माध्यस्थभाव: Difference between revisions
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<p> संवेग और वैराग्यसिद्धि के चतुर्विध भावों में चौथा भाव― अविनयी जीवों पर रागद्वेष रहित होकर समतावृत्ति धारण करना ऐसे भाव से मुक्त जन उपकारियों से न तो प्रेम करते हैं और न द्वेष । वे उदासीन रहते हैं । <span class="GRef"> महापुराण 20.65, </span><span class="GRef"> पद्मपुराण 17.183 </span></p> | <div class="HindiText"> <p class="HindiText"> संवेग और वैराग्यसिद्धि के चतुर्विध भावों में चौथा भाव― अविनयी जीवों पर रागद्वेष रहित होकर समतावृत्ति धारण करना ऐसे भाव से मुक्त जन उपकारियों से न तो प्रेम करते हैं और न द्वेष । वे उदासीन रहते हैं । <span class="GRef"> महापुराण 20.65, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_17#183|पद्मपुराण - 17.183]] </span></p> | ||
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Latest revision as of 15:20, 27 November 2023
संवेग और वैराग्यसिद्धि के चतुर्विध भावों में चौथा भाव― अविनयी जीवों पर रागद्वेष रहित होकर समतावृत्ति धारण करना ऐसे भाव से मुक्त जन उपकारियों से न तो प्रेम करते हैं और न द्वेष । वे उदासीन रहते हैं । महापुराण 20.65, पद्मपुराण - 17.183