ग्रन्थ:पद्मपुराण - पर्व 80
From जैनकोष
अस्सीवा पर्व
अथानंतर समागमरूपी सूर्य से जिसका मुखकमल खिल उठा था ऐसी सीता का हाथ अपने हाथ से पकड़ श्रीराम उठे और इच्छानुकूल चलने वाले ऐरावत के समान हाथी पर बैठाकर स्वयं उस पर आरूढ़ हुए । महातेजस्वी तथा संपूर्ण कांति को धारण करने वाले श्रीराम हिलते हुए घंटों से मनोहर हाथीरूपी मेघ पर सीतारूपी रोहिणी के साथ बैठे हुए चंद्रमा के समान सुशोभित हो रहे थे ॥1-3॥ जिनकी बुद्धि स्थिर थी, जो अत्यधिक उन्नत प्रीति को धारण कर रहे थे, बहुत भारी जनसमूह जिनके साथ था, जो चारों ओर से बहुत बड़ी संपदा से घिरे थे, बड़े-बड़े अनुरागी विद्याधरों से अनुगत, उत्तम कांतियुक्त चक्रपाणि लक्ष्मण से जो सहित थे तथा अतिशय निपुण थे ऐसे श्रीराम, सूर्य के विमान समान जो रावण का भवन था उसमें जाकर प्रविष्ट हुए ॥4-6 ।। वहाँ उन्होंने भवन के मध्य में स्थित श्रीशांतिनाथ भगवान् का परम सुंदर मंदिर देखा । वह मंदिर योग्य विस्तार और ऊँचाई से सहित था, स्वर्ण के हजार खंभों से निर्मित था, विशाल कांति का धारक था, उसको दीवालों के प्रदेश नाना प्रकार के रत्नों से युक्त थे, वह मन को आनंद देने वाला था, विदेहक्षेत्र के मध्य में स्थित मेरुपर्वत के समान था, क्षीरसमुद्र के फेनपटल के समान कांति वाला था, नेत्रों को बाँधने वाला था, रुणझुण करने वाली किंकिणियों के समूह एवं बड़ी-बड़ी ध्वजाओं से सुशोभित था, मनोज्ञ रूप से युक्त था तथा उसका वर्णन करना अशक्य था ।।7-10॥
तदनंतर जो मत्त गजराज के समान पराक्रमी थे, निर्मल नेत्रों के धारक थे तथा श्रेष्ठ लक्ष्मी से सहित थे, ऐसे श्रीराम ने हाथी से उतरकर सीता के साथ उस मंदिर में प्रवेश किया ॥11॥ तत्पश्चात् कायोत्सर्ग करने के लिए जिन्होंने अपने दोनों हाथ नीचे लटका लिये थे और-जिनका हृदय अत्यंत शांत था, ऐसे श्रीराम ने सामायिक कर सीता के साथ दोनों करकमलरूपी कुड्मलों को जोड़कर श्रीशांतिनाथ भगवान् का पापभंजक पुण्यवर्धक स्तोत्र पढ़ा ॥12-13॥ स्तोत्र पाठ करते हुए उन्होंने कहा कि जिनके जन्म लेते ही संसार में सर्वत्र ऐसी शांति छा गई कि जो सब रोगों का नाश करने वाली थी तथा दीप्ति को बढ़ाने वाली थी ॥14॥ जिनके आसन कंपायमान हुए थे तथा जो उत्तम विभूति से युक्त थे ऐसे हर्ष से भरे भक्तिमंत इंद्रों ने आकर जिनका मेरु के शिखर पर अभिषेक किया था ॥15॥ जिन्होंने राज्य अवस्था में बाह्य चक्र के द्वारा बाह्य शत्रुओं के समूह को जीता था और मुनि होने पर ध्यानरूपी चक्र के द्वारा अंतरंग शत्रु समूह को जीता था ।।16 ।। जो जन्म, जरा, मृत्यु, भयरूपी खंग आदि शस्त्रों से चंचल संसाररूपी असुर को नष्ट कर कल्याणकारी सिद्धि पर मोक्ष को प्राप्त हुए थे ॥17॥ जिन्होंने उपमारहित, नित्य, शुद्ध, आत्माश्रय, उत्कृष्ट और अत्यंत दुरासद निर्वाण का साम्राज्य प्राप्त किया था, जो तीनों लोकों की शांति के कारण थे, जो महाऐश्वर्य से सहित थे तथा जिन्होंने अनंत शांति प्राप्त की थी ऐसे श्रीशांतिनाथ भगवान के लिए मन, वचन, काय से नमस्कार हो ॥18-19 ।। हे नाथ ! आप समस्त चराचर विश्व से अत्यंत स्नेह करने वाले हैं, शरणदाता हैं, परमरक्षक हैं, समाधिरूप तेज तथा रत्नत्रयरूपी बोधि को देने वाले हैं ॥20॥ तुम्हीं एक गुरु हो, बंधु हो, प्रणेता हो, परमेश्वर हो, इंद्र सहित चारों निकायों के देवों से पूजित हो ॥21।। हे भगवन ! आप उस धर्मरूपी तीर्थ के कर्ता हो जिससे भव्यजीव अनायास ही समस्त दुःखों से छुटकारा देने वाला परमस्थान-मोक्ष प्राप्त कर लेते हैं ॥22॥ हे नाथ ! आप देवों के देव हो इसलिये आपको नमस्कार हो, आप कल्याणरूप कार्य के करने वाले हो इसलिये आपको नमस्कार हो, आप कृतकृत्य हैं अतः आपको नमस्कार हो और आप प्राप्त करने योग्य समस्त पदार्थों को प्राप्त कर चुके हैं इसलिये आपको नमस्कार हो ।।23 ।। हे भगवन् ! प्रसन्न हूजिये और हम लोगों के लिये महाशांतिरूप स्वभाव में स्थित, सर्वदोषरहित, उत्कृष्ट तथा नित्यपद-मोक्षपद प्रदान कीजिये ॥24॥ इस प्रकार स्तोत्र पाठ पढ़ते हुए कमलायत लोचन तथा पुण्यकर्म में दक्ष श्रीराम ने शांति जिनेंद्र को तीन प्रदक्षिणाएँ दी ॥25॥ जिसका शरीर नम्र था, जो स्तुति पाठ करने में तत्पर थी तथा जिसने हस्तकमल जोड़ रक्खे थे ऐसी भावभीनी सीता श्रीराम के पीछे खड़ी थी ॥26 ।।
राम का स्वर महा दुंदुभि के स्वर के समान अत्यंत परुष था तो सीता का स्वर वीणा के स्वर के समान अत्यंत कोमल था ॥27॥ तदनंतर विशल्या सहित लक्ष्मण, सुग्रीव, भामंडल तथा हनूमान आदि सभी लोग मंगलमय स्तोत्र पढ़ने में तत्पर थे ॥28॥ जिन्होंने हाथ जोड़ रक्खे थे तथा जो जिनेंद्र भगवान में अपनी भावना लगाये हुए थे, ऐसे वे सब धन्य भाग विद्याधर उस समय ऐसे जान पड़ते थे मानो कमल की बोड़ियाँ ही धारण कर रहे हो ॥29॥ जब वे मृदंग ध्वनि के समान सुंदर शब्द छोड़ रहे थे तब चतुर मयूर मेघगर्जना को शंका करते हुए नृत्य कर रहे थे ॥30॥ इस प्रकार बार-बार स्तुति तथा प्रणाम कर शुद्ध हृदय को धारण करने वाले वे सब जिनमंदिर के चौक में यथोयोग्य सुख से बैठ गये ॥31॥
जब तक इन सबने वंदना की तब तक राजा विभीषण ने सुमाली, माल्यवान् तथा रत्नश्रवा आदि परिवार के लोगों को जो कि महादुःख से पीड़ित हो रहे थे सांत्वना दी । विभीषण संसार की अनित्यता का भाव बतलाने में अत्यंत निपुण था ॥32-33 ।। उसने सांत्वना देते हुए कहा कि हे आर्यो ! हे तात ! संसार के प्राणी अपने-अपने कर्मों के अनुसार फल को भोगते ही हैं अतः शोक करना व्यर्थ है आत्महित में मन लगाइए ॥34॥ आप लोग तो आगम के दृष्टा, विशाल हृदय और विज्ञपुरुष हैं अतः जानते हैं कि उत्पन्न हुआ प्राणी मृत्यु को प्राप्त होता है या नहीं ॥35॥ जिसका वर्णन करना बड़ा कठिन है ऐसा यौवन फूल के सौंदर्य के समान है, लक्ष्मी पल्लव की शोभा के समान है, जीवन बिजली के समान अनित्य है ॥36॥ बंधुजनों के समागम जल के बबूले के समान हैं, भोग संध्या की लाली के तुल्य है, और क्रियाएँ स्वप्न की क्रियाओं के समान हैं ॥37॥ यदि ये प्राणी मृत्यु को प्राप्त नहीं होते तो वह रावण भवांतर से आपके गोत्र में कैसे आता ? ॥38॥ अरे ! जब हम लोगों को भी एक दिन नियम से नष्ट हो जाना है तब यह शोक विषयक मूर्खता किसलिए की जाती है ? ॥39॥ यह ऐसा है अर्थात् नष्ट होना इसका स्वभाव ही है इस प्रकार संसार के स्वभाव का ध्यान करना सत्पुरुषों के शोक को क्षणमात्र में नष्ट करने के लिए पर्याप्त है । भावार्थ― जो ऐसा विचार करते हैं कि संसार के पदार्थ नश्वर ही हैं उनका शोक क्षणमात्र में नष्ट हो जाता है ।।40॥ बंधुजनों के साथ कथित, अनुभूत और दृष्ट पदार्थ सत्पुरुषों के मन को एक क्षण ही संताप देते हैं अधिक नहीं ॥41॥ जिसका बंधु-जनों के साथ वियोग होता है यद्यपि उसका स्मृति को नष्ट करने वाले विशाल शोक के साथ समागम मानो बलपूर्वक ही होता है तथापि इस अनादि संसार में भ्रमण करते हुए मेरे कौन-कौन लोग बंधु नहीं हुए हैं ऐसा विचारकर उस शोक को छिपाना चाहिए ॥42-43॥ इसलिए संसार को नष्ट करने वाले श्रीजिनेंद्रदेव के शासन में यथाशक्ति मन लगाकर आत्मा को आत्मा के हित में लगाइए ॥44॥ इत्यादि हृदय को लगने वाले मधुर वचनों से सबको काम में लगाकर विभीषण अपने घर गया ।।45 ।।
घर आकर उसने एक हजार स्त्रियों में प्रधान तथा सब व्यवहार में विचक्षण विदग्धा नामक रानी को श्रीराम के समीप भेजा ॥46॥ तदनंतर क्रम को जानने वाली विदग्धा ने आकर प्रथम ही सीता सहित राम-लक्ष्मण को कुल के योग्य प्रणाम किया । तत्पश्चात् यह वचन कहे कि हे देव ! हमारे स्वामी के घर को अपना घर समझ चरण-तल के संसर्ग से पवित्र कीजिए ॥47-48।। जब तक उन सबके बीच में यह वार्ता हो रही थी तब तक महाआदर से भरा विभीषण स्वयं आ पहुँचा ॥49॥ आते ही उसने कहा कि उठिए, घर चलें प्रसन्नता कीजिए । इस प्रकार विभीषण के कहने पर राम, अपने अनुगामियों के साथ उसके घर जाने के लिए उद्यत हो गये ॥50॥ राजमार्ग की अविरल सजावट की गई और उससे वे नाना प्रकार के वाहनों, मेघ समान ऊँचे हाथियों, लहरों के समान चंबल घोड़ों और महलों के समान सुशोभित रथों पर यथाक्रम से सवार हो विभीषण के घर की ओर चले ॥51-52 ।। प्रलयकालीन मेघों की गर्जना के समान जिनका विशाल शब्द था
जिनमें करोड़ों शंखों का शब्द मिल रहा था तथा गुफाओं में जिनकी प्रतिध्वनि पड़ रही थी ऐसे तुरही के विशाल शब्द उत्पन्न हुए ॥53 ।। भंभा, भेरी, मृदंग, हजारों पटह, लंपाक, काहला, धुंधु, दुंदुभि, झांझ, अम्लातक, ढक्का, हैका, गुंजा, हुंकार और सुंदनामक वादित्रों के शब्द से आकाश भर गया ॥54-55 ।। अत्यंत विस्तार को प्राप्त हुआ हलहला शब्द, बहुत भारी अट्टहास और नाना वाहनों के शब्दों से दिशाएँ बहिरी हो गई ॥56॥ कितने ही विद्याधर व्याघ्रों की पीठ पर बैठकर जा रहे थे, कितने ही सिंहों की पीठ पर सवार होकर चल रहे थे और कितने ही रथ आदि वाहनों से प्रस्थान कर रहे थे ॥57 ।। उनके आगे-आगे नृतकियाँ नट तथा भांड आदि सुंदर नृत्य करते जाते थे तथा चारणों के समूह बड़ी उच्च ध्वनि में उनका विरद बखानते जा रहे थे ॥58॥ असमय में प्रकट हुई चाँदनी के समान मनोहर छत्रों के समूह से तथा नाना शस्त्रों के समूह से सूर्य की किरणें आच्छादित हो गई थी ॥59॥ इस प्रकार सुंदरी स्त्रियों के मुख-कमलों को विकसित करते हुए वे सब विभीषण के राजभवन में पहुँचे ॥60 ।। उस समय राम लक्ष्मण आदि को शुभ-लक्षणों से युक्त जो विभूति थी वह देवों के लिए भी आश्चर्य उत्पन्न करने वाली थी ॥61 ।।
अथानंतर हाथी से उतरकर, जिनका रत्नों के अर्ध आदि से सत्कार किया गया था ऐसे सीता सहित राम लक्ष्मण ने विभीषण के सुंदर भवन में प्रवेश किया ॥62॥ विभीषण के विशाल भवन के मध्य में श्रीपद्मप्रभ जिनेंद्र का वह मंदिर था जो रत्नमयी तोरणों से सहित था, स्वर्ण के समान देदीप्यमान था, समीप में स्थित महलों के समूह से मनोहर था, शेष नामक पर्वत के मध्य में स्थित था, प्रेम की उपमा को प्राप्त था, स्वर्णमयी हजार खंभों से युक्त था, उत्तम देदीप्यमान था, योग्य लंबाई और विस्तार से सहित था, नाना मणियों के समूह से शोभित था, चंद्रमा के समान चमकती हुई नाना प्रकार की वलभियों से युक्त था, झरोखों के समीप लटकती हुई मोतियों की जाली से सुशोभित था, अनेक अद्भुत रचनाओं से युक्त प्रतिसर आदि विविध प्रदेशों से सुंदर था, और पाप को नष्ट करने वाला था ॥63-67॥ इस प्रकार के उस मंदिर में श्रीपद्मप्रभ जिनेंद्र की पद्मरागमणि निर्मित वह अनुपम प्रतिमा विराजमान थी जो अपनी प्रभा से मणिमय भूमि में कमल-समूह की शोभा प्रकट कर रही थी । सब लोग उस प्रतिमा की स्तुति-वंदना कर यथायोग्य बैठ गये ॥68-69 ।। तदनंतर विद्याधर राजा, हृदय में राम और लक्ष्मण को धारण करते हुए जहाँ जिसके लिए जो स्थान बनाया गया था वहाँ यथायोग्य रीति से चले गये ॥70॥
यथानंतर विद्याधर स्त्रियों ने राम-लक्ष्मण और सीता के स्नान की पृथक्-पृथक् विधि प्रस्तुत की ।।71॥ सर्वप्रथम उन्हें सुगंधित हितकारी तथा मनोहर वर्ण वाले तेल का मर्दन किया गया, फिर घ्राण और शरीर के अनुकूल पदार्थों का उबटन किया गया ।।72॥ तदनंतर स्नान की चौकी पर पूर्वदिशा की ओर मुखकर बैठे हुए उनका बड़े वैभव से क्रमपूर्वक मंगलमय स्नान कराया गया ॥73॥ उस समय शरीर को घिसना पानी छोड़ना आदि की लय से सहित मन को हरण करने वाले तथा सब प्रकार की साज-सामग्री से युक्त बाजे बज रहे थे ॥74॥ गंधोदक से परिपर्ण सुवर्ण, मरकतमणि, हीरा, स्फटिकमणि तथा इंद्रनीलमणि कलशों से उनका अभिषेक पूर्ण हुआ ॥75॥ तदनंतर अच्छी तरह स्नान करने के बाद पवित्र वस्त्र धारण किये, उत्तम अलंकारों से शरीर अलंकृत किया और तदनंतर मंदिर में प्रवेश कर श्री पद्मप्रभ जिनेंद्र की वंदना की ।।76॥
अथानंतर उन सबके लिए जो भोजन तैयार किया गया था, उसकी कथा बहुत विस्तृत है । उस समय घी दूध दही आदि की बावड़ियाँ भरी गई थीं और खाने योग्य उत्तमोत्तम पदार्थों के मानो पर्वत बनाये गये थे अर्थात् पर्वतों के समान बड़ी-बड़ी राशियाँ लगाई गई थीं ।।77॥ मन घ्राण और नेत्रों के लिए अभीष्ट जो भी वस्तुएँ चंदन आदि वनों में उत्पन्न हुई थीं वे लाकर भोजन-भूमि में एकत्रित की गई थीं ॥78॥ वह भोजन स्वभाव से ही मधुर था फिर जानकी के समीप रहते हुए तो कहना ही क्या था ? उस समय श्रीराम के मन की जो दशा थी उसका वर्णन कैसे किया जा सकता है ! ॥79 ।। गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! पाँचों इंद्रियों की सार्थकता तभी है जब इष्ट पदार्थों का संयोग होने पर उन्हें संतोष उत्पन्न होता है ॥80॥ इस जंतु ने उसी समय भोजन किया है, उसी समय सूंघा है, उसी समय स्पर्श किया है, उसी समय देखा है और उसी समय सुना है जबकि उसे प्रियजन का समागम प्राप्त होता है । भावार्थ― प्रियजन के विरह में भोजन आदि कार्य निःसार जान पड़ते हैं ।।81 ।। विरहकाल में स्वर्ग तुल्य भी देश नरक के समान जान पड़ता है और प्रियजन के समागम रहते हुए महावन भी स्वर्ग के समान जान पड़ता है ।।82॥ सुंदर अद्भुत और बहुत प्रकार के रसायन संबंधी रसों की तथा नाना प्रकार के भक्ष्य पदार्थों से उन सबकी भोजन-क्रिया पूर्ण हुई ॥83 ।। जो यथायोग्य भूमि पर बैठाये गये थे, जिनका सम्मान किया गया था तथा जो अपने-अपने परिवार इष्टजनों से सहित थे ऐसे समस्त विद्याधर राजाओं को भोजन कराया गया ॥84॥
जिन पर भ्रमरों ने मंडल बाँध रक्खे थे ऐसे चंदन आदि सब प्रकार की गंधों से तथा भद्रशाल आदि वनों में उत्पन्न हुए पुष्पों से सब विभूषित किये गये ।।85 ।। जो स्पर्श के अनुकूल, हल्के और अत्यंत सघन बुने हुए वस्त्रों से युक्त थे तथा नाना प्रकार के रत्नों की किरणों से जिन्होंने दिशाओं को व्याप्त कर रखा था ऐसे उन सब लोगों का सम्मान किया गया था, उनके सब मनोरथ सफल किये थे, और रात दिन नाना प्रकार की कथाओं से सबको प्रसन्न किया गया था ॥86-87।। अहो ! यह विभीषण राक्षस वंश का आभूषण है, जिसने कि इस प्रकार राम-लक्ष्मण की अनुवृत्ति की― उनके अनुकूल आचरण किया ॥88॥ यह महानुभाव प्रशंसनीय है तथा जगत् में अत्यंत उत्तम अवस्था को प्राप्त हुआ है । जिसके घर में कृतकृत्य हो राम-लक्ष्मण ने निवास किया उसकी महिमा का क्या कहना है ? ॥89॥ इस प्रकार विभीषण में पाये जाने वाले गुणों के ग्रहण करने में जो तत्पर थे तथा मात्सर्य भाव से रहित थे ऐसे सब विद्याधर भी विभीषण के घर सुख से रहे ।।90।। उस समय नगरी के समस्त लोक राम, लक्ष्मण, सीता और विभीषण की ही कथा में संलग्न रहते थे― अन्य सब कथाएँ उन्होंने छोड़ दी थीं ॥91॥
अथानंतर विभीषण आदि समस्त विद्याधर राजा जिन्हें बलदेव पद प्राप्त हुआ था ऐसे हल लक्षण धारी राम और जिन्हें नारायण पद प्राप्त हुआ था ऐसे चक्ररत्न के धारी राजा लक्ष्मण का अभिषेक करने के लिए उद्यत हो विनयपूर्वक आये ॥92-93॥ तब राम लक्ष्मण ने कहा कि पहले पिता दशरथ से जिसे राज्याभिषेक प्राप्त हुआ है ऐसा राजा भरत अयोध्या में विद्यमान है वही तुम्हारा और हम दोनों का स्वामी है ॥94।। इसके उत्तर में विभीषणादि ने कहा कि जैसा आप कह रहे हैं यद्यपि वैसा ही है तथापि महापुरुषों के द्वारा सेवित इस मंगलमय अभिषेक में क्या दोष दिखाई देता है ? अर्थात् कुछ नहीं ? ॥95।। आप दोनों के इस किये जाने वाले सत्कार को राजा भरत अवश्य ही स्वीकृत करेंगे क्योंकि वे अत्यंत धीर-गंभीर सुने जाते हैं । वे मन से रंच मात्र भी विकार को प्राप्त नहीं होते ॥96॥ यथार्थ में बलदेवत्व और चक्रवर्तित्व की प्राप्ति के कारण उनके अनेक प्रकार की पूजा से युक्त प्रतिष्ठा हुई थी ॥97॥ इस प्रकार अत्यंत उन्नत लक्ष्मी को प्राप्त हुए राम-लक्ष्मण लंका में इस प्रकार रहे जिस प्रकार कि स्वर्ग की नगरी में दो देव रहते हैं ॥98॥ इंद्र के नगर के समान अत्यधिक भोगों को देने वाले उस नगर में विद्याधर लोग, नदियों और तालाबों आदि के तटों पर आनंद से बैठते थे ॥99॥ दिव्य अलंकार, पान, वस्त्र, हार और विलेपन आदि से सहित वे सब विद्याधर अपनी-अपनी स्त्रियों के साथ उस लंका में इच्छानुसार देवों के समान क्रीड़ा करते थे ॥100॥
गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! सीता का मुख सूर्य की किरणों से व्याप्त सफेद कमल के भीतरी भाग के समान कांति युक्त था, उसे देखते हुए श्रीराम तृप्ति को प्राप्त नहीं हो रहे थे ॥101।। उस अत्यंत सुंदरी स्त्री के साथ राम, निरंतर मनोहर भूमियों में क्रीड़ा करते थे ।।102॥ जिन्हें इच्छा करते ही सर्व वस्तुओं का समागम प्राप्त हो रहा था ऐसे लक्ष्मण विशल्या सुंदरी के साथ अलग ही प्रीति को प्राप्त हो रहे थे ।।103॥ वे यद्यपि हम कल चले जावेंगे, ऐसा मन में संकल्प करते थे तथापि विभीषणादि का उत्तम प्रेम पाकर जाना इनकी स्मृति से छूट जाता था ।।104 ।। इस प्रकार रति और भोगोपभोग की सामग्री से युक्त राम लक्ष्मण के सुख से भोगे जाने वाले अनेक वर्ष एक दिन के समान व्यतीत हो गये ।।105 ।।
अथानंतर किसी दिन सुंदर लक्षणों के धारक लक्ष्मण ने स्मरण कर विराधित को कूवरादि नगर भेजा ।।106 ।। सो महाविभूति के धारक, एवं सब प्रकार की विधि मिलाने में निपुण विराधित ने क्रम-क्रम से जाकर कन्याओं के लिए परिचायक चिह्नों के साथ लक्ष्मण के पत्र दिखाये ॥107 ।। तदनंतर शुभ-समाचार से जिन्हें हर्ष उत्पन्न हुआ था और माता-पिता ने जिन्हें अनुमति दे रक्खी थी ऐसी वे कन्याएँ अनुकूल परिवार के साथ वहाँ आई ॥108॥ कहाँ-कहाँ से कौन-कौन कन्याएँ आई थीं इसका संक्षिप्त वर्णन इस प्रकार है । दशपुर नगर के स्वामी राजा वज्रकर्ण की रूपवती नाम की अत्यंत सुंदरी कन्या आई थी ॥109 ।। कूवर स्थान नगर के राजा वालिखिल्य की सर्व कल्याणमाला नाम की सुंदरी पुत्री आई ॥110॥ पृथिवीपुर नगर के राजा पृथिवीधर की प्रसिद्ध पुत्री वनमाला आई ॥111॥ क्षेमांजलिपुर के राजा जितशत्रु की प्रसिद्ध पुत्री जितपद्मा आई॥112॥ इनके सिवाय उज्जयिनी आदि नगरों से आई हुई राजकन्याओं ने जंमांतर में किये हुए परम पुण्य से ऐसा पति प्राप्त किया ॥113॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! दम, दान और दया से युक्त, शील से सहित एवं गुरु को साक्षीपूर्वक लिये हुए उत्तम तप के किये बिना ऐसा पति नहीं प्राप्त हो सकता ।।114॥ सूर्यास्त होने पर जिसने भोजन नहीं किया है, जिसने कभी आर्यिका को दोष नहीं लगाया है और दिगंबर मुनि जिसके द्वारा अपमानित नहीं हुए, उसी स्त्री का ऐसा पति होता है ॥115॥ नारायण उन सबके योग्य थे और वे सब नारायण के योग्य थीं, इसीलिए नारायण और उन स्त्रियों ने परस्पर संभोगरूपी अमृत ग्रहण किया था ॥116 ।। हे श्रेणिक ! न तो वह संपत्ति थी, न वह शोभा थी, न वह लीला थी और न वह कला थी जो लक्ष्मण और उनकी उन स्त्रियों में न पाई जाती फिर और की क्या कथा की जाय ? ॥117।। सौंदर्य की अपेक्षा उनके मुख को देखकर कहा जाय कि कमल क्या है ? चंद्रमा क्या है ? और उन स्त्रियों को देखकर कहा जाय कि लक्ष्मी क्या है ? और रति क्या है ? ॥118॥ राम-लक्ष्मण की उस-उस प्रकार को संपदा को देखकर विद्याधर जनों को बड़ा आश्चर्य हो रहा था ॥119॥ यहाँ चंद्रवर्धन की पुत्रियों का समागम कराने तथा उनके विवाह की आनंदमयी सूचना देने वाली कथा का निरूपण करना भी उचित जान पड़ता है ॥120 ।। उस समय श्रीराम तथा चंद्रवर्धन की समस्त कन्याओं का समागम कराने वाला वह विवाहोत्सव हुआ जो समस्त लोगों को परमआनंद का करने वाला था ।।121॥ इच्छानुसार महाभोगों के संबंध से सुख को प्राप्त होने वाले वे राम लक्ष्मण, अपनी-अपनी स्त्रियों के साथ लंका में इंद्र-प्रतींद्र के समान क्रीड़ा करते थे ॥122॥ जिनकी समस्त इंद्रियों की संपदा सीता के शरीर के अधीन थी, ऐसे श्रीराम को लंका में रहते हुए छह वर्ष व्यतीत हो गये ॥123॥ उस समय उत्तम चेष्टाओं के धारक रामचंद्र, सुख के सागर में ऐसे निमग्न हुए कि अन्य सब कुछ उनकी स्मृति के मार्ग से च्युत हो गया ॥124।। गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! इस प्रकार की यह कथा तो रहने दो अब एकाग्रचित्त हो पाप का क्षय करने वाली दूसरी कथा सुनो ॥125॥
अथानंतर समस्त पापों को नष्ट करने वाले भगवान् इंद्रजित मुनिराज, अनेक ऋद्धियों की प्राप्ति से युक्त हो पृथिवीतल पर विहार करने लगे ॥126 ।। उन्होंने वैराग्यरूपी पवन से युक्त तथा सम्यग्दर्शनरूपी वास से उत्पन्न ध्यानरूपी अग्नि के द्वारा कर्मरूपी भयंकर वन को भस्म कर दिया था ।।127॥ विषयरूपी ईंधन को जलाने के लिए अग्नि के समान जो मेघवाहन मुनिराज थे वे केवलज्ञान प्राप्त कर आत्म स्वभाव को प्राप्त हुए ॥128 ।। उन दोनों के बाद सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक्̖चारित्र को धारण करने वाले कुंभकर्ण मुनिराज भी शुक्ललेश्या के प्रभाव से अत्यंत विशुद्धात्मा हो केवलज्ञान के द्वारा लोक और अलोक को ज्यों का त्यों देखते हुए कर्मधूलि को दूर कर अविनाशी परमपद को प्राप्त हुए ।।126-130 ।। इनके सिवाय सुरेंद्र, असुरेंद्र तथा चक्रवर्ती जिनकी उत्तम कीर्ति का गान करते थे, जो शुद्ध शील के धारक थे, देदीप्यमान थे, गर्वरहित थे, जो समस्त पदार्थरूपी सघन ज्ञेय को गोष्पद के समान तुच्छ करने वाले तेज से सहित थे, जो संसार के क्लेशरूपी कठिन बंधन के जाल से निकल चुके थे, जहाँ से पुनः लौटकर नहीं आना पड़ता ऐसे मोक्षस्थान की प्राप्तिरूपी स्वार्थ से जो सहित थे, अनुपम तथा निर्विघ्न सुख ही जिनका स्वरूप था, जिनकी आत्मा महान् थी, जो सिद्ध थे तथा शत्रुओं को नष्ट करने वाले थे, ऐसे ये तथा अन्य जो महर्षि थे वे जिनशासन के श्रोता मनुष्यों के लिए रत्नत्रयरूपी आरोग्य प्रदान करें ॥131-134 ।। गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन् ! उन पर महात्माओं का प्रभाव तो देखो कि आज भी उन परमात्माओं के यश से व्याप्त वे दिखाई देते हैं पर वे साधु नहीं दिखाई देते ॥135॥ विंध्यवन की महाभूमि में जहाँ इंद्रजित के साथ मेघवाहन मुनिराज विराजमान रहे वहाँ आज मेघरव नाम का तीर्थ प्रसिद्ध हुआ है ॥136॥
अनेक वृक्षों और लताओं से व्याप्त, नाना पक्षियों के समूह से युक्त एवं नाना जानवरों से सेवित तूणीगति नामक महाशैल पर महाबलवान् जंबुमाली नामक मुनि अहमिंद्र अवस्था को प्राप्त हुआ सो ठीक ही है क्योंकि अहिंसादि गुणों से युक्त धर्म के लिए क्या कठिन है ? ॥137-138॥ यह जंबुमाली का जीव ऐरावत क्षेत्र में अवतार ले महाव्रतरूपी विभूषण से अलंकृत तथा केवलज्ञानरूपी तेज से युक्त हो मुक्ति स्थान को प्राप्त होगा ।।139॥ रजोगुण तथा तमोगुण से रहित महामुनि कुंभकर्ण योगी नर्मदा के जिस तीर पर निर्वाण को प्राप्त हुए थे वहाँ पिठरक्षत नाम का तीर्थ प्रसिद्ध हुआ ॥140॥ महादीप्ति के धारक मय मुनि ने आकाशगामिनी ऋद्धि पाकर इच्छानुसार निर्वाण-भूमियों में विहार किया ।।141॥ रत्नत्रयरूपी मंडन को धारण करने वाले तथा महान् धैर्य के धारक उन मय मुनि ने देवागमन से सेवित ऋषभादि तीर्थंकरों के कल्याणक प्रदेशों के दर्शन किये ॥142 ।। मारीच मुनि कल्पवासी देव हुए तथा अन्य महर्षियों ने जिसका जैसा तपोबल था उसने वैसा ही फल प्राप्त किया ।।143॥
गौतम स्वामी कहते हैं कि हे श्रेणिक ! शीलव्रत की दृढ़ता से उत्पन्न सीता का माहात्म्य तो देखो कि उसने शीलव्रत का पालन किया तथा शत्रुओं को नष्ट कर दिखाया ॥144॥ कल्याणकारी गुणों से परिपूर्ण सीता का धैर्य, रूप, सौभाग्य, बुद्धि और पति विषयक स्नेह का बंधन― सभी अनुपम था ।।145।। जो शीलव्रत के प्रभाव से स्वर्गगामिनी थी तथा अपने पति में ही संतुष्ट रहती थी ऐसी सीता ने श्रीराम देव के चरित को अच्छी तरह अलंकृत किया था ॥146 ।। पर-पुरुष का त्याग करने वाले एक व्रतरूपी रत्न के द्वारा स्त्रियों में भी स्वर्ग प्राप्त करने की सामर्थ्य विद्यमान है ।।147॥ जिस विकट मायावी मय ने पहले अनेक जीवों का वध किया था, अब उसने भी वीतराग भाव को धारण कर उत्तम मुनि हो अनेक ऋद्धियाँ प्राप्त की थीं ।।148॥
तदनंतर राजा श्रेणिक ने कहा कि हे नाथ ! मैंने इंद्रजित् आदि का माहात्म्य तो सुन लिया है अब मय का माहात्म्य सुनना चाहता हूँ ॥149॥ हे भगवन् ! इस पृथिवीतल पर मनुष्यों की और भी शीलवती ऐसी स्त्रियाँ हुई हैं जो कि अपने पति में ही लीन रही हैं सो क्या वे सब भी स्वर्ग को प्राप्त हुई हैं ? ॥150॥ इसके उत्तर में गणधर बोले कि यदि वे निश्चय और व्रत की अपेक्षा सीता के समान हैं, पातिव्रत्यधर्म से सहित एवं अनेक गुणों से युक्त हैं तो नियम से स्वर्ग को ही जाती हैं ॥151॥ हे राजन् ! पुण्य, पाप का फल भोगने में जिनकी आत्मा निश्चल है अर्थात् जो समताभाव से पूर्वकृत पुण्य, पाप का फल भोगती हैं ऐसी सभी शीलवती स्त्रियाँ अपनी चेष्टाओं से समान ही होती हैं ॥152 ।। वैसे हे राजन् ! लता, घोड़ा, हाथी, लोहा, पाषाण, वृक्ष, वस्त्र, स्त्री और पुरुष इनमें परस्पर बड़ा अंतर होता है ॥153 ।। जिस प्रकार हर एक लता में न ककड़ी फलती है और न कुम्हड़ाही, इसी प्रकार हे राजन् ! सब स्त्रियों में सदाचार नहीं पाया जाता ॥154 ।। पहले अतिवंश में उत्पन्न हुई एक अभिमाना नाम की स्त्री हो गई है जो अपने आपको पतिव्रता प्रकट करती थी किंतु यथार्थ में शीलरूपी अंकुश से रहित हो दुर्मतरूपी वारण को प्राप्त हुई थी । भावार्थ― इस प्रकार मूठ-मूठ ही पतिव्रता का अभिमान रखने वाली स्त्री पतिव्रता नहीं है ।। 155 ।। यह मनरूपी हाथी लौकिक शास्त्र रूपी निर्बल अंकुश के द्वारा वश नहीं किया जा सकता इसलिए वह इस जीव को कुमति में ले जाता है ।।156॥ उत्तम बुद्धि को धारण करने वाला भव्यजीव, जिनवाणीरूपी अंकुश के द्वारा ही मनरूपी हाथी को दया और सुख से सहित समीचीन मार्ग में ले जा सकता है ॥157॥ गौतम स्वामी कहते हैं कि अब मैं विद्वानों के बीच परंपरा से आगत अभिमाना के शील वर्णन की कथा संक्षेप में कहता हूँ सो सुन ॥158 ।।
वे कहने लगे कि जिस समय समस्त देश रोगरूपी वायु से पीडित था उस समय धान्यग्राम का रहने वाला एक ब्राह्मण अपनी स्त्री के साथ उस ग्राम से बाहर निकला ।।159 ।। उस ब्राह्मण का नाम नोदन था और उसकी स्त्री का नाम अभिमाना था । अभिमाना अग्नि नामक पिता से मानिनी नामक स्त्री में उत्पन्न हुई थी तथा अत्यधिक अभिमान को धारण करने वाली थी ।।160॥ तदनंतर भूख की बाधा से जिसकी आत्मा विह्वल हो रही थी ऐसे नोदन ने अभिमाना को छोड़ दिया । धीरे-धीरे अभिमाना हाथियों के वन में पहुँची वहाँ उसने राजा कररुह को अपना पति बना लिया ॥161॥ राजा कररुह पुष्प प्रकीर्ण नगर का स्वामी था । तदनंतर जिसे पति की प्रसन्नता प्राप्त थी ऐसी उस अभिमाना ने किसी समय रतिकाल में राजा कररुह के शिर में अपने पैर से आघात किया अर्थात् उसके शिर में लात मारी ॥162॥ दूसरे दिन प्रभात होने पर जब राजा सभा में बैठा तब उसने बहुश्रुत विद्वानों से पूछा कि जो राजा के शिर को पैर के आघात से पीडित करे उसका क्या करना चाहिए ॥163 ।। राजा का प्रश्न सुन, सभा में अपने आपको पंडित मानने वाले जो बहुत से सभासद बैठे थे उन्होंने कहा कि उसका पैर काट दिया जाय अथवा उसे प्राणों से वियुक्त किया जाय ? ॥164॥ उसी सभा में राजा के अभिप्राय को जानने वाला एक हेमांक नाम का ब्राह्मण भी बैठा था सो उसने कहा कि राजन्, उसके पैर की अत्यधिक पूजा की जाय अर्थात् अलंकार आदि से अलंकृत कर उसका सत्कार किया जाय ॥165 ।। राजा ने उससे पूछा कि तुम इस प्रकार विद्वान् कैसे हुए अर्थात् तुमने यथार्थ बात कैसे जान ली ? तब उसने कहा कि इष्ट स्त्री के इस दंतरूपी शस्त्र ने अपने इष्ट को अपने द्वारा घायल दिखलाया है अर्थात् आपके ओंठ में स्त्री का दंताघात देखकर मैंने सब रहस्य जाना है ॥166 ।। यह सुन राजा ने यह अभिप्राय का जानने वाला है ऐसा समझ हेमांक को बहुत संपदा दी तथा अपनी विकटता प्राप्त कराई ॥167॥ हेमांक के घर में अमोघशर नामक ब्राह्मण की मित्रयशा नाम की पतिव्रता पत्नी रहती थी । वह बेचारी विधवा तथा दुःखिनी होकर उसी घर में निवास करती और अपने पति के गुणों का स्मरण कर पुत्र को ऐसी शिक्षा देती थी ॥168-166 ।। कि हे पुत्र ! जिसने बाल्यअवस्था में निश्चिंत चित्त होकर विद्याभ्यास किया था उस विद्वान् हेमांक का प्रभाव देख ॥170॥ जिसने बाण विद्या के द्वारा समस्त ब्राह्मणों अथवा परशुराम की संपदा को तिरस्कृत कर दिया था उस पिता के तू ऐसा मूर्ख पुत्र हुआ है ।।171॥ आँसुओं से जिसके नेत्र भर रहे थे ऐसी माता के वचन सुन उसका श्रीवर्धित नाम का अभिमानी बालक माता को सांत्वना देकर उसी समय विद्या सीखने के लिए चला गया ।।172 ।।
तदनंतर व्याघ्रपुर नगर में गुरु के घर समस्त कलाओं को सीख विद्वान हुआ और वहाँ के राजा सुकांत की पुत्री का हरण कर वहाँ से निकल भागा ॥173॥ पुत्री का नाम शीला था और उसके भाई का नाम सिंहेंदु था, सो प्रबल पराक्रम का धारक सिंहेंदु बहिन को वापिस लाने क लिए युद्ध की इच्छा करता हुआ निकला ॥174 ।। परंतु श्रीवर्धित अस्त्र-शस्त्र में इतना निपुण हो गया था कि उसने अकेले ही सेना से युक्त सिंहेंदु को युद्ध में जीत लिया और वह घर आकर तथा माता से मिलकर परमसंतोष को प्राप्त हुआ ॥175 ।। श्रीवर्धित महाविज्ञानी तो था ही धीरे-धीरे उसका यश भी प्रसिद्ध हो गया, अतः उसे राजा कररुह से पोदनपुर नगर का राज्य मिल गया ॥176 ।। कालक्रम से जब व्याघ्रपुर का राजा सुकांत मृत्यु को प्राप्त हो गया तब द्युति नामक शत्रु ने उसके पुत्र सिंहेंदु पर आक्रमण किया जिससे भयभीत हो वह अपनी स्त्री के साथ एक सुरंग द्वारा घर से बाहर निकल गया ॥177॥ वह अत्यंत घबड़ा गया था तथा बहुत खिन्न होता हुआ बहिन की शरण में जा रहा था । मार्ग में तंबोलियों का साथ हो गया सो उनका भार शिर पर रखते हुए वह अपनी स्त्री सहित सूर्यास्त होने के बाद पोदनपुर के समीप पहुँचा । वहाँ राजा के योद्धाओं ने उसे पकड़कर धमकाया सो जिस-किसी तरह छूटकर भयभीत होता हुआ वन में पहुँचा ॥178-176॥ सो वहाँ एक महासर्प ने उसे डस लिया जिससे विलाप करती हुई उसकी स्त्री उसे कंधे पर रखकर उस स्थान पर पहुंची जहाँ मय मुनि विराजमान थे ॥107॥ महाऋद्धियों के धारक मय मुनि प्रतिमायोग धारण कर वन स्तंभ के समान निश्चल खड़े थे, सो रानी ने सिंहेंदु को उनके चरणों के समीप लिटा दिया ।।181॥ सिंहेंदु की स्त्री ने मुनिराज के चरणों का स्पर्श कर पति के शरीर का स्पर्श किया जिससे वह पुनः जीवित हो गया ॥182॥ तदनंतर सिंहेंदु ने भक्तिपूर्वक प्रतिमा की वंदना की और उसके बाद आकर अपनी स्त्री के साथ बार-बार मुनिराज को प्रणाम किया ॥13॥
अथानंतर सूर्योदय होने पर मुनिराज का नियम समाप्त हुआ, उसी समय वंदना के लिए विनयदत्त नाम का श्रावक उनके समीप आया ॥184॥ सिंहेंदु के संदेश से श्रावक ने नगर में जाकर श्रीवर्धित के लिए बताया कि राजा सिंहेंदु आया है । यह सुन श्रीवर्धित युद्ध के लिए तैयार हो गया ॥185॥ तदनंतर जब यथार्थ बात मालूम हुई तब प्रीतियुक्त चित्त होता हुआ श्रीवर्धित सन्मान करने की भावना से अपने साले के पास गया ॥186॥ तत्पश्चात् इष्ट जनों का समागम प्राप्त कर हर्षित होते हुए श्रीवर्धित ने सुख से बैठे हुए मय मुनिराज से विनयपूर्वक पूछा कि हे भगवन् ! मैं अपने तथा अपने परिवार के लोगों के पूर्वभव जानना चाहता हूँ । तदनंतर उत्तम मुनिराज इस प्रकार वचन बोले कि ॥187-188॥
शोभपुरनगर में एक भद्राचार्य नामक दिगंबर मुनिराज थे । उस नगर का राजा अमल था जो कि गुणों के समूह से सुशोभित था ॥189॥ उत्तम हृदय को धारण करने वाला अमल प्रतिदिन उन आचार्य की सेवा करने के लिए आता था । एक दिन आने पर उसे उस स्थान पर अत्यंत दुःसह दुर्गंध आई ।।160॥ कोढ़िनी के शरीर से उत्पन्न हुई वह दुर्गंध इतनी भयंकर थी कि राजा उसे सहन नहीं कर सका और पैदल ही शीघ्र अपने घर चला गया ॥161॥ वह कोढ़िनी स्त्री किसी अन्य स्थान से आकर उस मंदिर के समीप ठहरी थी, उसी के घावों से वह दुर्गंध निकल रही थी ।।162॥ उस स्त्री ने भद्राचार्य के पास अणुव्रत धारण किये जिसके फलस्वरूप वह मरकर स्वर्ग गई और वहाँ से च्युत होकर यह शीला नामक तुम्हारी स्त्री हुई है ॥163 ।। वहाँ जो अमल नाम का राजा था उसने सब राज्य कार्य पुत्र के लिए सौंप दिया और स्वयं वह आठ गाँवों से संतुष्ट हो श्रावक हो गया ॥164॥ आयु के अंत में वह स्वर्ग गया और वहाँ से च्युत हो श्रीवर्धित हुआ । इतना कहकर मय मुनिराज ने कहा कि अब मैं तुम्हारी माता का पूर्वभव कहता हूँ ॥165॥
एक बार एक विदेशी मनुष्य भूख से पीड़ित हो घूमता हुआ नगर में प्रविष्ट हुआ । नगर की भोजनशाला में भोजन न पाकर वह कुपित होता हुआ कटुक शब्दों में यह कहकर बाहर निकल गया कि मैं समस्त गाँव को अभी जलाता हूँ । भाग्य की बात कि उसी समय गाँव में आग लग गई ॥166-167 ।। तब क्रोध से भरे ग्रामवासियों ने उसे लाकर उसी अग्नि में डाल दिया, जिससे दुःखपूर्वक मरकर वह राजा के घर रसोइन हुआ ॥168 ।। तदनंतर मरकर घोर वेदना से युक्त नरक पहुँची और वहाँ से निकलकर तुम्हारी माता मित्रयशा हुई है ॥169॥ पोदनपुर में एक गोवाणिज नाम का बड़ा गृहस्थ था, भुजपत्रा उसकी स्त्री का नाम था । गोवाणिज मरकर सिंहेंदु हुआ और भुजपत्रा उसकी रतिवर्धनी नाम की स्त्री हुई । इन दोनों ने पूर्वभव में गर्दभ आदि पशुओं पर अधिक बोझ लाद-लाद उन्हें पीड़ा पहुँचाई थी इसलिए उन्हें भी तंबोलियों का भार उठाना पडा ॥200-201॥ इस प्रकार कहकर मय मुनिराज आकाश को देदीप्यमान करते हुए अपने इच्छित स्थान पर चले गये और श्रीवर्धित भी इष्टजनों का समागम प्राप्त कर नगर में चला गया ।।202॥
गौतम स्वामी कहते हैं कि हे राजन् ! इस विचित्र संसार में पूर्वकृत भाग्य का उदय होने पर कोई राज्य को प्राप्त होता है और किसी का प्राप्त हुआ राज्य नष्ट हो जाता है ।।203॥ एक ही गुरु से धर्म की संगति पाकर निदान अथवा निदान रहित मरण से जीवों की गति भिन्न-भिन्न होती है ॥204॥ रत्नों से पूर्णता को प्राप्त हुए कितने ही धनेश्वरी मनुष्य सुखपूर्वक समुद्र को पार करते हैं, कितने ही बीच में डूब जाते हैं और कितने ही तट पर डूब मरते हैं ।। 205 ।। ऐसा जानकर बुद्धिमान मनुष्यों को सदा दया, दम, तपश्चरण की शुद्धि, विनय तथा आगम के अभ्यास से आत्मा का कल्याण करना चाहिए ।।206॥ हे राजन् ! उस समय मय मुनिराज के वचन सुनकर समस्त पोदनपुर अत्यंत शांत हो गया तथा धर्म में उसका चित्त लग गया ॥207 ।। इस प्रकार के गुणों से युक्त, धर्म की विधि को जानने वाले, प्रशांत चित्त तथा पासुक स्थान में विहार करने वाले मय मुनिराज, पंडितमरण को प्राप्त हो श्रेष्ठ देव हुए ॥208 ।।
इस तरह जो उत्तम चित्त होकर मय मुनिराज के इस माहात्म्य को पढ़ते हैं, शत्रु अथवा मांसभोजी सिंहादि उनकी कभी भी हिंसा नहीं करते ॥209॥
इस प्रकार आर्ष नाम से प्रसिद्ध, रविषेणाचार्य द्वारा कथित पद्मपुराण में मय मुनिराज का वर्णन करने वाला अस्सीवाँ पर्व समाप्त हुआ ॥80॥