तेजस: Difference between revisions
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<li | <li class="HindiText"><strong> [[#1 | तैजस शरीर निर्देश]] </strong> <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong> [[#2 | तैजस समुद्घात निर्देश]] </strong> <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1" id="1"> तैजस शरीर निर्देश</strong><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1"> तैजस शरीर सामान्य का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> षट्खंडागम 14/5,6/ </span>सू.240/327<span class="PrakritText"> तेयप्पहगुणजुतमिदि तेजइयं। </span>=<span class="HindiText">तेज और प्रभा रूप गुण से युक्त है इसलिए तैजस है।240।</span><br /> | <span class="GRef"> षट्खंडागम 14/5,6/ </span>सू.240/327<span class="PrakritText"> तेयप्पहगुणजुतमिदि तेजइयं। </span>=<span class="HindiText">तेज और प्रभा रूप गुण से युक्त है इसलिए तैजस है।240।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/2/36/191/8 </span><span class="SanskritText">यत्तेजोनिमित्तं तेजसि वा भवं तत्तैजसम् । </span>=<span class="HindiText">जो दीप्ति का कारण है या तेज में उत्पन्न होता है उसे तैजस शरीर कहते हैं। | <span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/2/36/191/8 </span><span class="SanskritText">यत्तेजोनिमित्तं तेजसि वा भवं तत्तैजसम् । </span>=<span class="HindiText">जो दीप्ति का कारण है या तेज में उत्पन्न होता है उसे तैजस शरीर कहते हैं। <span class="GRef">( राजवार्तिक/2/36/8/146/11 )</span></span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/2/49/8/153/14 </span><span class="SanskritText"> शंखधवलप्रभालक्षणं तैजसम् ।</span>=<span class="HindiText">शंख के समान शुभ्र तैजस होता है।</span><br /> | <span class="GRef"> राजवार्तिक/2/49/8/153/14 </span><span class="SanskritText"> शंखधवलप्रभालक्षणं तैजसम् ।</span>=<span class="HindiText">शंख के समान शुभ्र तैजस होता है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 14/5,6,240/327/13 </span><span class="SanskritText">शरीरस्कंधस्य पद्मरागमणिवर्णस्तेज: शरीरान्निर्गतरश्मिकलाप्रभा, तत्र भवं तैजसं शरीरम् ।</span>=<span class="HindiText">शरीर स्कंध के पद्मराग मणि के समान वर्ण का नाम तेज है। तथा शरीर से निकली हुई रश्मि कला का नाम प्रभा है। इसमें जो हुआ है वह तैजस शरीर है। तेज और प्रभागुण से युक्त तैजस शरीर है यह उक्त कथन का तात्पर्य है।<br /> | <span class="GRef"> धवला 14/5,6,240/327/13 </span><span class="SanskritText">शरीरस्कंधस्य पद्मरागमणिवर्णस्तेज: शरीरान्निर्गतरश्मिकलाप्रभा, तत्र भवं तैजसं शरीरम् ।</span>=<span class="HindiText">शरीर स्कंध के पद्मराग मणि के समान वर्ण का नाम तेज है। तथा शरीर से निकली हुई रश्मि कला का नाम प्रभा है। इसमें जो हुआ है वह तैजस शरीर है। तेज और प्रभागुण से युक्त तैजस शरीर है यह उक्त कथन का तात्पर्य है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2"> तैजस शरीर के भेद</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 14/5,6,40/328/1 </span><span class="PrakritText"> तं तेजइयशरीरं णिस्सरणप्पयमणिस्सरणप्पयं चेदि दुविहं। तत्थ जं तं णिस्सरणप्पयं तं दुविहं–सुहमसुहं चेदि। </span>=<span class="HindiText">तैजस शरीर नि:सरणात्मक और अनि:सरणात्मक इस तरह दो प्रकार का है। | <span class="GRef"> धवला 14/5,6,40/328/1 </span><span class="PrakritText"> तं तेजइयशरीरं णिस्सरणप्पयमणिस्सरणप्पयं चेदि दुविहं। तत्थ जं तं णिस्सरणप्पयं तं दुविहं–सुहमसुहं चेदि। </span>=<span class="HindiText">तैजस शरीर नि:सरणात्मक और अनि:सरणात्मक इस तरह दो प्रकार का है। <span class="GRef">( राजवार्तिक/2/4/153/15 )</span> उसमें जो नि:सरणात्मक तैजस शरीर है वह दो प्रकार का है–शुभ और अशुभ। <span class="GRef">( धवला 4/1,3,2/27/7 )</span></span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 7/2,6,1/300/4 </span><span class="PrakritText">तेजासरीरं दुविहं पसत्थमप्पसत्थं चेदि।</span> =<span class="HindiText">तैजस शरीर प्रशस्त और अप्रशस्त के भेद से दो प्रकार का है।<br /> | <span class="GRef"> धवला 7/2,6,1/300/4 </span><span class="PrakritText">तेजासरीरं दुविहं पसत्थमप्पसत्थं चेदि।</span> =<span class="HindiText">तैजस शरीर प्रशस्त और अप्रशस्त के भेद से दो प्रकार का है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> अनि:सरणात्मक तैजस शरीर का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/2/49/8/153/15 </span><span class="SanskritText">औदारिकवैक्रियिकाहारकदेहाभ्यंतरस्थं देहस्य दीप्तिहेतुरनि:सरणात्मकम् ।</span> =<span class="HindiText">औदारिक, वैक्रियक और आहारक शरीर में रौनक लाने वाला अनि:सरणात्मक तैजस है।</span><br /> | <span class="GRef"> राजवार्तिक/2/49/8/153/15 </span><span class="SanskritText">औदारिकवैक्रियिकाहारकदेहाभ्यंतरस्थं देहस्य दीप्तिहेतुरनि:सरणात्मकम् ।</span> =<span class="HindiText">औदारिक, वैक्रियक और आहारक शरीर में रौनक लाने वाला अनि:सरणात्मक तैजस है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 14/5,6,240/328/8 </span><span class="PrakritText">जं तमणिस्सरणप्पयं तेजइयसरीरं तं भुत्तण्णपाणप्पाचयं होदूण अच्छदि अंतो।</span> =<span class="HindiText">जो अनि:सरणात्मक तैजस शरीर है वह भुक्त अन्नपान का पाचक होकर भीतर स्थित रहता है।<br /> | <span class="GRef"> धवला 14/5,6,240/328/8 </span><span class="PrakritText">जं तमणिस्सरणप्पयं तेजइयसरीरं तं भुत्तण्णपाणप्पाचयं होदूण अच्छदि अंतो।</span> =<span class="HindiText">जो अनि:सरणात्मक तैजस शरीर है वह भुक्त अन्नपान का पाचक होकर भीतर स्थित रहता है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.4" id="1.4"> तैजस शरीर तप द्वारा भी प्राप्त किया जा सकता है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/2/48,49 </span><span class="SanskritText">लब्धिप्रत्ययं च।48। तैजसमपि।49।</span> =<span class="HindiText">तैजस शरीर लब्धि से पैदा होता है।48-49।<br /> | <span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/2/48,49 </span><span class="SanskritText">लब्धिप्रत्ययं च।48। तैजसमपि।49।</span> =<span class="HindiText">तैजस शरीर लब्धि से पैदा होता है।48-49।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.5" id="1.5"> तैजस शरीर योग का निमित्त नहीं है</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/2/44/196/3 </span><span class="SanskritText">तैजसं शरीरं योगानिमित्तमपि न भवति।</span> =<span class="HindiText">तैजस शरीर योग में निमित्त नहीं होता। | <span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/2/44/196/3 </span><span class="SanskritText">तैजसं शरीरं योगानिमित्तमपि न भवति।</span> =<span class="HindiText">तैजस शरीर योग में निमित्त नहीं होता। <span class="GRef">( राजवार्तिक/2/44/3/251 )</span><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.6" id="1.6"> तैजस व कार्माण शरीर का सादि अनादिपना</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/2/41 </span><span class="SanskritText">अनादिसंबंधे च।41। </span>=<span class="HindiText">तैजस और कार्माण शरीर आत्मा के साथ अनादि संबंध वाले हैं।</span><br /> | <span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/2/41 </span><span class="SanskritText">अनादिसंबंधे च।41। </span>=<span class="HindiText">तैजस और कार्माण शरीर आत्मा के साथ अनादि संबंध वाले हैं।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/2/42/2-5/149 </span><span class="SanskritText">बंधसंतत्यपेक्षया अनादि: संबंध:। सादिश्च विशेषतो बीजवृक्षवत् ।2। एकांतेनादिमत्त्वे अभिनवशरीरसंबंधाभावो निर्निमित्तत्वात् ।3। मुक्तात्माभावप्रसंगश्च।4। एकांतेनानादित्वे चानिर्मोक्षप्रसंग।5। ...तस्मात् साधूक्तं केनचित्प्रकारेण अनादि: संबंध:, केनचित्प्रकारेणादिमानिति। </span>=<span class="HindiText">ये दोनों अनादि से इस जीव के साथ हैं। उपचय-अपचय की दृष्टि से इनका संबंध भी सादि होता है। बीज और वृक्ष की भाँति। जैसे वृक्ष से बीज और बीज से वृक्ष इस प्रकार बीज वृक्ष अनादि होकर भी तद्बीज और तद्वृक्ष की अपेक्षा सादि है। यदि सर्वथा आदिमान् मान लिया जाये तो अशरीर आत्मा के नूतन शरीर का संबंध ही नहीं हो सकेगा, क्योंकि शरीर संबंध का कोई निमित्त ही नहीं है। यदि निर्निमित्त होने लगे तो मुक्तात्मा के साथ भी शरीर का संबंध हो जायेगा।2-4। यदि अनादि होने से अनंत माना जायेगा तो भी किसी को मोक्ष नहीं हो सकेगा।5। अत: सिद्ध होता है कि किसी अपेक्षा से अनादि है तथा किसी अपेक्षा से सादि है।<br /> | <span class="GRef"> राजवार्तिक/2/42/2-5/149 </span><span class="SanskritText">बंधसंतत्यपेक्षया अनादि: संबंध:। सादिश्च विशेषतो बीजवृक्षवत् ।2। एकांतेनादिमत्त्वे अभिनवशरीरसंबंधाभावो निर्निमित्तत्वात् ।3। मुक्तात्माभावप्रसंगश्च।4। एकांतेनानादित्वे चानिर्मोक्षप्रसंग।5। ...तस्मात् साधूक्तं केनचित्प्रकारेण अनादि: संबंध:, केनचित्प्रकारेणादिमानिति। </span>=<span class="HindiText">ये दोनों अनादि से इस जीव के साथ हैं। उपचय-अपचय की दृष्टि से इनका संबंध भी सादि होता है। बीज और वृक्ष की भाँति। जैसे वृक्ष से बीज और बीज से वृक्ष इस प्रकार बीज वृक्ष अनादि होकर भी तद्बीज और तद्वृक्ष की अपेक्षा सादि है। यदि सर्वथा आदिमान् मान लिया जाये तो अशरीर आत्मा के नूतन शरीर का संबंध ही नहीं हो सकेगा, क्योंकि शरीर संबंध का कोई निमित्त ही नहीं है। यदि निर्निमित्त होने लगे तो मुक्तात्मा के साथ भी शरीर का संबंध हो जायेगा।2-4। यदि अनादि होने से अनंत माना जायेगा तो भी किसी को मोक्ष नहीं हो सकेगा।5। अत: सिद्ध होता है कि किसी अपेक्षा से अनादि है तथा किसी अपेक्षा से सादि है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.7" id="1.7"> तैजस व कार्माण शरीर आत्मप्रदेशों के साथ रहते हैं</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/2/49/8/154/19 </span><span class="SanskritText">तैजसकार्माणे जघन्येन यथोपात्तौदारिकशरीरप्रमाणे, उत्कर्षेण केवलिसमुद्घाते सर्वलोकप्रमाणे। </span>=<span class="HindiText">तैजस और कार्माण शरीर जघन्य से अपने औदारिक शरीर के बराबर होते हैं और उत्कृष्ट से केविलसमुद्घात में सर्वलोक प्रमाण होते हैं।<br /> | <span class="GRef"> राजवार्तिक/2/49/8/154/19 </span><span class="SanskritText">तैजसकार्माणे जघन्येन यथोपात्तौदारिकशरीरप्रमाणे, उत्कर्षेण केवलिसमुद्घाते सर्वलोकप्रमाणे। </span>=<span class="HindiText">तैजस और कार्माण शरीर जघन्य से अपने औदारिक शरीर के बराबर होते हैं और उत्कृष्ट से केविलसमुद्घात में सर्वलोक प्रमाण होते हैं।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.8" id="1.8"> तैजस कार्माण शरीर का निरुपभोगत्व</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/2/44 </span><span class="SanskritText">निरुपभोगमंत्यम् ।44। </span>=<span class="HindiText">अंतिम अर्थात् तैजस और कार्माण शरीर उपभोग रहित हैं।</span><br /> | <span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/2/44 </span><span class="SanskritText">निरुपभोगमंत्यम् ।44। </span>=<span class="HindiText">अंतिम अर्थात् तैजस और कार्माण शरीर उपभोग रहित हैं।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/2/44/195/8 </span><span class="SanskritText"> अंते भवमंत्यम् । किं तत् । कार्मणम् । इंद्रियप्रणालिकया शब्दादीनामुपलब्धिरुपभोग:। तदभावान्निरुपभोगम् । विग्रहगतौ सत्यामपि इंद्रियलब्धौ द्रव्येंद्रियनिर्वृत्त्यभावाच्छब्दाद्युपभोगाभाव इति। ननु तैजसमपि निरुपभोगम् । तत्र किमुच्यते निरुपभोगमंत्यमिति। तैजसं शरीरं योगनिमित्तमपि न भवति, ततोऽस्योपभोगविचारेऽनधिकार:।</span> =<span class="HindiText">जो अंत में होता है वह अंत्य कहलाता है। <strong>प्रश्न</strong>–अंत का शरीर कौन है ? <strong>उत्तर</strong>–कार्मण। इंद्रिय रूपी नलियों के द्वारा शब्दादि के ग्रहण करने को उपभोग कहते हैं। यह बात अंत के शरीर में नहीं पायी जाती; अत: वह निरुपभोग है। विग्रहगति में लब्धिरूप भावेंद्रियों के रहते हुए भी द्रव्येंद्रियों की रचना न होने से शब्दादिक का उपभोग नहीं होता। <strong>प्रश्न</strong>–तैजस शरीर भी निरुपभोग है इसलिए वहाँ यह क्यों कहते हो कि अंत का शरीर निरुभोग है ? <strong>उत्तर</strong>–तैजस शरीर योग में निमित्त भी नहीं होता, इसलिए इसका उपभोग के विचार में अधिकार नहीं है। | <span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/2/44/195/8 </span><span class="SanskritText"> अंते भवमंत्यम् । किं तत् । कार्मणम् । इंद्रियप्रणालिकया शब्दादीनामुपलब्धिरुपभोग:। तदभावान्निरुपभोगम् । विग्रहगतौ सत्यामपि इंद्रियलब्धौ द्रव्येंद्रियनिर्वृत्त्यभावाच्छब्दाद्युपभोगाभाव इति। ननु तैजसमपि निरुपभोगम् । तत्र किमुच्यते निरुपभोगमंत्यमिति। तैजसं शरीरं योगनिमित्तमपि न भवति, ततोऽस्योपभोगविचारेऽनधिकार:।</span> =<span class="HindiText">जो अंत में होता है वह अंत्य कहलाता है। <strong>प्रश्न</strong>–अंत का शरीर कौन है ? <strong>उत्तर</strong>–कार्मण। इंद्रिय रूपी नलियों के द्वारा शब्दादि के ग्रहण करने को उपभोग कहते हैं। यह बात अंत के शरीर में नहीं पायी जाती; अत: वह निरुपभोग है। विग्रहगति में लब्धिरूप भावेंद्रियों के रहते हुए भी द्रव्येंद्रियों की रचना न होने से शब्दादिक का उपभोग नहीं होता। <strong>प्रश्न</strong>–तैजस शरीर भी निरुपभोग है इसलिए वहाँ यह क्यों कहते हो कि अंत का शरीर निरुभोग है ? <strong>उत्तर</strong>–तैजस शरीर योग में निमित्त भी नहीं होता, इसलिए इसका उपभोग के विचार में अधिकार नहीं है। <span class="GRef">( राजवार्तिक/2/44/2-3/151 )</span><br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.9" id="1.9"> तैजस व कार्मण शरीरों का स्वामित्व </strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/2/42 </span><span class="SanskritText">सर्वस्य।42। </span>=<span class="HindiText">तैजस व कार्मण शरीर सर्व संसारी जीवों के होते हैं।<br /> | <span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/2/42 </span><span class="SanskritText">सर्वस्य।42। </span>=<span class="HindiText">तैजस व कार्मण शरीर सर्व संसारी जीवों के होते हैं।<br /> | ||
नोट–तैजस कार्मण शरीर के उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट प्रदेशाग्रों का स्वामित्व–देखें [[ ]] | नोट–तैजस कार्मण शरीर के उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट प्रदेशाग्रों का स्वामित्व–देखें [[ ]]<span class="GRef">( षट्खंडागम/14/5,6/ </span>सू./458-478/416-422) तैजस व कार्मण शरीरों के जघन्य व अजघन्य प्रदेशाग्रों के संचय का स्वामित्व।–देखें [[ ]]<span class="GRef">( षट्खंडागम/14/5,6/ </span>सू./491-496/428)<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="1.10" id="1.10"> अन्य संबंधित विषय</strong> <br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"> तैजस व कार्मण शरीर अप्रतिघाती है।–देखें [[ शरीर#1.5 | शरीर - 1.5]]।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"> पाँचों शरीरों की उत्तरोत्तर सूक्ष्मता व उनका स्वामित्व।–देखें [[ शरीर#1.5 | शरीर - 1.5]]।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"> तैजस शरीर की सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव, अल्पबहुत्व आठ प्ररूपणाएँ।–देखें [[ वह वह नाम ]]।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"> तैजस शरीर की संघातन परिशातन कृति।–दे.<span class="GRef"> धवला/9/355-451 </span>।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"> मार्गणा प्रकरण में भाव मार्गणा की इष्टता तथा आय के अनुसार व्यय होने का नियम।–देखें [[ मार्गणा ]]।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2" id="2"> तैजस समुद्घात निर्देश</strong> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1"> तैजस समुद्घात सामान्य का लक्षण</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/1/20/12/77/16 </span><span class="SanskritText">जीवानुग्रहोपघातप्रवणतेज:शरीरनिर्वर्तनार्थस्तेजस्समुद्घात:। </span>=<span class="HindiText">जीवों के अनुग्रह और विनाश में समर्थ तैजस शरीर की रचना के लिए तैजस समुद्घात होता है।</span><br /> | <span class="GRef"> राजवार्तिक/1/20/12/77/16 </span><span class="SanskritText">जीवानुग्रहोपघातप्रवणतेज:शरीरनिर्वर्तनार्थस्तेजस्समुद्घात:। </span>=<span class="HindiText">जीवों के अनुग्रह और विनाश में समर्थ तैजस शरीर की रचना के लिए तैजस समुद्घात होता है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 4/1,3,2/27/7 </span><span class="PrakritText">तेजासरीरसमुग्घादो णाम तेजइयसरीरविउव्वणं। </span>=<span class="HindiText">तैजस शरीर के विसर्पण का नाम तैजस्कशरीरसमुद्घात है।<br /> | <span class="GRef"> धवला 4/1,3,2/27/7 </span><span class="PrakritText">तेजासरीरसमुग्घादो णाम तेजइयसरीरविउव्वणं। </span>=<span class="HindiText">तैजस शरीर के विसर्पण का नाम तैजस्कशरीरसमुद्घात है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong>तैजस समुद्घात के भेद</strong></span><br /> | ||
<span class="HindiText">निस्सरणात्मक तैजस शरीरवत्–देखें [[ तैजस#1.2 | तैजस - 1.2]]।<br /> | <span class="HindiText">निस्सरणात्मक तैजस शरीरवत्–देखें [[ तैजस#1.2 | तैजस - 1.2]]।<br /> | ||
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<ol start="2"> | <ol start="2"> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="2.2" id="2.2"> अशुभ तैजस समुद्घात का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/2/49/8/153/16 </span><span class="SanskritText">यतेरुग्रचारित्रस्यातिक्रुद्धस्य जीवप्रदेशसंयुक्तं बहिर्निष्क्रम्य दाह्यं परिवृत्यावतिष्ठमानं निष्पावहरितफलपरिपूर्णां स्थालीमिव पचति, पक्त्वा च निवर्तते, अथ चिरमवतिष्ठते अग्निसाद् दाह्योऽर्थो भवति, तदेतन्नि:सरणात्मकम् ।</span> =<span class="HindiText">नि:सरणात्मक तैजस उग्र चारित्र वाले अतिक्रोधी यति के शरीर से निकलकर जिस पर क्रोध है उसे घेरकर ठहरता है और उसे शाक की तरह पका देता है, फिर वापिस होकर यति के शरीर में ही समा जाता है। यदि अधिक देर ठहर जाये तो उसे भस्मसात् कर देता है।</span><br /> | <span class="GRef"> राजवार्तिक/2/49/8/153/16 </span><span class="SanskritText">यतेरुग्रचारित्रस्यातिक्रुद्धस्य जीवप्रदेशसंयुक्तं बहिर्निष्क्रम्य दाह्यं परिवृत्यावतिष्ठमानं निष्पावहरितफलपरिपूर्णां स्थालीमिव पचति, पक्त्वा च निवर्तते, अथ चिरमवतिष्ठते अग्निसाद् दाह्योऽर्थो भवति, तदेतन्नि:सरणात्मकम् ।</span> =<span class="HindiText">नि:सरणात्मक तैजस उग्र चारित्र वाले अतिक्रोधी यति के शरीर से निकलकर जिस पर क्रोध है उसे घेरकर ठहरता है और उसे शाक की तरह पका देता है, फिर वापिस होकर यति के शरीर में ही समा जाता है। यदि अधिक देर ठहर जाये तो उसे भस्मसात् कर देता है।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 14/5,6,241/328/5 </span><span class="PrakritText">क्रोधं गदस्स संजदस्स वामंसादो बारहजोयणायामेण णवजोयणविक्खंभेण सूचिअंगुलस्स संखेज्जदिभागमेत्त बाहल्लेण जासवणकुसुमवण्णेण णिस्सरिदूण सगक्खेत्तब्भंतरट्ठियसत्तविणासं काऊण पुणो पविसमाणं तं जं चेव संजदमावूरेदि तमसुहं णाम। </span>=<span class="HindiText">क्रोध को प्राप्त हुए संयत के वाम कंधे से बारह योजन लंबा, नौ योजन चौड़ा और सूच्यंगुल के संख्यातवें भाग प्रमाण मोटा तथा जपा कुसुम के रंग वाला शरीर निकलकर अपने क्षेत्र के भीतर स्थित हुए जीवों का विनाश करके पुन: प्रवेश करते हुए जो उसी संयत को व्याप्त करता है वह अशुभ तैजस शरीर है। | <span class="GRef"> धवला 14/5,6,241/328/5 </span><span class="PrakritText">क्रोधं गदस्स संजदस्स वामंसादो बारहजोयणायामेण णवजोयणविक्खंभेण सूचिअंगुलस्स संखेज्जदिभागमेत्त बाहल्लेण जासवणकुसुमवण्णेण णिस्सरिदूण सगक्खेत्तब्भंतरट्ठियसत्तविणासं काऊण पुणो पविसमाणं तं जं चेव संजदमावूरेदि तमसुहं णाम। </span>=<span class="HindiText">क्रोध को प्राप्त हुए संयत के वाम कंधे से बारह योजन लंबा, नौ योजन चौड़ा और सूच्यंगुल के संख्यातवें भाग प्रमाण मोटा तथा जपा कुसुम के रंग वाला शरीर निकलकर अपने क्षेत्र के भीतर स्थित हुए जीवों का विनाश करके पुन: प्रवेश करते हुए जो उसी संयत को व्याप्त करता है वह अशुभ तैजस शरीर है। <span class="GRef">( धवला/4/1,3,2/28/1 )</span></span><br /> | ||
<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/10/25/8 </span><span class="SanskritText">स्वस्य मनोऽनिष्टजनकं किंचित्कारणांतरमवलोक्य समुत्पन्नक्रोधस्य संयमनिधानस्य महामुनेर्मूलशरीरमपरित्यज्य सिंदूरपुंजप्रभो दीर्घत्वेन द्वादशयोजनप्रमाण: सूच्यञ्गुलसंख्येयभागमूलविस्तारो नवयोजनविस्तार: काहलाकृतिपुरुषो वामस्कंधांनिर्गत्य वामप्रदक्षिणेन हृदये निहितं विरुद्धं वस्तु भस्मसात्कृत्य तेनैव संयमिना सह स च भस्म व्रजति द्वीपायनमुनिवत् । असावशुभतेज:समुद्घात:। </span>=<span class="HindiText">अपने मन को अनिष्ट उत्पन्न करने वाले किसी कारण को देखकर क्रोधी संयम के निधान महामुनि के बायें कंधे से सिंदूर के ढेर जैसी कांतिवाला; बारह योजन लंबा सूच्यंगुल के संख्यात भाग प्रमाण मूल विस्तार और नौ योजन के अग्र विस्तारवाला; काहल (बिलाव) के आकार का धारक पुरुष निकल करके बायीं प्रदक्षिणा देकर, मुनि जिस पर क्रोधी हो उस पदार्थ को भस्म करके उसी मुनि के साथ आप भी भस्म हो जावे जैसे द्वीपायन मुनि। सो अशुभ तैजस समुद्घात है।<br /> | <span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/10/25/8 </span><span class="SanskritText">स्वस्य मनोऽनिष्टजनकं किंचित्कारणांतरमवलोक्य समुत्पन्नक्रोधस्य संयमनिधानस्य महामुनेर्मूलशरीरमपरित्यज्य सिंदूरपुंजप्रभो दीर्घत्वेन द्वादशयोजनप्रमाण: सूच्यञ्गुलसंख्येयभागमूलविस्तारो नवयोजनविस्तार: काहलाकृतिपुरुषो वामस्कंधांनिर्गत्य वामप्रदक्षिणेन हृदये निहितं विरुद्धं वस्तु भस्मसात्कृत्य तेनैव संयमिना सह स च भस्म व्रजति द्वीपायनमुनिवत् । असावशुभतेज:समुद्घात:। </span>=<span class="HindiText">अपने मन को अनिष्ट उत्पन्न करने वाले किसी कारण को देखकर क्रोधी संयम के निधान महामुनि के बायें कंधे से सिंदूर के ढेर जैसी कांतिवाला; बारह योजन लंबा सूच्यंगुल के संख्यात भाग प्रमाण मूल विस्तार और नौ योजन के अग्र विस्तारवाला; काहल (बिलाव) के आकार का धारक पुरुष निकल करके बायीं प्रदक्षिणा देकर, मुनि जिस पर क्रोधी हो उस पदार्थ को भस्म करके उसी मुनि के साथ आप भी भस्म हो जावे जैसे द्वीपायन मुनि। सो अशुभ तैजस समुद्घात है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.3" id="2.3">शुभ तैजस समुद्घात का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला/14/5,6,240/328/3 </span><span class="PrakritText"> संजदस्स उग्गचरितस्स दयापुरंगम-अणुकंपावूरिदस्स इच्छाए दक्खिणांसादो हंससंखवण्णं णिस्सरिदूण मारीदिरमरवाहिवेयणादुब्भिक्खुवसग्गादिपसमणदुवारेण सव्वजीवाणं संजदस्स य जं सुहमुप्पादयदि तं सुहं णाम। </span>=<span class="HindiText">उग्र चारित्र वाले तथा दया पूर्वक अनुकंपा से आपूरित संयत के इच्छा होने पर दाहिने कंधे से हंस और शंख के वर्ण वाला शरीर निकलकर मारी, दिरमर, व्याधि, वेदना, दुर्भिक्ष और उपसर्ग आदि के प्रशमन द्वारा सब जीवों और संयत के जो सुख उत्पन्न करता है वह शुभ तैजस कहलाता है। | <span class="GRef"> धवला/14/5,6,240/328/3 </span><span class="PrakritText"> संजदस्स उग्गचरितस्स दयापुरंगम-अणुकंपावूरिदस्स इच्छाए दक्खिणांसादो हंससंखवण्णं णिस्सरिदूण मारीदिरमरवाहिवेयणादुब्भिक्खुवसग्गादिपसमणदुवारेण सव्वजीवाणं संजदस्स य जं सुहमुप्पादयदि तं सुहं णाम। </span>=<span class="HindiText">उग्र चारित्र वाले तथा दया पूर्वक अनुकंपा से आपूरित संयत के इच्छा होने पर दाहिने कंधे से हंस और शंख के वर्ण वाला शरीर निकलकर मारी, दिरमर, व्याधि, वेदना, दुर्भिक्ष और उपसर्ग आदि के प्रशमन द्वारा सब जीवों और संयत के जो सुख उत्पन्न करता है वह शुभ तैजस कहलाता है। <span class="GRef">( धवला 4/1,3,2/28/3 )</span> <span class="GRef">( धवला 7/2,6,1/300/5 )</span>।</span><br /> | ||
<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/10/26 </span><span class="SanskritText"> लोकं व्याधिदुर्भिक्षादिपीडितमवलोक्य समुत्पन्नकृपस्य परमसंयमनिधानस्य महर्षेर्मूलशरीरमपरित्यज्य शुभ्राकृति: प्रागुक्तदेहप्रमाण: पुरुषो दक्षिणप्रदक्षिणेन व्याधिदुर्भिक्षादिकं स्फोटयित्वा पुनैरपि स्वस्थाने प्रविशति, असौ शुभरूपस्तेज: समुद्घात:।</span> =<span class="HindiText">जगत् को रोग दुर्भिक्ष आदि से दु:खित देखकर जिसको दया उत्पन्न हुई ऐसे परम संयम निधान महाऋषि के मूल शरीर को न त्यागकर पूर्वोक्त देह के प्रमाण, सौम्य आकृति का धारक पुरुष दायें कंधे से निकलकर दक्षिण प्रदक्षिणा देकर रोग, दुर्भिक्षादि को दूर कर फिर अपने स्थान में आकर प्रवेश करे वह शुभ तैजस समुद्घात है।<br /> | <span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/10/26 </span><span class="SanskritText"> लोकं व्याधिदुर्भिक्षादिपीडितमवलोक्य समुत्पन्नकृपस्य परमसंयमनिधानस्य महर्षेर्मूलशरीरमपरित्यज्य शुभ्राकृति: प्रागुक्तदेहप्रमाण: पुरुषो दक्षिणप्रदक्षिणेन व्याधिदुर्भिक्षादिकं स्फोटयित्वा पुनैरपि स्वस्थाने प्रविशति, असौ शुभरूपस्तेज: समुद्घात:।</span> =<span class="HindiText">जगत् को रोग दुर्भिक्ष आदि से दु:खित देखकर जिसको दया उत्पन्न हुई ऐसे परम संयम निधान महाऋषि के मूल शरीर को न त्यागकर पूर्वोक्त देह के प्रमाण, सौम्य आकृति का धारक पुरुष दायें कंधे से निकलकर दक्षिण प्रदक्षिणा देकर रोग, दुर्भिक्षादि को दूर कर फिर अपने स्थान में आकर प्रवेश करे वह शुभ तैजस समुद्घात है।<br /> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.4" id="2.4">तैजस समुद्घात का वर्ण शक्ति आदि</strong> <br /> | ||
प्रमाण–देखें [[ उपरोक्त लक्षण ]]</span></li> | प्रमाण–देखें [[ उपरोक्त लक्षण ]]</span></li> | ||
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<li | <li class="HindiText"><strong name="2.5" id="2.5"> तैजस समुद्घात का स्वामित्व</strong></span><strong><br> | ||
</strong><span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/10/25/9 </span><span class="SanskritText">संयमनिधानस्य।</span> =<span class="HindiText">संयम के निधान महामुनि के तैजस समुद्घात होता है। <span class="GRef"> धवला 4/1,3,82/135/6 </span>णवरि पमत्तसंजदस्स उवसमसम्मत्तेण तेजाहारं णत्थि। =प्रमत्त संयत के उपशम सम्यक्त्व के साथ तैजस समुद्घात ...नहीं होते हैं।</span><br><span class="GRef"> धवला/7/2,6,1/299/7 </span><span class="PrakritText">तेजइयसमुग्घादो...विणा महव्वएहि तदभावादो। </span>=<span class="HindiText">बिना महाव्रतों के तैजस समुद्घात नहीं होता। </span></li> | </strong><span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/10/25/9 </span><span class="SanskritText">संयमनिधानस्य।</span> =<span class="HindiText">संयम के निधान महामुनि के तैजस समुद्घात होता है। <span class="GRef"> धवला 4/1,3,82/135/6 </span>णवरि पमत्तसंजदस्स उवसमसम्मत्तेण तेजाहारं णत्थि। =प्रमत्त संयत के उपशम सम्यक्त्व के साथ तैजस समुद्घात ...नहीं होते हैं।</span><br><span class="GRef"> धवला/7/2,6,1/299/7 </span><span class="PrakritText">तेजइयसमुग्घादो...विणा महव्वएहि तदभावादो। </span>=<span class="HindiText">बिना महाव्रतों के तैजस समुद्घात नहीं होता। </span></li> | ||
<li | <li class="HindiText"><strong name="2.6" id="2.6">अन्य संबंधित विषय</strong> | ||
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Latest revision as of 15:10, 27 November 2023
स्थूल शरीर में दीप्ति विशेष का कारण भूत एक अत्यंत सूक्ष्म शरीर प्रत्येक जीव को होता है, जिसे तैजस शरीर कहते हैं। इसके अतिरिक्त तप व ऋद्धि विशेष के द्वारा भी दायें व बायें कंधे से कोई विशेष प्रकार का प्रज्वलित पुतला सरीखा उत्पन्न किया जाता है उसे तैजस समुद्घात कहते हैं। दायें कंधे वाला तैजस रोग दुर्भिक्ष आदि को दूर करने के कारण शुभ और बायें कंधे वाला सामने के पदार्थों व नगरी आदि के भस्म करने के कारण अशुभ होता है
- तैजस शरीर निर्देश
- निस्सरणात्मक शरीर का लक्षण।–देखें तैजस - 2.2।
- तैजस शरीर तप द्वारा भी प्राप्त किया जा सकता है।
- तैजस शरीर योग का निमित्त नहीं।
- तैजस व कार्मण शरीर का सादि अनादिपना।
- तैजस व कार्मण शरीर आत्म-प्रदेशों के साथ रहते हैं।
- तैजस व कार्मण शरीर अप्रतिघाती हैं।–देखें शरीर - 2.5
- निस्सरणात्मक शरीर का लक्षण।–देखें तैजस - 2.2।
- तैजस समुद्घात निर्देश
- तैजस समुद्घात के भेद।
- तैजस समुद्घात के भेद।
- तैजस शरीर निर्देश
- तैजस शरीर सामान्य का लक्षण
षट्खंडागम 14/5,6/ सू.240/327 तेयप्पहगुणजुतमिदि तेजइयं। =तेज और प्रभा रूप गुण से युक्त है इसलिए तैजस है।240।
सर्वार्थसिद्धि/2/36/191/8 यत्तेजोनिमित्तं तेजसि वा भवं तत्तैजसम् । =जो दीप्ति का कारण है या तेज में उत्पन्न होता है उसे तैजस शरीर कहते हैं। ( राजवार्तिक/2/36/8/146/11 )
राजवार्तिक/2/49/8/153/14 शंखधवलप्रभालक्षणं तैजसम् ।=शंख के समान शुभ्र तैजस होता है।
धवला 14/5,6,240/327/13 शरीरस्कंधस्य पद्मरागमणिवर्णस्तेज: शरीरान्निर्गतरश्मिकलाप्रभा, तत्र भवं तैजसं शरीरम् ।=शरीर स्कंध के पद्मराग मणि के समान वर्ण का नाम तेज है। तथा शरीर से निकली हुई रश्मि कला का नाम प्रभा है। इसमें जो हुआ है वह तैजस शरीर है। तेज और प्रभागुण से युक्त तैजस शरीर है यह उक्त कथन का तात्पर्य है।
- तैजस शरीर के भेद
धवला 14/5,6,40/328/1 तं तेजइयशरीरं णिस्सरणप्पयमणिस्सरणप्पयं चेदि दुविहं। तत्थ जं तं णिस्सरणप्पयं तं दुविहं–सुहमसुहं चेदि। =तैजस शरीर नि:सरणात्मक और अनि:सरणात्मक इस तरह दो प्रकार का है। ( राजवार्तिक/2/4/153/15 ) उसमें जो नि:सरणात्मक तैजस शरीर है वह दो प्रकार का है–शुभ और अशुभ। ( धवला 4/1,3,2/27/7 )
धवला 7/2,6,1/300/4 तेजासरीरं दुविहं पसत्थमप्पसत्थं चेदि। =तैजस शरीर प्रशस्त और अप्रशस्त के भेद से दो प्रकार का है।
- अनि:सरणात्मक तैजस शरीर का लक्षण
राजवार्तिक/2/49/8/153/15 औदारिकवैक्रियिकाहारकदेहाभ्यंतरस्थं देहस्य दीप्तिहेतुरनि:सरणात्मकम् । =औदारिक, वैक्रियक और आहारक शरीर में रौनक लाने वाला अनि:सरणात्मक तैजस है।
धवला 14/5,6,240/328/8 जं तमणिस्सरणप्पयं तेजइयसरीरं तं भुत्तण्णपाणप्पाचयं होदूण अच्छदि अंतो। =जो अनि:सरणात्मक तैजस शरीर है वह भुक्त अन्नपान का पाचक होकर भीतर स्थित रहता है।
- तैजस शरीर तप द्वारा भी प्राप्त किया जा सकता है
तत्त्वार्थसूत्र/2/48,49 लब्धिप्रत्ययं च।48। तैजसमपि।49। =तैजस शरीर लब्धि से पैदा होता है।48-49।
- तैजस शरीर योग का निमित्त नहीं है
सर्वार्थसिद्धि/2/44/196/3 तैजसं शरीरं योगानिमित्तमपि न भवति। =तैजस शरीर योग में निमित्त नहीं होता। ( राजवार्तिक/2/44/3/251 )
- तैजस व कार्माण शरीर का सादि अनादिपना
तत्त्वार्थसूत्र/2/41 अनादिसंबंधे च।41। =तैजस और कार्माण शरीर आत्मा के साथ अनादि संबंध वाले हैं।
राजवार्तिक/2/42/2-5/149 बंधसंतत्यपेक्षया अनादि: संबंध:। सादिश्च विशेषतो बीजवृक्षवत् ।2। एकांतेनादिमत्त्वे अभिनवशरीरसंबंधाभावो निर्निमित्तत्वात् ।3। मुक्तात्माभावप्रसंगश्च।4। एकांतेनानादित्वे चानिर्मोक्षप्रसंग।5। ...तस्मात् साधूक्तं केनचित्प्रकारेण अनादि: संबंध:, केनचित्प्रकारेणादिमानिति। =ये दोनों अनादि से इस जीव के साथ हैं। उपचय-अपचय की दृष्टि से इनका संबंध भी सादि होता है। बीज और वृक्ष की भाँति। जैसे वृक्ष से बीज और बीज से वृक्ष इस प्रकार बीज वृक्ष अनादि होकर भी तद्बीज और तद्वृक्ष की अपेक्षा सादि है। यदि सर्वथा आदिमान् मान लिया जाये तो अशरीर आत्मा के नूतन शरीर का संबंध ही नहीं हो सकेगा, क्योंकि शरीर संबंध का कोई निमित्त ही नहीं है। यदि निर्निमित्त होने लगे तो मुक्तात्मा के साथ भी शरीर का संबंध हो जायेगा।2-4। यदि अनादि होने से अनंत माना जायेगा तो भी किसी को मोक्ष नहीं हो सकेगा।5। अत: सिद्ध होता है कि किसी अपेक्षा से अनादि है तथा किसी अपेक्षा से सादि है।
- तैजस व कार्माण शरीर आत्मप्रदेशों के साथ रहते हैं
राजवार्तिक/2/49/8/154/19 तैजसकार्माणे जघन्येन यथोपात्तौदारिकशरीरप्रमाणे, उत्कर्षेण केवलिसमुद्घाते सर्वलोकप्रमाणे। =तैजस और कार्माण शरीर जघन्य से अपने औदारिक शरीर के बराबर होते हैं और उत्कृष्ट से केविलसमुद्घात में सर्वलोक प्रमाण होते हैं।
- तैजस कार्माण शरीर का निरुपभोगत्व
तत्त्वार्थसूत्र/2/44 निरुपभोगमंत्यम् ।44। =अंतिम अर्थात् तैजस और कार्माण शरीर उपभोग रहित हैं।
सर्वार्थसिद्धि/2/44/195/8 अंते भवमंत्यम् । किं तत् । कार्मणम् । इंद्रियप्रणालिकया शब्दादीनामुपलब्धिरुपभोग:। तदभावान्निरुपभोगम् । विग्रहगतौ सत्यामपि इंद्रियलब्धौ द्रव्येंद्रियनिर्वृत्त्यभावाच्छब्दाद्युपभोगाभाव इति। ननु तैजसमपि निरुपभोगम् । तत्र किमुच्यते निरुपभोगमंत्यमिति। तैजसं शरीरं योगनिमित्तमपि न भवति, ततोऽस्योपभोगविचारेऽनधिकार:। =जो अंत में होता है वह अंत्य कहलाता है। प्रश्न–अंत का शरीर कौन है ? उत्तर–कार्मण। इंद्रिय रूपी नलियों के द्वारा शब्दादि के ग्रहण करने को उपभोग कहते हैं। यह बात अंत के शरीर में नहीं पायी जाती; अत: वह निरुपभोग है। विग्रहगति में लब्धिरूप भावेंद्रियों के रहते हुए भी द्रव्येंद्रियों की रचना न होने से शब्दादिक का उपभोग नहीं होता। प्रश्न–तैजस शरीर भी निरुपभोग है इसलिए वहाँ यह क्यों कहते हो कि अंत का शरीर निरुभोग है ? उत्तर–तैजस शरीर योग में निमित्त भी नहीं होता, इसलिए इसका उपभोग के विचार में अधिकार नहीं है। ( राजवार्तिक/2/44/2-3/151 )
- तैजस व कार्मण शरीरों का स्वामित्व
तत्त्वार्थसूत्र/2/42 सर्वस्य।42। =तैजस व कार्मण शरीर सर्व संसारी जीवों के होते हैं।
नोट–तैजस कार्मण शरीर के उत्कृष्ट व अनुत्कृष्ट प्रदेशाग्रों का स्वामित्व–देखें [[ ]]( षट्खंडागम/14/5,6/ सू./458-478/416-422) तैजस व कार्मण शरीरों के जघन्य व अजघन्य प्रदेशाग्रों के संचय का स्वामित्व।–देखें [[ ]]( षट्खंडागम/14/5,6/ सू./491-496/428)
- अन्य संबंधित विषय
- तैजस व कार्मण शरीर अप्रतिघाती है।–देखें शरीर - 1.5।
- पाँचों शरीरों की उत्तरोत्तर सूक्ष्मता व उनका स्वामित्व।–देखें शरीर - 1.5।
- तैजस शरीर की सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव, अल्पबहुत्व आठ प्ररूपणाएँ।–देखें वह वह नाम ।
- तैजस शरीर की संघातन परिशातन कृति।–दे. धवला/9/355-451 ।
- मार्गणा प्रकरण में भाव मार्गणा की इष्टता तथा आय के अनुसार व्यय होने का नियम।–देखें मार्गणा ।
- तैजस व कार्मण शरीर अप्रतिघाती है।–देखें शरीर - 1.5।
- तैजस शरीर सामान्य का लक्षण
- तैजस समुद्घात निर्देश
- तैजस समुद्घात सामान्य का लक्षण
राजवार्तिक/1/20/12/77/16 जीवानुग्रहोपघातप्रवणतेज:शरीरनिर्वर्तनार्थस्तेजस्समुद्घात:। =जीवों के अनुग्रह और विनाश में समर्थ तैजस शरीर की रचना के लिए तैजस समुद्घात होता है।
धवला 4/1,3,2/27/7 तेजासरीरसमुग्घादो णाम तेजइयसरीरविउव्वणं। =तैजस शरीर के विसर्पण का नाम तैजस्कशरीरसमुद्घात है।
- तैजस समुद्घात के भेद
निस्सरणात्मक तैजस शरीरवत्–देखें तैजस - 1.2।
- अशुभ तैजस समुद्घात का लक्षण
राजवार्तिक/2/49/8/153/16 यतेरुग्रचारित्रस्यातिक्रुद्धस्य जीवप्रदेशसंयुक्तं बहिर्निष्क्रम्य दाह्यं परिवृत्यावतिष्ठमानं निष्पावहरितफलपरिपूर्णां स्थालीमिव पचति, पक्त्वा च निवर्तते, अथ चिरमवतिष्ठते अग्निसाद् दाह्योऽर्थो भवति, तदेतन्नि:सरणात्मकम् । =नि:सरणात्मक तैजस उग्र चारित्र वाले अतिक्रोधी यति के शरीर से निकलकर जिस पर क्रोध है उसे घेरकर ठहरता है और उसे शाक की तरह पका देता है, फिर वापिस होकर यति के शरीर में ही समा जाता है। यदि अधिक देर ठहर जाये तो उसे भस्मसात् कर देता है।
धवला 14/5,6,241/328/5 क्रोधं गदस्स संजदस्स वामंसादो बारहजोयणायामेण णवजोयणविक्खंभेण सूचिअंगुलस्स संखेज्जदिभागमेत्त बाहल्लेण जासवणकुसुमवण्णेण णिस्सरिदूण सगक्खेत्तब्भंतरट्ठियसत्तविणासं काऊण पुणो पविसमाणं तं जं चेव संजदमावूरेदि तमसुहं णाम। =क्रोध को प्राप्त हुए संयत के वाम कंधे से बारह योजन लंबा, नौ योजन चौड़ा और सूच्यंगुल के संख्यातवें भाग प्रमाण मोटा तथा जपा कुसुम के रंग वाला शरीर निकलकर अपने क्षेत्र के भीतर स्थित हुए जीवों का विनाश करके पुन: प्रवेश करते हुए जो उसी संयत को व्याप्त करता है वह अशुभ तैजस शरीर है। ( धवला/4/1,3,2/28/1 )
द्रव्यसंग्रह टीका/10/25/8 स्वस्य मनोऽनिष्टजनकं किंचित्कारणांतरमवलोक्य समुत्पन्नक्रोधस्य संयमनिधानस्य महामुनेर्मूलशरीरमपरित्यज्य सिंदूरपुंजप्रभो दीर्घत्वेन द्वादशयोजनप्रमाण: सूच्यञ्गुलसंख्येयभागमूलविस्तारो नवयोजनविस्तार: काहलाकृतिपुरुषो वामस्कंधांनिर्गत्य वामप्रदक्षिणेन हृदये निहितं विरुद्धं वस्तु भस्मसात्कृत्य तेनैव संयमिना सह स च भस्म व्रजति द्वीपायनमुनिवत् । असावशुभतेज:समुद्घात:। =अपने मन को अनिष्ट उत्पन्न करने वाले किसी कारण को देखकर क्रोधी संयम के निधान महामुनि के बायें कंधे से सिंदूर के ढेर जैसी कांतिवाला; बारह योजन लंबा सूच्यंगुल के संख्यात भाग प्रमाण मूल विस्तार और नौ योजन के अग्र विस्तारवाला; काहल (बिलाव) के आकार का धारक पुरुष निकल करके बायीं प्रदक्षिणा देकर, मुनि जिस पर क्रोधी हो उस पदार्थ को भस्म करके उसी मुनि के साथ आप भी भस्म हो जावे जैसे द्वीपायन मुनि। सो अशुभ तैजस समुद्घात है।
- शुभ तैजस समुद्घात का लक्षण
धवला/14/5,6,240/328/3 संजदस्स उग्गचरितस्स दयापुरंगम-अणुकंपावूरिदस्स इच्छाए दक्खिणांसादो हंससंखवण्णं णिस्सरिदूण मारीदिरमरवाहिवेयणादुब्भिक्खुवसग्गादिपसमणदुवारेण सव्वजीवाणं संजदस्स य जं सुहमुप्पादयदि तं सुहं णाम। =उग्र चारित्र वाले तथा दया पूर्वक अनुकंपा से आपूरित संयत के इच्छा होने पर दाहिने कंधे से हंस और शंख के वर्ण वाला शरीर निकलकर मारी, दिरमर, व्याधि, वेदना, दुर्भिक्ष और उपसर्ग आदि के प्रशमन द्वारा सब जीवों और संयत के जो सुख उत्पन्न करता है वह शुभ तैजस कहलाता है। ( धवला 4/1,3,2/28/3 ) ( धवला 7/2,6,1/300/5 )।
द्रव्यसंग्रह टीका/10/26 लोकं व्याधिदुर्भिक्षादिपीडितमवलोक्य समुत्पन्नकृपस्य परमसंयमनिधानस्य महर्षेर्मूलशरीरमपरित्यज्य शुभ्राकृति: प्रागुक्तदेहप्रमाण: पुरुषो दक्षिणप्रदक्षिणेन व्याधिदुर्भिक्षादिकं स्फोटयित्वा पुनैरपि स्वस्थाने प्रविशति, असौ शुभरूपस्तेज: समुद्घात:। =जगत् को रोग दुर्भिक्ष आदि से दु:खित देखकर जिसको दया उत्पन्न हुई ऐसे परम संयम निधान महाऋषि के मूल शरीर को न त्यागकर पूर्वोक्त देह के प्रमाण, सौम्य आकृति का धारक पुरुष दायें कंधे से निकलकर दक्षिण प्रदक्षिणा देकर रोग, दुर्भिक्षादि को दूर कर फिर अपने स्थान में आकर प्रवेश करे वह शुभ तैजस समुद्घात है।
- तैजस समुद्घात का वर्ण शक्ति आदि
प्रमाण–देखें उपरोक्त लक्षण
- तैजस समुद्घात सामान्य का लक्षण
विषय |
अप्रशस्त |
प्रशस्त |
वर्ण |
जपाकुसुमवत् रक्त |
हंसवत् धवल |
शक्ति |
भूमि व पर्वत को जलाने में समर्थ |
रोग मारी आदि के प्रशासन करने में समर्थ |
उत्पत्ति स्थान |
बायां कंधा |
दायां कंधा |
विसर्पण |
इच्छित क्षेत्र प्रमाण अथवा 12 यो.×9 यो.=सूच्यंगुल के =संख्यात भाग प्रमाण |
अप्रशस्तवत् |
निमित्त |
रोष |
प्राणियों के प्रति अनुकंपा |
- तैजस समुद्घात का स्वामित्व
द्रव्यसंग्रह टीका/10/25/9 संयमनिधानस्य। =संयम के निधान महामुनि के तैजस समुद्घात होता है। धवला 4/1,3,82/135/6 णवरि पमत्तसंजदस्स उवसमसम्मत्तेण तेजाहारं णत्थि। =प्रमत्त संयत के उपशम सम्यक्त्व के साथ तैजस समुद्घात ...नहीं होते हैं।
धवला/7/2,6,1/299/7 तेजइयसमुग्घादो...विणा महव्वएहि तदभावादो। =बिना महाव्रतों के तैजस समुद्घात नहीं होता। - अन्य संबंधित विषय