स्त्री: Difference between revisions
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<p><span class="HindiText">धर्मपत्नी, भोगपत्नी, दासीपत्नी, परस्त्री, वेश्यादि भेद से स्त्रियाँ कई प्रकार की कही गयी हैं। | <p><span class="HindiText">धर्मपत्नी, भोगपत्नी, दासीपत्नी, परस्त्री, वेश्यादि भेद से स्त्रियाँ कई प्रकार की कही गयी हैं। ब्रह्मचर्य धर्म के पालनार्थ यथा भूमिका इनके त्याग का उपदेश है। आगम में जो स्त्रियों की इतनी निंदा की गयी है, वह केवल इनके भौतिक रूप पर ग्लानि उत्पन्न कराने के लिए ही जानना अन्यथा तो अनेकों सतियाँ भी हुई हैं जो पूज्य हैं।</span></p> | ||
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< | <li class="HindiText">[[ #1 | स्त्री सामान्य व लक्षण]]</li> | ||
</span> = <span class="HindiText">जो मिथ्यात्व आदि दोषों से अपने आपको आच्छादित करे और मधुर संभाषण आदि के द्वारा दूसरों को भी दोष से आच्छादित करे, वह निश्चय से यत: आच्छादन स्वभाव वाली है अत: ‘स्त्री’ इस नाम से वर्णित की गयी है। ( | <li class="HindiText">[[ #2 | स्त्रीवेदकर्म का लक्षण]]</li> | ||
<li class="HindiText">[[ #3 | स्त्री के अनेकों पर्यायवाची शब्दों के लक्षण]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #4 | द्रव्य व भाव स्त्री के लक्षण]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #5 | गृहीता आदि स्त्रियों के भेद व लक्षण]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #6 | चेतनाचेतन स्त्रियाँ]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #7 | स्त्री की निंदा]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #8 | स्त्री प्रशंसा योग्य भी है]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #9 | स्त्रियों की निंदा व प्रशंसा का समन्वय]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #10 | स्त्रियों के कर्तव्य]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #11 | स्त्री पुरुष की अपेक्षा कनिष्ठ मानी गयी है]]</li> | |||
<li class="HindiText">[[ #12 | धर्मपत्नी के अतिरिक्त अन्य स्त्रियों का निषेध]]</li> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="1" id="1"> स्त्री सामान्य व लक्षण</strong></span><br /> | |||
<span class="GRef"> पंचसंग्रह / प्राकृत/1/105 </span><span class="PrakritText">छादयति सयं दोसेण जदो छादयदि परं पि दोसेण। छादणसीला णियदं तम्हा सा वण्णिया इत्थी। | |||
</span> = <span class="HindiText">जो मिथ्यात्व आदि दोषों से अपने आपको आच्छादित करे और मधुर संभाषण आदि के द्वारा दूसरों को भी दोष से आच्छादित करे, वह निश्चय से यत: आच्छादन स्वभाव वाली है अत: ‘स्त्री’ इस नाम से वर्णित की गयी है। <span class="GRef">( धवला 1/1,1,101/ गाथा 170/341); ( गोम्मटसार जीवकांड/274/595 ); (पंचसंग्रह/संस्कृत/1/199)</span>।</span></p> | |||
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<span class=" | <span class="GRef"> धवला 1/1,1,101/340/9 </span><span class="SanskritText">दोषैरात्मानं परं च स्तृणाति छादयतीति स्त्री, स्त्री चासौ वेदश्च स्त्रीवेद:। अथवा पुरुषं स्तृणाति आकांक्षतीति स्त्री पुरुषकांक्षेत्यर्थ:। स्त्रियं विंदतीति स्त्रीवेद: अथवा वेदनं वेद:, स्त्रियो वेद: स्त्रीवेद:।</span></p> | ||
<ol class="HindiText"> | <ol class="HindiText"> | ||
<li>जो दोषों से स्वयं अपने को और दूसरों को आच्छादित करती है उसे स्त्री कहते हैं। ( | <li>जो दोषों से स्वयं अपने को और दूसरों को आच्छादित करती है उसे स्त्री कहते हैं। <span class="GRef">( धवला 6/1,9-1,24/46/8 )</span>; <span class="GRef">( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/274/596/4 )</span> और स्त्री रूप जो वेद है उसे स्त्रीवेद कहते हैं।</li> | ||
<li>अथवा जो पुरुष की आकांक्षा करती है उसे स्त्री कहते हैं, जिसका अर्थ पुरुष की चाह करने वाली होता है, जो अपने को स्त्री रूप अनुभव करती है उसे स्त्रीवेद कहते हैं। | <li>अथवा जो पुरुष की आकांक्षा करती है उसे स्त्री कहते हैं, जिसका अर्थ पुरुष की चाह करने वाली होता है, जो अपने को स्त्री रूप अनुभव करती है उसे स्त्रीवेद कहते हैं। | ||
</li> | </li> | ||
<li>अथवा वेदन करने को वेद कहते हैं और स्त्री रूप वेद को स्त्रीवेद कहते हैं।</li> | <li>अथवा वेदन करने को वेद कहते हैं और स्त्री रूप वेद को स्त्रीवेद कहते हैं।</li> | ||
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<li class="HindiText"><strong name="2" id="2"> स्त्रीवेद कर्म का लक्षण</strong></span><br /> | |||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/8/9/386/2 </span><span class="SanskritText">यदुदयात्स्त्रैणान्भावान्प्रतिपद्यते स स्त्रीवेद:।</span> = <span class="HindiText">जिसके उदय से स्त्री संबंधी भावों को प्राप्त होता वह स्त्रीवेद है। <span class="GRef">( राजवार्तिक/8/9/574/20 )</span>; <span class="GRef">( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1081 )</span>।</span></p> | |||
<p><span class="GRef"> धवला 6/1,9-1,24/47/1 </span><span class="PrakritText">जेसिं कम्मक्खंधाणमुदएण पुरुसम्मि आकंखा उप्पज्जइ तेसिमित्थिवेदो त्ति सण्णा।</span> = <span class="HindiText">जिन कर्म स्कंधों के उदय से पुरुष में आकांक्षा उत्पन्न होती है उन कर्मस्कंधों की ‘स्त्रीवेद’ यह संज्ञा है। <span class="GRef">( धवला 13/5,5,96/361/6 )</span>।</span></p> | |||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> | ||
<strong>* स्त्रीवेद के बंध योग्य परिणाम</strong>-देखें [[ मोहनीय#3.6 | मोहनीय - 3.6]]।</p> | |||
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<li class="HindiText"><strong name="3" id="3"> स्त्री के अनेकों पर्यायवाची शब्दों के लक्षण</strong></span><br /> | |||
<span class="GRef"> भगवती आराधना/977-981/1045 </span><span class="PrakritText">पुरिसं वधमुवणेदित्ति होदि बहुगा णिरुत्तिवादम्मि। दोसेसंघादिंदि य होदि य इत्थी मणुस्सस्स।977। तारिसओ णत्थि अरी णरस्स अण्णेत्ति उच्चदे णारी। पुरसं सदा पमत्तं कुणदि त्ति य उच्चदे पमदा।978। गलए लायदि पुरिसस्स अणत्थं जेण तेण विलया सा। जोजेदि णरं दुक्खेण तेण जुवदी य जोसा य।979। अबलत्ति होदि जं से ण दढं हिदयम्मि धिदिबलं अत्थि। कुमरणोपायं जं जणयदि तो उच्चदि हि कुमारी।980। आलं जाणेदि पुरिसस्स महल्लं जेण तेण महिला सा। एवं महिला णामाणि होंति असुभाणि सव्वाणि।981।</span> = <span class="HindiText">स्त्री पुरुष को मारती है इस वास्ते उसको वधू कहते हैं। पुरुष में यह दोषों का समुदाय संचित करती है इस वास्ते इसका ‘स्त्री’ यह नाम है।977। मनुष्य को इसके समान दूसरा शत्रु नहीं है अत: इसको नारी कहते हैं। यह पुरुष को प्रमत्त अर्थात् उन्मत्त बनाती है इसलिए इसको ‘प्रमदा’ कहते हैं।978। पुरुष के गले में यह अनर्थों को बाँधती है अथवा पुरुष को देखकर उसमें लीन हो जाती है अत: इसको विलया कहते हैं। यह स्त्री पुरुष को दु:ख से संयुक्त करती है अत: युवति और योषा ऐसे दो नाम इसके हैं।979। इसके हृदय में धैर्य रूपी बल दृढ रहता नहीं अत: इसको अबला कहते हैं। कुत्सित ऐसा मरण का उपाय उत्पन्न करती है, इसलिए इसको कुमारी कहते हैं।980। यह पुरुष के ऊपर दोषारोपण करती है इसलिए उसको महिला कहते हैं। ऐसे जितने स्त्रियों के नाम हैं वे सब अशुभ है।98।</span></li> | |||
<strong>* स्त्रीवेद के | <li class="HindiText"><strong name="4" id="4"> द्रव्य व भाव स्त्री के लक्षण</strong></span><br /> | ||
< | <span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/2/52/200/6 </span><span class="SanskritText">स्त्रीवेदोदयात् स्त्यायस्त्यस्यां गर्भ इति स्त्री।</span> = <span class="HindiText">स्त्रीवेद के उदय से जिसमें गर्भ रहता है वह (द्रव्य) स्त्री है। <span class="GRef">( राजवार्तिक/2/52/1/57/4 )</span>।</span></p> | ||
<strong id="3"> | <p><span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/271/591/17 </span><span class="SanskritText">स्त्रीवेदोदयेन पुरुषाभिलाषरूपमैथुनसंज्ञाक्रांतो जीव: भावस्त्री भवति। स्त्रीवेदोदयेन निर्माणनामकर्मोदययुक्तांगोपांगनामकर्मोदयेन निर्लोममुखस्तनयोन्यादिलिंगलक्षितशरीरयुक्तो जीवो भवप्रथमसमयमादिं कृत्वा तद्भवचरमसमयपर्यंतं द्रव्य (स्त्री) भवति।</span> = <span class="HindiText">स्त्रीवेद के उदय से पुरुष की अभिलाषा रूप मैथुन संज्ञा का धारक जीव भाव स्त्री होता है। ...निर्माण नामकर्म के उदय से युक्त स्त्रीवेद रूप आकार विशेष लिये, अंगोपांग नामकर्म के उदय से रोम रहित मुख, स्तन, योनि इत्यादि चिह्न संयुक्त शरीर का धारक जीव, सो पर्याय के प्रथम समय से लगाकर अंतसमय पर्यंत द्रव्य स्त्री होता है।</span></p> | ||
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<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> | ||
<strong id=" | <strong>नोट</strong>-(और भी देखो भाव स्त्री का लक्षण [[स्त्री#1 | स्त्री - 1 ]] , [[ स्त्री#2 | स्त्री - 2 ]])।</li> | ||
< | <li class="HindiText"><strong name="5" id="5"> गृहीता आदि स्त्रियों के भेद व लक्षण</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef">लाठी संहिता/2/178-206</span> <span class="SanskritText">देवशास्त्रगुरून्नत्वा बंधुवर्गात्मसाक्षिकम् । पत्नी पाणिगृहीता स्यात्तदन्या चेटिका मता।178। तत्र पाणिगृहीता या सा द्विधा लक्षणाद्यथा। आत्म-ज्ञाति: परज्ञाति: कर्मभूरूढिसाधनात् ।179। परिणीतात्मज्ञातिश्च धर्मपत्नीति सैव च। धर्मकार्ये हि सध्रीची यागादौ शुभकर्मणि।180। स: सूनु: कर्मकार्येऽपि गोत्ररक्षादिलक्षणे। सर्वलोकाविरुद्धत्वादधिकारी न चेतर:।182। परिणीतानात्मज्ञातिर्या पितृसाक्षिपूर्वकम् । भोगपत्नीति सा ज्ञेया भोगमात्रैकसाधनात् ।183। आत्मज्ञाति: परज्ञाति: सामान्यवनिता तु या। पाणिग्रहणशून्या चेच्चेटिका सुरतप्रिया।184। चेटिका भोगपत्नी च द्वयोर्भोगांगमात्रत:। लौकिकोक्तिविशेषोऽपि न भेद: पारमार्थिक:।185। विशेषोऽस्ति मिथश्चात्र परत्वैकत्वतोऽपि च। गृहीता चागृहीता च तृतीया नगरांगना।198। गृहीतापि द्विधा तत्र यथाद्या जीवभर्तृका। सत्सु पित्रादिवर्गेषु द्वितीया मृतभर्तृका।199। चेटिका या च विख्याता पतिस्तस्या: स एव हि। गृहीता सापि विख्याता स्यादगृहीता च तद्वत् ।200। जीवत्सु बंधुवर्गेषु रंडा स्यान्मृतभर्तृका। मृतेषु तेषु सैव स्यादगृहीता च स्वैरिणी।201। अस्या: संसर्गवेलायामिंगिते नरि वैरिभि:। सापराधतया दंडो नृपादिभ्यो भवेद्ध्रुवम् ।202। केचिज्जैना वदंत्येवं गृहीतैषां स्वलक्षणात् । नृपादिभिर्गृहीतत्वान्नीतिमार्गानतिक्रमात् ।203। विख्यातो नीतिमार्गोऽयं स्वामी स्याज्जगतां नृप:। वस्तुतो यस्य न स्वामी तस्य स्वामी महीपति:।204। तन्मतेषु गृहीता सा पित्राद्यैरावृतापि या। यस्या: संसर्गतो भीतिर्जायते न नृपादित:।205। तन्मते द्विधैव स्वैरी गृहीतागृहीतभेदत:। सामान्यवनिता या स्याद्गृहीतांतर्भावत:।206।</span> = <span class="HindiText">स्वस्त्री-देव शास्त्र गुरु को नमस्कार कर तथा अपने भाई बंधुओं की साक्षी पूर्वक जिस कन्या के साथ विवाह किया जाता है वह विवाहिता स्त्री कहलाती है, ऐसी विवाहिता स्त्रियों के सिवाय अन्य सब पत्नियाँ दासियाँ कहलाती हैं।178। विवाहिता पत्नी दो प्रकार की होती है। एक तो कर्मभूमि में रूढि से चली आयी अपनी जाति की कन्या के साथ विवाह करना और दूसरी अन्य जाति की कन्या के साथ विवाह करना।179। अपनी जाति की जिस कन्या के साथ विवाह किया जाता है वह धर्मपत्नी कहलाती है। वह ही यज्ञपूजा प्रतिष्ठा आदि शुभ कार्यों में व प्रत्येक धर्म कार्यों में साथ रहती है।180। उस धर्मपत्नी से उत्पन्न पुत्र ही पिता के धर्म का अधिकारी होता है और गोत्र की रक्षा करने रूप कार्य में वह ही समस्त लोक का अविरोधी पुत्र है। अन्य जाति की विवाहिता कन्या रूप पत्नी से उत्पन्न पुत्र को उपरोक्त कार्यों का अधिकार नहीं है।182। जो पिता की साक्षी पूर्वक अन्य जाति की कन्या के साथ विवाह किया जाता है वह भोगपत्नी कहलाती है, क्योंकि वह केवल भोगोपभोग सेवन करने के काम आती है, अन्य कार्यों में नहीं।183। अपनी जाति तथा पर जाति के भेद से स्त्रियाँ दो प्रकार की हैं तथा जिसके साथ विवाह नहीं हुआ है ऐसी स्त्री दासी वा चेटी कहलाती है, ऐसी दासी केवल भोगाभिलाषिणी है।184। दासी और भोगपत्नी केवल भोगोपभोग के ही काम आती है। लौकिक दृष्टि से यद्यपि उनमें थोड़ा भेद है पर परमार्थ से कोई भेद नहीं है।185। परस्त्री भी दो प्रकार की हैं, एक दूसरे के अधीन रहने वाली और दूसरी स्वतंत्र रहने वाली जिनको गृहीता और अगृहीता कहते हैं। इनके सिवाय तीसरी वेश्या भी परस्त्री कहलाती है।198। गृहीता या विवाहिता स्त्री दो प्रकार की हैं एक ऐसी स्त्रियाँ जिनका पति जीता है तथा दूसरी ऐसी जिनका पति तो मर गया हो परंतु माता, पिता अथवा जेठ देवर के यहाँ रहती हों।199। इसके सिवाय जो दासी के नाम से प्रसिद्ध हो और उसका पति ही घर का स्वामी हो वह भी गृहीता कहलाती है। यदि वह दासी किसी की रक्खी हुई न हो, स्वतंत्र हो तो वह गृहीता दासी के समान ही अगृहीता कहलाती है।200। जिसके भाई बंधु जीते हों परंतु पति मर गया हो ऐसी विधवा स्त्री को भी गृहीता कहते हैं। ऐसी विधवा स्त्री के यदि भाई बंधु सब मर जायें तो अगृहीता कहलाती है।201। ऐसी स्त्रियों के साथ संसर्ग करते समय कोई शत्रु राजा को खबर कर दे तो अपराध के बदले राज्य की ओर से कठोर दंड मिलता है।202। कोई यह भी कहते हैं कि जिस स्त्री का पति और भाई बंधु सब मर जायें तो भी अगृहीता नहीं कहलाती किंतु गृहीता ही कहलाती है, क्योंकि गृहीता लक्षण उसमें घटित होता है क्योंकि नीतिमार्ग का उल्लंघन न करते हुए राजाओं के द्वारा ग्रहण की जाती हैं इसलिए गृहीता ही कहलाती हैं।203। संसार में यह नीतिमार्ग प्रसिद्ध है कि संसार भर का स्वामी राजा होता है। वास्तव में देखा जाये तो जिसका कोई स्वामी नहीं होता उसका स्वामी राजा ही होता है।204। जो इस नीति को मानते हैं, उनके अनुसार उसको गृहीता ही मानना चाहिए, चाहे वह माता पिता के साथ रहती हो, चाहे अकेली रहती हो। उनके मतानुसार अगृहीता उसको समझना चाहिए जिसके साथ संसर्ग करने पर राजा का डर न हो।205। ऐसे लोगों के मतानुसार रहने वाली (कुलटा) स्त्रियाँ दो प्रकार ही समझनी चाहिए। एक गृहीता दूसरी अगृहीता। जो सामान्य स्त्रियाँ हैं वे सब गृहीता में अंतर्भूत कर लेना चाहिए (तथा वेश्याएँ अगृहीता समझनी चाहिए)।206।</span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="6" id="6"> चेतनाचेतन स्त्रियाँ</strong></span><br /> | |||
<span class="GRef"> चारित्रसार/95/2 </span><span class="SanskritText">तिर्यग्मनुष्यदेवाचेतनभेदाच्चतुर्विधा स्त्री...।</span> = <span class="HindiText">तिर्यंच, मनुष्य, देव और अचेतन के भेद से चार प्रकार की स्त्रियाँ होती हैं। <span class="GRef">( बोधपाहुड़/ टीका/118/267/20)</span></span></p> | |||
<p><span class="GRef"> बोधपाहुड़/ टीका/118/267/16</span> <span class="SanskritText">काष्ठ-पाषाण-लेपकृतास्त्रियो।</span> = <span class="HindiText">काष्ठ पाषाण और लेप की हुई ये तीन प्रकार की अचेतन स्त्रियाँ होती हैं।</span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="7" id="7"> स्त्री की निंदा</strong></span><br /> | |||
<span class="GRef"> भगवती आराधना/ गाथा नं.</span> <span class="PrakritText">वग्घविसचोरअग्गीजलमत्तगयकण्हसप्पसत्तूसु। सो वीसभं गच्छदि वीसभदि जो महिलिया सु।952। पाउसकालणदीवोव्व ताओ णिच्चंपि कलुसहिदयाओ। धणहरणकदमदीओ चोरोव्व सकज्जगुरुयाओ।954। आगास भूमि उदधी जल मेरू वाउणो वि परिमाण। मादुं सक्का ण पुणो सक्का इत्थीण चित्ताइं।963। जो जाणिऊण रत्तं पुरिसं चम्मट्ठिमंसपरिसेसं। उद्दाहंति य वडिसामिसलग्गमच्छं व।971। चंदो हविज्ज उण्हो सीदो सूरो वि थड्डमागासं। ण य होज्ज अदोसा भद्दिया वि कुलबालिया महिला।990।</span> = <span class="HindiText">जो पुरुष स्त्रियों पर विश्वास करता है वह बाघ, विष, चोर, आग, जल प्रवाह, मदवाला हाथी, कृष्णसर्प, और शत्रु इनके ऊपर विश्वास करता है ऐसा समझना चाहिए।952। वर्षाकाल की नदी का मध्य प्रदेश मलिन पानी से भरा रहता है तो स्त्रियों का चित्त भी राग, द्वेष, मोह, असूया आदि दुष्ट भावों से मलिन है। चोर जैसा मन में इन लोगों का धन किस उपाय से ग्रहण किया जावे ऐसा विचार करता है, वैसे ही स्त्रियाँ भी (रति क्रीड़ा द्वारा) धन हरण करने में चतुर होती है।954। आकाश, जमीन, समुद्र, पानी, मेरु और वायु इन पदार्थों का कुछ परिमाण है, परंतु स्त्री के चित्त का अर्थात् उनके मन में उत्पन्न होने वाले विकल्पों का परिमाण जान लेना अशक्य है।963। अपने पर आसक्त हुआ पुरुष चर्म, हड्डी, और मांस ही शेष बचा हुआ है ऐसा देखकर गल को लगे हुए मत्स्य के समान उसको मार देती है, अथवा घर से निकाल देती है।971। चंद्र कदाचित् शीतलता को त्यागकर उष्ण बनेगा, सूर्य भी ठंडा होगा, आकाश भी लोह पिंड के समान घन होगा, परंतु कुलीन वंश की भी स्त्री कल्याणकारिणी और सरल स्वभाव की धारक न होगी।990। <span class="GRef"> (विशेष दे.भगवती आराधना/938-1030)</span></span></p> | |||
<p><span class="GRef"> ज्ञानार्णव/12/44,50 </span><span class="SanskritText">भेत्तं शूलमसिं छेत्तुं कर्तितुं क्रकचं दृढम् । नरान्पीडयितुं यंत्रं वेधसा विहिता: स्त्रिय:।44। यदि मूर्त्ता: प्रजायंते स्त्रीणां दोषा: कथंचन। पूरयेयुस्तदा नूनं नि:शेषं भुवनोदरम् ।50।</span> = <span class="HindiText">ब्रह्मा ने स्त्रियाँ बनायी हैं वे मनुष्यों को बेधने के लिए शूली, काटने के लिए तलवार, कतरने के लिए करोंत अथवा पेलने के लिए मानो यंत्र ही बनाये हैं।44। आचार्य कहते हैं कि स्त्रियों के दोष यदि किसी प्रकार से मूर्तिमान् हो जायें तो मैं समझता हूँ कि उन दोषों से निश्चय करके समस्त त्रिलोकी परिपूर्ण भर जायेगी।50। (विशेष विस्तार दे.<span class="GRef"> ज्ञानार्णव/121-155 )</span></span></p> | |||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> | ||
<strong id=" | <strong>* स्त्री की निंदा का कारण उसकी दोषप्रचुरता-देखें [[ स्त्री#9 | स्त्री - 9]]।</strong></li> | ||
<p><span class=" | <li class="HindiText"><strong name="8" id="8"> स्त्री प्रशंसा योग्य भी है</strong></span><br /> | ||
<span class="HindiText">स्त्रियाँ | <span class="GRef"> भगवती आराधना/995-1000 </span><span class="PrakritText">किं पुण गुणसहिदाओ इच्छीओ अत्थि वित्थडजसाओ। णरलोगदेवदाओ देवेहिं वि वंदणिज्जाओ।995। तित्थयर चक्कधर वासुदेवबलदेवगणधरवराणं। जणणीओ महिलाओ सुरणरवरेंहिं महियाओ।996। एगपदिव्वइकण्णा वयाणि धारिंति कित्तिमहिलाओ। वेधव्वतिव्वदुक्खं आजीवं णिंति काओ वि।997। सीलवदीवो सुच्चंति महीयले पत्तपाडिहेराओ। सावाणुग्गहसमत्थाओ विय काओव महिलाओ।998। उग्घेण ण बूढाओ जलंतघोरग्गिणा ण दड्ढाओ। सप्पेहिं सावज्जेहिं वि हरिदा खद्धा ण काओ वि।999। सव्वगुणसमग्गाणं साहूणां पुरिसपवरसीहाणं। चरमाणं जणणित्तं पत्ताओ हवंति काओ वि।1000।</span> = <span class="HindiText">जगत् में कोई-कोई स्त्रियाँ गुणातिशय से शोभा युक्त होने से मुनियों के द्वारा भी स्तुति योग्य हुई हैं। उनका यश जगत् में फैला है, ऐसी स्त्रियाँ मनुष्य लोक में देवता के समान पूज्य हुई हैं, देव उनको नमस्कार करते हैं, तीर्थंकर, चक्रवर्ती, नारायण, बलभद्र और गणधरादिकों को प्रसवने वाली स्त्रियाँ देव, और मनुष्यों में प्रधान व्यक्ति हैं। उनसे वंदनीय हो गयी हैं। कितनेक स्त्रियाँ एक पतिव्रत धारण करती हैं, कितनेक स्त्रियाँ आजन्म अविवाहित रहकर निर्मल ब्रह्मचर्य व्रत धारण करती हैं। कितनेक स्त्रियाँ वैधव्य का तीव्र दु:ख आजन्म धारण करती हैं।995-997। शीलव्रत धारण करने से कितनेक स्त्रियों में शाप देना और अनुग्रह करने की शक्ति भी प्राप्त हुई थी। ऐसा शास्त्रों में वर्णन है। देवताओं के द्वारा ऐसा स्त्रियों का अनेक प्रकार से माहात्म्य भी दिखाया गया है।998। ऐसी शीलवती स्त्रियों को जलप्रवाह भी बहाने में असमर्थ है। अग्नि भी उनको नहीं जला सकती है, वह शीतल होती हैं, ऐसी स्त्रियों को सर्प व्याघ्रादिक प्राणी नहीं खा सकते हैं अथवा मुँह में लेकर अन्यस्थान में नहीं फेंक देते हैं।999। संपूर्ण गुणों से परिपूर्ण, श्रेष्ठ पुरुषों में भी श्रेष्ठ, तद्भव मोक्षगामी ऐसे पुरुषों को कितनेक शीलवती स्त्रियों ने जन्म दिया है।1000।</span></p> | ||
<p><span class="GRef"> कुरल काव्य/6/5,8 </span><span class="SanskritText">सर्वदेवान् परित्यज्य पतिदेवं नमस्यति। प्रातरुत्थाय या नारी तद्वश्या वारिदा: स्वयम् ।5। प्रसूते या शुभं पुत्रं लोकमान्यं विदांवरम् । स्तुवंति देवता नित्यं स्वर्गस्था अपि ता मुदा।8।</span> = <span class="HindiText">जो स्त्री दूसरे देवताओं की पूजा नहीं करती किंतु बिछौने से उठते ही अपने पतिदेव को पूजती है, जल से भरे हुए बादल भी उसका कहना मानते हैं।5। जो महिला लोकमान्य और विद्वान् पुत्र को जन्म देती है स्वर्गलोक के देवता भी उसकी स्तुति करते हैं।8।</span></p> | |||
<p><span class="GRef"> ज्ञानार्णव/12/57-58 </span><span class="SanskritText">ननु संति जीवलोके काश्चिच्छमशीलसंयमोपेता:। निजवंशतिलकभूता श्रुतसत्यसमन्विता नार्य:।57। सतीत्वेन महत्त्वेन वृत्तेन विनयेन च। विवेकेन स्त्रिय: काश्चिद् भूषयंति धरातलम् ।58।</span> = <span class="HindiText">अहो । इस जगत् में अनेक स्त्रियाँ ऐसी भी हैं जो समभाव और शील संयम से भूषित हैं, तथा अपने वंश में तिलकभूत हैं, और शास्त्र तथा सत्य वचन करके सहित भी हैं।57। अनेक स्त्रियाँ ऐसी हैं जो पतिव्रतपन से, महत्त्व से, चारित्र से, विनय से, विवेक से इस पृथिवी तल को भूषित करती हैं।58।</span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="9" id="9"> स्त्रियों की निंदा व प्रशंसा का समन्वय</strong></span><br /> | |||
<span class="GRef"> भगवती आराधना/1001-1002/1051 </span><span class="PrakritText">मोहोदयेण जीवो सव्वो दुस्सीलमइलिदो होदि। सो पुण सव्वो महिला पुरिसाणं होइ सामण्णा।1001। तस्मा सा पल्लवणा पउरा महिलाण होदि अधिकिच्चा। सीलवदीओ भणिदे दोसे किह णाम पावंति।1002।</span> = <span class="HindiText">मोहोदय से जीव कुशील बनते हैं, मलिन स्वभाव के धारक बनते हैं। यह मोहोदय सर्व स्त्रियों और पुरुषों में समान हैं। जो पीछे स्त्रियों के दोष (देखें [[ स्त्री#7 | स्त्री - 7]]) का विस्तार से वर्णन किया है वह श्रेष्ठ शीलवती स्त्रियों के साथ संबंध नहीं रखता अर्थात् वह सब वर्णन कुशील स्त्रियों के विषय में समझना चाहिए। क्योंकि शीलवती स्त्रियाँ गुणों का पुंजस्वरूप ही हैं। उनको दोष कैसे छू सकते हैं।1001-1002।</span></p> | |||
<p><span class="GRef"> ज्ञानार्णव/12/59 </span><span class="SanskritText">निर्विण्णैर्भवसंक्रमाच्छ्रुतधरैरेकांततो निस्पृहैर्नार्यो यद्यपि दूषिता: शमधनैर्ब्रह्मव्रतालंबिभि:। निंद्यंते न तथापि निर्मलयमस्वाध्यायवृत्तांकिता निर्वेदप्रशमादिपुण्यचरितैर्या: शुद्धिभूता भुवि।59।</span> = <span class="HindiText">जो संसार परिभ्रमण से विरक्त हैं, शास्त्रों के परगामी और स्त्रियों से सर्वथा निस्पृह हैं तथा उपशम भाव ही है धन जिनके ऐसे ब्रह्मचर्यावलंबी मुनिगणों ने यद्यपि स्त्रियों की निंदा की है तथापि जो स्त्रियाँ निर्मल हैं और पवित्र यम, नियम, स्वाध्याय, चारित्रादि से विभूषित हैं और वैराग्य-उपशमादि पवित्राचरणों से पवित्र हैं वे निंदा करने योग्य नहीं हैं। क्योंकि निंदा दोषों की की जाती है, किंतु गुणों की निंदा नहीं की जाती।51।</span></p> | |||
<p><span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/274/596/4 </span><span class="SanskritText">यद्यपि तीर्थंकरजनन्यादीनां कासांचित् सम्यग्दृष्टीनां एतदुक्तदोषाभाव:, तथापि तासां दुर्लभत्वेन सर्वत्र सुलभप्राचुर्यव्यवहारापेक्षया स्त्रीलक्षणं निरुक्तिपूर्वकमुक्तम् ।</span> = <span class="HindiText">यद्यपि तीर्थंकर की माता आदि सम्यग्दृष्टिणी स्त्रियों में दोष नहीं है तथापि वे स्त्री थोड़ी हैं और पूर्वोक्त दोषों से युक्त स्त्री घनी हैं, इसलिए प्रचुर व्यवहार की अपेक्षा स्त्री का ऐसा लक्षण कहा।</span></p> | |||
<p class="HindiText"> | <p class="HindiText"> | ||
<strong id="12"> | <strong>*</strong> <strong>मोक्षमार्ग में स्त्रीत्व का स्थान</strong>-देखें [[ वेद#6 | वेद - 6-7]]।</li> | ||
< | <li class="HindiText"><strong name="10" id="10"> स्त्रियों के कर्तव्य</strong></span><br /> | ||
<span class="GRef"> कुरल काव्य/6/1,6,7 </span><span class="SanskritText">यस्यामस्ति सुपत्नीत्वं सैवास्ति गृहिणी सती। गृहस्यायमनालोच्य व्ययते न पतिव्रता।1। आदृता पतिसेवायां रक्षणे कीर्तिधर्मयो:। अद्वितीया सतां मान्या पत्नी सा पतिदेवता।6। गुप्तस्थाननिवासेन स्त्रीणां नैव सुरक्षणम् । अक्षाणां निग्रहस्तासां केवलो धर्मरक्षक:।7।</span> = <span class="HindiText">वही उत्तम सहसर्मिणी है, जिसमें सुपत्नीत्व के सब गुण वर्तमान हों और जो अपने पति की सामर्थ्य से अधिक व्यय नहीं करती।1। वही उत्तम सहधर्मिणी है जो अपने धर्म और यश की रक्षा करती है, तथा प्रेमपूर्वक अपने पतिदेव की आराधना करती है।6। चार दिवारी के अंदर पर्दे के साथ रहने से क्या लाभ ? स्त्री के धर्म का सर्वोत्तम रक्षक उसका इंद्रिय निग्रह है।7।</span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="11" id="11"> स्त्री पुरुष की अपेक्षा कनिष्ठ मानी गयी है</strong></span><br /> | |||
<span class="GRef"> भगवती आराधना/ विंजयोदया टीका/421/615/9 पर उद्धृत</span>-<span class="PrakritText">जेणिच्छीहु लघुसिगा परप्पसज्झा य पच्छणिज्जा य। भीरु पररक्खणज्जेत्ति तेण पुरिसो भवदि जेट्ठो।</span> = | |||
<span class="HindiText">स्त्रियाँ पुरुष से कनिष्ठ मानी गयी हैं, वे अपनी रक्षा स्वयं नहीं कर सकतीं, दूसरों से इच्छी जाती हैं। उनमें स्वभावत: भय रहता है, कमजोरी रहती है, ऐसा पुरुष नहीं है अत: वह ज्येष्ठ है।</span></li> | |||
<li class="HindiText"><strong name="12" id="12"> धर्मपत्नी के अतिरिक्त अन्य स्त्रियों का निषेध</strong></span><br /> | |||
<span class="GRef"> लाटी संहिता/2/ श्लोक नं. </span><span class="SanskritText">भोगपत्नी निषिद्धा स्यात् सर्वतो धर्मवेदिनाम् । ग्रहणस्याविशेषेऽपि दोषो भेदस्य संभवात् ।187। एतत्सर्वं परिज्ञाय स्वानुभूतिसमक्षता। परांगनासु नादेया बुद्धिर्धीधनशालिभि:।207।</span> = <span class="HindiText">भोगपत्नी के सेवन से अनेक प्रकार के दोष होते हैं, जिनको भगवान् सर्वज्ञ ही जानते हैं। भोगपत्नी को दासी के समान बताया है। अत: दासी के सेवन करने के समान भोगपत्नी के भोग करने से भी वज्र के लेप के समान पापों का संचय होता है।187। अपने अनुभव और प्रत्यक्ष से इन सब परस्त्रियों के भेदों को समझकर बुद्धिमानों को परस्त्री में अपनी बुद्धि कभी नहीं लगानी चाहिए।207।</span></p> | |||
<p><span class="HindiText">* स्त्री सेवन निषेध-देखें [[ ब्रह्मचर्य#3 | ब्रह्मचर्य - 3]]।</span></p> | <p><span class="HindiText">* स्त्री सेवन निषेध-देखें [[ ब्रह्मचर्य#3 | ब्रह्मचर्य - 3]]।</span></p> | ||
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Latest revision as of 21:33, 20 December 2023
धर्मपत्नी, भोगपत्नी, दासीपत्नी, परस्त्री, वेश्यादि भेद से स्त्रियाँ कई प्रकार की कही गयी हैं। ब्रह्मचर्य धर्म के पालनार्थ यथा भूमिका इनके त्याग का उपदेश है। आगम में जो स्त्रियों की इतनी निंदा की गयी है, वह केवल इनके भौतिक रूप पर ग्लानि उत्पन्न कराने के लिए ही जानना अन्यथा तो अनेकों सतियाँ भी हुई हैं जो पूज्य हैं।
- स्त्री सामान्य व लक्षण
- स्त्रीवेदकर्म का लक्षण
- स्त्री के अनेकों पर्यायवाची शब्दों के लक्षण
- द्रव्य व भाव स्त्री के लक्षण
- गृहीता आदि स्त्रियों के भेद व लक्षण
- चेतनाचेतन स्त्रियाँ
- स्त्री की निंदा
- स्त्री प्रशंसा योग्य भी है
- स्त्रियों की निंदा व प्रशंसा का समन्वय
- स्त्रियों के कर्तव्य
- स्त्री पुरुष की अपेक्षा कनिष्ठ मानी गयी है
- धर्मपत्नी के अतिरिक्त अन्य स्त्रियों का निषेध
- स्त्री सामान्य व लक्षण
पंचसंग्रह / प्राकृत/1/105 छादयति सयं दोसेण जदो छादयदि परं पि दोसेण। छादणसीला णियदं तम्हा सा वण्णिया इत्थी। = जो मिथ्यात्व आदि दोषों से अपने आपको आच्छादित करे और मधुर संभाषण आदि के द्वारा दूसरों को भी दोष से आच्छादित करे, वह निश्चय से यत: आच्छादन स्वभाव वाली है अत: ‘स्त्री’ इस नाम से वर्णित की गयी है। ( धवला 1/1,1,101/ गाथा 170/341); ( गोम्मटसार जीवकांड/274/595 ); (पंचसंग्रह/संस्कृत/1/199)।धवला 1/1,1,101/340/9 दोषैरात्मानं परं च स्तृणाति छादयतीति स्त्री, स्त्री चासौ वेदश्च स्त्रीवेद:। अथवा पुरुषं स्तृणाति आकांक्षतीति स्त्री पुरुषकांक्षेत्यर्थ:। स्त्रियं विंदतीति स्त्रीवेद: अथवा वेदनं वेद:, स्त्रियो वेद: स्त्रीवेद:।
- जो दोषों से स्वयं अपने को और दूसरों को आच्छादित करती है उसे स्त्री कहते हैं। ( धवला 6/1,9-1,24/46/8 ); ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/274/596/4 ) और स्त्री रूप जो वेद है उसे स्त्रीवेद कहते हैं।
- अथवा जो पुरुष की आकांक्षा करती है उसे स्त्री कहते हैं, जिसका अर्थ पुरुष की चाह करने वाली होता है, जो अपने को स्त्री रूप अनुभव करती है उसे स्त्रीवेद कहते हैं।
- अथवा वेदन करने को वेद कहते हैं और स्त्री रूप वेद को स्त्रीवेद कहते हैं।
- स्त्रीवेद कर्म का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/8/9/386/2 यदुदयात्स्त्रैणान्भावान्प्रतिपद्यते स स्त्रीवेद:। = जिसके उदय से स्त्री संबंधी भावों को प्राप्त होता वह स्त्रीवेद है। ( राजवार्तिक/8/9/574/20 ); ( पंचाध्यायी / उत्तरार्ध/1081 )।धवला 6/1,9-1,24/47/1 जेसिं कम्मक्खंधाणमुदएण पुरुसम्मि आकंखा उप्पज्जइ तेसिमित्थिवेदो त्ति सण्णा। = जिन कर्म स्कंधों के उदय से पुरुष में आकांक्षा उत्पन्न होती है उन कर्मस्कंधों की ‘स्त्रीवेद’ यह संज्ञा है। ( धवला 13/5,5,96/361/6 )।
* स्त्रीवेद के बंध योग्य परिणाम-देखें मोहनीय - 3.6।
- स्त्री के अनेकों पर्यायवाची शब्दों के लक्षण
भगवती आराधना/977-981/1045 पुरिसं वधमुवणेदित्ति होदि बहुगा णिरुत्तिवादम्मि। दोसेसंघादिंदि य होदि य इत्थी मणुस्सस्स।977। तारिसओ णत्थि अरी णरस्स अण्णेत्ति उच्चदे णारी। पुरसं सदा पमत्तं कुणदि त्ति य उच्चदे पमदा।978। गलए लायदि पुरिसस्स अणत्थं जेण तेण विलया सा। जोजेदि णरं दुक्खेण तेण जुवदी य जोसा य।979। अबलत्ति होदि जं से ण दढं हिदयम्मि धिदिबलं अत्थि। कुमरणोपायं जं जणयदि तो उच्चदि हि कुमारी।980। आलं जाणेदि पुरिसस्स महल्लं जेण तेण महिला सा। एवं महिला णामाणि होंति असुभाणि सव्वाणि।981। = स्त्री पुरुष को मारती है इस वास्ते उसको वधू कहते हैं। पुरुष में यह दोषों का समुदाय संचित करती है इस वास्ते इसका ‘स्त्री’ यह नाम है।977। मनुष्य को इसके समान दूसरा शत्रु नहीं है अत: इसको नारी कहते हैं। यह पुरुष को प्रमत्त अर्थात् उन्मत्त बनाती है इसलिए इसको ‘प्रमदा’ कहते हैं।978। पुरुष के गले में यह अनर्थों को बाँधती है अथवा पुरुष को देखकर उसमें लीन हो जाती है अत: इसको विलया कहते हैं। यह स्त्री पुरुष को दु:ख से संयुक्त करती है अत: युवति और योषा ऐसे दो नाम इसके हैं।979। इसके हृदय में धैर्य रूपी बल दृढ रहता नहीं अत: इसको अबला कहते हैं। कुत्सित ऐसा मरण का उपाय उत्पन्न करती है, इसलिए इसको कुमारी कहते हैं।980। यह पुरुष के ऊपर दोषारोपण करती है इसलिए उसको महिला कहते हैं। ऐसे जितने स्त्रियों के नाम हैं वे सब अशुभ है।98। - द्रव्य व भाव स्त्री के लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/2/52/200/6 स्त्रीवेदोदयात् स्त्यायस्त्यस्यां गर्भ इति स्त्री। = स्त्रीवेद के उदय से जिसमें गर्भ रहता है वह (द्रव्य) स्त्री है। ( राजवार्तिक/2/52/1/57/4 )।गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/271/591/17 स्त्रीवेदोदयेन पुरुषाभिलाषरूपमैथुनसंज्ञाक्रांतो जीव: भावस्त्री भवति। स्त्रीवेदोदयेन निर्माणनामकर्मोदययुक्तांगोपांगनामकर्मोदयेन निर्लोममुखस्तनयोन्यादिलिंगलक्षितशरीरयुक्तो जीवो भवप्रथमसमयमादिं कृत्वा तद्भवचरमसमयपर्यंतं द्रव्य (स्त्री) भवति। = स्त्रीवेद के उदय से पुरुष की अभिलाषा रूप मैथुन संज्ञा का धारक जीव भाव स्त्री होता है। ...निर्माण नामकर्म के उदय से युक्त स्त्रीवेद रूप आकार विशेष लिये, अंगोपांग नामकर्म के उदय से रोम रहित मुख, स्तन, योनि इत्यादि चिह्न संयुक्त शरीर का धारक जीव, सो पर्याय के प्रथम समय से लगाकर अंतसमय पर्यंत द्रव्य स्त्री होता है।
नोट-(और भी देखो भाव स्त्री का लक्षण स्त्री - 1 , स्त्री - 2 )।
- गृहीता आदि स्त्रियों के भेद व लक्षण
लाठी संहिता/2/178-206 देवशास्त्रगुरून्नत्वा बंधुवर्गात्मसाक्षिकम् । पत्नी पाणिगृहीता स्यात्तदन्या चेटिका मता।178। तत्र पाणिगृहीता या सा द्विधा लक्षणाद्यथा। आत्म-ज्ञाति: परज्ञाति: कर्मभूरूढिसाधनात् ।179। परिणीतात्मज्ञातिश्च धर्मपत्नीति सैव च। धर्मकार्ये हि सध्रीची यागादौ शुभकर्मणि।180। स: सूनु: कर्मकार्येऽपि गोत्ररक्षादिलक्षणे। सर्वलोकाविरुद्धत्वादधिकारी न चेतर:।182। परिणीतानात्मज्ञातिर्या पितृसाक्षिपूर्वकम् । भोगपत्नीति सा ज्ञेया भोगमात्रैकसाधनात् ।183। आत्मज्ञाति: परज्ञाति: सामान्यवनिता तु या। पाणिग्रहणशून्या चेच्चेटिका सुरतप्रिया।184। चेटिका भोगपत्नी च द्वयोर्भोगांगमात्रत:। लौकिकोक्तिविशेषोऽपि न भेद: पारमार्थिक:।185। विशेषोऽस्ति मिथश्चात्र परत्वैकत्वतोऽपि च। गृहीता चागृहीता च तृतीया नगरांगना।198। गृहीतापि द्विधा तत्र यथाद्या जीवभर्तृका। सत्सु पित्रादिवर्गेषु द्वितीया मृतभर्तृका।199। चेटिका या च विख्याता पतिस्तस्या: स एव हि। गृहीता सापि विख्याता स्यादगृहीता च तद्वत् ।200। जीवत्सु बंधुवर्गेषु रंडा स्यान्मृतभर्तृका। मृतेषु तेषु सैव स्यादगृहीता च स्वैरिणी।201। अस्या: संसर्गवेलायामिंगिते नरि वैरिभि:। सापराधतया दंडो नृपादिभ्यो भवेद्ध्रुवम् ।202। केचिज्जैना वदंत्येवं गृहीतैषां स्वलक्षणात् । नृपादिभिर्गृहीतत्वान्नीतिमार्गानतिक्रमात् ।203। विख्यातो नीतिमार्गोऽयं स्वामी स्याज्जगतां नृप:। वस्तुतो यस्य न स्वामी तस्य स्वामी महीपति:।204। तन्मतेषु गृहीता सा पित्राद्यैरावृतापि या। यस्या: संसर्गतो भीतिर्जायते न नृपादित:।205। तन्मते द्विधैव स्वैरी गृहीतागृहीतभेदत:। सामान्यवनिता या स्याद्गृहीतांतर्भावत:।206। = स्वस्त्री-देव शास्त्र गुरु को नमस्कार कर तथा अपने भाई बंधुओं की साक्षी पूर्वक जिस कन्या के साथ विवाह किया जाता है वह विवाहिता स्त्री कहलाती है, ऐसी विवाहिता स्त्रियों के सिवाय अन्य सब पत्नियाँ दासियाँ कहलाती हैं।178। विवाहिता पत्नी दो प्रकार की होती है। एक तो कर्मभूमि में रूढि से चली आयी अपनी जाति की कन्या के साथ विवाह करना और दूसरी अन्य जाति की कन्या के साथ विवाह करना।179। अपनी जाति की जिस कन्या के साथ विवाह किया जाता है वह धर्मपत्नी कहलाती है। वह ही यज्ञपूजा प्रतिष्ठा आदि शुभ कार्यों में व प्रत्येक धर्म कार्यों में साथ रहती है।180। उस धर्मपत्नी से उत्पन्न पुत्र ही पिता के धर्म का अधिकारी होता है और गोत्र की रक्षा करने रूप कार्य में वह ही समस्त लोक का अविरोधी पुत्र है। अन्य जाति की विवाहिता कन्या रूप पत्नी से उत्पन्न पुत्र को उपरोक्त कार्यों का अधिकार नहीं है।182। जो पिता की साक्षी पूर्वक अन्य जाति की कन्या के साथ विवाह किया जाता है वह भोगपत्नी कहलाती है, क्योंकि वह केवल भोगोपभोग सेवन करने के काम आती है, अन्य कार्यों में नहीं।183। अपनी जाति तथा पर जाति के भेद से स्त्रियाँ दो प्रकार की हैं तथा जिसके साथ विवाह नहीं हुआ है ऐसी स्त्री दासी वा चेटी कहलाती है, ऐसी दासी केवल भोगाभिलाषिणी है।184। दासी और भोगपत्नी केवल भोगोपभोग के ही काम आती है। लौकिक दृष्टि से यद्यपि उनमें थोड़ा भेद है पर परमार्थ से कोई भेद नहीं है।185। परस्त्री भी दो प्रकार की हैं, एक दूसरे के अधीन रहने वाली और दूसरी स्वतंत्र रहने वाली जिनको गृहीता और अगृहीता कहते हैं। इनके सिवाय तीसरी वेश्या भी परस्त्री कहलाती है।198। गृहीता या विवाहिता स्त्री दो प्रकार की हैं एक ऐसी स्त्रियाँ जिनका पति जीता है तथा दूसरी ऐसी जिनका पति तो मर गया हो परंतु माता, पिता अथवा जेठ देवर के यहाँ रहती हों।199। इसके सिवाय जो दासी के नाम से प्रसिद्ध हो और उसका पति ही घर का स्वामी हो वह भी गृहीता कहलाती है। यदि वह दासी किसी की रक्खी हुई न हो, स्वतंत्र हो तो वह गृहीता दासी के समान ही अगृहीता कहलाती है।200। जिसके भाई बंधु जीते हों परंतु पति मर गया हो ऐसी विधवा स्त्री को भी गृहीता कहते हैं। ऐसी विधवा स्त्री के यदि भाई बंधु सब मर जायें तो अगृहीता कहलाती है।201। ऐसी स्त्रियों के साथ संसर्ग करते समय कोई शत्रु राजा को खबर कर दे तो अपराध के बदले राज्य की ओर से कठोर दंड मिलता है।202। कोई यह भी कहते हैं कि जिस स्त्री का पति और भाई बंधु सब मर जायें तो भी अगृहीता नहीं कहलाती किंतु गृहीता ही कहलाती है, क्योंकि गृहीता लक्षण उसमें घटित होता है क्योंकि नीतिमार्ग का उल्लंघन न करते हुए राजाओं के द्वारा ग्रहण की जाती हैं इसलिए गृहीता ही कहलाती हैं।203। संसार में यह नीतिमार्ग प्रसिद्ध है कि संसार भर का स्वामी राजा होता है। वास्तव में देखा जाये तो जिसका कोई स्वामी नहीं होता उसका स्वामी राजा ही होता है।204। जो इस नीति को मानते हैं, उनके अनुसार उसको गृहीता ही मानना चाहिए, चाहे वह माता पिता के साथ रहती हो, चाहे अकेली रहती हो। उनके मतानुसार अगृहीता उसको समझना चाहिए जिसके साथ संसर्ग करने पर राजा का डर न हो।205। ऐसे लोगों के मतानुसार रहने वाली (कुलटा) स्त्रियाँ दो प्रकार ही समझनी चाहिए। एक गृहीता दूसरी अगृहीता। जो सामान्य स्त्रियाँ हैं वे सब गृहीता में अंतर्भूत कर लेना चाहिए (तथा वेश्याएँ अगृहीता समझनी चाहिए)।206। - चेतनाचेतन स्त्रियाँ
चारित्रसार/95/2 तिर्यग्मनुष्यदेवाचेतनभेदाच्चतुर्विधा स्त्री...। = तिर्यंच, मनुष्य, देव और अचेतन के भेद से चार प्रकार की स्त्रियाँ होती हैं। ( बोधपाहुड़/ टीका/118/267/20)बोधपाहुड़/ टीका/118/267/16 काष्ठ-पाषाण-लेपकृतास्त्रियो। = काष्ठ पाषाण और लेप की हुई ये तीन प्रकार की अचेतन स्त्रियाँ होती हैं।
- स्त्री की निंदा
भगवती आराधना/ गाथा नं. वग्घविसचोरअग्गीजलमत्तगयकण्हसप्पसत्तूसु। सो वीसभं गच्छदि वीसभदि जो महिलिया सु।952। पाउसकालणदीवोव्व ताओ णिच्चंपि कलुसहिदयाओ। धणहरणकदमदीओ चोरोव्व सकज्जगुरुयाओ।954। आगास भूमि उदधी जल मेरू वाउणो वि परिमाण। मादुं सक्का ण पुणो सक्का इत्थीण चित्ताइं।963। जो जाणिऊण रत्तं पुरिसं चम्मट्ठिमंसपरिसेसं। उद्दाहंति य वडिसामिसलग्गमच्छं व।971। चंदो हविज्ज उण्हो सीदो सूरो वि थड्डमागासं। ण य होज्ज अदोसा भद्दिया वि कुलबालिया महिला।990। = जो पुरुष स्त्रियों पर विश्वास करता है वह बाघ, विष, चोर, आग, जल प्रवाह, मदवाला हाथी, कृष्णसर्प, और शत्रु इनके ऊपर विश्वास करता है ऐसा समझना चाहिए।952। वर्षाकाल की नदी का मध्य प्रदेश मलिन पानी से भरा रहता है तो स्त्रियों का चित्त भी राग, द्वेष, मोह, असूया आदि दुष्ट भावों से मलिन है। चोर जैसा मन में इन लोगों का धन किस उपाय से ग्रहण किया जावे ऐसा विचार करता है, वैसे ही स्त्रियाँ भी (रति क्रीड़ा द्वारा) धन हरण करने में चतुर होती है।954। आकाश, जमीन, समुद्र, पानी, मेरु और वायु इन पदार्थों का कुछ परिमाण है, परंतु स्त्री के चित्त का अर्थात् उनके मन में उत्पन्न होने वाले विकल्पों का परिमाण जान लेना अशक्य है।963। अपने पर आसक्त हुआ पुरुष चर्म, हड्डी, और मांस ही शेष बचा हुआ है ऐसा देखकर गल को लगे हुए मत्स्य के समान उसको मार देती है, अथवा घर से निकाल देती है।971। चंद्र कदाचित् शीतलता को त्यागकर उष्ण बनेगा, सूर्य भी ठंडा होगा, आकाश भी लोह पिंड के समान घन होगा, परंतु कुलीन वंश की भी स्त्री कल्याणकारिणी और सरल स्वभाव की धारक न होगी।990। (विशेष दे.भगवती आराधना/938-1030)ज्ञानार्णव/12/44,50 भेत्तं शूलमसिं छेत्तुं कर्तितुं क्रकचं दृढम् । नरान्पीडयितुं यंत्रं वेधसा विहिता: स्त्रिय:।44। यदि मूर्त्ता: प्रजायंते स्त्रीणां दोषा: कथंचन। पूरयेयुस्तदा नूनं नि:शेषं भुवनोदरम् ।50। = ब्रह्मा ने स्त्रियाँ बनायी हैं वे मनुष्यों को बेधने के लिए शूली, काटने के लिए तलवार, कतरने के लिए करोंत अथवा पेलने के लिए मानो यंत्र ही बनाये हैं।44। आचार्य कहते हैं कि स्त्रियों के दोष यदि किसी प्रकार से मूर्तिमान् हो जायें तो मैं समझता हूँ कि उन दोषों से निश्चय करके समस्त त्रिलोकी परिपूर्ण भर जायेगी।50। (विशेष विस्तार दे. ज्ञानार्णव/121-155 )
* स्त्री की निंदा का कारण उसकी दोषप्रचुरता-देखें स्त्री - 9।
- स्त्री प्रशंसा योग्य भी है
भगवती आराधना/995-1000 किं पुण गुणसहिदाओ इच्छीओ अत्थि वित्थडजसाओ। णरलोगदेवदाओ देवेहिं वि वंदणिज्जाओ।995। तित्थयर चक्कधर वासुदेवबलदेवगणधरवराणं। जणणीओ महिलाओ सुरणरवरेंहिं महियाओ।996। एगपदिव्वइकण्णा वयाणि धारिंति कित्तिमहिलाओ। वेधव्वतिव्वदुक्खं आजीवं णिंति काओ वि।997। सीलवदीवो सुच्चंति महीयले पत्तपाडिहेराओ। सावाणुग्गहसमत्थाओ विय काओव महिलाओ।998। उग्घेण ण बूढाओ जलंतघोरग्गिणा ण दड्ढाओ। सप्पेहिं सावज्जेहिं वि हरिदा खद्धा ण काओ वि।999। सव्वगुणसमग्गाणं साहूणां पुरिसपवरसीहाणं। चरमाणं जणणित्तं पत्ताओ हवंति काओ वि।1000। = जगत् में कोई-कोई स्त्रियाँ गुणातिशय से शोभा युक्त होने से मुनियों के द्वारा भी स्तुति योग्य हुई हैं। उनका यश जगत् में फैला है, ऐसी स्त्रियाँ मनुष्य लोक में देवता के समान पूज्य हुई हैं, देव उनको नमस्कार करते हैं, तीर्थंकर, चक्रवर्ती, नारायण, बलभद्र और गणधरादिकों को प्रसवने वाली स्त्रियाँ देव, और मनुष्यों में प्रधान व्यक्ति हैं। उनसे वंदनीय हो गयी हैं। कितनेक स्त्रियाँ एक पतिव्रत धारण करती हैं, कितनेक स्त्रियाँ आजन्म अविवाहित रहकर निर्मल ब्रह्मचर्य व्रत धारण करती हैं। कितनेक स्त्रियाँ वैधव्य का तीव्र दु:ख आजन्म धारण करती हैं।995-997। शीलव्रत धारण करने से कितनेक स्त्रियों में शाप देना और अनुग्रह करने की शक्ति भी प्राप्त हुई थी। ऐसा शास्त्रों में वर्णन है। देवताओं के द्वारा ऐसा स्त्रियों का अनेक प्रकार से माहात्म्य भी दिखाया गया है।998। ऐसी शीलवती स्त्रियों को जलप्रवाह भी बहाने में असमर्थ है। अग्नि भी उनको नहीं जला सकती है, वह शीतल होती हैं, ऐसी स्त्रियों को सर्प व्याघ्रादिक प्राणी नहीं खा सकते हैं अथवा मुँह में लेकर अन्यस्थान में नहीं फेंक देते हैं।999। संपूर्ण गुणों से परिपूर्ण, श्रेष्ठ पुरुषों में भी श्रेष्ठ, तद्भव मोक्षगामी ऐसे पुरुषों को कितनेक शीलवती स्त्रियों ने जन्म दिया है।1000।कुरल काव्य/6/5,8 सर्वदेवान् परित्यज्य पतिदेवं नमस्यति। प्रातरुत्थाय या नारी तद्वश्या वारिदा: स्वयम् ।5। प्रसूते या शुभं पुत्रं लोकमान्यं विदांवरम् । स्तुवंति देवता नित्यं स्वर्गस्था अपि ता मुदा।8। = जो स्त्री दूसरे देवताओं की पूजा नहीं करती किंतु बिछौने से उठते ही अपने पतिदेव को पूजती है, जल से भरे हुए बादल भी उसका कहना मानते हैं।5। जो महिला लोकमान्य और विद्वान् पुत्र को जन्म देती है स्वर्गलोक के देवता भी उसकी स्तुति करते हैं।8।
ज्ञानार्णव/12/57-58 ननु संति जीवलोके काश्चिच्छमशीलसंयमोपेता:। निजवंशतिलकभूता श्रुतसत्यसमन्विता नार्य:।57। सतीत्वेन महत्त्वेन वृत्तेन विनयेन च। विवेकेन स्त्रिय: काश्चिद् भूषयंति धरातलम् ।58। = अहो । इस जगत् में अनेक स्त्रियाँ ऐसी भी हैं जो समभाव और शील संयम से भूषित हैं, तथा अपने वंश में तिलकभूत हैं, और शास्त्र तथा सत्य वचन करके सहित भी हैं।57। अनेक स्त्रियाँ ऐसी हैं जो पतिव्रतपन से, महत्त्व से, चारित्र से, विनय से, विवेक से इस पृथिवी तल को भूषित करती हैं।58।
- स्त्रियों की निंदा व प्रशंसा का समन्वय
भगवती आराधना/1001-1002/1051 मोहोदयेण जीवो सव्वो दुस्सीलमइलिदो होदि। सो पुण सव्वो महिला पुरिसाणं होइ सामण्णा।1001। तस्मा सा पल्लवणा पउरा महिलाण होदि अधिकिच्चा। सीलवदीओ भणिदे दोसे किह णाम पावंति।1002। = मोहोदय से जीव कुशील बनते हैं, मलिन स्वभाव के धारक बनते हैं। यह मोहोदय सर्व स्त्रियों और पुरुषों में समान हैं। जो पीछे स्त्रियों के दोष (देखें स्त्री - 7) का विस्तार से वर्णन किया है वह श्रेष्ठ शीलवती स्त्रियों के साथ संबंध नहीं रखता अर्थात् वह सब वर्णन कुशील स्त्रियों के विषय में समझना चाहिए। क्योंकि शीलवती स्त्रियाँ गुणों का पुंजस्वरूप ही हैं। उनको दोष कैसे छू सकते हैं।1001-1002।ज्ञानार्णव/12/59 निर्विण्णैर्भवसंक्रमाच्छ्रुतधरैरेकांततो निस्पृहैर्नार्यो यद्यपि दूषिता: शमधनैर्ब्रह्मव्रतालंबिभि:। निंद्यंते न तथापि निर्मलयमस्वाध्यायवृत्तांकिता निर्वेदप्रशमादिपुण्यचरितैर्या: शुद्धिभूता भुवि।59। = जो संसार परिभ्रमण से विरक्त हैं, शास्त्रों के परगामी और स्त्रियों से सर्वथा निस्पृह हैं तथा उपशम भाव ही है धन जिनके ऐसे ब्रह्मचर्यावलंबी मुनिगणों ने यद्यपि स्त्रियों की निंदा की है तथापि जो स्त्रियाँ निर्मल हैं और पवित्र यम, नियम, स्वाध्याय, चारित्रादि से विभूषित हैं और वैराग्य-उपशमादि पवित्राचरणों से पवित्र हैं वे निंदा करने योग्य नहीं हैं। क्योंकि निंदा दोषों की की जाती है, किंतु गुणों की निंदा नहीं की जाती।51।
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/274/596/4 यद्यपि तीर्थंकरजनन्यादीनां कासांचित् सम्यग्दृष्टीनां एतदुक्तदोषाभाव:, तथापि तासां दुर्लभत्वेन सर्वत्र सुलभप्राचुर्यव्यवहारापेक्षया स्त्रीलक्षणं निरुक्तिपूर्वकमुक्तम् । = यद्यपि तीर्थंकर की माता आदि सम्यग्दृष्टिणी स्त्रियों में दोष नहीं है तथापि वे स्त्री थोड़ी हैं और पूर्वोक्त दोषों से युक्त स्त्री घनी हैं, इसलिए प्रचुर व्यवहार की अपेक्षा स्त्री का ऐसा लक्षण कहा।
* मोक्षमार्ग में स्त्रीत्व का स्थान-देखें वेद - 6-7।
- स्त्रियों के कर्तव्य
कुरल काव्य/6/1,6,7 यस्यामस्ति सुपत्नीत्वं सैवास्ति गृहिणी सती। गृहस्यायमनालोच्य व्ययते न पतिव्रता।1। आदृता पतिसेवायां रक्षणे कीर्तिधर्मयो:। अद्वितीया सतां मान्या पत्नी सा पतिदेवता।6। गुप्तस्थाननिवासेन स्त्रीणां नैव सुरक्षणम् । अक्षाणां निग्रहस्तासां केवलो धर्मरक्षक:।7। = वही उत्तम सहसर्मिणी है, जिसमें सुपत्नीत्व के सब गुण वर्तमान हों और जो अपने पति की सामर्थ्य से अधिक व्यय नहीं करती।1। वही उत्तम सहधर्मिणी है जो अपने धर्म और यश की रक्षा करती है, तथा प्रेमपूर्वक अपने पतिदेव की आराधना करती है।6। चार दिवारी के अंदर पर्दे के साथ रहने से क्या लाभ ? स्त्री के धर्म का सर्वोत्तम रक्षक उसका इंद्रिय निग्रह है।7। - स्त्री पुरुष की अपेक्षा कनिष्ठ मानी गयी है
भगवती आराधना/ विंजयोदया टीका/421/615/9 पर उद्धृत-जेणिच्छीहु लघुसिगा परप्पसज्झा य पच्छणिज्जा य। भीरु पररक्खणज्जेत्ति तेण पुरिसो भवदि जेट्ठो। = स्त्रियाँ पुरुष से कनिष्ठ मानी गयी हैं, वे अपनी रक्षा स्वयं नहीं कर सकतीं, दूसरों से इच्छी जाती हैं। उनमें स्वभावत: भय रहता है, कमजोरी रहती है, ऐसा पुरुष नहीं है अत: वह ज्येष्ठ है। - धर्मपत्नी के अतिरिक्त अन्य स्त्रियों का निषेध
लाटी संहिता/2/ श्लोक नं. भोगपत्नी निषिद्धा स्यात् सर्वतो धर्मवेदिनाम् । ग्रहणस्याविशेषेऽपि दोषो भेदस्य संभवात् ।187। एतत्सर्वं परिज्ञाय स्वानुभूतिसमक्षता। परांगनासु नादेया बुद्धिर्धीधनशालिभि:।207। = भोगपत्नी के सेवन से अनेक प्रकार के दोष होते हैं, जिनको भगवान् सर्वज्ञ ही जानते हैं। भोगपत्नी को दासी के समान बताया है। अत: दासी के सेवन करने के समान भोगपत्नी के भोग करने से भी वज्र के लेप के समान पापों का संचय होता है।187। अपने अनुभव और प्रत्यक्ष से इन सब परस्त्रियों के भेदों को समझकर बुद्धिमानों को परस्त्री में अपनी बुद्धि कभी नहीं लगानी चाहिए।207।* स्त्री सेवन निषेध-देखें ब्रह्मचर्य - 3।