वारुणी: Difference between revisions
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<p><span class="GRef"> ज्ञानार्णव/37/24-27 </span><span class="SanskritText"> वारुण्यां स हि पुण्यात्मा घनजालचितं नभः। इंद्रायुघतडिद्गर्जच्चमत्काराकुलं स्मरेत्।24। सुधांबुप्रभवैः सांद्रैर्बिंदुभिर्मौक्तिकोज्ज्वलैः। वर्षंतं ते स्मरेद्धीरः स्थूलस्थूलैर्निरंतरम्।25। ततोऽद्वेंदुसमं कांतं पुरं वरुणलांछितम्। ध्यायेत्सुधापयःपूरैः प्लावयंतं नभस्तलम्।26। तेनाचिंत्यप्रभावेण दिव्यध्यानोत्थितांबुना। प्रक्षलयति निःशेषं तद्रजःकायसंभवम्। </span>= <span class="HindiText">वही पुण्यात्मा (ध्यानी मुनि) इंद्रधनुष, बिजली, गर्जनादि चमत्कार सहित मेघों के समूह से भरे हुए आकाश का ध्यान करै।24। तथा उन मेघों को अमृत से उत्पन्न हुए मोतियों के समान उज्ज्वल बड़े-बड़े बिंदुओं से निरंतर धाररूप वर्षते हुए आकाश को धीर, वीर मुनि स्मरण करे अर्थात् ध्यान करै ।25। तत्पश्चात् अर्द्धचंद्राकार, मनोहर, अमृतमय, जल के प्रवाह से आकाश को बहाते हुए वरुणपुर (वरुण मंडल का) चिंतवन करे।26। अचिंत्य है प्रभाव जिसका ऐसे दिव्य ध्यान से उत्पन्न हुए जल से, शरीर के जलने से (देखें [[अग्नि#6 | आग्नेयी धारणा ]]) उत्पन्न हुए समस्त भस्म को प्रक्षालन करता है, अर्थात् धोता है, ऐसा चिंतवन करे।27। </span><br /> | |||
<span class="GRef"> तत्त्वानुशासन/185 </span><span class="SanskritGatha"> ह-मंत्रो नभसि ध्येयः क्षरन्नमृतमात्मनि। तेनान्यत्तद्विनिर्माय पीयूषमयपमुज्ज्वलम्।185।</span> = <span class="HindiText">‘ह’ मंत्र को आकाश में ऐसे ध्याना चाहिए कि उससे आत्मा में अमृत झर रहा है और उस अमृत से अन्य शरीर का निर्माण होकर वह अमृतमय और उज्ज्वल बन रहा है। <br /> | |||
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<div class="HindiText"> <p id="1" class="HindiText">(1) विजया पर्वत संबंधी उत्तरश्रेणी की दूसरी नगरी । <span class="GRef"> महापुराण 19. 78, 87 </span></p> | |||
<p id="2" class="HindiText">(2) भरतक्षेत्र के कौशल देश में वर्धकि अपर नाम वृद्ध ग्राम के मृगायण ब्राह्मण और उसकी स्त्री मधुरा की पुत्री । इसका पिता मरकर साकेत नगर का दिव्यबल अपर नाम अतिबल राजा हुआ था । सुमति उसकी रानी थी । यह मरकर उसकी हिरण्यवती पुत्री हुई जिसका विवाह पोदनपुर के राजा पूर्णचंद्र से हुआ । पूर्वभव की इसकी माँ मथुरा इस पर्याय में इसकी रामदत्ता नाम की पुत्री हुई । <span class="GRef"> महापुराण 59.207-211, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_27#61|हरिवंशपुराण - 27.61-64]] </span></p> | |||
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Latest revision as of 22:00, 11 December 2023
सिद्धांतकोष से
ज्ञानार्णव/37/24-27 वारुण्यां स हि पुण्यात्मा घनजालचितं नभः। इंद्रायुघतडिद्गर्जच्चमत्काराकुलं स्मरेत्।24। सुधांबुप्रभवैः सांद्रैर्बिंदुभिर्मौक्तिकोज्ज्वलैः। वर्षंतं ते स्मरेद्धीरः स्थूलस्थूलैर्निरंतरम्।25। ततोऽद्वेंदुसमं कांतं पुरं वरुणलांछितम्। ध्यायेत्सुधापयःपूरैः प्लावयंतं नभस्तलम्।26। तेनाचिंत्यप्रभावेण दिव्यध्यानोत्थितांबुना। प्रक्षलयति निःशेषं तद्रजःकायसंभवम्। = वही पुण्यात्मा (ध्यानी मुनि) इंद्रधनुष, बिजली, गर्जनादि चमत्कार सहित मेघों के समूह से भरे हुए आकाश का ध्यान करै।24। तथा उन मेघों को अमृत से उत्पन्न हुए मोतियों के समान उज्ज्वल बड़े-बड़े बिंदुओं से निरंतर धाररूप वर्षते हुए आकाश को धीर, वीर मुनि स्मरण करे अर्थात् ध्यान करै ।25। तत्पश्चात् अर्द्धचंद्राकार, मनोहर, अमृतमय, जल के प्रवाह से आकाश को बहाते हुए वरुणपुर (वरुण मंडल का) चिंतवन करे।26। अचिंत्य है प्रभाव जिसका ऐसे दिव्य ध्यान से उत्पन्न हुए जल से, शरीर के जलने से (देखें आग्नेयी धारणा ) उत्पन्न हुए समस्त भस्म को प्रक्षालन करता है, अर्थात् धोता है, ऐसा चिंतवन करे।27।
तत्त्वानुशासन/185 ह-मंत्रो नभसि ध्येयः क्षरन्नमृतमात्मनि। तेनान्यत्तद्विनिर्माय पीयूषमयपमुज्ज्वलम्।185। = ‘ह’ मंत्र को आकाश में ऐसे ध्याना चाहिए कि उससे आत्मा में अमृत झर रहा है और उस अमृत से अन्य शरीर का निर्माण होकर वह अमृतमय और उज्ज्वल बन रहा है।
- रुचक पर्वत निवासिनी एक दिक्कुमारी - देखें लोक - 5.13।
- विजयार्ध की उत्तर श्रेणी का नगर। - देखें विद्याधर ।
पुराणकोष से
(1) विजया पर्वत संबंधी उत्तरश्रेणी की दूसरी नगरी । महापुराण 19. 78, 87
(2) भरतक्षेत्र के कौशल देश में वर्धकि अपर नाम वृद्ध ग्राम के मृगायण ब्राह्मण और उसकी स्त्री मधुरा की पुत्री । इसका पिता मरकर साकेत नगर का दिव्यबल अपर नाम अतिबल राजा हुआ था । सुमति उसकी रानी थी । यह मरकर उसकी हिरण्यवती पुत्री हुई जिसका विवाह पोदनपुर के राजा पूर्णचंद्र से हुआ । पूर्वभव की इसकी माँ मथुरा इस पर्याय में इसकी रामदत्ता नाम की पुत्री हुई । महापुराण 59.207-211, हरिवंशपुराण - 27.61-64
(3) एक विद्या यह रावण को प्राप्त थी । पद्मपुराण - 7.329-332
(4) कांपिल्य नगर के धनद वैश्य की स्त्री । भूषण की यह जननी थी । पद्मपुराण - 85.85-86