उपशांतकषाय: Difference between revisions
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<p> ग्यारहवाँ गुणस्थान । यहाँ मोहनीय कर्म संपूर्णत: उपशांत हो जाता है । मोहनीय कर्म का उपशम हो जाने से अतिशय विशुद्ध औपशमिक चारित्र प्राप्त होता है किंतु जीव यहाँ अंतर्मुहूर्त मात्र ही ठहर कर च्युत हो जाता है और पुन: क्रमश: उसी स्वस्थान अप्रमत्त गुणस्थान में आ पहुँचता है जहाँ से वह इस गुणस्थान में आता है । <span class="GRef"> महापुराण 11.90-92, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 3.82 </span></p> | <div class="HindiText"> <p> ग्यारहवाँ गुणस्थान । यहाँ मोहनीय कर्म संपूर्णत: उपशांत हो जाता है । मोहनीय कर्म का उपशम हो जाने से अतिशय विशुद्ध औपशमिक चारित्र प्राप्त होता है किंतु जीव यहाँ अंतर्मुहूर्त मात्र ही ठहर कर च्युत हो जाता है और पुन: क्रमश: उसी स्वस्थान अप्रमत्त गुणस्थान में आ पहुँचता है जहाँ से वह इस गुणस्थान में आता है । <span class="GRef"> महापुराण 11.90-92, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_3#82|हरिवंशपुराण - 3.82]] </span></p> | ||
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Latest revision as of 14:40, 27 November 2023
ग्यारहवाँ गुणस्थान । यहाँ मोहनीय कर्म संपूर्णत: उपशांत हो जाता है । मोहनीय कर्म का उपशम हो जाने से अतिशय विशुद्ध औपशमिक चारित्र प्राप्त होता है किंतु जीव यहाँ अंतर्मुहूर्त मात्र ही ठहर कर च्युत हो जाता है और पुन: क्रमश: उसी स्वस्थान अप्रमत्त गुणस्थान में आ पहुँचता है जहाँ से वह इस गुणस्थान में आता है । महापुराण 11.90-92, हरिवंशपुराण - 3.82