धरणेंद्र: Difference between revisions
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<div class="HindiText"> <p id="1"> (1) भवनवासी-नागकुमार देवों का इंद्र । यह तीर्थंकर ऋषभदेव से भोग-सामग्री की याचना करने वाले नमि और विनमि को भोग सामग्री देने का आश्वासन देकर उन्हें अपने साथ ले आया था । विजयार्ध पर आकर इसने नमि को विजयार्ध की दक्षिणश्रेणी का और विनमि को विजयार्ध की उत्तरश्रेणी का स्वामी बनाया । दोनों को गांधारपदा और पन्नगपदा विद्याएँ दी । इसने दिति और अदिति देवियों के द्वारा भी विद्याओं के सोलह निकायों मे से अनेक विद्याएँ दिलवाकर नमि और विनमि को संतुष्ट किया था । <span class="GRef"> महापुराण 18.94-16, 139-145, 19.182-186, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_3#306|पद्मपुराण - 3.306-308]] </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 22.56-60 </span></p> | <div class="HindiText"> <p id="1" class="HindiText"> (1) भवनवासी-नागकुमार देवों का इंद्र । यह तीर्थंकर ऋषभदेव से भोग-सामग्री की याचना करने वाले नमि और विनमि को भोग सामग्री देने का आश्वासन देकर उन्हें अपने साथ ले आया था । विजयार्ध पर आकर इसने नमि को विजयार्ध की दक्षिणश्रेणी का और विनमि को विजयार्ध की उत्तरश्रेणी का स्वामी बनाया । दोनों को गांधारपदा और पन्नगपदा विद्याएँ दी । इसने दिति और अदिति देवियों के द्वारा भी विद्याओं के सोलह निकायों मे से अनेक विद्याएँ दिलवाकर नमि और विनमि को संतुष्ट किया था । <span class="GRef"> महापुराण 18.94-16, 139-145, 19.182-186, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_3#306|पद्मपुराण - 3.306-308]] </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_22#56|हरिवंशपुराण - 22.56-60]] </span></p> | ||
<p id="2">(2) पश्चिम विदेह की वीतशोका नगरी के राजा वैजयंत ने दीक्षित होकर जब केवलज्ञान प्राप्त किया तो धरणेंद्र उनकी वंदना के लिए आया था । <span class="GRef"> <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 27.5-9 </span></span></p> | <p id="2" class="HindiText">(2) पश्चिम विदेह की वीतशोका नगरी के राजा वैजयंत ने दीक्षित होकर जब केवलज्ञान प्राप्त किया तो धरणेंद्र उनकी वंदना के लिए आया था । <span class="GRef"> <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_27#5|हरिवंशपुराण - 27.5-9]] </span></span></p> | ||
<p id="3">(3) राजा वैजयंत के पुत्र जयंत भी अपने पिता के साथ मुनि हो गये थे । वैजयंत मुनि के केवलज्ञान के समय उनकी वंदना के लिए आये हुए धरणेंद्र को देखकर जयंत ने भी धरणेंद्र होने का निदान किया था जिससे यह भी धरणेंद्र हो गया । <span class="GRef"> <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 27.5-9 </span></span> </p> | <p id="3" class="HindiText">(3) राजा वैजयंत के पुत्र जयंत भी अपने पिता के साथ मुनि हो गये थे । वैजयंत मुनि के केवलज्ञान के समय उनकी वंदना के लिए आये हुए धरणेंद्र को देखकर जयंत ने भी धरणेंद्र होने का निदान किया था जिससे यह भी धरणेंद्र हो गया । <span class="GRef"> <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_27#5|हरिवंशपुराण - 27.5-9]] </span></span> </p> | ||
<p id="4">(4) अपनी पूर्व पर्याय मे यह एक सर्प था । तीर्थंकर पार्श्वनाथ के नाना तापस महीपाल ने पंचाग्नि में डालने के लिए लकड़ी को फाड़ने हेतु जैसे ही कुल्हाड़ी उठायी कि पार्श्वनाथ ने इसमें जीव है कहकर उसे रोका किंतु तापस ने लकड़ी फाड़ ही डाली थी, जिससे लकड़ी के भीतर रहने वाले नाग-नागिन आहत हुए । मरते समय दोनों को पार्श्वनाथ ने शांति-भाव का उपदेश दिया जिससे मरकर नाग तो भवनवासी धरणदेव हुआ और नागिन पद्मावती देवी हुई । तापस महीपाल मरकर शंबर नामक ज्योतिष्क देव हुआ । ध्यानस्थ पार्श्वनाथ को देखकर पूर्व वैरवश उसने पार्श्वनाथ पर अनेक उपसर्ग किये किंतु इसने और इसकी देवी दोनों ने उन उपसर्गों का निवारण किया । <span class="GRef"> महापुराण 73. 101-103, 116-119, 136-141 </span></p> | <p id="4" class="HindiText">(4) अपनी पूर्व पर्याय मे यह एक सर्प था । तीर्थंकर पार्श्वनाथ के नाना तापस महीपाल ने पंचाग्नि में डालने के लिए लकड़ी को फाड़ने हेतु जैसे ही कुल्हाड़ी उठायी कि पार्श्वनाथ ने इसमें जीव है कहकर उसे रोका किंतु तापस ने लकड़ी फाड़ ही डाली थी, जिससे लकड़ी के भीतर रहने वाले नाग-नागिन आहत हुए । मरते समय दोनों को पार्श्वनाथ ने शांति-भाव का उपदेश दिया जिससे मरकर नाग तो भवनवासी धरणदेव हुआ और नागिन पद्मावती देवी हुई । तापस महीपाल मरकर शंबर नामक ज्योतिष्क देव हुआ । ध्यानस्थ पार्श्वनाथ को देखकर पूर्व वैरवश उसने पार्श्वनाथ पर अनेक उपसर्ग किये किंतु इसने और इसकी देवी दोनों ने उन उपसर्गों का निवारण किया । <span class="GRef"> महापुराण 73. 101-103, 116-119, 136-141 </span></p> | ||
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Latest revision as of 15:11, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
- एक लोकपाल–देखें लोकपाल ।
- ( पद्मपुराण - 3.307 ); ( हरिवंशपुराण/22/51-55 )। नमि और विनमि जब भगवान् ऋषभनाथ से राज्य की प्रार्थना कर रहे थे तब इसने आकर उनको अपनी दिति व अदिति नामक देवियों से विद्याकोष दिलवाकर संतुष्ट किया था।
- ( महापुराण/74/श्लोक ) अपनी पूर्व पर्याय में एक सर्प था। महिपाल (देखें कमठ के जीव का आठवाँ भव ) द्वारा पचाग्नि तप के लिए जिस लक्कड़ में आग लगा रखी थी, उसी में यह बैठा था। भगवान् पार्श्वनाथ द्वारा बताया जाने पर जब उसने वह लक्कड़ काटा तो वह घायल होकर मर गया।101-103। मरते समय भगवान् पार्श्वनाथ ने उसे जो उपदेश दिया उसके प्रभाव से वह भवनवासी देवों में धरणेंद्र हुआ।118-119। जब कमठ ने भगवान् पार्श्वनाथ पर उपसर्ग किया तो इसने आकर उनकी रक्षा की।139-141।
पुराणकोष से
(1) भवनवासी-नागकुमार देवों का इंद्र । यह तीर्थंकर ऋषभदेव से भोग-सामग्री की याचना करने वाले नमि और विनमि को भोग सामग्री देने का आश्वासन देकर उन्हें अपने साथ ले आया था । विजयार्ध पर आकर इसने नमि को विजयार्ध की दक्षिणश्रेणी का और विनमि को विजयार्ध की उत्तरश्रेणी का स्वामी बनाया । दोनों को गांधारपदा और पन्नगपदा विद्याएँ दी । इसने दिति और अदिति देवियों के द्वारा भी विद्याओं के सोलह निकायों मे से अनेक विद्याएँ दिलवाकर नमि और विनमि को संतुष्ट किया था । महापुराण 18.94-16, 139-145, 19.182-186, पद्मपुराण - 3.306-308 हरिवंशपुराण - 22.56-60
(2) पश्चिम विदेह की वीतशोका नगरी के राजा वैजयंत ने दीक्षित होकर जब केवलज्ञान प्राप्त किया तो धरणेंद्र उनकी वंदना के लिए आया था । हरिवंशपुराण - 27.5-9
(3) राजा वैजयंत के पुत्र जयंत भी अपने पिता के साथ मुनि हो गये थे । वैजयंत मुनि के केवलज्ञान के समय उनकी वंदना के लिए आये हुए धरणेंद्र को देखकर जयंत ने भी धरणेंद्र होने का निदान किया था जिससे यह भी धरणेंद्र हो गया । हरिवंशपुराण - 27.5-9
(4) अपनी पूर्व पर्याय मे यह एक सर्प था । तीर्थंकर पार्श्वनाथ के नाना तापस महीपाल ने पंचाग्नि में डालने के लिए लकड़ी को फाड़ने हेतु जैसे ही कुल्हाड़ी उठायी कि पार्श्वनाथ ने इसमें जीव है कहकर उसे रोका किंतु तापस ने लकड़ी फाड़ ही डाली थी, जिससे लकड़ी के भीतर रहने वाले नाग-नागिन आहत हुए । मरते समय दोनों को पार्श्वनाथ ने शांति-भाव का उपदेश दिया जिससे मरकर नाग तो भवनवासी धरणदेव हुआ और नागिन पद्मावती देवी हुई । तापस महीपाल मरकर शंबर नामक ज्योतिष्क देव हुआ । ध्यानस्थ पार्श्वनाथ को देखकर पूर्व वैरवश उसने पार्श्वनाथ पर अनेक उपसर्ग किये किंतु इसने और इसकी देवी दोनों ने उन उपसर्गों का निवारण किया । महापुराण 73. 101-103, 116-119, 136-141