माध्यस्थभाव
From जैनकोष
संवेग और वैराग्यसिद्धि के चतुर्विध भावों में चौथा भाव― अविनयी जीवों पर रागद्वेष रहित होकर समतावृत्ति धारण करना ऐसे भाव से मुक्त जन उपकारियों से न तो प्रेम करते हैं और न द्वेष । वे उदासीन रहते हैं । महापुराण 20.65, पद्मपुराण - 17.183