संज्ञी: Difference between revisions
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<span class="HindiText">मन के सद्भाव के कारण जिन जीवों में शिक्षा ग्रहण करने व विशेष प्रकार से विचार, तर्क आदि करने की शक्ति है वे संज्ञी कहलाते हैं। यद्यपि चींटी आदि क्षुद्र जंतुओं में भी इष्ट पदार्थ की प्राप्ति के प्रति गमन और अनिष्ट पदार्थों से हटने की बुद्धि देखी जाती है पर उपरोक्त लक्षण के अभाव में वे संज्ञी नहीं कहे जा सकते।</span> | <span class="HindiText">मन के सद्भाव के कारण जिन जीवों में शिक्षा ग्रहण करने व विशेष प्रकार से विचार, तर्क आदि करने की शक्ति है वे संज्ञी कहलाते हैं। यद्यपि चींटी आदि क्षुद्र जंतुओं में भी इष्ट पदार्थ की प्राप्ति के प्रति गमन और अनिष्ट पदार्थों से हटने की बुद्धि देखी जाती है पर उपरोक्त लक्षण के अभाव में वे संज्ञी नहीं कहे जा सकते।</span> | ||
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< | <li class="HindiText" name="1" id="1"><strong>संज्ञी-असंज्ञी सामान्य का लक्षण</strong> <br /> | ||
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</span>=<span class="HindiText">जो जीव शिक्षा, क्रिया, उपदेश और आलाप को ग्रहण करता है सो संज्ञी और उससे विपरीत असंज्ञी है। | <ol> | ||
< | <li class="HindiText"><strong name="1.1" id="1.1">शिक्षा आदि ग्राही के अर्थ में</strong> <br /> | ||
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<p> | <span class="GRef"> पंचसंग्रह / प्राकृत/1/173 </span><span class="PrakritText">सिक्खाकिरिओवएसा आलावगाही मणोवलंबेण। जो जीवो सो सण्णी तव्विवरीओ असण्णी य।173।</span> =<span class="HindiText">जो जीव मन के अवलंबन से शिक्षा, क्रिया, उपदेश और आलाप को ग्रहण करता है उसे संज्ञी कहते हैं, जो इनसे विपरीत है उसको असंज्ञी कहते हैं। <span class="GRef">( धवला 1/1,1,4/गाथा 97/152); ( तत्त्वसार/2/93 ); ( गोम्मटसार जीवकांड/661 ); (पंचसंग्रह /संस्कृत/1/319)।</span><br/> | ||
</span>=<span class="HindiText">जो जीव किसी कार्य को करने से पूर्व कर्तव्य और अकर्तव्य की मीमांसा करे, तत्त्व और अतत्त्व का विचार करे, योग्य को सीखे और उसके नाम को पुकारने पर आवे सो समनस्क है, उससे विपरीत अमनस्क है। | <span class="GRef"> राजवार्तिक/9/7/11/604/17 </span><span class="SanskritText">शिक्षाक्रियालापग्राही संज्ञी, तद्विपरीतोऽसंज्ञी। | ||
<p> | </span>=<span class="HindiText">जो जीव शिक्षा, क्रिया, उपदेश और आलाप को ग्रहण करता है सो संज्ञी और उससे विपरीत असंज्ञी है। <span class="GRef">( धवला 1/1,1,4/ 152/4 ); ( धवला 7/2,1,3/7/7 ); ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/117/180/13 )</span>।</span> | ||
<p> | <li class="HindiText"><strong name="1.2" id="1.2">मन सहित के अर्थ में</strong> <br /> | ||
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<span class="GRef"> तत्त्वार्थसूत्र/2/24 </span><span class="SanskritText">संज्ञिन: समनस्का:।24।</span> =<span class="HindiText">मन वाले जीव संज्ञी होते हैं। <span class="GRef">( धवला 1/1,1,35/259/6 )</span>।</span> | |||
<p> <span class="GRef"> पंचसंग्रह / प्राकृत/1/174-175 </span><span class="PrakritText">मीमंसइ जो पुव्वं कज्जमकज्जं च तच्चमिदरं च। सिक्खइ णामेणेदि य समणो अमणो य विवरीओ।174। एवं कए मए पुण एवं होदि त्ति कज्ज णिप्पत्ती। जो दु विचारइ जीवो सो सण्णि असण्णि इयरो य।175। | |||
</span>=<span class="HindiText">जो जीव किसी कार्य को करने से पूर्व कर्तव्य और अकर्तव्य की मीमांसा करे, तत्त्व और अतत्त्व का विचार करे, योग्य को सीखे और उसके नाम को पुकारने पर आवे सो समनस्क है, उससे विपरीत अमनस्क है। <span class="GRef">( गोम्मटसार जीवकांड/662 )</span> जो जीव ऐसा विचार करता है कि मेरे इस प्रकार कार्य करने पर कार्य की निष्पत्ति होगी, वह संज्ञी है और इससे विपरीत असंज्ञी है।</span></p> | |||
<p> <span class="GRef"> राजवार्तिक/2/6/5/109/13 </span><span class="SanskritText">हिताहितापरीक्षां प्रत्यसामर्थ्यं असंज्ञित्वम् ।</span> =<span class="HindiText">हिताहित परीक्षा के प्रति असामर्थ्य होना सो असंज्ञित्व है।</span></p> | |||
<p> <span class="GRef"> धवला 1/1,1,4/152/3 </span><span class="SanskritText">सम्यक् जानातीति संज्ञं मन:, तदस्यास्तीति संज्ञी।</span> =<span class="HindiText">जो भली प्रकार जानता है उसको संज्ञ अर्थात् मन कहते हैं, वह मन जिसके पाया जाता है उसको संज्ञी कहते हैं।</span></p> | |||
<p> <span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/660 </span><span class="PrakritText">णोइंदिय आवरणखओवसमं तज्जबोहणं सण्णा। सा जस्सा सो दु सण्णो इदरो सेसिंदियअवबोहो। | |||
</span> = <span class="HindiText">नोइंद्रिय कर्म के क्षयोपशम से तज्जन्य ज्ञान को संज्ञा कहते हैं वह जिसको हो उसको संज्ञी कहते हैं और जिनके यह संज्ञा न हो किंतु केवल यथासंभव इंद्रिय ज्ञान हो उसको असंज्ञी कहते हैं।</span></p> | </span> = <span class="HindiText">नोइंद्रिय कर्म के क्षयोपशम से तज्जन्य ज्ञान को संज्ञा कहते हैं वह जिसको हो उसको संज्ञी कहते हैं और जिनके यह संज्ञा न हो किंतु केवल यथासंभव इंद्रिय ज्ञान हो उसको असंज्ञी कहते हैं।</span></p> | ||
<p> | <p> <span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/117/180/15 </span><span class="SanskritText">नोइंद्रियावरणस्यापि क्षयोपशमलाभात्संज्ञिनो भवंति।</span> | ||
<span class="HindiText">=नोइंद्रियावरण कर्म के क्षयोपशम से जीव संज्ञी होते हैं।</span></p> | <span class="HindiText">=नोइंद्रियावरण कर्म के क्षयोपशम से जीव संज्ञी होते हैं।</span></p> | ||
<p> | <p> <span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/12/30/1 </span><span class="SanskritText">समस्तशुभाशुभविकल्पातीतपरमात्मद्रव्यविलक्षणं नानाविकल्पजालरूपं मनो भण्यते, तेन सह ये वर्तंते ते समनस्का: संज्ञिन:, तद्विपरीता अमनस्का असंज्ञिन: ज्ञातव्या:। | ||
</span>=<span class="HindiText">समस्त शुभाशुभ विकल्पों से रहित परमात्मरूप द्रव्य उससे विलक्षण अनेक तरह के विकल्पजाल रूप मन है, उस मन से सहित जीव को संज्ञी कहते हैं। तथा मन से शून्य अमनस्क अर्थात् असंज्ञी है।</span></p> | </span>=<span class="HindiText">समस्त शुभाशुभ विकल्पों से रहित परमात्मरूप द्रव्य उससे विलक्षण अनेक तरह के विकल्पजाल रूप मन है, उस मन से सहित जीव को संज्ञी कहते हैं। तथा मन से शून्य अमनस्क अर्थात् असंज्ञी है।</span></p> | ||
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< | <li class="HindiText" name="2" id="2"><strong>संज्ञी मार्गणा के भेद</strong> <br /> | ||
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< | <span class="GRef"> षट्खंडागम 1/1,1/सूत्र172/408 </span> <span class="PrakritText">सण्णियाणुवादेण अत्थि सण्णी असण्णी।172। [णेव सण्णि णेव असण्णिणो वि अत्थि <span class="GRef"> धवला/2 </span>]।</span>=<span class="HindiText">संज्ञी मार्गणा के अनुवाद से संज्ञी और असंज्ञी जीव होते हैं।172। संज्ञी तथा असंज्ञी विकल्प रहित स्थान भी होता है। <span class="GRef">( राजवार्तिक/9/7/11/608/18 ); ( धवला 2/1,1/419/11 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/13/40/3 )</span>।</span></li> | ||
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<li class="HindiText" name="3" id="3"><strong>संज्ञी मार्गणा का स्वामित्व</strong> <br /> | |||
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</span>=<span class="HindiText">पंचेंद्रिय जीव संज्ञी तथा असंज्ञी दोनों होते हैं, ऐसे संज्ञी तथा असंज्ञी ये दोनों | <ol> | ||
<li class="HindiText"><strong name="3.1" id="3.1">गति आदि की अपेक्षा</strong> <br /> | |||
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<span class="GRef"> पंचास्तिकाय/सूत्र/111 </span><span class="PrakritText">मणपरिणामविरहिदा जीवा एइंदिया णेया।111।</span> =<span class="HindiText">मन परिणाम से रहित एकेंद्रिय जीव जानने।</span><br/> | |||
< | <span class="GRef"> राजवार्तिक/2/11/3/125/27 </span><span class="SanskritText">एकद्वित्रिचतुरिंद्रियाणां पंचेंद्रियेषु च केषांश्चित् मनोविषयविशेषव्यवहाराभावात् अमनस्क।</span> =<span class="HeadingTitle">एक, दो, तीन, चार और पाँच इंद्रिय जीवों में कोई जीव मन के विषयभूत विशेष व्यापार के अभाव से अमनस्क है।</span><br/> | ||
<span class="GRef"> द्रव्यसंग्रह टीका/12/30/4 </span><span class="SanskritText">संज्ंयसंज्ञिपंचेंद्रियास्तिर्यंच एव, नारकमनुष्यदेवा: संज्ञिपंचेंद्रिया एव।...पंचेंद्रियात्सकाशात् परे सर्वे द्वित्रिचतुरिंद्रिया:।...बादरसूक्ष्मा एकेंद्रियास्तेऽपि ...असंज्ञिन एव। | |||
</span>=<span class="HindiText">पंचेंद्रिय जीव संज्ञी तथा असंज्ञी दोनों होते हैं, ऐसे संज्ञी तथा असंज्ञी ये दोनों पंचेंद्रिय तिर्यंच ही होते हैं। नारकी, मनुष्य और देव संज्ञी पंचेंद्रिय ही होते हैं। पंचेंद्रिय से भिन्न अन्य सब द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, और चतुरिंद्रिय जीव मन रहित असंज्ञी होते हैं। बादर और सूक्ष्म एकेंद्रिय हैं वे भी...असंज्ञी है।</span><br/> | |||
<p class="HindiText"> देखें [[ संज्ञी#3.1 | संज्ञी - 3.1 ]] | <span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/697/1133/8 </span><span class="SanskritText">जीवसमासौ संज्ञिपर्याप्तापर्याप्तौ द्वौ। तु-पुन: असंज्ञिजीव: स्थावरकायाद्यसंज्ञ्यंतं मिथ्यादृष्टिगुणस्थाने एव स्यान्नियमेन तत्र जीवसमासा द्वादशसंज्ञिनो द्वयाभावात् ।</span> =<span class="HindiText">संज्ञीमार्गणा में पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो जीवसमास होते हैं। असंज्ञी जीव स्थावरकाय से लेकर असंज्ञी पंचेंद्रिय पर्यंत होते हैं। इनमें एक मिथ्यात्व गुणस्थान तथा जीवसमास संज्ञी संबंधी पर्याप्त और इन दो को छोड़कर शेष बारह होते हैं।</span></li> | ||
<p | <li class="HindiText"><strong name="3.2" id="3.2">गुणस्थान व सम्यक्त्व की अपेक्षा</strong> <br /> | ||
</span><span class="HindiText">सासादनसम्यक्त्व में...संज्ञी असंज्ञी तिर्यंच व मनुष्यों में...।</span></ | <span class="GRef"> षट्खंडागम 1/1,1/सूत्र/173/408 </span> <span class="PrakritText">सण्णी मिच्छाइट्ठि-प्पहुडि जीव खीणकसाय-वीयराय-छदुमत्था त्ति।173।</span> =<span class="HindiText">संज्ञी जीव मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय, वीतराग, छद्मस्थ गुणस्थान तक होते हैं।</span><br/> | ||
< | <span class="GRef"> तिलोयपण्णत्ति/5/299 </span><span class="PrakritText">तेत्तीसभेदसंजुदतिरिक्खजीवाण सव्वकालम्मि। मिच्छत्तगुणट्ठाणं बोच्छं सण्णीणं तं माणं।299।</span> =<span class="HindiText">संज्ञी जीवों को छोड़कर शेष तेतीस प्रकार के भेदों से युक्त तिर्यंचों के (देखें [[ जीव समास ]]) सर्व काल में एक मिथ्यात्व गुणस्थान रहता है।</span><br/> | ||
< | <span class="GRef"> गोम्मटसार जीवकांड/697 </span><span class="PrakritText">सण्णी सण्णिप्पहुदी खीणकसाओत्ति होदि णियमेण।</span> =<span class="HindiText">संज्ञी जीव संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीणकषाय पर्यंत होते हैं।</span><br/> | ||
<p class="HindiText"> देखें [[ संज्ञी#3.1 | संज्ञी - 3.1 में गोम्मटसार जीवकांड]] </span> - असंज्ञी जीवों में नियम से एक मिथ्यात्व गुणस्थान होता है।</p> | |||
</span>=<span class="HindiText">यदि मन के बिना इंद्रियों में स्वयं सुख-दु:खानुभव न हो तो एकेंद्रिय विकलेंद्रिय और असंज्ञी पंचेंद्रिय जीवों को दु:ख का अनुभव नहीं होना चाहिए। <strong>प्रश्न</strong> - मन का (इंद्रियों से) पृथक् उपकार का अभाव होने से मन का भी अभाव है ? <strong>उत्तर</strong> - नहीं, गुण-दोष विचार आदि मन के स्वतंत्र कार्य हैं इसलिए मन का स्वतंत्र अस्तित्व है।</span></ | <p><span class="GRef"> गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/551/753/4 </span><span class="SanskritText"> सासादनरुचौ...असंज्ञिसंज्ञितिर्यङ्मनुष्येषु...। | ||
</span><span class="HindiText">सासादनसम्यक्त्व में...संज्ञी असंज्ञी तिर्यंच व मनुष्यों में...।</span> | |||
< | </li></ol></li> | ||
< | <li class="HindiText" name="4" id="4"><strong>एकेंद्रियादिक में मन के अभाव संबंधी शंका समाधान</strong> <br /> | ||
<span class="GRef"> राजवार्तिक/5/19/30-31/472/26 </span><span class="SanskritText">यदि मनोऽंतरेण इंद्रियाणां वेदनावगमो न स्यात् एकेंद्रियविकलेंद्रियाणामसंज्ञिपंचेंद्रियाणां च वेदनावगमो न स्यात् ।30। ...पृथगुपकारानुपलंभात् तदभाव इति चेत्; न; गुणदोषविचारादिदर्शनात् ।31।...अतोऽस्त्यंत:करणं मन:। | |||
</span>=<span class="HindiText">यदि मन के बिना इंद्रियों में स्वयं सुख-दु:खानुभव न हो तो एकेंद्रिय विकलेंद्रिय और असंज्ञी पंचेंद्रिय जीवों को दु:ख का अनुभव नहीं होना चाहिए। <strong>प्रश्न</strong> - मन का (इंद्रियों से) पृथक् उपकार का अभाव होने से मन का भी अभाव है ? <strong>उत्तर</strong> - नहीं, गुण-दोष विचार आदि मन के स्वतंत्र कार्य हैं इसलिए मन का स्वतंत्र अस्तित्व है।</span><br/> | |||
</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - मनुष्यों में मन के कार्ययप से स्वीकार किये गये विज्ञान के साथ विकलेंद्रियों में होने वाले विज्ञान की ज्ञान सामान्य की अपेक्षा कोई विशेषता नहीं है, इसलिए यह अनुमान किया जाता है कि विकलेंद्रियों का विज्ञान भी मन से उत्पन्न होता होगा ? <strong>उत्तर</strong> - नहीं, क्योंकि भिन्न जाति में स्थित विज्ञान के साथ भिन्न जाति में स्थित विज्ञान की समानता नहीं बनती।</span></ | <span class="GRef"> धवला 1/1,73/314/4 </span><span class="SanskritText">विकलेंद्रियेषु मनसोऽभाव: कुतोऽवसीयत ति चेदार्षात् । कथमार्षस्य प्रामाण्यमिति चेत्स्वाभाव्यात्प्रत्यक्षस्येव।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - विकलेंद्रियों में मन का अभाव है यह किस प्रमाण से जाना जाता है ? <strong>उत्तर</strong> - आगम प्रमाण से जाना जाता है। और आगम प्रत्यक्ष की भाँति स्वभाव से प्रमाण है।</span><br/> | ||
<span class="GRef"> पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/117/180/16 </span><span class="SanskritText">क्षयोपशमविकल्परूपं हि मनो भण्यते तत्तेषामप्यस्तीति कथमसंज्ञिन:। परिहारमाह। यथा पिपीलिकाया गंधविषये जातिस्वभावेनैवाहारादिसंज्ञारूपं पटुत्वमस्ति न चान्यत्र कार्यकारणव्याप्तिज्ञानविषये अन्येषामप्यसंज्ञिनां तथैव।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - क्षयोपशम के विकल्परूप मन होता है। वह एकेंद्रियादि के भी होता है, फिर वे असंज्ञी कैसे हैं ?<strong>उत्तर</strong> - इसका परिहार करते हैं। जिस प्रकार चींटी आदि गंध के विषय में जाति स्वभाव से ही आहारादि रूप संज्ञा में चतुर होती है, परंतु अन्यत्र कारणकार्य व्याप्तिरूप ज्ञान के विषय में चतुर नहीं होती, इसी प्रकार अन्य भी असंज्ञी जीवों के जानना।</span></li> | |||
</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - मन रहित जीवों में श्रुतज्ञान कैसे संभव है ? <strong>उत्तर</strong> - नहीं, क्योंकि, मन के बिना वनस्पतिकायिक जीवों के हित में प्रवृत्ति और अहित से निवृत्ति देखी जाती है, इसलिए मन सहित जीवों के ही श्रुतज्ञान मानने में उनसे अनेकांत दोष आता है। (और भी | |||
<li class="HindiText" name="5" id="5"><strong>मन के अभाव में श्रुतज्ञान की उत्पत्ति कैसे</strong> <br /> | |||
< | <span class="GRef"> धवला 1/1,1,35/261/1 </span><span class="SanskritText">अथ स्यादर्थालोकमनस्कारचक्षुर्भ्य: संप्रवर्तमानं रूपज्ञानं समनस्केषूपलभ्यते तस्य कथममनस्केष्वाविर्भाव इति नैष दोष: भिन्नजातित्वात् ।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - पदार्थ, प्रकाश, मन और चक्षु इनसे उत्पन्न होने वाला रूप ज्ञान समनस्क जीवों में पाया जाता है, यह तो ठीक है, परंतु अमनस्क जीवों में उस रूपज्ञान की उत्पत्ति कैसे हो सकती है। <strong>उत्तर</strong> - यह कोई दोष नहीं हैं, क्योंकि समनस्क जीवों के रूप ज्ञान से अमनस्क जीवों का रूप ज्ञान भिन्न जातीय है।</span><br/> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,73/314/1 </span><span class="SanskritText">मनस: कार्यत्वेन प्रतिपन्नविज्ञानेन सह तत्रतनविज्ञानस्य ज्ञानत्वं प्रत्यविशेषांमनोनिबंधनत्वमनुमीयत इति चेन्न, भिन्नजातिस्थितविज्ञानेन सहाविशेषानुपपत्ते:। | |||
</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - मनुष्यों में मन के कार्ययप से स्वीकार किये गये विज्ञान के साथ विकलेंद्रियों में होने वाले विज्ञान की ज्ञान सामान्य की अपेक्षा कोई विशेषता नहीं है, इसलिए यह अनुमान किया जाता है कि विकलेंद्रियों का विज्ञान भी मन से उत्पन्न होता होगा ? <strong>उत्तर</strong> - नहीं, क्योंकि भिन्न जाति में स्थित विज्ञान के साथ भिन्न जाति में स्थित विज्ञान की समानता नहीं बनती।</span><br/> | |||
< | <span class="GRef"> धवला 1/1,1,116/361/8 </span><span class="SanskritText">अमनसां तदपि कथमिति चेन्न, मनोऽंतरेण वनस्पतिषु हिताहितप्रवृत्तिनिवृत्त्युपलंभतोऽनेकांतात् । | ||
</span>=<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - मन रहित जीवों में श्रुतज्ञान कैसे संभव है ? <strong>उत्तर</strong> - नहीं, क्योंकि, मन के बिना वनस्पतिकायिक जीवों के हित में प्रवृत्ति और अहित से निवृत्ति देखी जाती है, इसलिए मन सहित जीवों के ही श्रुतज्ञान मानने में उनसे अनेकांत दोष आता है। (और भी देखें [[#6|अगला शीर्षक]])</span></li> | |||
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<li class="HindiText" name="6" id="6"><strong>श्रोत्र के अभाव में श्रुतज्ञान कैसे</strong> <br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 1/1,1,116/361/6 </span><span class="SanskritText">कथमेकेंद्रियाणां श्रुतज्ञानमिति चेत्कथं च न भवति। श्रोत्राभावान्न शब्दावगतिस्तदभावान्न शब्दार्थावगन इति; नैष दोष:, यतो नायमेकांतोऽस्ति शब्दार्थावबोध एव श्रुतमिति। अपि तु अशब्दरूपादपि लिंगाल्लिंगिज्ञानमपि श्रुतमिति।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - एकेंद्रियों के श्रुतज्ञान कैसे हो सकता है ? <strong>उत्तर</strong> - कैसे नहीं हो सकता है। <strong>प्रश्न</strong> - एकेंद्रियों के श्रोत्र इंद्रिय का अभाव होने से शब्द का ज्ञान नहीं हो सकता, शब्दज्ञान के अभाव में शब्द के विषयभूत अर्थ का भी ज्ञान नहीं हो सकता, इसलिए उनके श्रुतज्ञान नहीं होता यह बात सिद्ध है। <strong>उत्तर</strong> - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि यह एकांत नियम नहीं है कि शब्द के निमित्त से होने वाले पदार्थ के ज्ञान को ही श्रुत कहते हैं। किंतु शब्द से भिन्न रूपादिक लिंग से भी जो लिंगी का ज्ञान होता है उसे भी श्रुतज्ञान कहते हैं।</span><br/> | |||
<span class="GRef"> धवला 13/5,5,21/210/9 </span><span class="PrakritText">एइंदिएसु सोद-णोइंदियवज्जिएसु कधं सुदणाणुप्पत्ती। ण, तत्थ मणेण विणा वि जादिविसेसेण लिंगिविसयाणाणुप्पत्तीए विरोहाभावादो।</span> =<span class="HindiText"><strong>प्रश्न</strong> - एकेंद्रिय जीव श्रोत्र और नोइंद्रिय से रहित होते हैं, उनके श्रुतज्ञान की उत्पत्ति कैसे हो सकती है। <strong>उत्तर</strong> - नहीं, क्योंकि वहाँ मन के बिना भी जाति विशेष के कारण लिंगी विषयक ज्ञान की उत्पत्ति मानने में विरोध नहीं आता।</span></li> | |||
<li class="HindiText" name="7" id="7"><strong>संज्ञी में क्षयोपशम भाव कैसे है</strong> <br /> | |||
<span class="GRef"> धवला 7/2,1,83/111/10 </span><span class="PrakritText">णोइंदियावरणस्स सव्वघादिफद्दयाणं जादिवसेण अणंतगुणहाणीए हाइदूण देसघादित्तं पाविय उवसंताणमुदएण सण्णित्तदंसणादो।</span> =<span class="HindiText">नोइंद्रियावरण कर्म के सर्वघाती स्पर्धकों के अपनी जाति विशेष के प्रभाव से अनंतगुणी हानिरूप घात के द्वारा देशघातित्व को प्राप्त होकर उपशांत हुए पुन: उन्हीं के उदय से संज्ञित्व उत्पन्न होता देखा जाता है।</span></li> | |||
<li class="HindiText" name="8" id="8"><strong>अन्य संबंधित विषय</strong> <br /> | |||
<ol class="HindiText"> | <ol class="HindiText"> | ||
<li>संज्ञा व संज्ञी में अंतर। - देखें [[ संज्ञा ]]।</li> | <li>संज्ञा व संज्ञी में अंतर। - देखें [[ संज्ञा#5 | संज्ञा - 5 ]]।</li> | ||
<li>संज्ञी जीव सम्मूर्च्छन भी होते हैं। - देखें [[ सम्मूर्च्छन ]]।</li> | <li>संज्ञी जीव सम्मूर्च्छन भी होते हैं। - देखें [[ सम्मूर्च्छन ]]।</li> | ||
<li>असंज्ञी जीव में वचन प्रवृत्ति कैसे संभव है। - देखें [[ योग#4 | योग - 4]]।</li> | <li>असंज्ञी जीव में वचन प्रवृत्ति कैसे संभव है। - देखें [[ योग#4 | योग - 4]]।</li> | ||
Line 62: | Line 75: | ||
<li>संज्ञी के सत्, संख्या, क्षेत्र आदि संबंधी 8 प्ररूपणाएँ। - देखें [[ वह वह नाम ]]।</li> | <li>संज्ञी के सत्, संख्या, क्षेत्र आदि संबंधी 8 प्ररूपणाएँ। - देखें [[ वह वह नाम ]]।</li> | ||
<li>सभी मार्गणा में आय के अनुसार व्यय होने का नियम। - देखें [[ मार्गणा ]]।</li> | <li>सभी मार्गणा में आय के अनुसार व्यय होने का नियम। - देखें [[ मार्गणा ]]।</li> | ||
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Latest revision as of 09:21, 24 January 2024
मन के सद्भाव के कारण जिन जीवों में शिक्षा ग्रहण करने व विशेष प्रकार से विचार, तर्क आदि करने की शक्ति है वे संज्ञी कहलाते हैं। यद्यपि चींटी आदि क्षुद्र जंतुओं में भी इष्ट पदार्थ की प्राप्ति के प्रति गमन और अनिष्ट पदार्थों से हटने की बुद्धि देखी जाती है पर उपरोक्त लक्षण के अभाव में वे संज्ञी नहीं कहे जा सकते।
- संज्ञी-असंज्ञी सामान्य का लक्षण
- शिक्षा आदि ग्राही के अर्थ में
पंचसंग्रह / प्राकृत/1/173 सिक्खाकिरिओवएसा आलावगाही मणोवलंबेण। जो जीवो सो सण्णी तव्विवरीओ असण्णी य।173। =जो जीव मन के अवलंबन से शिक्षा, क्रिया, उपदेश और आलाप को ग्रहण करता है उसे संज्ञी कहते हैं, जो इनसे विपरीत है उसको असंज्ञी कहते हैं। ( धवला 1/1,1,4/गाथा 97/152); ( तत्त्वसार/2/93 ); ( गोम्मटसार जीवकांड/661 ); (पंचसंग्रह /संस्कृत/1/319)।
राजवार्तिक/9/7/11/604/17 शिक्षाक्रियालापग्राही संज्ञी, तद्विपरीतोऽसंज्ञी। =जो जीव शिक्षा, क्रिया, उपदेश और आलाप को ग्रहण करता है सो संज्ञी और उससे विपरीत असंज्ञी है। ( धवला 1/1,1,4/ 152/4 ); ( धवला 7/2,1,3/7/7 ); ( पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/117/180/13 )। - मन सहित के अर्थ में
तत्त्वार्थसूत्र/2/24 संज्ञिन: समनस्का:।24। =मन वाले जीव संज्ञी होते हैं। ( धवला 1/1,1,35/259/6 )।पंचसंग्रह / प्राकृत/1/174-175 मीमंसइ जो पुव्वं कज्जमकज्जं च तच्चमिदरं च। सिक्खइ णामेणेदि य समणो अमणो य विवरीओ।174। एवं कए मए पुण एवं होदि त्ति कज्ज णिप्पत्ती। जो दु विचारइ जीवो सो सण्णि असण्णि इयरो य।175। =जो जीव किसी कार्य को करने से पूर्व कर्तव्य और अकर्तव्य की मीमांसा करे, तत्त्व और अतत्त्व का विचार करे, योग्य को सीखे और उसके नाम को पुकारने पर आवे सो समनस्क है, उससे विपरीत अमनस्क है। ( गोम्मटसार जीवकांड/662 ) जो जीव ऐसा विचार करता है कि मेरे इस प्रकार कार्य करने पर कार्य की निष्पत्ति होगी, वह संज्ञी है और इससे विपरीत असंज्ञी है।
राजवार्तिक/2/6/5/109/13 हिताहितापरीक्षां प्रत्यसामर्थ्यं असंज्ञित्वम् । =हिताहित परीक्षा के प्रति असामर्थ्य होना सो असंज्ञित्व है।
धवला 1/1,1,4/152/3 सम्यक् जानातीति संज्ञं मन:, तदस्यास्तीति संज्ञी। =जो भली प्रकार जानता है उसको संज्ञ अर्थात् मन कहते हैं, वह मन जिसके पाया जाता है उसको संज्ञी कहते हैं।
गोम्मटसार जीवकांड/660 णोइंदिय आवरणखओवसमं तज्जबोहणं सण्णा। सा जस्सा सो दु सण्णो इदरो सेसिंदियअवबोहो। = नोइंद्रिय कर्म के क्षयोपशम से तज्जन्य ज्ञान को संज्ञा कहते हैं वह जिसको हो उसको संज्ञी कहते हैं और जिनके यह संज्ञा न हो किंतु केवल यथासंभव इंद्रिय ज्ञान हो उसको असंज्ञी कहते हैं।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/117/180/15 नोइंद्रियावरणस्यापि क्षयोपशमलाभात्संज्ञिनो भवंति। =नोइंद्रियावरण कर्म के क्षयोपशम से जीव संज्ञी होते हैं।
द्रव्यसंग्रह टीका/12/30/1 समस्तशुभाशुभविकल्पातीतपरमात्मद्रव्यविलक्षणं नानाविकल्पजालरूपं मनो भण्यते, तेन सह ये वर्तंते ते समनस्का: संज्ञिन:, तद्विपरीता अमनस्का असंज्ञिन: ज्ञातव्या:। =समस्त शुभाशुभ विकल्पों से रहित परमात्मरूप द्रव्य उससे विलक्षण अनेक तरह के विकल्पजाल रूप मन है, उस मन से सहित जीव को संज्ञी कहते हैं। तथा मन से शून्य अमनस्क अर्थात् असंज्ञी है।
- शिक्षा आदि ग्राही के अर्थ में
- संज्ञी मार्गणा के भेद
षट्खंडागम 1/1,1/सूत्र172/408 सण्णियाणुवादेण अत्थि सण्णी असण्णी।172। [णेव सण्णि णेव असण्णिणो वि अत्थि धवला/2 ]।=संज्ञी मार्गणा के अनुवाद से संज्ञी और असंज्ञी जीव होते हैं।172। संज्ञी तथा असंज्ञी विकल्प रहित स्थान भी होता है। ( राजवार्तिक/9/7/11/608/18 ); ( धवला 2/1,1/419/11 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/13/40/3 )। - संज्ञी मार्गणा का स्वामित्व
- गति आदि की अपेक्षा
पंचास्तिकाय/सूत्र/111 मणपरिणामविरहिदा जीवा एइंदिया णेया।111। =मन परिणाम से रहित एकेंद्रिय जीव जानने।
राजवार्तिक/2/11/3/125/27 एकद्वित्रिचतुरिंद्रियाणां पंचेंद्रियेषु च केषांश्चित् मनोविषयविशेषव्यवहाराभावात् अमनस्क। =एक, दो, तीन, चार और पाँच इंद्रिय जीवों में कोई जीव मन के विषयभूत विशेष व्यापार के अभाव से अमनस्क है।
द्रव्यसंग्रह टीका/12/30/4 संज्ंयसंज्ञिपंचेंद्रियास्तिर्यंच एव, नारकमनुष्यदेवा: संज्ञिपंचेंद्रिया एव।...पंचेंद्रियात्सकाशात् परे सर्वे द्वित्रिचतुरिंद्रिया:।...बादरसूक्ष्मा एकेंद्रियास्तेऽपि ...असंज्ञिन एव। =पंचेंद्रिय जीव संज्ञी तथा असंज्ञी दोनों होते हैं, ऐसे संज्ञी तथा असंज्ञी ये दोनों पंचेंद्रिय तिर्यंच ही होते हैं। नारकी, मनुष्य और देव संज्ञी पंचेंद्रिय ही होते हैं। पंचेंद्रिय से भिन्न अन्य सब द्वींद्रिय, त्रींद्रिय, और चतुरिंद्रिय जीव मन रहित असंज्ञी होते हैं। बादर और सूक्ष्म एकेंद्रिय हैं वे भी...असंज्ञी है।
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/697/1133/8 जीवसमासौ संज्ञिपर्याप्तापर्याप्तौ द्वौ। तु-पुन: असंज्ञिजीव: स्थावरकायाद्यसंज्ञ्यंतं मिथ्यादृष्टिगुणस्थाने एव स्यान्नियमेन तत्र जीवसमासा द्वादशसंज्ञिनो द्वयाभावात् । =संज्ञीमार्गणा में पर्याप्त और अपर्याप्त ये दो जीवसमास होते हैं। असंज्ञी जीव स्थावरकाय से लेकर असंज्ञी पंचेंद्रिय पर्यंत होते हैं। इनमें एक मिथ्यात्व गुणस्थान तथा जीवसमास संज्ञी संबंधी पर्याप्त और इन दो को छोड़कर शेष बारह होते हैं। - गुणस्थान व सम्यक्त्व की अपेक्षा
षट्खंडागम 1/1,1/सूत्र/173/408 सण्णी मिच्छाइट्ठि-प्पहुडि जीव खीणकसाय-वीयराय-छदुमत्था त्ति।173। =संज्ञी जीव मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय, वीतराग, छद्मस्थ गुणस्थान तक होते हैं।
तिलोयपण्णत्ति/5/299 तेत्तीसभेदसंजुदतिरिक्खजीवाण सव्वकालम्मि। मिच्छत्तगुणट्ठाणं बोच्छं सण्णीणं तं माणं।299। =संज्ञी जीवों को छोड़कर शेष तेतीस प्रकार के भेदों से युक्त तिर्यंचों के (देखें जीव समास ) सर्व काल में एक मिथ्यात्व गुणस्थान रहता है।
गोम्मटसार जीवकांड/697 सण्णी सण्णिप्पहुदी खीणकसाओत्ति होदि णियमेण। =संज्ञी जीव संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीणकषाय पर्यंत होते हैं।
देखें संज्ञी - 3.1 में गोम्मटसार जीवकांड - असंज्ञी जीवों में नियम से एक मिथ्यात्व गुणस्थान होता है।
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/551/753/4 सासादनरुचौ...असंज्ञिसंज्ञितिर्यङ्मनुष्येषु...। सासादनसम्यक्त्व में...संज्ञी असंज्ञी तिर्यंच व मनुष्यों में...।
- गति आदि की अपेक्षा
- एकेंद्रियादिक में मन के अभाव संबंधी शंका समाधान
राजवार्तिक/5/19/30-31/472/26 यदि मनोऽंतरेण इंद्रियाणां वेदनावगमो न स्यात् एकेंद्रियविकलेंद्रियाणामसंज्ञिपंचेंद्रियाणां च वेदनावगमो न स्यात् ।30। ...पृथगुपकारानुपलंभात् तदभाव इति चेत्; न; गुणदोषविचारादिदर्शनात् ।31।...अतोऽस्त्यंत:करणं मन:। =यदि मन के बिना इंद्रियों में स्वयं सुख-दु:खानुभव न हो तो एकेंद्रिय विकलेंद्रिय और असंज्ञी पंचेंद्रिय जीवों को दु:ख का अनुभव नहीं होना चाहिए। प्रश्न - मन का (इंद्रियों से) पृथक् उपकार का अभाव होने से मन का भी अभाव है ? उत्तर - नहीं, गुण-दोष विचार आदि मन के स्वतंत्र कार्य हैं इसलिए मन का स्वतंत्र अस्तित्व है।
धवला 1/1,73/314/4 विकलेंद्रियेषु मनसोऽभाव: कुतोऽवसीयत ति चेदार्षात् । कथमार्षस्य प्रामाण्यमिति चेत्स्वाभाव्यात्प्रत्यक्षस्येव। =प्रश्न - विकलेंद्रियों में मन का अभाव है यह किस प्रमाण से जाना जाता है ? उत्तर - आगम प्रमाण से जाना जाता है। और आगम प्रत्यक्ष की भाँति स्वभाव से प्रमाण है।
पंचास्तिकाय / तात्पर्यवृत्ति/117/180/16 क्षयोपशमविकल्परूपं हि मनो भण्यते तत्तेषामप्यस्तीति कथमसंज्ञिन:। परिहारमाह। यथा पिपीलिकाया गंधविषये जातिस्वभावेनैवाहारादिसंज्ञारूपं पटुत्वमस्ति न चान्यत्र कार्यकारणव्याप्तिज्ञानविषये अन्येषामप्यसंज्ञिनां तथैव। =प्रश्न - क्षयोपशम के विकल्परूप मन होता है। वह एकेंद्रियादि के भी होता है, फिर वे असंज्ञी कैसे हैं ?उत्तर - इसका परिहार करते हैं। जिस प्रकार चींटी आदि गंध के विषय में जाति स्वभाव से ही आहारादि रूप संज्ञा में चतुर होती है, परंतु अन्यत्र कारणकार्य व्याप्तिरूप ज्ञान के विषय में चतुर नहीं होती, इसी प्रकार अन्य भी असंज्ञी जीवों के जानना। - मन के अभाव में श्रुतज्ञान की उत्पत्ति कैसे
धवला 1/1,1,35/261/1 अथ स्यादर्थालोकमनस्कारचक्षुर्भ्य: संप्रवर्तमानं रूपज्ञानं समनस्केषूपलभ्यते तस्य कथममनस्केष्वाविर्भाव इति नैष दोष: भिन्नजातित्वात् । =प्रश्न - पदार्थ, प्रकाश, मन और चक्षु इनसे उत्पन्न होने वाला रूप ज्ञान समनस्क जीवों में पाया जाता है, यह तो ठीक है, परंतु अमनस्क जीवों में उस रूपज्ञान की उत्पत्ति कैसे हो सकती है। उत्तर - यह कोई दोष नहीं हैं, क्योंकि समनस्क जीवों के रूप ज्ञान से अमनस्क जीवों का रूप ज्ञान भिन्न जातीय है।
धवला 1/1,1,73/314/1 मनस: कार्यत्वेन प्रतिपन्नविज्ञानेन सह तत्रतनविज्ञानस्य ज्ञानत्वं प्रत्यविशेषांमनोनिबंधनत्वमनुमीयत इति चेन्न, भिन्नजातिस्थितविज्ञानेन सहाविशेषानुपपत्ते:। =प्रश्न - मनुष्यों में मन के कार्ययप से स्वीकार किये गये विज्ञान के साथ विकलेंद्रियों में होने वाले विज्ञान की ज्ञान सामान्य की अपेक्षा कोई विशेषता नहीं है, इसलिए यह अनुमान किया जाता है कि विकलेंद्रियों का विज्ञान भी मन से उत्पन्न होता होगा ? उत्तर - नहीं, क्योंकि भिन्न जाति में स्थित विज्ञान के साथ भिन्न जाति में स्थित विज्ञान की समानता नहीं बनती।
धवला 1/1,1,116/361/8 अमनसां तदपि कथमिति चेन्न, मनोऽंतरेण वनस्पतिषु हिताहितप्रवृत्तिनिवृत्त्युपलंभतोऽनेकांतात् । =प्रश्न - मन रहित जीवों में श्रुतज्ञान कैसे संभव है ? उत्तर - नहीं, क्योंकि, मन के बिना वनस्पतिकायिक जीवों के हित में प्रवृत्ति और अहित से निवृत्ति देखी जाती है, इसलिए मन सहित जीवों के ही श्रुतज्ञान मानने में उनसे अनेकांत दोष आता है। (और भी देखें अगला शीर्षक) - श्रोत्र के अभाव में श्रुतज्ञान कैसे
धवला 1/1,1,116/361/6 कथमेकेंद्रियाणां श्रुतज्ञानमिति चेत्कथं च न भवति। श्रोत्राभावान्न शब्दावगतिस्तदभावान्न शब्दार्थावगन इति; नैष दोष:, यतो नायमेकांतोऽस्ति शब्दार्थावबोध एव श्रुतमिति। अपि तु अशब्दरूपादपि लिंगाल्लिंगिज्ञानमपि श्रुतमिति। =प्रश्न - एकेंद्रियों के श्रुतज्ञान कैसे हो सकता है ? उत्तर - कैसे नहीं हो सकता है। प्रश्न - एकेंद्रियों के श्रोत्र इंद्रिय का अभाव होने से शब्द का ज्ञान नहीं हो सकता, शब्दज्ञान के अभाव में शब्द के विषयभूत अर्थ का भी ज्ञान नहीं हो सकता, इसलिए उनके श्रुतज्ञान नहीं होता यह बात सिद्ध है। उत्तर - यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि यह एकांत नियम नहीं है कि शब्द के निमित्त से होने वाले पदार्थ के ज्ञान को ही श्रुत कहते हैं। किंतु शब्द से भिन्न रूपादिक लिंग से भी जो लिंगी का ज्ञान होता है उसे भी श्रुतज्ञान कहते हैं।
धवला 13/5,5,21/210/9 एइंदिएसु सोद-णोइंदियवज्जिएसु कधं सुदणाणुप्पत्ती। ण, तत्थ मणेण विणा वि जादिविसेसेण लिंगिविसयाणाणुप्पत्तीए विरोहाभावादो। =प्रश्न - एकेंद्रिय जीव श्रोत्र और नोइंद्रिय से रहित होते हैं, उनके श्रुतज्ञान की उत्पत्ति कैसे हो सकती है। उत्तर - नहीं, क्योंकि वहाँ मन के बिना भी जाति विशेष के कारण लिंगी विषयक ज्ञान की उत्पत्ति मानने में विरोध नहीं आता। - संज्ञी में क्षयोपशम भाव कैसे है
धवला 7/2,1,83/111/10 णोइंदियावरणस्स सव्वघादिफद्दयाणं जादिवसेण अणंतगुणहाणीए हाइदूण देसघादित्तं पाविय उवसंताणमुदएण सण्णित्तदंसणादो। =नोइंद्रियावरण कर्म के सर्वघाती स्पर्धकों के अपनी जाति विशेष के प्रभाव से अनंतगुणी हानिरूप घात के द्वारा देशघातित्व को प्राप्त होकर उपशांत हुए पुन: उन्हीं के उदय से संज्ञित्व उत्पन्न होता देखा जाता है। - अन्य संबंधित विषय
- संज्ञा व संज्ञी में अंतर। - देखें संज्ञा - 5 ।
- संज्ञी जीव सम्मूर्च्छन भी होते हैं। - देखें सम्मूर्च्छन ।
- असंज्ञी जीव में वचन प्रवृत्ति कैसे संभव है। - देखें योग - 4।
- असंज्ञियों में देवादि गतियों का उदय व तत्संबंधी शंका-समाधान। - देखें उदय - 5।
- संज्ञित्व में कौन सा भाव है। - देखें भाव - 2।
- संज्ञी के गुणस्थान, जीवसमास, आदि के स्वामित्व संबंधी 20 प्ररूपणाएँ। - देखें वह वह नाम ।
- संज्ञी के सत्, संख्या, क्षेत्र आदि संबंधी 8 प्ररूपणाएँ। - देखें वह वह नाम ।
- सभी मार्गणा में आय के अनुसार व्यय होने का नियम। - देखें मार्गणा ।