तिर्यंच: Difference between revisions
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<p class="HindiText">पशु, पक्षी, कीट, पतंग | <p class="HindiText">पशु, पक्षी, कीट, पतंग यहाँ तक कि वृक्ष, जल, पृथिवी, व निगोद जीव भी तिर्यंच कहलाते हैं। एकेंद्रिय से पंचेंद्रिय पर्यंत अनेक प्रकार के कुछ जलवासी कुछ थलवासी और कुछ आकाशचारी होते हैं। इनमें से असंज्ञी पर्यंत सब सम्मूर्छिम व मिथ्यादृष्टि होते हैं। परंतु संज्ञी तिर्यंच सम्यक्त्व व देशव्रत भी धारण कर सकते हैं। तिर्यंचों का निवास मध्य लोक के सभी असंख्यात द्वीप समुद्रों में है। इतना विशेष है कि अढाई द्वीप से आगे के सभी समुद्रों में जल के अतिरिक्त अन्य कोई जीव नहीं पाये जाते और उन द्वीपों में विकलत्रय नहीं पाये जाते। अंतिम स्वयंभूरमण सागर में अवश्य संज्ञी पंचेंद्रिय तिर्यंच पाये जाते हैं। अत: यह सारा मध्यलोक तिर्यक लोक कहलाता है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong> भेद व लक्षण</strong> <br /> | ||
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<li class="HindiText"> तिर्यंच | <li class="HindiText"> तिर्यंच सामान्य का लक्षण।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> जलचरादि की अपेक्षा तिर्यंचों के भेद।<br /> | <li class="HindiText"> जलचरादि की अपेक्षा तिर्यंचों के भेद।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> जीव समासों की अपेक्षा तिर्यचों के भेद।–देखें | <li class="HindiText"> जीव समासों की अपेक्षा तिर्यचों के भेद।–देखें [[ जीव समास ]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> सम्मूर्च्छिम तिर्यंच।–देखें [[ सम्मूर्च्छन ]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> महामत्स्य की विशाल काय।–देखें [[ सम्मूर्च्छन ]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> भोगभूमिया तिर्यंच | <li class="HindiText"> भोगभूमिया तिर्यंच निर्देश।–देखें [[ भूमि#8 | भूमि - 8]]।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong> तिर्यंचों में सम्यक्त्व व गुणस्थान निर्देश व शंकाए</strong>ँ<br /> | ||
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<li class="HindiText"> तिर्यंचगति में | <li class="HindiText"> तिर्यंचगति में सम्यक्त्व का स्वामित्व।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> औपशमिकादि | <li class="HindiText"> औपशमिकादि सम्यक्त्व का स्वामित्व।–देखें [[ सम्यग्दर्शन#IV | सम्यग्दर्शन - IV]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> जन्म के पश्चात् सम्यक्त्व ग्रहण की योग्यता।–देखें [[ सम्यग्दर्शन#IV.2.5 | सम्यग्दर्शन - IV.2.5]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> जन्म के पश्चात् संयम ग्रहण की योग्यता–देखें [[ संयम#2 | संयम - 2]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> तिर्यंचों में | <li class="HindiText"> तिर्यंचों में गुणस्थानों का स्वामित्व।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> गति-अगति में समय | <li class="HindiText"> गति-अगति में समय सम्यक्त्व व गुणस्थान।–देखें [[ जन्म#6 | जन्म - 6]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> स्त्री, पुरुष व नपुंसकवेदी तिर्यचों संबंधी।–देखें [[ वेद ]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> क्षायिक | <li class="HindiText"> क्षायिक सम्यग्दृष्टि संयतासंयत मनुष्य ही होय तिर्यच नहीं।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> तिर्यंच संयतासंयतों में क्षायिक | <li class="HindiText"> तिर्यंच संयतासंयतों में क्षायिक सम्यक्त्व क्यों नहीं।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> तिर्यंचनी में क्षायिक | <li class="HindiText"> तिर्यंचनी में क्षायिक सम्यक्त्व क्यों नहीं।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> अपर्याप्त तिर्यंचिनी में | <li class="HindiText"> अपर्याप्त तिर्यंचिनी में सम्यक्त्व क्यों नहीं।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> पर्याप्तापर्याप्त तिर्यंच।–देखें | <li class="HindiText"> पर्याप्तापर्याप्त तिर्यंच।–देखें [[ पर्याप्ति ]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> अपर्याप्त तिर्यंचों में | <li class="HindiText"> अपर्याप्त तिर्यंचों में सम्यक्त्व कैसे संभव है।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> अपर्याप्त तिर्यंचों में संयमासंयम | <li class="HindiText"> अपर्याप्त तिर्यंचों में संयमासंयम क्यों नहीं।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> तिर्यंचायु के | <li class="HindiText"> तिर्यंचायु के बंध होने पर अणुव्रत नहीं होते।–देखें [[ आयु#6 | आयु - 6]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> तिर्यंचायु के | <li class="HindiText"> तिर्यंचायु के बंध योग्य परिणाम।–देखें [[ आयु#3 | आयु - 3]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> तिर्यंच संयत | <li class="HindiText"> तिर्यंच संयत क्यों नहीं होते।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> सर्व द्वीप समुद्रों में | <li class="HindiText"> सर्व द्वीप समुद्रों में सम्यग्दृष्टि व संयतासंयत तिर्यंच कैसे संभव हैं।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> ढाई द्वीप से बाहर | <li class="HindiText"> ढाई द्वीप से बाहर सम्यक्तव की उत्पत्ति क्यों नहीं।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> कर्मभूमिया तिर्यंचों में क्षायिक | <li class="HindiText"> कर्मभूमिया तिर्यंचों में क्षायिक सम्यक्त्व क्यों नहीं।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> तिर्यंच गति के दु:ख।–देखें - | <li class="HindiText"> तिर्यंच गति के दु:ख।–देखें भगवती आराधना - 1581-1587 ।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> तिर्यंचों में संभव वेद, कषाय, | <li class="HindiText"> तिर्यंचों में संभव वेद, कषाय, लेश्या व पर्याप्ति आदि।–देखें [[ वह वह नाम ]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> कौन तिर्यंच मरकर | <li class="HindiText"> कौन तिर्यंच मरकर कहाँ उत्पन्न हो और क्या गुण प्राप्त करे।–देखें [[ जन्म#6 | जन्म - 6]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> तिर्यंच गति में | <li class="HindiText"> तिर्यंच गति में 14 मार्गणाओं के अस्तित्व संबंधी 20 प्ररूपणाएँ।–देखें [[ सत् ]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> तिर्यंच गति में | <li class="HindiText"> तिर्यंच गति में सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव व अल्प-बहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ–देखें [[ वह वह नाम ]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> तिर्यंच गति में कर्मों का | <li class="HindiText"> तिर्यंच गति में कर्मों का बंध उदय व सत्त्व प्ररूपणाएँ व तत्संबंधी नियमादि।–देखें [[ वह वह नाम ]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> तिर्यंच गति व आयुकर्म की प्रकृतियों के | <li class="HindiText"> तिर्यंच गति व आयुकर्म की प्रकृतियों के बंध, उदय, सत्त्व प्ररूपणाएँ व तत्संबंधी नियमादि।–देखें [[ वह वह नाम ]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> भाव मार्गणा की | <li class="HindiText"> भाव मार्गणा की इष्टता तथा उसमें भी आय के अनुसार ही व्यय होने का नियम।–देखें [[ मार्गणा ]]।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong> तिर्यंच लोक निर्देश</strong> <br /> | ||
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<li class="HindiText"> तिर्यंच लोक | <li class="HindiText"> तिर्यंच लोक सामान्य निर्देश।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> तिर्यंच लोक के नाम का | <li class="HindiText"> तिर्यंच लोक के नाम का सार्थक्य।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> तिर्यंच लोक की सीमा व | <li class="HindiText"> तिर्यंच लोक की सीमा व विस्तार संबंधी दृष्टि भेद।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> विकलेंद्रिय जीवों का अवस्थान।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> पंचेंद्रिय तिर्यंचों का अवस्थान।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> जलचर जीवों का | <li class="HindiText"> जलचर जीवों का अवस्थान।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> कर्म व भोग भूमियों में जीवों का | <li class="HindiText"> कर्म व भोग भूमियों में जीवों का अवस्थान–देखें [[ भूमि ]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> तैजस कायिकों के | <li class="HindiText"> तैजस कायिकों के अवस्थान संबंधी दृष्टि भेद।–देखें [[ काय#2.5 | काय - 2.5]]।<br /> | ||
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<li class="HindiText"> | <li class="HindiText"> मारणांतिक समुद्घातगत महामत्स्य संबंधी भेद दृष्टि।–देखें [[ मरण#5.6 | मरण - 5.6]]।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1" id="1">भेद व लक्षण</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1"> तिर्यंच सामान्य का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
तत्त्वार्थसूत्र/4/27 <span class="SanskritText">औपपादिकमनुष्येंभ्य: शेषास्तिर्यग्योनय:।27। </span>=<span class="HindiText">उपपाद जन्मवाले और मनुष्यों के सिवा शेष सब जीव तिर्यंचयोनि वाले हैं।27।</span><br /> | |||
धवला 1/1,1,24/ गा.129/202 <span class="PrakritGatha">तिरियंति कुडिल-भावं सुवियड-सण्णाणिगिट्ठमण्णाणा। अच्चंत-पाव-बहुला तम्हा तेरिच्छया णाम। </span>=<span class="HindiText">जो मन, वचन और काय की कुटिलता को प्राप्त हैं, जिनकी आहारादि संज्ञाएँ सुव्यक्त हैं, जो निकृष्ट अज्ञानी हैं और जिनके अत्यधिक पाप की बहुलता पायी जावे उनको तिर्यंच कहते हैं।129। (प.सं./प्रा./1/61); ( गोम्मटसार जीवकांड/148 )।</span><br /> | |||
राजवार्तिक/4/27/3/245 <span class="SanskritText">तिरोभावो न्यग्भाव: उपबाह्यत्वमित्यर्थ:, तत: कर्मोदयापादितभावा तिर्यग्योनिरित्याख्यायते। तिरंचियोनिर्येषां ते तिर्यग्योनय:। </span>=<span class="HindiText">तिरोभाव अर्थात् नीचे रहना-बोझा ढोने के लायक। कर्मोदय से जिनमें तिरोभाव प्राप्त हो वे तिर्यग्योनि हैं।</span><br /> | |||
धवला/13/5,5,140/392/2 <span class="SanskritText"> तिर: अंचंति कौटिल्यमिति तिर्यंच:। ‘तिर:’</span> <span class="HindiText">अर्थात् कुटिलता को प्राप्त होते हैं वे तिर्यंच कहलाते हैं।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> जलचर आदि की अपेक्षा तिर्यंचों के भेद</strong> </span><br /> | ||
राजवार्तिक/3/39/5/209/30 <span class="SanskritText">पंचेंद्रिया: तैर्यग्योनय: पंचविधा:–जलचरा:, परिसर्पा:, उरगा:, पक्षिण:, चतुष्पादश्चेति। </span>=<span class="HindiText">पंचेंद्रिय तिर्यंच पाँच प्रकार के होते हैं–जलचर-(मछली आदि), परिसर्प (गोनकुलादि); उरग-सर्प; पक्षी, और चतुष्पद।</span><br /> | |||
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/118/181/11 <span class="SanskritText">पृथिव्याद्येकेंद्रियभेदेन शंबूकयूकोद्दंशकादिविकलेंद्रियभेदेन जलचरस्थलचरखचरद्विपदचतु:पदादिपंचेंद्रियभेदेन तिर्यंचो बहुप्रकारा:।</span> =<span class="HindiText">तिर्यंचगति के जीव पृथिवी आदि एकेंद्रिय के भेद से; शंबूक, जूँ व मच्छर आदि विकलेंद्रिय के भेद से; जलचर, स्थलचर, आकाशचर, द्विपद, चतुष्पदादि पंचेंद्रिय के भेद से बहुत प्रकार के होते हैं।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3">गर्भजादि की अपेक्षा तिर्यचों के भेद</strong> </span><br /> | ||
का.आ./ | का.आ./129-130 <span class="PrakritGatha">पंचक्खा वि य तिविहा जल-थल-आयासगामिणो तिरिया। पत्तेयं ते दुविहा मगेण जुत्ता अजुत्ता या।129। ते वि पुणो वि य दुविहा गब्भजजम्मा तहेव संमुच्छा। भोगभुवा गब्भ-भुवा थलयर-णह-गामिणो सण्णी।130।</span>=<span class="HindiText">पंचेंद्रिय तिर्यंच जीवों के भी तीन भेद हैं–जलचर, थलचर और नभचर। इन तीनों में से प्रत्येक के दो-दो भेद हैं–सैनी और असैनी।129। इन छह प्रकार के तिर्यंचों के भी दो भेद हैं–गर्भज, दूसरा सम्मूर्छिम जन्मवाले...।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> मार्गणा की अपेक्षा तिर्यंचों के भेद</strong> </span><br /> | ||
धवला 1/1,1,26/208/3 <span class="SanskritText">तिर्यंच: पंचविधा:, तिर्यंच: पंचेंद्रियतिर्यंच:, पंचेंद्रिय पर्याप्त तिर्यंच, पंचेंद्रियपर्याप्ततिरश्च्य:। पंचेंद्रियापर्याप्ततिर्यंच इति।</span> =<span class="HindiText">तिर्यंच पाँच प्रकार के होते हैं–सामान्य तिर्यंच, पंचेंद्रिय तिर्यंच, पंचेंद्रियपर्याप्ततिर्यंच, पंचेंद्रिय पर्याप्त-योनिमती, पंचेंद्रिय-अपर्याप्त-तिर्यंच। ( गोम्मटसार जीवकांड/150 )।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2" id="2"> तिर्यंचों में सम्यक्त्व व गुणस्थान निर्देश व शंकाएँ</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1">तिर्यंच गति में सम्यक्तव का स्वामित्व</strong></span><br /> | ||
षट्खंडागम/1/1,1,/ सू.156-161/401 <span class="PrakritText">तिरिक्ख अत्थि मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्माइट्ठी संजदासंजदा त्ति।156। एवं जाव सव्व दीव-समुद्देसु।157। तिरिक्खा असंजदसम्माइट्ठि-ट्ठाणे अत्थि खइयसम्माइट्ठी वेदगसम्माइट्ठी उवसमसम्माइट्ठी।158। तिरिक्खा संजदासंजदट्ठाणे खइयसम्माइट्ठी णत्थि अवसेसा अत्थि।159। एवं पंचिंदियातिरिक्खा-पज्जत्ता।160। पंचिंदिय-तिरिक्ख-जोणिणीसु असंजदसम्माइट्ठी-संजदासंजदट्ठाणे खइयसम्माइट्ठी णत्थि, अवसेसा अत्थि।161।</span>=<span class="HindiText">तिर्यंच मिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयत सम्यग्दृष्टि और संयतासंयत होते हैं।156। इस प्रकार समस्त द्वीप-समुद्रवर्ती तिर्यंचों में समझना चाहिए।157। तिर्यंच असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदक सम्यग्दृष्टि और उपशम सम्यग्दृष्टि होते हैं।158। तिर्यंच संयतासंयत गुणस्थान में क्षायिक सम्यग्दृष्टि नहीं होते हैं। शेष के दो सम्यग्दर्शनों से युक्त होते हैं।159। इसी प्रकार पंचेंद्रिय तिर्यंच और पंचेंद्रिय पर्याप्त तिर्यंच भी होते हैं।160। योनिमती पंचेंद्रिय तिर्यंचों के असंयत सम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थान में क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव नहीं होते हैं। शेष के दो सम्यग्दर्शनों से युक्त होते हैं।161।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> तिर्यचों में गुणस्थानों का स्वामित्व</strong> </span><br /> | ||
षट्खंडागम 1/1,1/ सू.84-88/325 <span class="PrakritText">तिरिक्खा मिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइट्ठि-असंजदसम्माइट्ठि-ट्ठाणे सिया पज्जत्ता, सिया अपज्जत्ता।84। सम्मामिच्छाइट्ठि-संजदासंजदट्ठाणे-णियमा पज्जत्ता।85। एवं पंचिंदिय-तिरिक्खापज्जत्ता।86। पंचिंदियतिरिक्ख-जोणिणीसु मिच्छाइट्ठिसासणसम्माइट्ठि-ट्ठाणे सिया पज्जत्तियाओ सिया अपज्जत्तियाओ।87। सम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्माइट्ठि-संजदासंजदट्ठाणे णियमा पज्जत्तियाओ।88। </span>=<span class="HindiText">तिर्यंच मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, और असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में पर्याप्त भी होते हैं अपर्याप्त भी होते हैं।84। तिर्यंच सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संयतासंयत गुणस्थान में नियम से पर्याप्तक होते हैं।85। तिर्यंच संबंधी सामान्य प्ररूपणा के समान पंचेंद्रिय तिर्यंच और पर्याप्त पंचेंद्रिय तिर्यंच भी होते हैं।86। योनिमती-पंचेंद्रिय-तिर्यंच मिथ्यादृष्टि और सासादन गुणस्थान में पर्याप्त भी होते हैं और अपर्याप्त भी होते हैं।87। योनिमती तिर्यंच सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयत सम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थान में नियम से पर्याप्तक होते हैं।88।</span><br /> | |||
षट्खंडागम 1/1,1/ सू.26/207 <span class="PrakritText">तिरिक्खा पंचसु ट्ठाणेसु अत्थि मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठि असंजदसम्माइट्ठी संजदासंजदा त्ति।26।</span> =<span class="HindiText">मिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयत सम्यग्दृष्टि और संयतासंयत इन पाँच गुणस्थानों में तिर्यंच होते हैं।26।</span><br /> | |||
तिलोयपण्णत्ति/5/299-303 <span class="PrakritText">तेतीसभेदसंजुदतिरिक्खजीवाण सव्वकालम्मि। मिच्छत्तगुणट्ठाणं बोच्छं सण्णीण तं माणं।299। पणपणअज्जाखंडे भरहेरावदखिदिम्मि मिच्छत्तं। अवरे वरम्मि पण गुणठाणाणि कयाइदीसंति।300। पंचविदेहे सट्ठिसमण्णिदसदअज्जवखंडए तत्तो। विज्जाहरसेढीए बाहिरभागे सयंपहगिरीदो।301। सासणमिस्सविहीणा तिगुणट्ठाणाणि थोवकालम्मि। अवरे वरम्मि पण गुणठाणाइ कयाइ दीसंति।302। सव्वेसु वि भोगभुवे दो गुणठाणाणि थोवकालम्मि। दीसंति चउवियप्पं सव्व मिलिच्छम्मि मिच्छत्तं।303। </span>=<span class="HindiText">संज्ञी जीवों को छोड़ शेष तेतीस प्रकार के भेदों से युक्त तिर्यंच जीवों के सब काल में एक मिथ्यात्व गुणस्थान रहता है। संज्ञीजीव के गुणस्थान प्रमाण को कहते हैं।299। भरत और ऐरावत क्षेत्र के भीतर पाँच-पाँच आर्यखंडों में जघन्यरूप से एक मिथ्यात्व गुणस्थान और उत्कृष्ट रूप से कदाचित् पाँच गुणस्थान भी देखे जाते हैं।300। पाँच विदेहों के भीतर एक सौ आठ आर्यखंडों में विद्याधर श्रेणियों में और स्वयंप्रभ पर्वत के बाह्य भाग में सासादन एवं मिश्र गुणस्थान को छोड़ तीन गुणस्थान जघन्य रूप से स्तोक काल के लिए होते हैं। उत्कृष्ट रूप से पाँच गुणस्थान भी कदाचित् देखे जाते हैं।301-302। सर्व भोगभूमियों में दो गुणस्थान और स्तोक काल के लिए चार गुणस्थान देखे जाते हैं। सर्वम्लेच्छखंडों में एक मिथ्यात्व गुणस्थान ही रहता है।303।</span><br /> | |||
धवला 1/1,1,26/208/6 <span class="SanskritText">लब्ध्यपर्याप्तेषु मिथ्यादृष्टिव्यतिरिक्तशेषगुणासंभवात् ...शेषेषु पंचापि गुणस्थानानि संति,...तिरश्चीप्वपर्याप्ताद्धायां मिथ्यादृष्टिसासादना एव संति, न शेषास्तत्र तन्निरूपकार्षाभावात् ।</span>=<span class="HindiText">लब्ध्यपर्याप्तकों में एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान को छोड़कर शेष गुणस्थान असंभव हैं...शेष चार प्रकार के तिर्यंचों में पाँचों ही गुणस्थान होते हैं।...तिर्यंचयोनियों के अपर्याप्त काल में मिथ्यादृष्टि और सासादन ये दो गुणस्थान वाले ही होते हैं, शेष तीन गुणस्थान वाले नहीं होते हैं। विशेष–देखें [[ सत् ]]।<br /> | |||
</span></li> | </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3"> क्षायिक सम्यग्दृष्टि संयतासंयत मनुष्य ही होते हैं तिर्यंच नहीं</strong> </span><br /> | ||
धवला 8/3,278/363/10 <span class="PrakritText">तिरिक्खेसु खइयसम्माइट्ठीसु संजदासंजदाणमणुवलंभादो।</span> =<span class="HindiText">तिर्यंच क्षायिक सम्यग्दृष्टियों में संयतासंयत जीव पाये नहीं जाते।</span><br /> | |||
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/329/471/5 <span class="SanskritText">क्षायिकसम्यग्दृष्टिर्देशसंयतो मनुष्य एव तत: कारणात्तत्र तिर्यगायुरुद्योतस्तिर्यग्गतिश्चेति त्रीण्युदये न संति।</span> =<span class="HindiText">क्षायिक सम्यग्दृष्टि देशसंयत मनुष्य ही होता है, इसलिए तिर्यगायु, उद्योत, तिर्यग्गति, पंचम गुणस्थान विषै नाहीं।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4"> तिर्यंच संयतासंयतों में क्षायिक सम्यक्त्व क्यों नहीं</strong> </span><br /> | ||
धवला 1/1,1,158/402/9 <span class="SanskritText">तिर्यक्षु क्षायिकसम्यग्दृष्टय: संयतासंयता: किमिति न संतीति चेन्न, क्षायिकसम्यग्दृष्टीनां भोगभूमिमंतरेणोत्पत्तेर भावात् । न च भोगभूमावुत्पन्नानामणुव्रतोपादानं संभवति तत्र तद्विरोधात् ।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>–तिर्यंचों में क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव संयतासंयत क्यों नहीं होते हैं ? <strong>उत्तर</strong>–नहीं, क्योंकि, तिर्यंचों में यदि क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न होते हैं तो वे भोगभूमि में ही उत्पन्न होते हैं दूसरी जगह नहीं। परंतु भोगभूमि में उत्पन्न हुए जीवों के अणुव्रत की उत्पत्ति नहीं होती है, क्योंकि वहाँ पर अणुव्रत के होने पर आगम से विरोध आता है। ( धवला 1/1,1,85/327/1 ) ( धवला 2/1,1/482/2 )।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5"> तिर्यंचिनी में क्षायिक सम्यक्त्व क्यों नहीं</strong> </span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/1/7/23/3 <span class="SanskritText"> तिरश्चीनां क्षायिकं नास्ति। कृत इत्युक्ते मनुष्यकर्मभूमिज एव दर्शनमोहक्षपणाप्रारंभको भवति। क्षपणाप्रारंभकालात्पूर्बं तिर्यक्षु, बद्धायुष्कोऽपि उत्कृष्टभोगभूमितिर्यक्पुरुषेष्वेवोत्पद्यते न तिर्यक्स्त्रीषु द्रव्यवेदस्त्रीणां तासां क्षायिकासंभवात् ।</span> =<span class="HindiText">तिर्यंचनियों में क्षायिक सम्यक्त्व नहीं होता है ? <strong>प्रश्न</strong>‒क्यों ? <strong>उत्तर</strong>‒कर्मभूमिज मनुष्य ही दर्शन मोह की क्षपणा प्रारंभ करता है। क्षपणा काल के प्रारंभ से पूर्व यदि कोई तिर्यंचायु बद्धायुष्क हो तो वह उत्कृष्ट भोगभूमि के पुरुषवेदी तिर्यंचों में ही उत्पन्न होता है, स्त्रीवेदी तिर्यंचों में नहीं। क्योंकि द्रव्य स्त्री वेदी तिर्यंचों के क्षायिक सम्यक्त्व की असंभावना है।</span><br /> | |||
धवला 1/1,1,161/403/5 <span class="SanskritText"> तत्र क्षायिकसम्यग्दृष्टीनामुत्पत्तेरभावात्तत्र दर्शनमोहनीयस्य क्षपणाभावाच्च।</span> =<span class="HindiText">योनिमति पंचेंद्रिय तिर्यंचों में क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव मरकर उत्पन्न नहीं होते। तथा उनमें दर्शन मोहनीय की क्षपणा का अभाव है।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.6" id="2.6"> अपर्याप्त तिर्यंचिनी में सम्यक्त्व क्यों नहीं</strong></span><br /> | ||
धवला 1/1,1,26/209/5 <span class="SanskritText">भवतु नामसम्यग्दृष्टिसंयतासंयतानां तत्रासत्त्वं पर्याप्ताद्धायामेवेति नियमोपलंभात् । कथं पुनरसंयतसम्यग्दृष्टीनामसत्त्वमिति न, तत्रासंयतसम्यग्दृष्टीनामुत्पत्तेरभावात् ।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>‒तिर्यंचनियों के अपर्याप्त काल में सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संयतासंयत इन दो गुणस्थानवालों का अभाव रहा आवे, क्योंकि ये दो गुणस्थान पर्याप्त काल में ही पाये जाते हैं, ऐसा नियम मिलता है। परंतु उनके अपर्याप्त काल में असंयतसम्यग्दृष्टि जीवों का अभाव कैसे माना जा सकता है ? <strong>उत्तर</strong>‒नहीं, क्योंकि तिर्यंचनियों में असंयत सम्यग्दृष्टि की उत्पत्ति नहीं होती, इसलिए उनके अपर्याप्त काल में चौथा गुणस्थान नहीं पाया जाता है।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.7" id="2.7"> अपर्याप्त तिर्यंच में सम्यक्त्व कैसे संभव है</strong> </span><br /> | ||
धवला 1/1,1,84/325/4 <span class="SanskritText">भवतु नाम मिथ्यादृष्टिसासादनसम्यग्दृष्टीनां तिर्यक्षु पर्याप्तापर्याप्तद्वयो: सत्त्वं तयोस्तत्रोत्पत्यविरोधात् । सम्यग्दृष्टयस्तु पुनर्नोत्पद्यंते तिर्यगपर्याप्तपर्यायेण सम्यग्दर्शनस्य विरोधादिति। न विरोध:, अस्यार्षस्याप्रामाण्यप्रसंगात् । क्षायिकसम्यग्दृष्टि: सेविततीर्थकर: क्षपितसप्तप्रकृति: कथं तिर्यक्षु दु:खभूयस्सूत्पद्यते इति चेन्न, तिरंचां नारकेभ्यो दु:खाधिक्याभावात् । नारकेष्वपि सम्यग्दृष्टयो नोत्पत्स्यंत इति चेन्न, तेषां तत्रोत्पत्तिप्रतिपादकार्षोपलंभात् । किमिति ते तत्रोत्पद्यंत इति चेन्न, सम्यग्दर्शनोपादानात् प्राङ्मिथ्यादृष्टयवस्थायां बद्धतिर्यङ्नरकायुष्कत्वात् । सम्यग्दर्शनेन तत् किमिति न छिद्यते। इति चेत् किमिति तन्न छिद्यते। अपि तु न तस्य निर्मूलच्छेद:। तदपि कुत:। स्वाभाव्यात् ।</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>‒मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि जीवों की तिर्यंचों संबंधी पर्याप्त और अपर्याप्त अवस्था में भले ही सत्ता रही आवे, क्योंकि इन दो गुणस्थानों की तिर्यंच संबंधी पर्याप्त और अपर्याप्त अवस्था में उत्पत्ति होने में कोई विरोध नहीं आता है। परंतु सम्यग्दृष्टि जीव तो तिर्यंचों में उत्पन्न नहीं होते हैं; क्योंकि तिर्यंचों की अपर्याप्त पर्याय के साथ सम्यग्दर्शन का विरोध है। <strong>उत्तर</strong>‒विरोध नहीं हैं, फिर भी यदि विरोध माना जावे तो ऊपर का सूत्र अप्रमाण हो जायेगा। <strong>प्रश्न</strong>‒जिसने तीर्थंकर की सेवा की है और जिसने मोहनीय की सात प्रकृतियों का क्षय कर दिया है ऐसा क्षायिक-सम्यग्दृष्टि जीव दु:ख बहुल तिर्यंचों में कैसे उत्पन्न होता है? <strong>उत्तर</strong>‒नहीं, क्योंकि तिर्यंचों के नारकियों की अपेक्षा अधिक दुख नहीं पाये जाते हैं। <strong>प्रश्न</strong>‒तो फिर नारकियों में भी सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न नहीं होंगे ? <strong>उत्तर</strong>‒नहीं, क्योंकि, सम्यग्दृष्टियों की नारकियों में उत्पत्ति का प्रतिपादन करने वाला आगम प्रमाण पाया जाता है। <strong>प्रश्न</strong>‒सम्यग्दृष्टि जीव नारकियों में क्यों उत्पन्न होते हैं ? <strong>उत्तर</strong>‒नहीं, क्योंकि जिन्होंने सम्यग्दर्शन को ग्रहण करने के पहले मिथ्यादृष्टि अवस्था में तिर्यंचायु और नरकायु का बंध कर लिया है उनकी सम्यग्दर्शन के साथ वहाँ पर उत्पत्ति मानने में कोई आपत्ति नहीं आती है। <strong>प्रश्न</strong>‒सम्यग्दर्शन की सामर्थ्य से उस आयु का छेद क्यों नहीं हो जाता है ? <strong>उत्तर</strong>‒उसका छेद क्यों नहीं होता है? अवश्य होता है। किंतु उसका समूल नाश नहीं होता है। <strong>प्रश्न</strong>‒समूल नाश क्यों नहीं होता है? <strong>उत्तर</strong>‒आगे के भव के बाँधे हुए आयुकर्म का समूल नाश नहीं होता है, इस प्रकार का स्वभाव ही है।</span><br /> | |||
धवला 2/1,1/481/1 <span class="PrakritText">मणुस्सा पुव्वबद्ध-तिरिक्खयुगा पच्छा सम्मत्तं घेत्तूण...खइयसम्माइट्ठी होदूण असंखेज्ज-वस्सायुगेसु तिरिक्खेसु उप्पज्जंति ण अण्णत्थ, तेण भोगभूमि-तिरिक्खेसुप्पज्जमाणं पेक्खिऊण असंजदसम्माइट्ठि-अप्पज्जत्तकाले खइयसम्मत्तं लब्भदि। तत्थ उप्पज्जमाण-कदकरणिज्जं पडुच्च वेदगसम्मत्तं लब्भदि। </span>=<span class="HindiText">(इन क्षायिक व क्षायोपशमिक) दो सम्यक्त्वों के (वहाँ) होने का कारण यह है कि जिन मनुष्यों ने सम्यग्दर्शन होने के पहले तिर्यंच आयु को बाँध लिया है वे पीछे सम्यक्त्व को ग्रहणकर...क्षायिक सम्यग्दृष्टि होकर असंख्यात वर्ष की आयुवाले तिर्यंचों में उत्पन्न होते हैं अन्यत्र नहीं। इस कारण भोगभूमि के तिर्यंचों में उत्पन्न होने वाले जीवों की अपेक्षा से असंयत सम्यग्दृष्टि के अपर्याप्त काल में क्षायिक सम्यक्त्व पाया जाता है। और उन्हीं भोगभूमि के तिर्यंचों में उत्पन्न होने वाले जीवों के कृतकृत्य वेदक की अपेक्षा वेदक सम्यक्त्व भी पाया जाता है।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.8" id="2.8"> अपर्याप्त तिर्यंचों में संयमासंयम क्यों नहीं</strong> </span><br /> | ||
धवला 1/1,1,85/326/5 <span class="SanskritText">मनुष्या: मिथ्यादृष्टयवस्थायां बद्धतिर्यगायुष: पश्चात्सम्यग्दर्शनेन सहात्ताप्रत्याख्याना: क्षपितसप्तप्रकृतयस्तिर्यक्षु किंनोत्पद्यंते। इति चेत् किंचातोऽप्रत्याख्यानगुणस्य तिर्यगपर्याप्तेषु सत्त्वापत्ति:। न, देवगतिव्यतिरिक्तगतित्रयसंबद्धायुषोपलक्षितानामणुव्रतोपादानबुद्धयनुत्पत्ते:। </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>‒जिन्होंने मिथ्यादृष्टि अवस्था में तिर्यंचायु का बंध करने के पश्चात् देशसंयम को ग्रहण कर लिया है और मोह की सात प्रकृतियों का क्षय कर दिया है ऐसे मनुष्य तिर्यंचों में क्यों नहीं उत्पन्न होते हैं ? यदि होते हैं तो इससे तिर्यंच अपर्याप्तों में देशसंयम के प्राप्त होने की क्या आपत्ति आती है? <strong>उत्तर</strong>‒नहीं, क्योंकि, देवगति को छोड़कर शेष तीन गति संबंधी आयुबंध से युक्त जीवों के अणुव्रत को ग्रहण करने की बुद्धि ही उत्पन्न नहीं होती है।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.9" id="2.9"> तिर्यंच संयत क्यों नहीं होते</strong> </span><br /> | ||
धवला 1/1,1,156/401/8 <span class="SanskritText"> संन्यस्तशरीरत्वात्त्यक्ताहाराणां तिरश्चां किमिति संयमो न भवेदिति चेन्न, अंतरंगाया: सकलनिवृत्तेरभावात् । किमिति तदभावश्चेज्जातिविशेषात् । </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>‒शरीर से संन्यास ग्रहण कर लेने के कारण जिन्होंने आहार का त्याग कर दिया है ऐसे तिर्यंचों के संयम क्यों नहीं होता है? <strong>उत्तर</strong>‒नहीं, क्योंकि, आभ्यंतर सकल निवृत्ति का अभाव है। <strong>प्रश्न</strong>‒उसके आभ्यंतर सकल निवृत्ति का अभाव क्यों है ? उत्तर‒जिस जाति में वे उत्पन्न हुए हैं उसमें संयम नहीं होता यह नियम है, इसलिए उनके संयम नहीं पाया जाता है।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.10" id="2.10"> सर्व द्वीपसमुद्रों में सम्यग्दृष्टि व संयतासंयत तिर्यंच कैसे संभव है</strong> </span><br /> | ||
धवला 1/1,1,157/402/1 <span class="SanskritText">स्वयंप्रभादारान्मानुषोत्तरात्परतो भोगभूमिसमानत्वान्न तत्र देशव्रतिन: संति तत् एतत्सूत्रं न घटत इति न, वैरसंबंधेन देवैर्दानवैर्वोत्क्षिप्य क्षिप्तानां सर्वत्र सत्त्वाविरोधात् ।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>‒स्वयंभूरमण द्वीपवर्ती स्वयंप्रभ पर्वत के इस ओर और मानुषोत्तर पर्वत के उस ओर असंख्यात द्वीपों में भोगभूमि के समान रचना होने पर वहाँ पर देशव्रती नहीं पाये जाते हैं, इसलिए यह सूत्र घटित नहीं होता है? <strong>उत्तर</strong>‒नहीं, क्योंकि, वैर के संबंध से देवों अथवा दानवों के द्वारा कर्मभूमि से उठाकर लाये गये कर्मभूमिज तिर्यंचों का सब जगह सद्भाव होने में कोई विरोध नहीं आता, इसलिए वहाँ पर तिर्यंचों के पाँचों गुणस्थान बन जाते हैं। ( धवला 4/1,4,8/169/7 ); ( धवला 6/1,9,9,20/426/10 )।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.11" id="2.11"> ढाई द्वीप से बाहर क्षायिक सम्यक्त्व की उत्पत्ति क्यों नहीं</strong> </span><br /> | ||
धवला 6/1,9-8,11/244/2 <span class="PrakritText">अढाइज्जा...दीवेसु दंसणमोहणीयकम्मस्स खवणमाढवेदि त्ति, णो सेसदीवेसु। कुदो। सेसदीवट्ठिदजीवाणं तक्खवणसत्तीए अभावादो। लवण-कालोदइसण्णिदेसु दोसु समुद्देसु दंसणमोहणीयं कम्मं खवेंति, णो सेससमुद्देसु, तत्थ सहकारिकारणाभावा।...‘जम्हि जिणा तित्थयत’ त्ति विसेसणेण पडिसिद्धत्तादो।</span>=<span class="HindiText">अढाई द्वीपों में ही दर्शनमोहनीय कर्म के क्षपण को आरंभ करता है, शेष द्वीपों में नहीं। इसका कारण यह है कि शेष द्वीपों में स्थित जीवों के दर्शन मोहनीय कर्म के क्षपण की शक्ति का अभाव होता है। लवण और कालोदक संज्ञावाले दो समुद्रों में जीव दर्शनमोहनीयकर्म का क्षपण करते हैं, शेष समुद्रों में नहीं, क्योंकि उनमें दर्शनमोह के क्षपण करने के सहकारी कारणों का अभाव है।...‘जहाँ जिन तीर्थंकर संभव हैं’ इस विशेषण के द्वारा उसका प्रतिषेध कर दिया गया है।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.12" id="2.12"> कर्मभूमिया तिर्यंचों में क्षायिक सम्यक्त्व क्यों नहीं</strong></span><br /> | ||
धवला 6/1,9-8,11/245/1 <span class="PrakritText">कम्मभूमीसु टि्ठद-देव-मणुसतिरिक्खाणं सव्वेसिं पि गहणं किण्ण पावेदि त्ति भणिदे ण पावेदि, कम्मभूमीसुप्पण्णमणुस्साणमुवयारेण कम्मभूमीववदेसादो। तो वि तिरिक्खाणं गहणं पावेदि, तेसिं तत्थ वि उप्पत्तिसंभवादो। ण, जेसिं तत्थेव उप्पत्तो, ण अण्णत्थ संभवो अत्थि, तेसिं चेव मणुस्साणं पण्णारसकम्मभूमिववएसो, ण तिरिक्खाणं सयंपहपव्वदपरभागे उप्पज्जणेण सव्वहिचाराणं। </span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>‒(सूत्र में तो) ‘पंद्रह ‘कर्मभूमियों में’ ऐसा सामान्य पद कहने पर कर्मभूमियों में स्थित, देव मनुष्य और तिर्यंच, इन सभी का ग्रहण क्यों नहीं प्राप्त होता है? <strong>उत्तर</strong>‒नहीं प्राप्त होता है, क्योंकि, कर्मभूमियों में उत्पन्न हुए मुनष्यों की उपचार से ‘कर्मभूमि’ यह संज्ञा दी गयी है। <strong>प्रश्न</strong>‒यदि कर्मभूमि में उत्पन्न हुए जीवों को ‘कर्मभूमि’ यह संज्ञा है, तो भी तिर्यंचों का ग्रहण प्राप्त होता है, क्योंकि, उनकी भी कर्मभूमि में उत्पत्ति संभव है? <strong>उत्तर</strong>‒नहीं, क्योंकि, जिनकी वहाँपर ही उत्पत्ति होती है, और अन्यत्र उत्पत्ति संभव नहीं है, उनही मनुष्यों के पंद्रह कर्मभूमियों का व्यपदेश किया गया है, न कि स्वयंप्रभ पर्वत के परभाग में उत्पन्न होने से व्यभिचार को प्राप्त तिर्यंचों के।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3" id="3"> तिर्यंच लोक निर्देश</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1">तिर्यंच लोक सामान्य निर्देश</strong> </span><br /> | ||
सर्वार्थसिद्धि/4/19/250/12 <span class="SanskritText">बाहल्येन तत्प्रमाणस्तिर्यक्प्रसृतस्तिर्यग्लोक:।</span> =<span class="HindiText">मेरु पर्वत की जितनी ऊँचाई है, उतना मोटा और तिरछा फैला हुआ तिर्यग्लोक है।</span><br /> | |||
तिलोयपण्णत्ति/5/6-7 <span class="PrakritGatha">मंदरगिरिमूलादो इगिलक्खं जोयणाणि बहलम्मि। रज्जूय पदरखेत्ते चिट्ठेदि तिरियतसलोओ।6। पणुवीसकोडाकोडीपमाण उद्धारपल्लरोमसमा। दिओवहीणसंखा तस्सद्धं दीवजलणिही कमसो।7।</span>=<span class="HindiText">मंदर पर्वत के मूल से एक लाख योजन बाहल्य रूप राजुप्रतर अर्थात् एक राजू लंबे चौड़े क्षेत्र में तिर्यक्त्रस लोक स्थित है।6। पच्चीस कोड़ाकोड़ी उद्धार पल्यों के रोमों के प्रमाण द्वीप व समुद्र दोनों की संख्या है। इसकी आधी क्रमश: द्वीपों की और आधी समुद्रों की संख्या है। ( गोम्मटसार जीवकांड/ भाषा/543/945/18)।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2"> तिर्यग्लोक के नाम का सार्थक्य</strong></span><br /> | ||
राजवार्तिक/3/7/ उत्थानिका/169/9 <span class="SanskritText">कुत: पुनरियं तिर्यग्लोकसंज्ञा प्रवृत्तेति। उच्यते‒यतोऽसंख्येया: स्वयंभूरमणपर्यंतास्तिर्यक्प्रचयविशेषणावस्थिता द्वीपसमुद्रास्तत: तिर्यग्लोक इति।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>‒इसको तिर्यक्लोक क्यों कहते हैं? <strong>उत्तर</strong>‒चूँकि स्वयंभूरमण पर्यंत असंख्यात द्वीप समुद्र तिर्यक्-समभूमि पर तिरछे व्यवस्थित हैं अत: इसको तिर्यक् लोक कहते हैं।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.3" id="3.3">तिर्यंच लोक की सीमा व विस्तार संबंधी दृष्टि भेद</strong><br /> | ||
धवला 3/1,2,4/34/4 का विशेषार्थ-कितने ही आचार्यों का ऐसा मत है कि स्वयंभूरमण समुद्र की बाह्य वेदिका पर जाकर रज्जू समाप्त होती है। तथा कितने ही आचार्यों का ऐसा मत है कि असंख्यात द्वीपों और समुद्रों की चौड़ाई से रुके हुए क्षेत्र से संख्यात गुणे योजन जाकर रज्जू की समाप्ति होती है। स्वयं वीरसेन स्वामी ने इस मत को अधिक महत्त्व दिया है। उनका कहना है कि ज्योतिषियों के प्रमाण को लाने के लिए 256 अंगुल के वर्ग प्रमाण जो भागाहार बतलाया है उससे यही पता चलता है कि स्वयंभूरमण समुद्र से संख्यातगुणे योजन जाकर मध्यलोक की समाप्ति होती है।</span><br /> | |||
धवला 4/1,3,3/41/8 <span class="PrakritText"> तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे तिरियलोगो होदि त्ति के वि आइरिया भणंति। तं ण घडदे।</span> =<span class="HindiText">तीनों लोकों के असंख्यातवें भाग क्षेत्र में तिर्यक् लोक है। ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं, परंतु उनका इस प्रकार कहना घटित नहीं होता।</span><br /> | |||
धवला 11/4,2,5,8/17/4 <span class="PrakritText"> सयंभूरमणसमुद्दस्स बाहिरिल्लतडो णाम तदवयवभूदबाहिरवेइयाए, तत्थ महामच्छो अच्छिदो त्ति के वि आइरिया भणंति। तण्ण घडदे, ‘कायलेस्सियाए लग्गो‘ त्ति उवरि भण्णमाणसुत्तेण सह विरोहादो। ण च सयंभूरमणसमुद्दबाहिरवेइयाए संबद्धा तिण्णि वि वादवलया, तिरियलोयविक्खंभस्स एगरज्जुपमाणादोऊणत्तप्पसंगादो।</span> =<span class="HindiText">स्वयंभूरमण समुद्र के बाह्य तट का अर्थ उसकी अंगभूत बाह्य वेदिका है, वहाँ स्थित महामत्स्य ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं, किंतु वह घटित नहीं होता क्योंकि ऐसा स्वीकार करने पर ...तनुवातवलय से संलग्न हुआ’ इस सूत्र के साथ विरोध आता है। कारण कि स्वयंभूरमणसमुद्र की बाह्य वेदिका से तीनों ही वातवलय संबद्ध नहीं है, क्योंकि वैसा मानने पर तिर्यग्लोक संबंधी विस्तार प्रमाण के एक राजू से हीन होने का प्रसंग आता है।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.4" id="3.4"> विकलेंद्रिय जीवों का अवस्थान</strong> </span><br /> | ||
हरिवंशपुराण/5/633 <span class="SanskritGatha">मानुषोत्तरपर्यंता जंतवो विकलेंद्रिया:। अंत्यद्वीपर्द्धत: संति परस्तात्ते यथा परे।633। </span>= <span class="HindiText">इस ओर विकलेंद्रिय जीव मानुषोत्तर पर्वत तक ही रहते हैं। उस ओर स्वयंभूरमण द्वीप के अर्धभाग से लेकर अंत तक पाये जाते हैं।633।</span><br /> | |||
धवला 4/1,3,2/33/2 <span class="PrakritText">भोगभूमीसु पुण विगलिंदिया णत्थि। पंचिंदिया वि तत्थ सुट्ठु थोवा, सुहकम्माइ जीवाणं बहुणामसंभवादो।</span> =<span class="HindiText">भोगभूमि में तो विकलत्रय जीव नहीं होते हैं, और वहाँ पर पंचेंद्रिय जीव भी स्वल्प होते हैं, क्योंकि शुभकर्म की अधिकता वाले बहुत जीवों का होना असंभव है।</span><br /> | |||
कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका/142 <span class="PrakritText"> वि-ति चउरक्खा जीवा हवंति णियमेण कम्मभूमीसु। चरिमे दीवे अद्धो चरम-समुद्दे वि सव्वेसु।142।</span> =<span class="HindiText">दो इंद्रिय, तेइंद्रिय और चौइंद्रिय जीव नियम से कर्मभूमि में ही होते हैं। तथा अंत के आधे द्वीप में और अंत के सारे समुद्र में होते हैं।142।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.5" id="3.5">पंचेंद्रिय तिर्यंचों का अवस्थान</strong></span><br /> | ||
धवला 7/2,7,19/379/3 <span class="PrakritText">अधवा सव्वेसु-दीव-समुद्देसु पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्ता होंति। कुदो। पुव्ववइरियदेवसंबंधेण कम्मभूमिपडिभागुप्पण्णपंचिंदियतिरिक्खाणं एगबंधणबद्धछज्जीवणिकाओगाढ ओरालिय देहाणं सव्वदीवसमुद्देसु पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्ता होंति।</span> =<span class="HindiText">अथवा सभी द्वीप समुद्रों में पंचेंद्रिय तिर्यंच अपर्याप्त जीव होते हैं, क्योंकि, पूर्व के वैरी देवों के संबंध से एक बंधन में बद्ध छह जीवनिकायों से व्याप्त औदारिक शरीर को धारण करने वाले कर्मभूमि प्रतिभाग में उत्पन्न हुए पंचेंद्रिय तिर्यंचों का सर्व समुद्रों में अवस्थान देखा जाता है।<br /> | |||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="3.6" id="3.6"> जलचर जीवों का अवस्थान</strong> </span><br /> | ||
मू.आ./ | मू.आ./1081<span class="PrakritGatha"> लवणु कालसमुद्दे सयंभूरमणे य होंति मच्छा दु। अवसेसेसु समुद्देसु णत्थि मच्छा य मयरा वा।1081। </span>=<span class="HindiText">लवणसमुद्र और कालसमुद्र तथा स्वयंभूरमण समुद्र में तो जलचर आदि जीव रहते हैं, और शेष समुद्रों में मच्छ-मगर आदि कोई भी जलचर जीव नहीं रहता है। ( तिलोयपण्णत्ति/5/31 ); ( राजवार्तिक/3/32/8/194/18 ); ( हरिवंशपुराण/5/630 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/91 ); ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा 144 )</span><br /> | ||
तिलोयपण्णत्ति/4/1773 ...। <span class="PrakritText">भोगवणीण णदीओ सरपहुदी जलयरविहीणा। </span>=<span class="HindiText">भोगभूमियों की नदियाँ, तालाब आदिक जलचर जीवों से रहित हैं।1773।<br></span> धवला 6/1,9-9,20/426/10 <span class="PrakritText">णत्थि मच्छा वा मगरा वा त्ति जेण तसजीवपडिसेहो भोगभूमिपडिभागिएसु समुद्देसु कदो, तेण तत्थ पढमसम्मत्तस्स उप्पत्ती ण जुज्जुत्ति त्ति। ण एस दोसो, पुव्ववइरियदेवेहि खित्तपंचिंदियतिरिक्खाणं तत्थ संभवादो।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong>‒चूँकि ‘भोगभूमि के प्रतिभागी समुद्रों में मत्स्य या मगर नहीं है’ ऐसा वहाँ त्रस जीवों का प्रतिषेध किया गया है, इसलिए उन समुद्रों में प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति मानना उपयुक्त नहीं है? <strong>उत्तर</strong>‒यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, पूर्व के वैरी देवों के द्वारा उन समुद्रों में डाले गये पंचेंद्रिय तिर्यंचों की संभावना है।</span><br /> | |||
त्रिलोकसार/320 <span class="PrakritGatha">जलयरजीवा लवणे कालेयंतिमसयंभुरमणे य। कम्ममही पडिबद्धे ण हि सेसे जलयरा जीवा।320।</span> =<span class="HindiText">जलचर जीव लवण समुद्रविषै बहुरि कालोदक विषैं बहुरि अंत का स्वयंभूरमण विषैं पाइये हैं। जातै ये तीन समुद्र कर्मभूमि संबंधी हैं। बहुरि अवशेष सर्व समुद्र भोगभूमि संबंधी हैं। भोगभूमि विषैं जलचर जीवों का अभाव है। तातै इन तीन बिना अन्य समुद्र विषै जलचर जीव नाहीं। </span></li> | |||
<li | <li class="HindiText"><strong name="3.7" id="3.7"> वैरी जीवों के कारण विकलत्रय सर्वत्र तिर्यक् लोक में होते हैं</strong> </span><br /> | ||
धवला 4/1,4,59/243/8 <span class="PrakritText">सेसपदेहि वइरिसंबधेण विगलिंदिया सव्वत्थ तिरियपदरब्भंतरे होंति त्ति।</span> =<span class="HindiText">वैरी जीवों के संबंध से विकलेंद्रिय जीव सर्वत्र तिर्यक्प्रतर के भीतर ही होते हैं।</span><br /> | |||
धवला 7/2,7,62/397/4 <span class="PrakritText"> अधवा पुव्ववेरियदेवपओगेण भोगभूमि पडिभागदीव-समुद्दे पदिदतिरिक्खकलेवरेसु तस अपज्जत्ताणमुप्पत्ती अत्थि त्ति भणंताणमहिप्पाएण। </span>=<span class="HindiText">[विकलेंद्रिय अपर्याप्त जीवों का अवस्थान क्षेत्र स्वयंप्रभपर्वत के परभाग में ही है क्योंकि भोगभूमि प्रतिभाग में उनकी उत्पत्ति का अभाव है] अथवा पूर्व वैरी के प्रयोग से भोगभूमि प्रतिभागरूप द्वीप समुद्रों में पड़े हुए तिर्यंच शरीरों में त्रस अपर्याप्तों की उत्पत्ति होती है ऐसा कहने वाले आचार्यों के अभिप्राय से...।</span></li> | |||
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Latest revision as of 15:10, 27 November 2023
पशु, पक्षी, कीट, पतंग यहाँ तक कि वृक्ष, जल, पृथिवी, व निगोद जीव भी तिर्यंच कहलाते हैं। एकेंद्रिय से पंचेंद्रिय पर्यंत अनेक प्रकार के कुछ जलवासी कुछ थलवासी और कुछ आकाशचारी होते हैं। इनमें से असंज्ञी पर्यंत सब सम्मूर्छिम व मिथ्यादृष्टि होते हैं। परंतु संज्ञी तिर्यंच सम्यक्त्व व देशव्रत भी धारण कर सकते हैं। तिर्यंचों का निवास मध्य लोक के सभी असंख्यात द्वीप समुद्रों में है। इतना विशेष है कि अढाई द्वीप से आगे के सभी समुद्रों में जल के अतिरिक्त अन्य कोई जीव नहीं पाये जाते और उन द्वीपों में विकलत्रय नहीं पाये जाते। अंतिम स्वयंभूरमण सागर में अवश्य संज्ञी पंचेंद्रिय तिर्यंच पाये जाते हैं। अत: यह सारा मध्यलोक तिर्यक लोक कहलाता है।
- भेद व लक्षण
- तिर्यंच सामान्य का लक्षण।
- जलचरादि की अपेक्षा तिर्यंचों के भेद।
- गर्भजादि की अपेक्षा तिर्यंचों के भेद।
- मार्गणा की अपेक्षा तिर्यचों के भेद।
- जीव समासों की अपेक्षा तिर्यचों के भेद।–देखें जीव समास ।
- सम्मूर्च्छिम तिर्यंच।–देखें सम्मूर्च्छन ।
- महामत्स्य की विशाल काय।–देखें सम्मूर्च्छन ।
- भोगभूमिया तिर्यंच निर्देश।–देखें भूमि - 8।
- तिर्यंच सामान्य का लक्षण।
- तिर्यंचों में सम्यक्त्व व गुणस्थान निर्देश व शंकाएँ
- तिर्यंचगति में सम्यक्त्व का स्वामित्व।
- औपशमिकादि सम्यक्त्व का स्वामित्व।–देखें सम्यग्दर्शन - IV।
- जन्म के पश्चात् सम्यक्त्व ग्रहण की योग्यता।–देखें सम्यग्दर्शन - IV.2.5।
- जन्म के पश्चात् संयम ग्रहण की योग्यता–देखें संयम - 2।
- तिर्यंचों में गुणस्थानों का स्वामित्व।
- गति-अगति में समय सम्यक्त्व व गुणस्थान।–देखें जन्म - 6।
- स्त्री, पुरुष व नपुंसकवेदी तिर्यचों संबंधी।–देखें वेद ।
- क्षायिक सम्यग्दृष्टि संयतासंयत मनुष्य ही होय तिर्यच नहीं।
- तिर्यंच संयतासंयतों में क्षायिक सम्यक्त्व क्यों नहीं।
- तिर्यंचनी में क्षायिक सम्यक्त्व क्यों नहीं।
- अपर्याप्त तिर्यंचिनी में सम्यक्त्व क्यों नहीं।
- पर्याप्तापर्याप्त तिर्यंच।–देखें पर्याप्ति ।
- अपर्याप्त तिर्यंचों में सम्यक्त्व कैसे संभव है।
- अपर्याप्त तिर्यंचों में संयमासंयम क्यों नहीं।
- तिर्यंचायु के बंध होने पर अणुव्रत नहीं होते।–देखें आयु - 6।
- तिर्यंचायु के बंध योग्य परिणाम।–देखें आयु - 3।
- तिर्यंच संयत क्यों नहीं होते।
- सर्व द्वीप समुद्रों में सम्यग्दृष्टि व संयतासंयत तिर्यंच कैसे संभव हैं।
- ढाई द्वीप से बाहर सम्यक्तव की उत्पत्ति क्यों नहीं।
- कर्मभूमिया तिर्यंचों में क्षायिक सम्यक्त्व क्यों नहीं।
- तिर्यंच गति के दु:ख।–देखें भगवती आराधना - 1581-1587 ।
- तिर्यंचों में संभव वेद, कषाय, लेश्या व पर्याप्ति आदि।–देखें वह वह नाम ।
- कौन तिर्यंच मरकर कहाँ उत्पन्न हो और क्या गुण प्राप्त करे।–देखें जन्म - 6।
- तिर्यंच गति में 14 मार्गणाओं के अस्तित्व संबंधी 20 प्ररूपणाएँ।–देखें सत् ।
- तिर्यंच गति में सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव व अल्प-बहुत्व रूप आठ प्ररूपणाएँ–देखें वह वह नाम ।
- तिर्यंच गति में कर्मों का बंध उदय व सत्त्व प्ररूपणाएँ व तत्संबंधी नियमादि।–देखें वह वह नाम ।
- तिर्यंच गति व आयुकर्म की प्रकृतियों के बंध, उदय, सत्त्व प्ररूपणाएँ व तत्संबंधी नियमादि।–देखें वह वह नाम ।
- भाव मार्गणा की इष्टता तथा उसमें भी आय के अनुसार ही व्यय होने का नियम।–देखें मार्गणा ।
- तिर्यंचगति में सम्यक्त्व का स्वामित्व।
- तिर्यंच लोक निर्देश
- तिर्यंच लोक सामान्य निर्देश।
- तिर्यंच लोक के नाम का सार्थक्य।
- तिर्यंच लोक की सीमा व विस्तार संबंधी दृष्टि भेद।
- विकलेंद्रिय जीवों का अवस्थान।
- पंचेंद्रिय तिर्यंचों का अवस्थान।
- जलचर जीवों का अवस्थान।
- कर्म व भोग भूमियों में जीवों का अवस्थान–देखें भूमि ।
- तैजस कायिकों के अवस्थान संबंधी दृष्टि भेद।–देखें काय - 2.5।
- मारणांतिक समुद्घातगत महामत्स्य संबंधी भेद दृष्टि।–देखें मरण - 5.6।
- वैरी जीवों के कारण विकलत्रय सर्वत्र तिर्यक् लोक में होते हैं।
- तिर्यंच लोक सामान्य निर्देश।
- भेद व लक्षण
- तिर्यंच सामान्य का लक्षण
तत्त्वार्थसूत्र/4/27 औपपादिकमनुष्येंभ्य: शेषास्तिर्यग्योनय:।27। =उपपाद जन्मवाले और मनुष्यों के सिवा शेष सब जीव तिर्यंचयोनि वाले हैं।27।
धवला 1/1,1,24/ गा.129/202 तिरियंति कुडिल-भावं सुवियड-सण्णाणिगिट्ठमण्णाणा। अच्चंत-पाव-बहुला तम्हा तेरिच्छया णाम। =जो मन, वचन और काय की कुटिलता को प्राप्त हैं, जिनकी आहारादि संज्ञाएँ सुव्यक्त हैं, जो निकृष्ट अज्ञानी हैं और जिनके अत्यधिक पाप की बहुलता पायी जावे उनको तिर्यंच कहते हैं।129। (प.सं./प्रा./1/61); ( गोम्मटसार जीवकांड/148 )।
राजवार्तिक/4/27/3/245 तिरोभावो न्यग्भाव: उपबाह्यत्वमित्यर्थ:, तत: कर्मोदयापादितभावा तिर्यग्योनिरित्याख्यायते। तिरंचियोनिर्येषां ते तिर्यग्योनय:। =तिरोभाव अर्थात् नीचे रहना-बोझा ढोने के लायक। कर्मोदय से जिनमें तिरोभाव प्राप्त हो वे तिर्यग्योनि हैं।
धवला/13/5,5,140/392/2 तिर: अंचंति कौटिल्यमिति तिर्यंच:। ‘तिर:’ अर्थात् कुटिलता को प्राप्त होते हैं वे तिर्यंच कहलाते हैं।
- जलचर आदि की अपेक्षा तिर्यंचों के भेद
राजवार्तिक/3/39/5/209/30 पंचेंद्रिया: तैर्यग्योनय: पंचविधा:–जलचरा:, परिसर्पा:, उरगा:, पक्षिण:, चतुष्पादश्चेति। =पंचेंद्रिय तिर्यंच पाँच प्रकार के होते हैं–जलचर-(मछली आदि), परिसर्प (गोनकुलादि); उरग-सर्प; पक्षी, और चतुष्पद।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/118/181/11 पृथिव्याद्येकेंद्रियभेदेन शंबूकयूकोद्दंशकादिविकलेंद्रियभेदेन जलचरस्थलचरखचरद्विपदचतु:पदादिपंचेंद्रियभेदेन तिर्यंचो बहुप्रकारा:। =तिर्यंचगति के जीव पृथिवी आदि एकेंद्रिय के भेद से; शंबूक, जूँ व मच्छर आदि विकलेंद्रिय के भेद से; जलचर, स्थलचर, आकाशचर, द्विपद, चतुष्पदादि पंचेंद्रिय के भेद से बहुत प्रकार के होते हैं।
- गर्भजादि की अपेक्षा तिर्यचों के भेद
का.आ./129-130 पंचक्खा वि य तिविहा जल-थल-आयासगामिणो तिरिया। पत्तेयं ते दुविहा मगेण जुत्ता अजुत्ता या।129। ते वि पुणो वि य दुविहा गब्भजजम्मा तहेव संमुच्छा। भोगभुवा गब्भ-भुवा थलयर-णह-गामिणो सण्णी।130।=पंचेंद्रिय तिर्यंच जीवों के भी तीन भेद हैं–जलचर, थलचर और नभचर। इन तीनों में से प्रत्येक के दो-दो भेद हैं–सैनी और असैनी।129। इन छह प्रकार के तिर्यंचों के भी दो भेद हैं–गर्भज, दूसरा सम्मूर्छिम जन्मवाले...।
- मार्गणा की अपेक्षा तिर्यंचों के भेद
धवला 1/1,1,26/208/3 तिर्यंच: पंचविधा:, तिर्यंच: पंचेंद्रियतिर्यंच:, पंचेंद्रिय पर्याप्त तिर्यंच, पंचेंद्रियपर्याप्ततिरश्च्य:। पंचेंद्रियापर्याप्ततिर्यंच इति। =तिर्यंच पाँच प्रकार के होते हैं–सामान्य तिर्यंच, पंचेंद्रिय तिर्यंच, पंचेंद्रियपर्याप्ततिर्यंच, पंचेंद्रिय पर्याप्त-योनिमती, पंचेंद्रिय-अपर्याप्त-तिर्यंच। ( गोम्मटसार जीवकांड/150 )।
- तिर्यंच सामान्य का लक्षण
- तिर्यंचों में सम्यक्त्व व गुणस्थान निर्देश व शंकाएँ
- तिर्यंच गति में सम्यक्तव का स्वामित्व
षट्खंडागम/1/1,1,/ सू.156-161/401 तिरिक्ख अत्थि मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठी असंजदसम्माइट्ठी संजदासंजदा त्ति।156। एवं जाव सव्व दीव-समुद्देसु।157। तिरिक्खा असंजदसम्माइट्ठि-ट्ठाणे अत्थि खइयसम्माइट्ठी वेदगसम्माइट्ठी उवसमसम्माइट्ठी।158। तिरिक्खा संजदासंजदट्ठाणे खइयसम्माइट्ठी णत्थि अवसेसा अत्थि।159। एवं पंचिंदियातिरिक्खा-पज्जत्ता।160। पंचिंदिय-तिरिक्ख-जोणिणीसु असंजदसम्माइट्ठी-संजदासंजदट्ठाणे खइयसम्माइट्ठी णत्थि, अवसेसा अत्थि।161।=तिर्यंच मिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयत सम्यग्दृष्टि और संयतासंयत होते हैं।156। इस प्रकार समस्त द्वीप-समुद्रवर्ती तिर्यंचों में समझना चाहिए।157। तिर्यंच असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में क्षायिक सम्यग्दृष्टि, वेदक सम्यग्दृष्टि और उपशम सम्यग्दृष्टि होते हैं।158। तिर्यंच संयतासंयत गुणस्थान में क्षायिक सम्यग्दृष्टि नहीं होते हैं। शेष के दो सम्यग्दर्शनों से युक्त होते हैं।159। इसी प्रकार पंचेंद्रिय तिर्यंच और पंचेंद्रिय पर्याप्त तिर्यंच भी होते हैं।160। योनिमती पंचेंद्रिय तिर्यंचों के असंयत सम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थान में क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव नहीं होते हैं। शेष के दो सम्यग्दर्शनों से युक्त होते हैं।161।
- तिर्यचों में गुणस्थानों का स्वामित्व
षट्खंडागम 1/1,1/ सू.84-88/325 तिरिक्खा मिच्छाइट्ठि-सासणसम्माइट्ठि-असंजदसम्माइट्ठि-ट्ठाणे सिया पज्जत्ता, सिया अपज्जत्ता।84। सम्मामिच्छाइट्ठि-संजदासंजदट्ठाणे-णियमा पज्जत्ता।85। एवं पंचिंदिय-तिरिक्खापज्जत्ता।86। पंचिंदियतिरिक्ख-जोणिणीसु मिच्छाइट्ठिसासणसम्माइट्ठि-ट्ठाणे सिया पज्जत्तियाओ सिया अपज्जत्तियाओ।87। सम्मामिच्छाइट्ठि-असंजदसम्माइट्ठि-संजदासंजदट्ठाणे णियमा पज्जत्तियाओ।88। =तिर्यंच मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, और असंयत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान में पर्याप्त भी होते हैं अपर्याप्त भी होते हैं।84। तिर्यंच सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संयतासंयत गुणस्थान में नियम से पर्याप्तक होते हैं।85। तिर्यंच संबंधी सामान्य प्ररूपणा के समान पंचेंद्रिय तिर्यंच और पर्याप्त पंचेंद्रिय तिर्यंच भी होते हैं।86। योनिमती-पंचेंद्रिय-तिर्यंच मिथ्यादृष्टि और सासादन गुणस्थान में पर्याप्त भी होते हैं और अपर्याप्त भी होते हैं।87। योनिमती तिर्यंच सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयत सम्यग्दृष्टि और संयतासंयत गुणस्थान में नियम से पर्याप्तक होते हैं।88।
षट्खंडागम 1/1,1/ सू.26/207 तिरिक्खा पंचसु ट्ठाणेसु अत्थि मिच्छाइट्ठी सासणसम्माइट्ठी सम्मामिच्छाइट्ठि असंजदसम्माइट्ठी संजदासंजदा त्ति।26। =मिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयत सम्यग्दृष्टि और संयतासंयत इन पाँच गुणस्थानों में तिर्यंच होते हैं।26।
तिलोयपण्णत्ति/5/299-303 तेतीसभेदसंजुदतिरिक्खजीवाण सव्वकालम्मि। मिच्छत्तगुणट्ठाणं बोच्छं सण्णीण तं माणं।299। पणपणअज्जाखंडे भरहेरावदखिदिम्मि मिच्छत्तं। अवरे वरम्मि पण गुणठाणाणि कयाइदीसंति।300। पंचविदेहे सट्ठिसमण्णिदसदअज्जवखंडए तत्तो। विज्जाहरसेढीए बाहिरभागे सयंपहगिरीदो।301। सासणमिस्सविहीणा तिगुणट्ठाणाणि थोवकालम्मि। अवरे वरम्मि पण गुणठाणाइ कयाइ दीसंति।302। सव्वेसु वि भोगभुवे दो गुणठाणाणि थोवकालम्मि। दीसंति चउवियप्पं सव्व मिलिच्छम्मि मिच्छत्तं।303। =संज्ञी जीवों को छोड़ शेष तेतीस प्रकार के भेदों से युक्त तिर्यंच जीवों के सब काल में एक मिथ्यात्व गुणस्थान रहता है। संज्ञीजीव के गुणस्थान प्रमाण को कहते हैं।299। भरत और ऐरावत क्षेत्र के भीतर पाँच-पाँच आर्यखंडों में जघन्यरूप से एक मिथ्यात्व गुणस्थान और उत्कृष्ट रूप से कदाचित् पाँच गुणस्थान भी देखे जाते हैं।300। पाँच विदेहों के भीतर एक सौ आठ आर्यखंडों में विद्याधर श्रेणियों में और स्वयंप्रभ पर्वत के बाह्य भाग में सासादन एवं मिश्र गुणस्थान को छोड़ तीन गुणस्थान जघन्य रूप से स्तोक काल के लिए होते हैं। उत्कृष्ट रूप से पाँच गुणस्थान भी कदाचित् देखे जाते हैं।301-302। सर्व भोगभूमियों में दो गुणस्थान और स्तोक काल के लिए चार गुणस्थान देखे जाते हैं। सर्वम्लेच्छखंडों में एक मिथ्यात्व गुणस्थान ही रहता है।303।
धवला 1/1,1,26/208/6 लब्ध्यपर्याप्तेषु मिथ्यादृष्टिव्यतिरिक्तशेषगुणासंभवात् ...शेषेषु पंचापि गुणस्थानानि संति,...तिरश्चीप्वपर्याप्ताद्धायां मिथ्यादृष्टिसासादना एव संति, न शेषास्तत्र तन्निरूपकार्षाभावात् ।=लब्ध्यपर्याप्तकों में एक मिथ्यादृष्टि गुणस्थान को छोड़कर शेष गुणस्थान असंभव हैं...शेष चार प्रकार के तिर्यंचों में पाँचों ही गुणस्थान होते हैं।...तिर्यंचयोनियों के अपर्याप्त काल में मिथ्यादृष्टि और सासादन ये दो गुणस्थान वाले ही होते हैं, शेष तीन गुणस्थान वाले नहीं होते हैं। विशेष–देखें सत् ।
- क्षायिक सम्यग्दृष्टि संयतासंयत मनुष्य ही होते हैं तिर्यंच नहीं
धवला 8/3,278/363/10 तिरिक्खेसु खइयसम्माइट्ठीसु संजदासंजदाणमणुवलंभादो। =तिर्यंच क्षायिक सम्यग्दृष्टियों में संयतासंयत जीव पाये नहीं जाते।
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/329/471/5 क्षायिकसम्यग्दृष्टिर्देशसंयतो मनुष्य एव तत: कारणात्तत्र तिर्यगायुरुद्योतस्तिर्यग्गतिश्चेति त्रीण्युदये न संति। =क्षायिक सम्यग्दृष्टि देशसंयत मनुष्य ही होता है, इसलिए तिर्यगायु, उद्योत, तिर्यग्गति, पंचम गुणस्थान विषै नाहीं।
- तिर्यंच संयतासंयतों में क्षायिक सम्यक्त्व क्यों नहीं
धवला 1/1,1,158/402/9 तिर्यक्षु क्षायिकसम्यग्दृष्टय: संयतासंयता: किमिति न संतीति चेन्न, क्षायिकसम्यग्दृष्टीनां भोगभूमिमंतरेणोत्पत्तेर भावात् । न च भोगभूमावुत्पन्नानामणुव्रतोपादानं संभवति तत्र तद्विरोधात् ।=प्रश्न–तिर्यंचों में क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव संयतासंयत क्यों नहीं होते हैं ? उत्तर–नहीं, क्योंकि, तिर्यंचों में यदि क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न होते हैं तो वे भोगभूमि में ही उत्पन्न होते हैं दूसरी जगह नहीं। परंतु भोगभूमि में उत्पन्न हुए जीवों के अणुव्रत की उत्पत्ति नहीं होती है, क्योंकि वहाँ पर अणुव्रत के होने पर आगम से विरोध आता है। ( धवला 1/1,1,85/327/1 ) ( धवला 2/1,1/482/2 )।
- तिर्यंचिनी में क्षायिक सम्यक्त्व क्यों नहीं
सर्वार्थसिद्धि/1/7/23/3 तिरश्चीनां क्षायिकं नास्ति। कृत इत्युक्ते मनुष्यकर्मभूमिज एव दर्शनमोहक्षपणाप्रारंभको भवति। क्षपणाप्रारंभकालात्पूर्बं तिर्यक्षु, बद्धायुष्कोऽपि उत्कृष्टभोगभूमितिर्यक्पुरुषेष्वेवोत्पद्यते न तिर्यक्स्त्रीषु द्रव्यवेदस्त्रीणां तासां क्षायिकासंभवात् । =तिर्यंचनियों में क्षायिक सम्यक्त्व नहीं होता है ? प्रश्न‒क्यों ? उत्तर‒कर्मभूमिज मनुष्य ही दर्शन मोह की क्षपणा प्रारंभ करता है। क्षपणा काल के प्रारंभ से पूर्व यदि कोई तिर्यंचायु बद्धायुष्क हो तो वह उत्कृष्ट भोगभूमि के पुरुषवेदी तिर्यंचों में ही उत्पन्न होता है, स्त्रीवेदी तिर्यंचों में नहीं। क्योंकि द्रव्य स्त्री वेदी तिर्यंचों के क्षायिक सम्यक्त्व की असंभावना है।
धवला 1/1,1,161/403/5 तत्र क्षायिकसम्यग्दृष्टीनामुत्पत्तेरभावात्तत्र दर्शनमोहनीयस्य क्षपणाभावाच्च। =योनिमति पंचेंद्रिय तिर्यंचों में क्षायिक सम्यग्दृष्टि जीव मरकर उत्पन्न नहीं होते। तथा उनमें दर्शन मोहनीय की क्षपणा का अभाव है।
- अपर्याप्त तिर्यंचिनी में सम्यक्त्व क्यों नहीं
धवला 1/1,1,26/209/5 भवतु नामसम्यग्दृष्टिसंयतासंयतानां तत्रासत्त्वं पर्याप्ताद्धायामेवेति नियमोपलंभात् । कथं पुनरसंयतसम्यग्दृष्टीनामसत्त्वमिति न, तत्रासंयतसम्यग्दृष्टीनामुत्पत्तेरभावात् ।=प्रश्न‒तिर्यंचनियों के अपर्याप्त काल में सम्यग्मिथ्यादृष्टि और संयतासंयत इन दो गुणस्थानवालों का अभाव रहा आवे, क्योंकि ये दो गुणस्थान पर्याप्त काल में ही पाये जाते हैं, ऐसा नियम मिलता है। परंतु उनके अपर्याप्त काल में असंयतसम्यग्दृष्टि जीवों का अभाव कैसे माना जा सकता है ? उत्तर‒नहीं, क्योंकि तिर्यंचनियों में असंयत सम्यग्दृष्टि की उत्पत्ति नहीं होती, इसलिए उनके अपर्याप्त काल में चौथा गुणस्थान नहीं पाया जाता है।
- अपर्याप्त तिर्यंच में सम्यक्त्व कैसे संभव है
धवला 1/1,1,84/325/4 भवतु नाम मिथ्यादृष्टिसासादनसम्यग्दृष्टीनां तिर्यक्षु पर्याप्तापर्याप्तद्वयो: सत्त्वं तयोस्तत्रोत्पत्यविरोधात् । सम्यग्दृष्टयस्तु पुनर्नोत्पद्यंते तिर्यगपर्याप्तपर्यायेण सम्यग्दर्शनस्य विरोधादिति। न विरोध:, अस्यार्षस्याप्रामाण्यप्रसंगात् । क्षायिकसम्यग्दृष्टि: सेविततीर्थकर: क्षपितसप्तप्रकृति: कथं तिर्यक्षु दु:खभूयस्सूत्पद्यते इति चेन्न, तिरंचां नारकेभ्यो दु:खाधिक्याभावात् । नारकेष्वपि सम्यग्दृष्टयो नोत्पत्स्यंत इति चेन्न, तेषां तत्रोत्पत्तिप्रतिपादकार्षोपलंभात् । किमिति ते तत्रोत्पद्यंत इति चेन्न, सम्यग्दर्शनोपादानात् प्राङ्मिथ्यादृष्टयवस्थायां बद्धतिर्यङ्नरकायुष्कत्वात् । सम्यग्दर्शनेन तत् किमिति न छिद्यते। इति चेत् किमिति तन्न छिद्यते। अपि तु न तस्य निर्मूलच्छेद:। तदपि कुत:। स्वाभाव्यात् ।=प्रश्न‒मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टि जीवों की तिर्यंचों संबंधी पर्याप्त और अपर्याप्त अवस्था में भले ही सत्ता रही आवे, क्योंकि इन दो गुणस्थानों की तिर्यंच संबंधी पर्याप्त और अपर्याप्त अवस्था में उत्पत्ति होने में कोई विरोध नहीं आता है। परंतु सम्यग्दृष्टि जीव तो तिर्यंचों में उत्पन्न नहीं होते हैं; क्योंकि तिर्यंचों की अपर्याप्त पर्याय के साथ सम्यग्दर्शन का विरोध है। उत्तर‒विरोध नहीं हैं, फिर भी यदि विरोध माना जावे तो ऊपर का सूत्र अप्रमाण हो जायेगा। प्रश्न‒जिसने तीर्थंकर की सेवा की है और जिसने मोहनीय की सात प्रकृतियों का क्षय कर दिया है ऐसा क्षायिक-सम्यग्दृष्टि जीव दु:ख बहुल तिर्यंचों में कैसे उत्पन्न होता है? उत्तर‒नहीं, क्योंकि तिर्यंचों के नारकियों की अपेक्षा अधिक दुख नहीं पाये जाते हैं। प्रश्न‒तो फिर नारकियों में भी सम्यग्दृष्टि जीव उत्पन्न नहीं होंगे ? उत्तर‒नहीं, क्योंकि, सम्यग्दृष्टियों की नारकियों में उत्पत्ति का प्रतिपादन करने वाला आगम प्रमाण पाया जाता है। प्रश्न‒सम्यग्दृष्टि जीव नारकियों में क्यों उत्पन्न होते हैं ? उत्तर‒नहीं, क्योंकि जिन्होंने सम्यग्दर्शन को ग्रहण करने के पहले मिथ्यादृष्टि अवस्था में तिर्यंचायु और नरकायु का बंध कर लिया है उनकी सम्यग्दर्शन के साथ वहाँ पर उत्पत्ति मानने में कोई आपत्ति नहीं आती है। प्रश्न‒सम्यग्दर्शन की सामर्थ्य से उस आयु का छेद क्यों नहीं हो जाता है ? उत्तर‒उसका छेद क्यों नहीं होता है? अवश्य होता है। किंतु उसका समूल नाश नहीं होता है। प्रश्न‒समूल नाश क्यों नहीं होता है? उत्तर‒आगे के भव के बाँधे हुए आयुकर्म का समूल नाश नहीं होता है, इस प्रकार का स्वभाव ही है।
धवला 2/1,1/481/1 मणुस्सा पुव्वबद्ध-तिरिक्खयुगा पच्छा सम्मत्तं घेत्तूण...खइयसम्माइट्ठी होदूण असंखेज्ज-वस्सायुगेसु तिरिक्खेसु उप्पज्जंति ण अण्णत्थ, तेण भोगभूमि-तिरिक्खेसुप्पज्जमाणं पेक्खिऊण असंजदसम्माइट्ठि-अप्पज्जत्तकाले खइयसम्मत्तं लब्भदि। तत्थ उप्पज्जमाण-कदकरणिज्जं पडुच्च वेदगसम्मत्तं लब्भदि। =(इन क्षायिक व क्षायोपशमिक) दो सम्यक्त्वों के (वहाँ) होने का कारण यह है कि जिन मनुष्यों ने सम्यग्दर्शन होने के पहले तिर्यंच आयु को बाँध लिया है वे पीछे सम्यक्त्व को ग्रहणकर...क्षायिक सम्यग्दृष्टि होकर असंख्यात वर्ष की आयुवाले तिर्यंचों में उत्पन्न होते हैं अन्यत्र नहीं। इस कारण भोगभूमि के तिर्यंचों में उत्पन्न होने वाले जीवों की अपेक्षा से असंयत सम्यग्दृष्टि के अपर्याप्त काल में क्षायिक सम्यक्त्व पाया जाता है। और उन्हीं भोगभूमि के तिर्यंचों में उत्पन्न होने वाले जीवों के कृतकृत्य वेदक की अपेक्षा वेदक सम्यक्त्व भी पाया जाता है।
- अपर्याप्त तिर्यंचों में संयमासंयम क्यों नहीं
धवला 1/1,1,85/326/5 मनुष्या: मिथ्यादृष्टयवस्थायां बद्धतिर्यगायुष: पश्चात्सम्यग्दर्शनेन सहात्ताप्रत्याख्याना: क्षपितसप्तप्रकृतयस्तिर्यक्षु किंनोत्पद्यंते। इति चेत् किंचातोऽप्रत्याख्यानगुणस्य तिर्यगपर्याप्तेषु सत्त्वापत्ति:। न, देवगतिव्यतिरिक्तगतित्रयसंबद्धायुषोपलक्षितानामणुव्रतोपादानबुद्धयनुत्पत्ते:। =प्रश्न‒जिन्होंने मिथ्यादृष्टि अवस्था में तिर्यंचायु का बंध करने के पश्चात् देशसंयम को ग्रहण कर लिया है और मोह की सात प्रकृतियों का क्षय कर दिया है ऐसे मनुष्य तिर्यंचों में क्यों नहीं उत्पन्न होते हैं ? यदि होते हैं तो इससे तिर्यंच अपर्याप्तों में देशसंयम के प्राप्त होने की क्या आपत्ति आती है? उत्तर‒नहीं, क्योंकि, देवगति को छोड़कर शेष तीन गति संबंधी आयुबंध से युक्त जीवों के अणुव्रत को ग्रहण करने की बुद्धि ही उत्पन्न नहीं होती है।
- तिर्यंच संयत क्यों नहीं होते
धवला 1/1,1,156/401/8 संन्यस्तशरीरत्वात्त्यक्ताहाराणां तिरश्चां किमिति संयमो न भवेदिति चेन्न, अंतरंगाया: सकलनिवृत्तेरभावात् । किमिति तदभावश्चेज्जातिविशेषात् । =प्रश्न‒शरीर से संन्यास ग्रहण कर लेने के कारण जिन्होंने आहार का त्याग कर दिया है ऐसे तिर्यंचों के संयम क्यों नहीं होता है? उत्तर‒नहीं, क्योंकि, आभ्यंतर सकल निवृत्ति का अभाव है। प्रश्न‒उसके आभ्यंतर सकल निवृत्ति का अभाव क्यों है ? उत्तर‒जिस जाति में वे उत्पन्न हुए हैं उसमें संयम नहीं होता यह नियम है, इसलिए उनके संयम नहीं पाया जाता है।
- सर्व द्वीपसमुद्रों में सम्यग्दृष्टि व संयतासंयत तिर्यंच कैसे संभव है
धवला 1/1,1,157/402/1 स्वयंप्रभादारान्मानुषोत्तरात्परतो भोगभूमिसमानत्वान्न तत्र देशव्रतिन: संति तत् एतत्सूत्रं न घटत इति न, वैरसंबंधेन देवैर्दानवैर्वोत्क्षिप्य क्षिप्तानां सर्वत्र सत्त्वाविरोधात् । =प्रश्न‒स्वयंभूरमण द्वीपवर्ती स्वयंप्रभ पर्वत के इस ओर और मानुषोत्तर पर्वत के उस ओर असंख्यात द्वीपों में भोगभूमि के समान रचना होने पर वहाँ पर देशव्रती नहीं पाये जाते हैं, इसलिए यह सूत्र घटित नहीं होता है? उत्तर‒नहीं, क्योंकि, वैर के संबंध से देवों अथवा दानवों के द्वारा कर्मभूमि से उठाकर लाये गये कर्मभूमिज तिर्यंचों का सब जगह सद्भाव होने में कोई विरोध नहीं आता, इसलिए वहाँ पर तिर्यंचों के पाँचों गुणस्थान बन जाते हैं। ( धवला 4/1,4,8/169/7 ); ( धवला 6/1,9,9,20/426/10 )।
- ढाई द्वीप से बाहर क्षायिक सम्यक्त्व की उत्पत्ति क्यों नहीं
धवला 6/1,9-8,11/244/2 अढाइज्जा...दीवेसु दंसणमोहणीयकम्मस्स खवणमाढवेदि त्ति, णो सेसदीवेसु। कुदो। सेसदीवट्ठिदजीवाणं तक्खवणसत्तीए अभावादो। लवण-कालोदइसण्णिदेसु दोसु समुद्देसु दंसणमोहणीयं कम्मं खवेंति, णो सेससमुद्देसु, तत्थ सहकारिकारणाभावा।...‘जम्हि जिणा तित्थयत’ त्ति विसेसणेण पडिसिद्धत्तादो।=अढाई द्वीपों में ही दर्शनमोहनीय कर्म के क्षपण को आरंभ करता है, शेष द्वीपों में नहीं। इसका कारण यह है कि शेष द्वीपों में स्थित जीवों के दर्शन मोहनीय कर्म के क्षपण की शक्ति का अभाव होता है। लवण और कालोदक संज्ञावाले दो समुद्रों में जीव दर्शनमोहनीयकर्म का क्षपण करते हैं, शेष समुद्रों में नहीं, क्योंकि उनमें दर्शनमोह के क्षपण करने के सहकारी कारणों का अभाव है।...‘जहाँ जिन तीर्थंकर संभव हैं’ इस विशेषण के द्वारा उसका प्रतिषेध कर दिया गया है।
- कर्मभूमिया तिर्यंचों में क्षायिक सम्यक्त्व क्यों नहीं
धवला 6/1,9-8,11/245/1 कम्मभूमीसु टि्ठद-देव-मणुसतिरिक्खाणं सव्वेसिं पि गहणं किण्ण पावेदि त्ति भणिदे ण पावेदि, कम्मभूमीसुप्पण्णमणुस्साणमुवयारेण कम्मभूमीववदेसादो। तो वि तिरिक्खाणं गहणं पावेदि, तेसिं तत्थ वि उप्पत्तिसंभवादो। ण, जेसिं तत्थेव उप्पत्तो, ण अण्णत्थ संभवो अत्थि, तेसिं चेव मणुस्साणं पण्णारसकम्मभूमिववएसो, ण तिरिक्खाणं सयंपहपव्वदपरभागे उप्पज्जणेण सव्वहिचाराणं। =प्रश्न‒(सूत्र में तो) ‘पंद्रह ‘कर्मभूमियों में’ ऐसा सामान्य पद कहने पर कर्मभूमियों में स्थित, देव मनुष्य और तिर्यंच, इन सभी का ग्रहण क्यों नहीं प्राप्त होता है? उत्तर‒नहीं प्राप्त होता है, क्योंकि, कर्मभूमियों में उत्पन्न हुए मुनष्यों की उपचार से ‘कर्मभूमि’ यह संज्ञा दी गयी है। प्रश्न‒यदि कर्मभूमि में उत्पन्न हुए जीवों को ‘कर्मभूमि’ यह संज्ञा है, तो भी तिर्यंचों का ग्रहण प्राप्त होता है, क्योंकि, उनकी भी कर्मभूमि में उत्पत्ति संभव है? उत्तर‒नहीं, क्योंकि, जिनकी वहाँपर ही उत्पत्ति होती है, और अन्यत्र उत्पत्ति संभव नहीं है, उनही मनुष्यों के पंद्रह कर्मभूमियों का व्यपदेश किया गया है, न कि स्वयंप्रभ पर्वत के परभाग में उत्पन्न होने से व्यभिचार को प्राप्त तिर्यंचों के।
- तिर्यंच गति में सम्यक्तव का स्वामित्व
- तिर्यंच लोक निर्देश
- तिर्यंच लोक सामान्य निर्देश
सर्वार्थसिद्धि/4/19/250/12 बाहल्येन तत्प्रमाणस्तिर्यक्प्रसृतस्तिर्यग्लोक:। =मेरु पर्वत की जितनी ऊँचाई है, उतना मोटा और तिरछा फैला हुआ तिर्यग्लोक है।
तिलोयपण्णत्ति/5/6-7 मंदरगिरिमूलादो इगिलक्खं जोयणाणि बहलम्मि। रज्जूय पदरखेत्ते चिट्ठेदि तिरियतसलोओ।6। पणुवीसकोडाकोडीपमाण उद्धारपल्लरोमसमा। दिओवहीणसंखा तस्सद्धं दीवजलणिही कमसो।7।=मंदर पर्वत के मूल से एक लाख योजन बाहल्य रूप राजुप्रतर अर्थात् एक राजू लंबे चौड़े क्षेत्र में तिर्यक्त्रस लोक स्थित है।6। पच्चीस कोड़ाकोड़ी उद्धार पल्यों के रोमों के प्रमाण द्वीप व समुद्र दोनों की संख्या है। इसकी आधी क्रमश: द्वीपों की और आधी समुद्रों की संख्या है। ( गोम्मटसार जीवकांड/ भाषा/543/945/18)।
- तिर्यग्लोक के नाम का सार्थक्य
राजवार्तिक/3/7/ उत्थानिका/169/9 कुत: पुनरियं तिर्यग्लोकसंज्ञा प्रवृत्तेति। उच्यते‒यतोऽसंख्येया: स्वयंभूरमणपर्यंतास्तिर्यक्प्रचयविशेषणावस्थिता द्वीपसमुद्रास्तत: तिर्यग्लोक इति। =प्रश्न‒इसको तिर्यक्लोक क्यों कहते हैं? उत्तर‒चूँकि स्वयंभूरमण पर्यंत असंख्यात द्वीप समुद्र तिर्यक्-समभूमि पर तिरछे व्यवस्थित हैं अत: इसको तिर्यक् लोक कहते हैं।
- तिर्यंच लोक की सीमा व विस्तार संबंधी दृष्टि भेद
धवला 3/1,2,4/34/4 का विशेषार्थ-कितने ही आचार्यों का ऐसा मत है कि स्वयंभूरमण समुद्र की बाह्य वेदिका पर जाकर रज्जू समाप्त होती है। तथा कितने ही आचार्यों का ऐसा मत है कि असंख्यात द्वीपों और समुद्रों की चौड़ाई से रुके हुए क्षेत्र से संख्यात गुणे योजन जाकर रज्जू की समाप्ति होती है। स्वयं वीरसेन स्वामी ने इस मत को अधिक महत्त्व दिया है। उनका कहना है कि ज्योतिषियों के प्रमाण को लाने के लिए 256 अंगुल के वर्ग प्रमाण जो भागाहार बतलाया है उससे यही पता चलता है कि स्वयंभूरमण समुद्र से संख्यातगुणे योजन जाकर मध्यलोक की समाप्ति होती है।
धवला 4/1,3,3/41/8 तिण्हं लोगाणमसंखेज्जदिभागे तिरियलोगो होदि त्ति के वि आइरिया भणंति। तं ण घडदे। =तीनों लोकों के असंख्यातवें भाग क्षेत्र में तिर्यक् लोक है। ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं, परंतु उनका इस प्रकार कहना घटित नहीं होता।
धवला 11/4,2,5,8/17/4 सयंभूरमणसमुद्दस्स बाहिरिल्लतडो णाम तदवयवभूदबाहिरवेइयाए, तत्थ महामच्छो अच्छिदो त्ति के वि आइरिया भणंति। तण्ण घडदे, ‘कायलेस्सियाए लग्गो‘ त्ति उवरि भण्णमाणसुत्तेण सह विरोहादो। ण च सयंभूरमणसमुद्दबाहिरवेइयाए संबद्धा तिण्णि वि वादवलया, तिरियलोयविक्खंभस्स एगरज्जुपमाणादोऊणत्तप्पसंगादो। =स्वयंभूरमण समुद्र के बाह्य तट का अर्थ उसकी अंगभूत बाह्य वेदिका है, वहाँ स्थित महामत्स्य ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं, किंतु वह घटित नहीं होता क्योंकि ऐसा स्वीकार करने पर ...तनुवातवलय से संलग्न हुआ’ इस सूत्र के साथ विरोध आता है। कारण कि स्वयंभूरमणसमुद्र की बाह्य वेदिका से तीनों ही वातवलय संबद्ध नहीं है, क्योंकि वैसा मानने पर तिर्यग्लोक संबंधी विस्तार प्रमाण के एक राजू से हीन होने का प्रसंग आता है।
- विकलेंद्रिय जीवों का अवस्थान
हरिवंशपुराण/5/633 मानुषोत्तरपर्यंता जंतवो विकलेंद्रिया:। अंत्यद्वीपर्द्धत: संति परस्तात्ते यथा परे।633। = इस ओर विकलेंद्रिय जीव मानुषोत्तर पर्वत तक ही रहते हैं। उस ओर स्वयंभूरमण द्वीप के अर्धभाग से लेकर अंत तक पाये जाते हैं।633।
धवला 4/1,3,2/33/2 भोगभूमीसु पुण विगलिंदिया णत्थि। पंचिंदिया वि तत्थ सुट्ठु थोवा, सुहकम्माइ जीवाणं बहुणामसंभवादो। =भोगभूमि में तो विकलत्रय जीव नहीं होते हैं, और वहाँ पर पंचेंद्रिय जीव भी स्वल्प होते हैं, क्योंकि शुभकर्म की अधिकता वाले बहुत जीवों का होना असंभव है।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका/142 वि-ति चउरक्खा जीवा हवंति णियमेण कम्मभूमीसु। चरिमे दीवे अद्धो चरम-समुद्दे वि सव्वेसु।142। =दो इंद्रिय, तेइंद्रिय और चौइंद्रिय जीव नियम से कर्मभूमि में ही होते हैं। तथा अंत के आधे द्वीप में और अंत के सारे समुद्र में होते हैं।142।
- पंचेंद्रिय तिर्यंचों का अवस्थान
धवला 7/2,7,19/379/3 अधवा सव्वेसु-दीव-समुद्देसु पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्ता होंति। कुदो। पुव्ववइरियदेवसंबंधेण कम्मभूमिपडिभागुप्पण्णपंचिंदियतिरिक्खाणं एगबंधणबद्धछज्जीवणिकाओगाढ ओरालिय देहाणं सव्वदीवसमुद्देसु पंचिंदियतिरिक्खअपज्जत्ता होंति। =अथवा सभी द्वीप समुद्रों में पंचेंद्रिय तिर्यंच अपर्याप्त जीव होते हैं, क्योंकि, पूर्व के वैरी देवों के संबंध से एक बंधन में बद्ध छह जीवनिकायों से व्याप्त औदारिक शरीर को धारण करने वाले कर्मभूमि प्रतिभाग में उत्पन्न हुए पंचेंद्रिय तिर्यंचों का सर्व समुद्रों में अवस्थान देखा जाता है।
- जलचर जीवों का अवस्थान
मू.आ./1081 लवणु कालसमुद्दे सयंभूरमणे य होंति मच्छा दु। अवसेसेसु समुद्देसु णत्थि मच्छा य मयरा वा।1081। =लवणसमुद्र और कालसमुद्र तथा स्वयंभूरमण समुद्र में तो जलचर आदि जीव रहते हैं, और शेष समुद्रों में मच्छ-मगर आदि कोई भी जलचर जीव नहीं रहता है। ( तिलोयपण्णत्ति/5/31 ); ( राजवार्तिक/3/32/8/194/18 ); ( हरिवंशपुराण/5/630 ); ( जंबूद्वीपपण्णत्तिसंगहो/11/91 ); ( कार्तिकेयानुप्रेक्षा 144 )
तिलोयपण्णत्ति/4/1773 ...। भोगवणीण णदीओ सरपहुदी जलयरविहीणा। =भोगभूमियों की नदियाँ, तालाब आदिक जलचर जीवों से रहित हैं।1773।
धवला 6/1,9-9,20/426/10 णत्थि मच्छा वा मगरा वा त्ति जेण तसजीवपडिसेहो भोगभूमिपडिभागिएसु समुद्देसु कदो, तेण तत्थ पढमसम्मत्तस्स उप्पत्ती ण जुज्जुत्ति त्ति। ण एस दोसो, पुव्ववइरियदेवेहि खित्तपंचिंदियतिरिक्खाणं तत्थ संभवादो। =प्रश्न‒चूँकि ‘भोगभूमि के प्रतिभागी समुद्रों में मत्स्य या मगर नहीं है’ ऐसा वहाँ त्रस जीवों का प्रतिषेध किया गया है, इसलिए उन समुद्रों में प्रथम सम्यक्त्व की उत्पत्ति मानना उपयुक्त नहीं है? उत्तर‒यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, पूर्व के वैरी देवों के द्वारा उन समुद्रों में डाले गये पंचेंद्रिय तिर्यंचों की संभावना है।
त्रिलोकसार/320 जलयरजीवा लवणे कालेयंतिमसयंभुरमणे य। कम्ममही पडिबद्धे ण हि सेसे जलयरा जीवा।320। =जलचर जीव लवण समुद्रविषै बहुरि कालोदक विषैं बहुरि अंत का स्वयंभूरमण विषैं पाइये हैं। जातै ये तीन समुद्र कर्मभूमि संबंधी हैं। बहुरि अवशेष सर्व समुद्र भोगभूमि संबंधी हैं। भोगभूमि विषैं जलचर जीवों का अभाव है। तातै इन तीन बिना अन्य समुद्र विषै जलचर जीव नाहीं। - वैरी जीवों के कारण विकलत्रय सर्वत्र तिर्यक् लोक में होते हैं
धवला 4/1,4,59/243/8 सेसपदेहि वइरिसंबधेण विगलिंदिया सव्वत्थ तिरियपदरब्भंतरे होंति त्ति। =वैरी जीवों के संबंध से विकलेंद्रिय जीव सर्वत्र तिर्यक्प्रतर के भीतर ही होते हैं।
धवला 7/2,7,62/397/4 अधवा पुव्ववेरियदेवपओगेण भोगभूमि पडिभागदीव-समुद्दे पदिदतिरिक्खकलेवरेसु तस अपज्जत्ताणमुप्पत्ती अत्थि त्ति भणंताणमहिप्पाएण। =[विकलेंद्रिय अपर्याप्त जीवों का अवस्थान क्षेत्र स्वयंप्रभपर्वत के परभाग में ही है क्योंकि भोगभूमि प्रतिभाग में उनकी उत्पत्ति का अभाव है] अथवा पूर्व वैरी के प्रयोग से भोगभूमि प्रतिभागरूप द्वीप समुद्रों में पड़े हुए तिर्यंच शरीरों में त्रस अपर्याप्तों की उत्पत्ति होती है ऐसा कहने वाले आचार्यों के अभिप्राय से...।
- तिर्यंच लोक सामान्य निर्देश