीयते−यथा हस्तचतुष्टयप्रमाणवस्त्रं पुरुषेण मुष्टौ बद्धं तिष्ठति, पुरुषाभावे संकोचविस्तारौ वा न करोति, निष्पत्तिकाले सार्द्रं मृन्मयभाजनं वा शुष्कं सज्जलाभावे सति; तथा जीवोऽपि पुरुषस्थानीयजलस्थानीयशरीराभावे विस्तारसंकोचौ न करोति । = प्रश्न−जैसे दीपक को ढँकने वाले पात्र आदि के हटा लेने पर उस दीपक के प्रकाश का विस्तार हो जाता है, उसी प्रकार देह का अभाव हो जाने पर सिद्धों का आत्मा भी फैलकर लोक प्रमाण होना चाहिए ? उत्तर−दीपक के प्रकाश का विस्तार तो पहले ही स्वभाव से दीपक में रहता है, पीछे उस दीपक के आवरण से संकुचित होता है । किंतु जीव का लोकप्रमाण असंख्यात प्रदेशत्व स्वभाव है, प्रदेशों का लोकप्रमाण विस्तार स्वभाव नहीं है । प्रश्न−जीव के प्रदेश पहले लोक के बराबर फैले हुए, आवरण रहित रहते हैं, फिर जैसे प्रदीप के आवरण होता है उसी तरह जीवप्रदेशों के भी आवरण हुआ है ? उत्तर−ऐसा नहीं है, क्योंकि जीव के प्रदेश तो पहले अनादि काल से संतानरूप चले आये हुए शरीर के आवरणसहित ही रहते हैं । इस कारण जीव के प्रदेशों का संहार तथा विस्तार शरीर नामक नामकर्म के अधीन है, जीव का स्वभाव नहीं है । इस कारण जीव के शरीर का अभाव होने पर प्रदेशों का विस्तार नहीं होता । इस विषय में और भी उदाहरण देते हैं कि, जैसे कि मनुष्य की मुट्ठी के भीतर चार हाथ लंबा वस्त्र भिंचा हुआ है । अब वह वस्त्र मुट्ठी खोल देने पर पुरुष के अभाव में संकोच तथा विस्तार नहीं करता । जैसा उस पुरुष ने छोड़ा वैसा ही रहता है । अथवा गीली मिट्टी का बर्तन बनते समय तो संकोच तथा विस्तार को प्राप्त होता जाता है, किंतु जब वह सूख जाता है, तब जल का अभाव होने से संकोच व विस्तार को प्राप्त नहीं होता । इसी तरह मुक्त जीव भी पुरुष के स्थानभूत अथवा जल के स्थानभूत शरीर के अभाव में संकोच विस्तार नहीं करता । ( परमात्मप्रकाश टीका/54/52/6 )।
- मुक्तजीव पुरुषाकार छायावत् होते हैं
तिलोयपण्णत्ति/9/16 जावद्धम्मं दव्वं तावं गंतूण लोयसिहरम्मि । चेट्ठंति सव्वसिद्धा पुह पुह गयसित्थमूसगब्भणिहा । = जहाँ तक धर्मद्रव्य है वहाँ तक जाकर लोकशिखर पर सब सिद्ध पृथक्- पृथक् मोम से रहित मूषक के अभ्यंतर आकाश के सदृश स्थित हो जाते हैं ।16। ( ज्ञानार्णव/40/25 ) ।
द्रव्यसंग्रह/ टीका/51/217/2 पुरिसायारो अप्पा सिद्धोझाएह लोयसिहरत्थो ।51।.....गतसिक्थमूषागर्भाकारवच्छायाप्रतिमावद्वा पुरुषाकारः = पुरुष के आकार वाले और लोक शिखर पर स्थित, ऐसा आत्मा सिद्ध परमेष्ठी है । अर्थात् मोम रहित मूस के आकार की तरह अथवा छाया के प्रतिबिंब के समान पुरुष के आकार को धारण करने वाला है ।
- मुक्तजीवों का आकार चरमदेह से किंचिदून है
सर्वार्थसिद्धि/10/4/468/13 अनाकारत्वान्मुक्तानामभाव इति चेन्न, अतीतानंतरशरीराकारत्वात् । = प्रश्न−अनाकार होने से मुक्त जीवों का अभाव प्राप्त होता है ? उत्तर−नहीं , क्योंकि उनके अतीत अनंतर शरीर का आकार उपलब्ध होता है । ( राजवार्तिक/10/4/12/ 643/24 ); ( परमात्मप्रकाश/ मूल/1/54) ।
तिलोयपण्णत्ति/9/10 दीहत्तं बाहल्लं चरिमभवे जस्स जारिसं ठाणं । तत्तो तिभागहीणं ओगाहण सव्वसिद्धाणं । = अंतिम भव में जिसका जैसा आकार, दीर्घता और बाहल्य हो उससे तृतीय भाग से कम सब सिद्धों की अवगाहना होती है ।
द्रव्यसंग्रह मूल व टीका/14/44/2 किंचूणा चरम देहदो सिद्धा ।.... ।14। तत् किंचिदूनत्वं शरीरांगोपांगजनितनासिकादिछिद्राणामपूर्णत्वे सति ।.... । = वे सिद्ध चरम शरीर से किंचिदून होते हैं और वह किंचित् ऊनता शरीर व अंगोपांग नामकर्म से उत्पन्न नासिका आदि छिद्रों की पोलाहट के कारण से है ।
- सिद्धलोक में मुक्तात्माओं का अवस्थान
तिलोयपण्णत्ति/9/15 माणुसलोयपमाणे संठिय तणुवादउवरिमे भागे । सरिसा सिरा सव्वाणं हेट्ठिमभागम्मि विसरिसा केई = मनुष्यलोक प्रमाण स्थित तनुवात के उपरिम भाग में सब सिद्धों के सिर सदृश होते हैं । अधस्तन भाग में कोई विसदृश होते हैं ।
- उनके मृत शरीर संबंधी दो धारणाएँ
- मोक्ष के अस्तित्व संबंधी शंकाएँ
- मोक्ष के अस्तित्व संबंधी शंकाएँ
- मोक्षाभाव के निराकरण में हेतु
सिद्धि भक्ति/2 नाभावः सिद्धिरिष्टा न निजगुणहतिस्तत्तपोभिर्न युक्तेरस्त्यात्मानादिबंधः स्वकृतजफलभुभुक् तत्क्षयान्मोक्षभागी । ज्ञाता द्रष्टा स्वदेहप्रमितिरुपसमाहारविस्तारधर्मा, ध्रौव्योत्पत्तिव्ययात्मा स्वगुणयुत इतो नान्यथा साध्यसिद्धिः ।2। =- प्रश्न− मोक्ष का अभाव है, क्योंकि कर्मों के क्षय से आत्मा का दीपकवत् नाश हो जाता है (बौद्ध) अथवा सुख, दुःख, इच्छा, प्रयत्न आदि आत्मा के गुणों का अभाव ही मोक्ष है (वैशेषिक) ? उत्तर−नहीं, क्योंकि कौन बुद्धिमान् ऐसा होगा जो कि स्वयं अपने नाश के लिए तप आदि कठिन अनुष्ठान करेगा ।
- प्रश्न− आत्मा नाम की कोई वस्तु ही नहीं है (चार्वाक) ? उत्तर−नहीं; आत्मा का अस्तित्व अवश्य है । (विशेष देखें जीव - 2.4) ।
- प्रश्न− आत्मा या पुरुष सदा शुद्ध है । वह न कुछ करता है न भोगता है (सांख्य) ? उत्तर−नहीं, वह स्वयं कर्म करता है और उसके फलों को भी भोगता है । उन कर्मों के क्षय से ही वह मोक्ष का भागी होता है । वह स्वयं ज्ञाता द्रष्टा है, संकोच विस्तार शक्ति के कारण संसारावस्था में स्वदेह प्रमाण रहता है (देखें जीव - 3.7) वह कूटस्थ नहीं है, बल्कि उत्पाद-व्यय-ध्रौव्य युक्त है । (देखें उत्पादव्ययध्रौव्य 2.1)। वह निर्गुण नहीं है बल्कि अपने गुणों से युक्त है, अन्यथा साध्य की सिद्धि ही नहीं हो सकती । ( सर्वार्थसिद्धि/1/1 की उत्थानिका प/2/2); ( राजवार्तिक/1/1 की उत्थानिका/8/2/3 स्वयंभू स्तोत्र/ टीका/5/13) ।
राजवार्तिक/10/4/17/644/13 सर्वथाभावोमोक्षः प्रदीपवदिति चेत्; न; साध्यत्वात् ।17।...साध्यमेतत्-प्रदीपो निरन्वयनाशमुपयातीति । प्रदीपा एव हि पुद्गलाः, पुद्गलजातिमजहतः परिणामवशान्मषीभावमापन्ना इति नात्यंतविनाशः ।−दृष्टत्वाच्च निगलादिवियोगे देवदत्ताद्यवस्थानवत् ।18। यत्रैव कर्मविप्रमोक्षस्तत्रैवावस्थानमिति चेत्; न; साध्यत्वात् ।19।....साध्यमेतत्तत्रैवावस्थातव्यमिति, बंधनाभावादनाश्रितत्वाच्च स्याद्गमनमिति । = - प्रश्न− जिस प्रकार बुझ जाने पर दीपक अत्यंत विनाश को प्राप्त हो जाता है, उसी प्रकार कर्मों के क्षय हो जाने पर जीव का भी नाश हो जाता है, अतः मोक्ष का अभाव है ? उत्तर−नहीं, क्योंकि ‘प्रदीप का नाश हो जाता है’ यह बात ही असिद्ध है । दीपकरूप से परिणत पुद्गलद्रव्य का विनाश नहीं होता है । उनकी पुद्गल जाति बनी रहती है । इसी प्रकार कर्मों के विनाश से जीव का नाश नहीं होता । उसकी जाति अर्थात् चैतन्य स्वभाव बना रहता है । ( धवला 6/1, 9-1/233/ गाथा 2-3/497) ।
- दूसरी बात यह भी है कि जिस प्रकार बेड़ियों से मुक्त होने पर भी देवदत्त का अवस्थान देखा जाता है, उसी प्रकार कर्मों से मुक्त होने पर भी आत्मा का स्वरूपावस्थान होता है ।
- प्रश्न− जहाँ कर्म बंधन का अभाव हुआ है वहाँ ही मुक्त जीव को ठहर जाना चाहिए ? उत्तर−नहीं, क्योंकि यह बात भी अभी विचारणीय है कि उसे वहीं ठहर जाना चाहिए या बंधाभाव और अनाश्रित होने से उसे गमन करना चाहिए ।
देखें गति - 1.4 - प्रश्न− उष्णता के अभाव से अग्नि के अभाव की भाँति, सिद्धलोक में जाने से मुक्त जीवों के ऊर्ध्वगमन का अभाव हो जाने से, वहाँ उस जीव का भी अभाव हो जाना चाहिए । उत्तर−नहीं, क्योंकि ऊर्ध्व ही गमन करना उसका स्वभाव माना गया है, न कि ऊर्ध्व गमन करते ही रहना ।)
देखें मोक्ष - 5.6 8. मोक्ष के अभाव में अनाकारता का हेतु भी युक्त नहीं है, क्योंकि हम उसको पुरुषाकर रूप मानते हैं ।)
- मोक्ष अभावात्मक नहीं है, बल्कि आत्मलाभरूप है
पंचास्तिकाय/35 जेसिं जीवसहावो णत्थि अभावो य सब्वहा तस्स । ते होंति भिण्णदेहा सिद्धा वचिगोयरमदीदा ।35। = जिनके जीव स्वभाव नहीं है । (देखें मोक्ष - 3.5) । और सर्वथा उसका अभाव भी नहीं है । वे देहरहित व वचनगोचरातीत सिद्ध हैं ।
सिद्धि विनिश्चय/ मूल/7/19/485 आत्मलाभं विदुर्मोक्षं जीवस्यांतर्मलक्षयात् । नाभावं नाप्यचैतन्यं न चैतन्यमनर्थकम् ।19। = आत्मस्वरूप के लाभ का नाम मोक्ष है जो कि जीव की अंतर्मल का क्षय हो जाने पर प्राप्त होता है । मोक्ष में न तो बौद्धों की भाँति आत्मा का अभाव होता है और न ही वह ज्ञानशून्य अचेतन हो जाता है । मोक्ष में भी उसका चैतन्य अर्थात् ज्ञान दर्शन निरर्थक नहीं होता है, क्योंकि वहाँ भी वह त्रिजगत् को साक्षीभाव से जानता तथा देखता रहता है । [जैसे बादलों के हट जाने पर सूर्य अपने स्वपरप्रकाशकपने को नहीं छोड़ देता, उसी प्रकार कर्ममल का क्षय हो जाने पर आत्मा अपने स्वपरप्रकाशकपने को नहीं छोड़ देता−देखें (इस श्लोक की वृत्ति) ।
धवला 6/1, 9-9, 216/490/4 केवलज्ञाने समुत्पन्नेऽपि सर्वं न जानातीति कपिलो ब्रूते । तन्न, तन्निराकरणार्थं बुद्धयंत इत्युच्यते । मोक्षो हि नाम बंधपूर्वकः, बंधश्च न जीवस्यास्ति, अमूर्तत्वान्नित्यत्वाच्चेति । तस्माज्जीवस्य न मोक्ष इति नैयायिक-वैशेषिक-सांख्य-मीमांसकमतम् । एतंनिराकरणार्थमुच्चंतीति प्रतिपादितम् । परिनिर्वाणयंति−अशेषबंधमोक्षे सत्यपि न परिनिर्वांति, सुखदुःखहेतुशुभाशुभकर्मणां तत्रासत्त्वादिति तार्किकयोर्मतं । तन्निराकरणार्थं परिनिर्वांति अनंतसुखा भवंतीत्युच्यते । यत्र सुखं तत्र निश्चयेन दुःखमप्यस्ति दुःखाविनाभावित्वात्सुखस्येति तार्किकयोरेवं मतं, तन्निराकरणार्थं सर्वदुःखानमंतं परिविजाणंतीति उच्यते । सर्वदुःखाननंतं पर्यवसानं परिविजानंति गच्छंतीत्यर्थः । कुतः । दुःखहेतुकर्मणां विनष्टत्वात् स्वास्थ्यलक्षणस्य सुखस्य जीवस्य स्वाभाविकत्वादिति । = प्रश्न−केवलज्ञान उत्पन्न होने पर भी सबको नहीं जानते हैं (कपिल या सांख्य) ? उत्तर−नहीं, वे सब को जानते हैं । प्रश्न−अमूर्त व नित्य होने से जीव को न बंध संभव है और न बंधपूर्वक मोक्ष (नैयायिक, वैशेषिक, सांख्य व मीमांसक) ? उत्तर−नहीं, वे मुक्त होते हैं । प्रश्न−अशेष बंध का मोक्ष हो जाने पर भी जीव परिनिर्वाण अर्थात् अनंत सुख नहीं प्राप्त करता है; क्योंकि वहाँ सुख-दुःख के हेतुभूत शुभाशुभ कर्मों का अस्तित्व नहीं है (तार्किक मत) ? उत्तर−नहीं, वे अनंतसुख भोगी होते हैं । प्रश्न−जहाँ सुख है वहाँ निश्चय से दुःख भी है, क्योंकि सुख दुःख का अविनाभावी है (तार्किक) ? उत्तर−नहीं, वे सर्व दुःखों के अंत का अनुभव करते हैं । इसका अर्थ यह है कि वे जीव समस्त दुःखों के अंत अर्थात् अवसान को पहुँच जाते हैं, क्योंकि उनके दुःख के हेतुभूत कर्मों का विनाश हो जाता है और स्वास्थ्य लक्षण सुख जो कि जीव का स्वाभाविक गुण है, वह प्रगट हो जाता है ।
- बंध व उदय की अटूट शृंखला का भंग कैसे संभव है ?
द्रव्यसंग्रह टीका/37/155/10 अत्राह शिष्यः−संसारिणां निरंतरं कर्मबंधोऽस्ति, तथैवोदयोऽप्यस्ति, शुद्धात्मभावनाप्रस्तावो नास्ति, कथं मोक्षो भवतीति । तत्र प्रत्युत्तरं । यथा शत्रोः क्षीणावस्था दृष्ट्वा कोऽपि धीमान् पर्यालोचयत्ययं मम हनने प्रस्तावस्ततः पौरुषं कृत्वा शत्रुं हंति तथा कर्मणामप्येकरूपावस्था नास्ति हीयमानस्थित्यनुभागत्वेन कृत्वा यदा लघुत्वं क्षीणत्वं भवति तदा धीमान् भव्य आगमभाषया...लब्धिपंचकसंज्ञेनाध्यात्मभाषया निजशुद्धात्माभिमुखपरिणामसंज्ञेन च निर्मलभावनाविशेषखड्गेन पौरुषं कृत्वा कर्मशत्रुं हंतीति । यत्पुनरंतःकोटाकोटीप्रमितकर्मस्थितिरूपेण तथैव लतादारुस्थानीयानुभागरूपेण च कर्मलघुत्वे जातेऽपि सत्ययं जीव....कर्महननबुद्धिं क्कापि काले न करिष्यतीति तदभव्यत्वगुणस्यैव लक्षणं ज्ञातव्यमिति । = प्रश्न−संसारी जीवों के निरंतर कर्मों का बंध होता है और इसी प्रकार कर्मों का उदय भी सदा होता रहता है, इस कारण उनके शुद्धात्मा के ध्यान का प्रसंग ही नहीं है, तब मोक्ष कैसे होता है ? उत्तर−जैसे कोई बुद्धिमान् अपने शत्रु की निर्बल अवस्था देखकर अपने मन में विचार करता है, ‘कि यह मेरे मारने का अवसर है’ ऐसा विचार कर उद्यम करके, वह बुद्धिमान् अपने शत्रु को मारता है । इसी प्रकार कर्मों की भी सदा एकरूप अवस्था नहीं रहती, इस कारण स्थितिबंध और अनुभाग बंध की न्यूनता होने पर जब कर्म हलके होते हैं तब बुद्धिमान् भव्यजीव आगमभाषा में पाँच लब्धियों से और अध्यात्मभाषा में निज शुद्ध आत्मा के सम्मुख परिणाम नामक निर्मलभावना-विशेषरूप खड्ग से पौरुष करके कर्म शत्रु को नष्ट करता है। और जो अंतःकोटाकोटिप्रमाण कर्मस्थितिरूप तथा लता काष्ठ के स्थानापन्न अनुभागरूप से कर्मभार हलका हो जाने पर भी कर्मों को नष्ट करने की बुद्धि किसी भी समय में नहीं करेगा तो यह अभव्यत्व गुण का लक्षण समझना चाहिए। ( मोक्षमार्ग प्रकाशक/3, 459/2 )।
- अनादि कर्मों का नाश कैसे संभव है
राजवार्तिक/10/2/3/641/1 स्यान्मतम् - कर्मबंधसंतानस्याद्यभावादंतेनाप्यस्य न भवितव्यम्, दृष्टिविपरीतकल्पनायां प्रमाणाभावादिति; तन्न; किं कारणम्। दृष्टत्वादंत्यबीजवत्। यथा बीजांकुरसंतानेऽनादौ प्रवर्त्तमाने अंत्यबीजमग्निनोपहतांकुरशक्तिकमित्यंतोऽस्य दृष्टस्तथा मिथ्यादर्शनादिप्रत्ययसांपरायिकसंततावनादौ ध्यानानलनिर्दग्धकर्मबीजे भवांकुरोत्पादाभावान्मोक्ष इति दृष्टमिदमपह्वोतुमशक्यम्। = प्रश्न−कर्म बंध की संतान जब अनादि है तो उसका अंत नहीं होना चाहिए ? उत्तर−जैसे बीज और अंकुर की संतान अनादि होने पर भी अग्नि से अंतिम बीज को जला देने पर उससे अंकुर उत्पन्न नहीं होता, उसी तरह मिथ्यादर्शनादि प्रत्यय तथा कर्मबंध संतति के अनादि होने पर भी ध्यानाग्नि से कर्म बीजों को जला देने पर भवांकुर का उत्पाद नहीं होता, यही मोक्ष है।
कषायपाहुड़/1/1-1/38/56/9 कम्मं पि सहेउअं तव्विणासण्णहाणुववत्तीदो णव्वदे। ण च कम्मविणासो असिद्धो; बाल-जोव्वण-रायादिपज्जायाणं विणासण्णहाणुववत्तीए तव्विणाससिद्ध दो। कम्ममकट्टिमं किण्ण जायदे। ण; अकट्टिमस्स विणासाणुववत्तीदो। तम्हा कम्मेण कट्टिमेण चेव होदव्वं। = कर्म भी सहेतुक हैं, अन्यथा उनका विनाश बन नहीं सकता और कर्मों का विनाश असिद्ध भी नहीं है, क्योंकि कर्मों के कार्यभूत बाल, यौवन और राजा आदि पर्यायों का विनाश कर्मों का विनाश हुए बिना नहीं हो सकता है। प्रश्न−कर्म अकृत्रिम क्यों नहीं ? उत्तर−नहीं, क्योंकि अकृत्रिम पदार्थ का विनाश नहीं बन सकता है, इसलिए कर्म को कृत्रिम ही होना चाहिए।
कषायपाहुड़/1/1-1/42/60/1 तं च कम्मं सहेउअं, अण्णहा णिव्वावाराणं पि बंधप्पसंगादो। = कर्मों को सहेतुक ही मानना चाहिए, अन्यथा अयोगियों में कर्मबंध का प्रसंग प्राप्त होता है। ( आप्तपरीक्षा/ टीका/111/291/343/10)।
कषायपाहुड़/1/1-1/44/616 अकट्टिमत्तदो कम्मसंताणे ण वोच्छिज्जदि त्ति ण वोत्तुं जुत्तं; अकट्टिमस्स वि बीजंकुरसंताणस्त वोच्छेदुवलंभादो। ण च कट्टिमसंताणिवदिरित्ते सताणो णाम अत्थि जस्स अकट्टिमत्तं वुच्चेज्ज। ण चासेसासवपडिवक्खे सयलसंवरे समुप्पण्णे वि कम्मागमसंताणे ण तुट्टदि त्ति वोत्तुं जुत्तं; जुत्तिवाहियत्तदौ। सम्मत्तसंजमविरायजोगणिरोहाणमक्कमेण पउत्तिदंसणादो च। ण च दिट्ठे अणुववण्णदा णाम। असंपुण्णाणमक्कमवुत्ती दीसइ ण संपुण्णाणं चे; ण; अक्कमेण वट्टमाणाणं सयलत्तकारणसाणिज्झे संते तदविरोहादो। संवरो सव्वकालं संपुण्णो ण होदि चेवेत्ति ण वोत्तुं जुत्तं; वड्ढमाणेसु कस्स वि कत्थ वि णियमेण सगसगुक्कस्सावत्थावत्तिदंसणादो। संवरो वि, वड्ढमाणो उवलब्भए तदो कत्थ वि संपुण्णेण होदव्वं बाहुज्जियतालरुक्खेणेव। आसवो वि कहिं पि णिम्मूलदो विणस्सेज्ज, हाणे तरतमभावण्णहाणुववत्तीदो आयरकणओवलावलीणमलकलंको व्व। =- प्रश्न− अकृत्रिम होने से कर्म की संतान व्युच्छिन्न नहीं होती है ? उत्तर−नहीं, क्योंकि अकृत्रिम होते हुए भी बीज व अंकुर की संतान का विनाश पाया जाता है।
- कृत्रिम संतानी से भिन्न, अकृत्रिम संतान नाम की कोई चीज नहीं है।
- प्रश्न−आस्रवविरोधी सकलसंवर के उत्पन्न हो जाने पर भी कर्मों की आस्रव परंपरा विच्छिन्न नहीं होती ? उत्तर−ऐसा कहना युक्ति बाधित है अर्थात् सकल प्रतिपक्षी कारण के होने पर कर्म का विनाश अवश्य होता है। ( धवला 9/4, 1/44/117/9 )।
- प्रश्न−सकल संवररूप सम्यक्त्व, संयम, वैराग्य और योगनिरोध इनका एक साथ स्वरूपलाभ नहीं होता है ? उत्तर−नहीं, क्योंकि इन सबकी एक साथ अविरुद्धवृत्ति देखी जाती है।
- प्रश्न−संपूर्ण कारणों की वृत्ति भले एक साथ देखी जाये, पर संपूर्ण की सम्यक्त्वादिकी नहीं ? उत्तर−नहीं, क्योंकि जो वर्द्धमान हैं ऐसे उन सम्यक्त्वादि में से कोई भी कहीं भी नियम से अपनी-अपनी उत्कृष्ट अवस्था को प्राप्त होता हुआ देखा जाता है। यतः संवर भी एक हाथ प्रमाण तालवृक्ष के समान वृद्धि को प्राप्त होता हुआ पाया जाता है, इसलिए किसी भी आत्मा में उसे परिपूर्ण होना ही चाहिए। ( धवला 9/4, 1, 44/118/1 ) और भी देखें अगला संदर्भ ।
- तथा जिस प्रकार खान से निकले हुए स्वर्णपाषाण का अंतरंग और बहिरंग मल निर्मूल नष्ट हो जाता है, उसी प्रकार आस्रव भी कहीं पर निर्मूल विनाश को प्राप्त होता है, अन्यथा आस्रव की हानि में तर-तम-भाव नहीं बन सकता है। ( धवला 9/4, 1, 44/118/2 ); ( स्याद्वादमंजरी/17/236/29 )।
- [दूसरी बात यह भी है कि कर्म अकृत्रिम है ही नहीं (देखें विभाव 3 )]।
स्याद्वादमंजरी/17/236/9 पर उद्धृत−देशतो नाशिनो भावा द्रष्टा निखिलनश्वराः। मेघपंक्त्यादयो यद्धत् एवं रागादयो मताः। = जो पदार्थ एक देश से नाश होते हैं, उनका सर्वथा नाश भी होता है। जिस प्रकार मेघों के पटलों का आंशिक नाश होने से उनका सर्वथा नाश भी होता है।
- मुक्त जीवों का परस्पर में उपरोध नहीं
राजवार्तिक/10/4/9/643/13 स्यान्मतम्−अल्पः सिद्धावगाह्य आकाशः प्रदेश आधारः, आधेयाः सिद्धा अनंताः, ततः परस्परोपरोध इति तन्न; कि कारणम्। अवगाहनशक्तियोगात्। मूर्त्तिमत्स्वपि नामा नेकमणिप्रदीपप्रकाशेषु अल्पेऽप्यवकाशे न विरोधः किमंगपुनरमूर्तिषु अवगाहनशक्तियुक्तेषु मुक्तेषु। = प्रश्न−सिद्धों का अवगाह्य आकाश प्रदेश रूप आधारता अल्प है और आधेयभूत सिद्ध अनंत हैं, अतः उनका परस्पर में उपरोध होता होगा ? उत्तर−नहीं, क्योंकि आकाश में अवगाहन शक्ति है। मूर्तिमान् भी अनेक प्रदीप प्रकाशों का अल्प आकाश में अविरोधी अवगाह देखा गया है, तब अमूर्त सिद्धों की तो बात ही क्या है ?
- मोक्ष जाते-जाते जीवराशि का अंत हो जायेगा ?
धवला 14/5, 6, 126/233/7 जीवरासी आयविज्जदो सव्वओ, तत्ते णिव्वुइमुवगच्छंतजीवाणमुवलंभादो। तदो संसारिजीवाणमभाव होदि त्ति भणिदे ण होदि। अलद्धसभावणिगोदजीवाणमणंताण संभवो हादित्ति। धवला 14/5, 6, 128/235/5 जासिं संखाणं आयविरहियाणं वये संत्ते वोच्छेदो होदि ताओ संखाओ संखेज्जासंखेज्जसण्णिदाओ। जासिं संखाणं आयविरहियाणं संखेज्जासंखेज्जेहि वइज्जमाणाणं पि वोच्छेदो ण होदि तासिमणंतमिदि सण्णा। सव्व जीवरासी वाणंतो तेण सो ण वोच्छिज्जदि, अण्णहा आणंतियविरोहादो।... सव्वे अदीदकालेण जे सिद्धा तेहिंतो एगणिगोदसरीरजीवाणमणंतागुणत्तं...। सिद्धा पुण अदीदकाले समयं पडि जदि वि असंखेज्जलोगमेत्ता सिज्झंति ता वि अदीदकालादो असंखेज्जगुणा चेव ण च एवं, अदीदकालादो सिद्धाणमसंखेव्भागत्तुवलंभादो।... अदीदकाले तसत्तं पत्तजीवा सुट्ठु जदि बहुआ होंति तो अदीदकालादो असंखेज्जगुणं चेव। = प्रश्न−जीव राशि आय से रहित और व्यय सहित है, क्योंकि उसमें से मोक्ष को जाने वाले जीव उपलब्ध होते हैं। इसलिए संसारी जीवों का अभाव प्राप्त होता है ? उत्तर−नहीं होता है; क्योंकि- त्रस भाव को नहीं प्राप्त हुए अनंत निगोद जीव संभव हैं। (और भी देखें निगोद, प्रतिष्ठित व अप्रतिष्ठित प्रत्येक शरीर परिचय )।
- आय रहित जिन संख्याओं का व्यय होने पर सत्त्व का विच्छेद होता है वे संख्याएँ संख्यात और असंख्यात संज्ञावाली होती हैं। आय से रहित जिन संख्याओं का संख्यात और असंख्यात रूप से व्यय होने पर भी विच्छेद नहीं होता है, उनकी अनंत संज्ञा है (और भी देखें अनंत 1.1 )। और सब जीव राशि अनंत हैं, इसलिए वह विच्छेद को प्राप्त नहीं होती। अन्यथा उसके अनंत होने में विरोध आता है। (देखें अनंत 2.1 )।
- सब अतीतकाल के द्वारा जो सिद्ध हुए हैं उनसे एक निगोदशरीर के जीव अनंतगुणे हैं। (देखें वनस्पति 3.7 )।
- सिद्ध जीव अतीतकाल के प्रत्येक समय में यदि असंख्यात लोक प्रमाण सिद्ध होवें तो भी अतीत काल से असंख्यातगुणे ही होंगे। परंतु ऐसा है नहीं, क्योंकि सिद्ध जीव अतीतकाल के असंख्यातवें भाग प्रमाण ही उपलब्ध होते हैं।
- अतीत काल में त्रसपने को प्राप्त हुए जीव यदि बहुत अधिक होते हैं तो अतीतकाल से असंख्यात गुणे ही होते हैं।
स्याद्वादमंजरी/29/331/16 न च तावता तस्य काचित् परिहाणिर्निगोदजीवानंत्यस्याक्षयत्वात्।... अनाद्यनंतेऽपि काले ये केचिन्निर्वृताः निर्वांति निर्वास्यंति च ते निगोदानामनंतभागेऽपि न वर्तंते नावर्तिषत न वर्त्स्यंति। ततश्च कथं मुक्तानां भवागमनप्रसंगः, कथं च संसारस्य रिक्तताप्रसक्तिरिति। अभिप्रेतं चैतद् अन्ययूथ्यानामपि। यथा चोक्तं वार्तिककारेण−अतएव च विद्वत्सु मुच्यमानेषु संततम्। ब्रह्मांडलोकजीवानामनंतत्वादशूंयता।1। अत्यन्यूनातिरिक्तत्वैर्युज्यते परिमाणवत्। वस्तुन्यपरिमेये तु नूनं तेषामसंभवः।2। = - [जितने जीव मोक्ष जाते हैं उतने ही निगोद राशि से निकलकर व्यवहारराशि में आ जाते हैं (देखें मोक्ष 2.5 )] अतएव निगोदराशि में से जीवों के निकलते रहने के कारण संसारी जीवों का कभी क्षय नहीं हो सकता। जितने जीव अब तक मोक्ष गये हैं और आगे जाने वाले हैं वे निगोद जीवों के अनंतवें भाग भी नहीं हैं, न हुए हैं और न होंगे। अतएव हमारे मत में न तो मुक्त जीव संसार में लौटकर आते हैं और न यह संसार जीवों से शून्य होता है। इसको दूसरे वादियों ने भी माना है । वार्तिककार ने भी कहा है, ‘इस ब्रह्मांड में अनंत संसारी जीव हैं, इस संसार से ज्ञानी जीवों की मुक्ति होते हुए यह संसार जीवों से खाली नहीं होता। जिस वस्तु का परिमाण होता है, उसी का अंत होता है, वही घटती और समाप्त होती है। अपरिमित वस्तु का न कभी अंत होता है, न वह घटती है और न समाप्त होती है।
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/196/437/18 सर्वो भव्यसंसारिराशिरनंतेनापि कालेन न क्षीयते अक्षयानंतत्वात्। यो योऽक्षयानंतः सो सोऽनंतेनापि कालेन न क्षीयते यथा इयत्तया परिच्छिन्नः कालसमयोघः, सर्वद्रव्याणां पर्यायोऽविभागप्रतिच्छेदसमूहो वा इत्यनुमानांगस्य तर्कस्य प्रामाण्यसुनिश्चयात्। = - सर्व भव्य संसारी राशि अनंत काल के द्वारा भी क्षय को प्राप्त नहीं होती है, क्योंकि यह राशि अक्षयानंत है। जो-जो अक्षयानंत होता है, वह-वह अनंतकाल के द्वारा भी क्षय को प्राप्त नहीं होता है, जैसे कि तीनों कालों के समयों का परिमाण या अविभाग प्रतिच्छेदों का समूह। इस प्रकार के अनुमान से प्राप्त तर्क प्रमाण है।
- मोक्षाभाव के निराकरण में हेतु
पुराणकोष से
(1) अग्रायणीयपूर्व की पंचम वस्तु के कर्म प्रकृति चौथे प्राभृत के चौबीस योगहारों में ग्यारहवाँ योगद्वार । हरिवंशपुराण - 10.81-86
(2) चार पुरुषार्थों में चौथा पुरुषार्थ । यह धर्म साध्य है और पुरुषार्थ इसका साधन है । हरिवंशपुराण - 9.137
(3) कर्मों का क्षय हो जाना । यह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् चारित्र रूप मार्ग से प्राप्त होता है । ध्यान और अध्ययन इसके साधन है । यह शुक्लध्यान के बिना नहीं होता है । इसे प्राप्त करने पर जीव ‘‘सिद्ध’’ संज्ञा से संबोधित किये जाते है । मोक्ष प्राप्त जीवों को अतुल्य अंतराय से रहित अत्यंत सुख प्राप्त होता है । इससे अनंतज्ञान आदि आठ गुणों की प्राप्ति होती है । स्त्रियों के दोष स्वरूप और चंचल होने से उन्हें इसकी प्राप्ति नहीं होती । जीव स्वरूप की अपेक्षा रूप रहित है परंतु शरीर के संबंध से रूपी हो रहा है अत: जीव का रूप रहित होना ही मोक्ष कहलाता है । इसके दो भेद हैं― भावमोक्ष और द्रव्यमोक्ष । कर्मक्षय से कारण भूत अत्यंत शुद्ध परिणाम भावमोक्ष और अंतिम शुक्लध्यान के योग द्वारा सर्व कर्मों से आत्मा का विश्लेष होना द्रव्यमोक्ष है । महापुराण 24.116, 43.111, 46.195, 67.9-10, पद्मपुराण -6. 297, हरिवंशपुराण - 2.109,हरिवंशपुराण - 56.83-84, 58. 18, वीरवर्द्धमान चरित्र 16.172-173