राजीमति: Difference between revisions
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<div class="HindiText"> <p class="HindiText"> उग्रवंशी राजा उग्रसेन और रानी जयावती की पुत्री । कृष्ण ने इस कन्या की नेमिकुमार के लिए याचना की थी । स्वीकृति मिलने पर यह विवाह निश्चित हो गया । इधर राजा उग्रसेन ने विवाह मंडप सजाया । उन्होंने मांसाहारी राजाओं के लिए पशुओं को एक बाड़े में इकट्ठा किया । बारात आई । नेमिकुमार वहाँ बाँधे गये पशुओं को देखकर खुश हुए । जब उन्हें यह पता चला कि इन पशुओं का बारात के भोजन के लिए वध किया जायेगा तो वे विरक्त हो गये और राज्य त्याग कर तप करने वन की ओर चले गये । यह जानकर राजीमति ने भी संयम धारण कर लिया । इसके साथ अन्य छ: हजार रानियों ने भी दीक्षा ली थी । यह संघ की मुख्य आर्यिका बनी । कुंती, सुभद्रा और द्रौपदी ने इसी से दीक्षाएँ लीं । आयु की समाप्ति होने पर यह सोलहवें स्वर्ग में देव हुई । <span class="GRef"> महापुराण 71. 145-172, 186, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_55#72|हरिवंशपुराण - 55.72]], 134, 57. 146, </span><span class="GRef"> पांडवपुराण 22. 41-45, 25.15, 141-143 </span></p> | |||
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Latest revision as of 15:21, 27 November 2023
सिद्धांतकोष से
भोजवंशियों की राजपुत्री थी। नेमिनाथ भगवान् के लिए निश्चित की गयी थी। ( हरिवंशपुराण/55/72 )।
विवाह के दिवस ही नेमिनाथ भगवान् की दीक्षा पर अत्यंत दुःखी हुई तथा स्वयं भी दीक्षा ग्रहण कर ली। ( हरिवंशपुराण/5/130-144 )।
अंत में सोलहवें स्वर्ग में देव हुई ।
पुराणकोष से
उग्रवंशी राजा उग्रसेन और रानी जयावती की पुत्री । कृष्ण ने इस कन्या की नेमिकुमार के लिए याचना की थी । स्वीकृति मिलने पर यह विवाह निश्चित हो गया । इधर राजा उग्रसेन ने विवाह मंडप सजाया । उन्होंने मांसाहारी राजाओं के लिए पशुओं को एक बाड़े में इकट्ठा किया । बारात आई । नेमिकुमार वहाँ बाँधे गये पशुओं को देखकर खुश हुए । जब उन्हें यह पता चला कि इन पशुओं का बारात के भोजन के लिए वध किया जायेगा तो वे विरक्त हो गये और राज्य त्याग कर तप करने वन की ओर चले गये । यह जानकर राजीमति ने भी संयम धारण कर लिया । इसके साथ अन्य छ: हजार रानियों ने भी दीक्षा ली थी । यह संघ की मुख्य आर्यिका बनी । कुंती, सुभद्रा और द्रौपदी ने इसी से दीक्षाएँ लीं । आयु की समाप्ति होने पर यह सोलहवें स्वर्ग में देव हुई । महापुराण 71. 145-172, 186, हरिवंशपुराण - 55.72, 134, 57. 146, पांडवपुराण 22. 41-45, 25.15, 141-143