जितशत्रु: Difference between revisions
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<div class="HindiText"> <p id="1"> (1) राजा जरासंध का पुत्र । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 52.34 </span></p> | <div class="HindiText"> <p id="1" class="HindiText"> (1) राजा जरासंध का पुत्र । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_52#34|हरिवंशपुराण - 52.34]] </span></p> | ||
<p id="2">(2) राजा वसुदेव तथा देवकी का छठा पुत्र । यह और इसके अन्य भाइयों का लालन-पालन सेठ सुदृष्टि की स्त्री अलका के द्वारा किया गया था, तथा अलका के मृत पुत्र इसकी माता के पास लाये गये थे । यह कार्य नैगमेष देव ने संपन्न किया था । <span class="GRef"> महापुराण 71.296 </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 33. 170, 35.4-9 </span>इसकी तथा इसके समस्त भाईयों को बत्तीस-बत्तीस रूपवती स्त्रियाँ थीं । तीर्थंकर नेमिनाथ के समवसरण मे पहुँचकर उनसे छहों भाइयों ने धर्म श्रवण किया और संसार से विरक्त होकर ये सभी दीक्षित हो गये । इन्होंने घोर तप किया और गिरनार पर्वत से मुक्ति को प्राप्त हुए । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 59.115-124,65. 16-17 </span>पाँचवें पूर्वभव में यह मथुरा के सेठ भानु और उसकी स्त्री यमुना का शूरसेन नामक सातवाँ पुत्र था । समाधिमरण पूर्वक मरण होने से यह त्रायस्त्रिंश जाति का उत्तम देव हुआ । वहाँ से च्युत होकर विजय पर्वत के नित्यालोक नगर में राजा चित्रचूल और उनकी रानी मनोहरों का हिमचूल नामक पुत्र हुआ । इस पर्याय में भी समाधिपूर्वक मरण कर यह माहेंद्र स्वर्ग में सामानिक जाति का देव हुआ और यहाँ से चयकर हस्तिनापुर नगर में राजा गंगदेव और रानी नंदियशा का नंदिषेण नामक पुत्र हुआ । जीवन के अंत में मुनि दीक्षा लेकर इसने तप किया तथा मरकर जितशत्रु की पर्याय में आया । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 33. 97-98, 130-143, 170-171 </span></p> | <p id="2" class="HindiText">(2) राजा वसुदेव तथा देवकी का छठा पुत्र । यह और इसके अन्य भाइयों का लालन-पालन सेठ सुदृष्टि की स्त्री अलका के द्वारा किया गया था, तथा अलका के मृत पुत्र इसकी माता के पास लाये गये थे । यह कार्य नैगमेष देव ने संपन्न किया था । <span class="GRef"> महापुराण 71.296 </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_33#170|हरिवंशपुराण - 33.170]], 35.4-9 </span>इसकी तथा इसके समस्त भाईयों को बत्तीस-बत्तीस रूपवती स्त्रियाँ थीं । तीर्थंकर नेमिनाथ के समवसरण मे पहुँचकर उनसे छहों भाइयों ने धर्म श्रवण किया और संसार से विरक्त होकर ये सभी दीक्षित हो गये । इन्होंने घोर तप किया और गिरनार पर्वत से मुक्ति को प्राप्त हुए । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_59#115|हरिवंशपुराण - 59.115-124]],65. 16-17 </span>पाँचवें पूर्वभव में यह मथुरा के सेठ भानु और उसकी स्त्री यमुना का शूरसेन नामक सातवाँ पुत्र था । समाधिमरण पूर्वक मरण होने से यह त्रायस्त्रिंश जाति का उत्तम देव हुआ । वहाँ से च्युत होकर विजय पर्वत के नित्यालोक नगर में राजा चित्रचूल और उनकी रानी मनोहरों का हिमचूल नामक पुत्र हुआ । इस पर्याय में भी समाधिपूर्वक मरण कर यह माहेंद्र स्वर्ग में सामानिक जाति का देव हुआ और यहाँ से चयकर हस्तिनापुर नगर में राजा गंगदेव और रानी नंदियशा का नंदिषेण नामक पुत्र हुआ । जीवन के अंत में मुनि दीक्षा लेकर इसने तप किया तथा मरकर जितशत्रु की पर्याय में आया । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_33#97|हरिवंशपुराण - 33.97-98]], 130-143, 170-171 </span></p> | ||
<p id="3">(3) हरिवंशी राजा जितारि का पुत्र । महावीर के पिता राजा सिद्धार्थ की छोटी बहिन इसे ही विवाही गयी थी । यह अपनी रानी यशोदया से उत्पन्न यशोदा नाम की पुत्री का मंगल विवाह महावीर के साथ देखने का उत्कट अभिलाषी था किंतु महीवीर के दीक्षित हो जाने से इसकी यह इच्छा पूर्ण न हो सकी । तब यह भी दीक्षित हो गया तथा केवलज्ञान प्राप्त कर मुक्त हो गया । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 1.124, 3. 187-988, 66.5-14 </span></p> | <p id="3" class="HindiText">(3) हरिवंशी राजा जितारि का पुत्र । महावीर के पिता राजा सिद्धार्थ की छोटी बहिन इसे ही विवाही गयी थी । यह अपनी रानी यशोदया से उत्पन्न यशोदा नाम की पुत्री का मंगल विवाह महावीर के साथ देखने का उत्कट अभिलाषी था किंतु महीवीर के दीक्षित हो जाने से इसकी यह इच्छा पूर्ण न हो सकी । तब यह भी दीक्षित हो गया तथा केवलज्ञान प्राप्त कर मुक्त हो गया । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_1#124|हरिवंशपुराण - 1.124]], 3. 187-988, 66.5-14 </span></p> | ||
<p id="4">(4) श्रावस्ती नगरी का इक्ष्वाकुवंशी एक नृप । यह मृगध्वज का पिता था । इसने भद्रक नामक भैंसे का पैर काटने के अपराध में अपने पुत्र को मार डालने का आदेश दिया था । मंत्री ने इसे मारा तो नहीं किंतु वन में ले जाकर इसे मुनि-दीक्षा दिला दी । आयु के अंत में यह भी दीक्षित हो गया था । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 28. 14-27, 49 </span></p> | <p id="4" class="HindiText">(4) श्रावस्ती नगरी का इक्ष्वाकुवंशी एक नृप । यह मृगध्वज का पिता था । इसने भद्रक नामक भैंसे का पैर काटने के अपराध में अपने पुत्र को मार डालने का आदेश दिया था । मंत्री ने इसे मारा तो नहीं किंतु वन में ले जाकर इसे मुनि-दीक्षा दिला दी । आयु के अंत में यह भी दीक्षित हो गया था । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_28#14|हरिवंशपुराण - 28.14-27]], 49 </span></p> | ||
<p id="5">(5) कलिंग देश के कंचनपुर नगर का राजा । यह जीव-हिंसा विरोधी था । राज्य में इसने अभयदान की घोषणा करायी थी । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 24.11-23 </span></p> | <p id="5" class="HindiText">(5) कलिंग देश के कंचनपुर नगर का राजा । यह जीव-हिंसा विरोधी था । राज्य में इसने अभयदान की घोषणा करायी थी । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_24#11|हरिवंशपुराण - 24.11-23]] </span></p> | ||
<p id="6">(6) विदेह क्षेत्रस्थ पुंडरीकिणी नगरी के सेठ समुद्रदत्त तथा उसको स्त्री सर्वदयिता का पुत्र । इसके माता-पिता के मिलन से अपरिचित रहने के कारण जब यह गर्भ में था, इसकी माँ को इसके मामा सर्वदयित ने भी शरण नहीं दी थी । फलस्वरूप इसकी माँ अपने भाई के पड़ोस में रहने लगी थी । वही इसे उसने जन्म दिया था । इसके मामा ने इसे कुल का कलंक जानकर अपने सेवक से दूसरी जगह रख आने के लिए कहा था किंतु सेवक ने इसे ले जाकर इसके मामा के मित्र सेठ जयधाम को दे दिया । सेठ अपनी पत्नी को बालक देते हुए बहुत प्रसन्न हुआ था । भोगपुर नगर में इसका लालन-पालन किया गया और वही इसे यह नाम मिला था । कुछ समय बाद मामा ने इसके हाथ की अंगूठी देखकर इसे पहचान लिया और इसे अपनी सर्वश्री नाम की पुत्री, धन तथा सेठ का पद दे दिया तथा स्वयं विरक्त हो गया । <span class="GRef"> महापुराण 47.198-211, 219-220 </span></p> | <p id="6" class="HindiText">(6) विदेह क्षेत्रस्थ पुंडरीकिणी नगरी के सेठ समुद्रदत्त तथा उसको स्त्री सर्वदयिता का पुत्र । इसके माता-पिता के मिलन से अपरिचित रहने के कारण जब यह गर्भ में था, इसकी माँ को इसके मामा सर्वदयित ने भी शरण नहीं दी थी । फलस्वरूप इसकी माँ अपने भाई के पड़ोस में रहने लगी थी । वही इसे उसने जन्म दिया था । इसके मामा ने इसे कुल का कलंक जानकर अपने सेवक से दूसरी जगह रख आने के लिए कहा था किंतु सेवक ने इसे ले जाकर इसके मामा के मित्र सेठ जयधाम को दे दिया । सेठ अपनी पत्नी को बालक देते हुए बहुत प्रसन्न हुआ था । भोगपुर नगर में इसका लालन-पालन किया गया और वही इसे यह नाम मिला था । कुछ समय बाद मामा ने इसके हाथ की अंगूठी देखकर इसे पहचान लिया और इसे अपनी सर्वश्री नाम की पुत्री, धन तथा सेठ का पद दे दिया तथा स्वयं विरक्त हो गया । <span class="GRef"> महापुराण 47.198-211, 219-220 </span></p> | ||
<p id="7">(7) जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र की साकेत नगरी के स्वामी त्रिदशंजय का पुत्र । इसका विवाह पोदनपुर की राजकुमारी विजया के साथ हुआ । तीर्थंकर अजितनाथ इन दोनों के पुत्र थे । सगर नामक चक्रवर्ती के पिता विजयसागर के ये अग्रज थे । <span class="GRef"> महापुराण 48.19, 22, 27, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_5#61|पद्मपुराण - 5.61-75]] </span></p> | <p id="7" class="HindiText">(7) जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र की साकेत नगरी के स्वामी त्रिदशंजय का पुत्र । इसका विवाह पोदनपुर की राजकुमारी विजया के साथ हुआ । तीर्थंकर अजितनाथ इन दोनों के पुत्र थे । सगर नामक चक्रवर्ती के पिता विजयसागर के ये अग्रज थे । <span class="GRef"> महापुराण 48.19, 22, 27, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_5#61|पद्मपुराण - 5.61-75]] </span></p> | ||
<p id="8">(8) क्षेमांजलिपुर नगर का राजा । यह जितपद्मा का पिता था । जितपद्मा लक्ष्मण की पटरानी हुई थी । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_80#112|पद्मपुराण - 80.112]], 94. 18-23 </span></p> | <p id="8" class="HindiText">(8) क्षेमांजलिपुर नगर का राजा । यह जितपद्मा का पिता था । जितपद्मा लक्ष्मण की पटरानी हुई थी । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_80#112|पद्मपुराण - 80.112]], 94. 18-23 </span></p> | ||
<p id="9">(9) धातकीखंड में अलका देश की अयोध्या नगरी के राजा चक्रवर्ती अजितसेन का पुत्र । इसके पिता इसे राज्य देकर दीक्षित हो गये थे और आयु के अंत में शरीर छोड़कर अच्युतेंद्र हुए थे । <span class="GRef"> महापुराण 54.86-87, 94-95, 1 22-125 </span></p> | <p id="9" class="HindiText">(9) धातकीखंड में अलका देश की अयोध्या नगरी के राजा चक्रवर्ती अजितसेन का पुत्र । इसके पिता इसे राज्य देकर दीक्षित हो गये थे और आयु के अंत में शरीर छोड़कर अच्युतेंद्र हुए थे । <span class="GRef"> महापुराण 54.86-87, 94-95, 1 22-125 </span></p> | ||
<p id="10">(10) तीर्थंकर अजितनाथ के तीर्थ में हुआ दूसरा रुद्र । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 60. 534 </span></p> | <p id="10">(10) तीर्थंकर अजितनाथ के तीर्थ में हुआ दूसरा रुद्र । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_60#534|हरिवंशपुराण - 60.534]] </span></p> | ||
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Latest revision as of 15:10, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
- ( हरिवंशपुराण/34/ श्लो.नं.) पूर्वभव नं.3 में भानुसेठ का पुत्र शूरसेन था।97-98। पूर्वभव नं.2 में चित्रचूल विद्याधर का पुत्र हिमचूल था।132-133। पूर्वभव नं.1 में राजा गंगदेव का पुत्र नंदिषेण था।142-143। ( हरिवंशपुराण/ सर्ग/श्लो.नं.)–वर्तमान भव में वसुदेव का पुत्र हुआ (35/7)। देव ने जन्मते ही सुदृष्टि सेठ के यहाँ पहुँचा दिया (35/7)। वहीं पर पोषण हुआ। पीछे दीक्षा धारण कर ली (59/115-20)। घोर तप किया (60/7)। अंत में गिरनार पर्वत से मोक्ष सिधारे (65/16-17)।
- ( हरिवंशपुराण/66/5-10 ) जितशत्रु भगवान् महावीर के पिता राजा सिद्धार्थ की छोटी बहन से विवाहे गये थे। इनकी यशोधा नाम की एक कन्या थी, जिसका विवाह उन्होंने भगवान् वीर से करना चाहा। पर भगवान् ने दीक्षा धारण कर ली। पश्चात् ये भी दीक्षा धार मोक्ष गये।
- द्वितीय रुद्र थे–देखें शलाका पुरुष - 7।
पुराणकोष से
(1) राजा जरासंध का पुत्र । हरिवंशपुराण - 52.34
(2) राजा वसुदेव तथा देवकी का छठा पुत्र । यह और इसके अन्य भाइयों का लालन-पालन सेठ सुदृष्टि की स्त्री अलका के द्वारा किया गया था, तथा अलका के मृत पुत्र इसकी माता के पास लाये गये थे । यह कार्य नैगमेष देव ने संपन्न किया था । महापुराण 71.296 हरिवंशपुराण - 33.170, 35.4-9 इसकी तथा इसके समस्त भाईयों को बत्तीस-बत्तीस रूपवती स्त्रियाँ थीं । तीर्थंकर नेमिनाथ के समवसरण मे पहुँचकर उनसे छहों भाइयों ने धर्म श्रवण किया और संसार से विरक्त होकर ये सभी दीक्षित हो गये । इन्होंने घोर तप किया और गिरनार पर्वत से मुक्ति को प्राप्त हुए । हरिवंशपुराण - 59.115-124,65. 16-17 पाँचवें पूर्वभव में यह मथुरा के सेठ भानु और उसकी स्त्री यमुना का शूरसेन नामक सातवाँ पुत्र था । समाधिमरण पूर्वक मरण होने से यह त्रायस्त्रिंश जाति का उत्तम देव हुआ । वहाँ से च्युत होकर विजय पर्वत के नित्यालोक नगर में राजा चित्रचूल और उनकी रानी मनोहरों का हिमचूल नामक पुत्र हुआ । इस पर्याय में भी समाधिपूर्वक मरण कर यह माहेंद्र स्वर्ग में सामानिक जाति का देव हुआ और यहाँ से चयकर हस्तिनापुर नगर में राजा गंगदेव और रानी नंदियशा का नंदिषेण नामक पुत्र हुआ । जीवन के अंत में मुनि दीक्षा लेकर इसने तप किया तथा मरकर जितशत्रु की पर्याय में आया । हरिवंशपुराण - 33.97-98, 130-143, 170-171
(3) हरिवंशी राजा जितारि का पुत्र । महावीर के पिता राजा सिद्धार्थ की छोटी बहिन इसे ही विवाही गयी थी । यह अपनी रानी यशोदया से उत्पन्न यशोदा नाम की पुत्री का मंगल विवाह महावीर के साथ देखने का उत्कट अभिलाषी था किंतु महीवीर के दीक्षित हो जाने से इसकी यह इच्छा पूर्ण न हो सकी । तब यह भी दीक्षित हो गया तथा केवलज्ञान प्राप्त कर मुक्त हो गया । हरिवंशपुराण - 1.124, 3. 187-988, 66.5-14
(4) श्रावस्ती नगरी का इक्ष्वाकुवंशी एक नृप । यह मृगध्वज का पिता था । इसने भद्रक नामक भैंसे का पैर काटने के अपराध में अपने पुत्र को मार डालने का आदेश दिया था । मंत्री ने इसे मारा तो नहीं किंतु वन में ले जाकर इसे मुनि-दीक्षा दिला दी । आयु के अंत में यह भी दीक्षित हो गया था । हरिवंशपुराण - 28.14-27, 49
(5) कलिंग देश के कंचनपुर नगर का राजा । यह जीव-हिंसा विरोधी था । राज्य में इसने अभयदान की घोषणा करायी थी । हरिवंशपुराण - 24.11-23
(6) विदेह क्षेत्रस्थ पुंडरीकिणी नगरी के सेठ समुद्रदत्त तथा उसको स्त्री सर्वदयिता का पुत्र । इसके माता-पिता के मिलन से अपरिचित रहने के कारण जब यह गर्भ में था, इसकी माँ को इसके मामा सर्वदयित ने भी शरण नहीं दी थी । फलस्वरूप इसकी माँ अपने भाई के पड़ोस में रहने लगी थी । वही इसे उसने जन्म दिया था । इसके मामा ने इसे कुल का कलंक जानकर अपने सेवक से दूसरी जगह रख आने के लिए कहा था किंतु सेवक ने इसे ले जाकर इसके मामा के मित्र सेठ जयधाम को दे दिया । सेठ अपनी पत्नी को बालक देते हुए बहुत प्रसन्न हुआ था । भोगपुर नगर में इसका लालन-पालन किया गया और वही इसे यह नाम मिला था । कुछ समय बाद मामा ने इसके हाथ की अंगूठी देखकर इसे पहचान लिया और इसे अपनी सर्वश्री नाम की पुत्री, धन तथा सेठ का पद दे दिया तथा स्वयं विरक्त हो गया । महापुराण 47.198-211, 219-220
(7) जंबूद्वीप के भरतक्षेत्र की साकेत नगरी के स्वामी त्रिदशंजय का पुत्र । इसका विवाह पोदनपुर की राजकुमारी विजया के साथ हुआ । तीर्थंकर अजितनाथ इन दोनों के पुत्र थे । सगर नामक चक्रवर्ती के पिता विजयसागर के ये अग्रज थे । महापुराण 48.19, 22, 27, पद्मपुराण - 5.61-75
(8) क्षेमांजलिपुर नगर का राजा । यह जितपद्मा का पिता था । जितपद्मा लक्ष्मण की पटरानी हुई थी । पद्मपुराण - 80.112, 94. 18-23
(9) धातकीखंड में अलका देश की अयोध्या नगरी के राजा चक्रवर्ती अजितसेन का पुत्र । इसके पिता इसे राज्य देकर दीक्षित हो गये थे और आयु के अंत में शरीर छोड़कर अच्युतेंद्र हुए थे । महापुराण 54.86-87, 94-95, 1 22-125
(10) तीर्थंकर अजितनाथ के तीर्थ में हुआ दूसरा रुद्र । हरिवंशपुराण - 60.534