उपशामक
From जैनकोष
सर्वार्थसिद्धि अध्याय 9/45/459/1
एव सः क्षायिकसम्यग्दृष्टिर्भूत्वा श्रेण्यारोहणाभिमुखश्चारित्रमोहोपशमं प्रति व्याप्रियमाणो विशुद्धिप्रकर्षयोगादुपशमकव्यपदेशमनुभवन् पूर्वोक्तादसंख्येयगुणनिर्जरो भवति।
= इस प्रकार वह क्षायिक सम्यग्दृष्टि होकर श्रेणी पर आरोहण करने के सन्मुख होता हुआ तथा चारित्रमोहनीय के उपशम करने के लिए प्रयत्न करता हुआ विशुद्धि के प्रकर्षवश `उपशमक' संज्ञा को अनुभव करता हुआ पहले कही गयी निर्जरा से असंख्येय गुण निर्जरावाला होता है।
धवला पुस्तक 1/1,1,27/224/8
जे पुण तेसिं चेव उवसामणम्हि वावदा ते उवसामगा।
= जो जीव कर्मों के उपशमन करने में व्यापार करते हैं उन्हें उपशामक कहते हैं।
कषायपाहुड़ पुस्तक 1/1-18/$115/347/8
उवसमसेढिं चढ़माणेण मोहणीयस्स अतरकरणं कदे सो `उवसामओ' त्ति भण्णदि।
= उपशम श्रेणी पर चढ़ने वाला जीव चारित्र मोह का अंतरकरण कर लेने पर उपशामक कहा जाता है।
( धवला पुस्तक 6/1,9-8,6/232/5)
2. उपशामक के भेद
उपशामक दो प्रकार का होता है-अपूर्वकरण उपशामक और अनिवृत्तिकरण उपशामक।