योग
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
कर्मों के संयोग के कारणभूत जीव के प्रदेशों का परिस्पंदन योग कहलाता है| अथवा मन, वचन, काय की प्रवृत्ति के प्रति जीव का उपयोग या प्रयत्न-विशेष योग कहलाता है, जो एक होता हुआ भी मन, वचन आदि के निमित्त की अपेक्षा तीन या पंद्रह प्रकार का है। ये सभी योग नियम से क्रमपूर्वक ही प्रवृत्त हो सकते हैं, युगपत् नहीं। जीव भाव की अपेक्षा पारिणामिक है और शरीर की अपेक्षा क्षायोपशमिक या औदयिक है।
- योग के भेद व लक्षण
- मनोयोग व वचनयोग के लक्षण।
- काययोग व उसके विशेष।
- आतापन योगादि तप ।−देखें कायक्लेश ।
- मनोयोग व वचनयोग के लक्षण।
- शुभ व अशुभ योगों के लक्षण।−देखें शुभयोग
- योग के भेद व लक्षण संबंधी तर्क−वितर्क
- योगद्वारों को आस्रव कहने का कारण।−देखें आस्रव-2.3।
- परिस्पंद व गति में अंतर।
- परिस्पंद लक्षण करने से योगों के तीन भेद नहीं हो सकेंगे।
- परिस्पंद रहित होने से आठ मध्य प्रदेशों में बंध न हो सकेगा।
- योगद्वारों को आस्रव कहने का कारण।−देखें आस्रव-2.3।
- योग व लेश्या में भेदाभेद तथा अन्य विषय।−देखें लेश्या 2.3 ।
- योग सामान्य निर्देश
- योग का स्वामित्व व तत्संबंधी शंकाएँ
- केवली को योग होता है।−देखें केवली 5.11।
- सयोग-अयोग केवली।−देखें केवली 1.4 ।
- अन्य योग को प्राप्त हुए बिना गुणस्थान परिवर्तन नहीं होता।−देखें अंतर - 2.2।
- योग में संभव गुणस्थान, जीवसमास, मार्गणास्थान आदि के स्वामित्व संबंधी प्ररूपणाएँ।−देखें सत् 2 ।
- योगमार्गणा संबंधी सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन, काल, अंतर, भाव, अल्प, बहुत्वरूप आठ प्ररूपणाएँ।−देखें वह वह नाम ।
- योग मार्गणा में कर्मों का बंध उदय व सत्त्व।−देखें वह वह नाम ।
- कौन योग से मरकर कहाँ उत्पन्न हो।−देखें जन्म 6.3।
- सभी मार्गणाओं में आय के अनुसार व्यय होने का नियम।−देखें मार्गणा-6 ।
- केवली को योग होता है।−देखें केवली 5.11।
- मारणांतिक समुद्घात में उत्कृष्ट योग संभव नहीं।−देखें विशुद्धि-8।
- योगस्थान निर्देश
- योगस्थान सामान्य का लक्षण।
- योगस्थानों के भेद।
- उपपाद योगस्थान का लक्षण।
- एकांतानुवृद्धि योगस्थान का लक्षण।
- परिणाम या घोटमान योगस्थान का लक्षण।
- परिणाम योगस्थानों की यवमध्य रचना।
- योगस्थानों का स्वामित्व सभी जीव समासों में संभव है।
- योगस्थानों के स्वामित्व की सारणी।
- योगस्थानों के अवस्थान संबंधी प्ररूपणा।−देखें काल - 6।
- लब्ध्यपर्याप्तक के परिणाम योग होने संबंधी दो मत।
- योगस्थानों की क्रमिक वृद्धि का प्रदेशबंध के साथ संबंध।
- योगवर्गणा निर्देश
- योग के भेद व लक्षण
- योग सामान्य का लक्षण
- निरुक्ति अर्थ
राजवार्तिक/7/13/4/540/3 योजनं योगः संबंध इति यावत् । = संबंध करने का नाम योग है ।
धवला 1/1, 1, 4/139/9 युज्यत इति योगः । = जो संबंध अर्थात् संयोग को प्राप्त हो उसको योग कहते हैं ।
- जीव का वीर्य या शक्ति विशेष
पंच संग्रह/प्राकृत /1/88 मणसा वाया काएण वा वि जुत्तस्स विरियपरिणामो । जीवस्य (जिह) प्पणिजोगो जोगो त्ति जिणेहिं णिदिट्ठो । = मन, वचन और काय से युक्त जीव का जो वीर्य - परिणाम अथवा प्रदेश परिस्पंद रूप प्रणियोग होता है, उसे योग कहते हैं ।88। (धवला 1/1, 1, 4/ गाथा 88/140); (गोम्मटसार जीवकांड/216/472 ) ।
राजवार्तिक/9/7/11/603/33 वीर्यांतरायक्षयोपशमलब्धवृत्तिवीर्यलब्धिर्योगः तद्वत् आत्मनो मनोवाक्कायवर्गणालंबनः प्रदेशपरिस्पंदः उपयोगो योगः । = वीर्यांतराय के क्षयोपशम से प्राप्त वीर्यलब्धि योग का प्रयोजक होती है । उस सामर्थ्य वाले आत्मा का मन, वचन और काय वर्गणा निमित्तिक आत्म प्रदेश का परिस्पंद योग है ।
देखें योग - 2.5(क्रिया की उत्पत्ति में जो जीव का उपयोग होता है वह योग है) ।
- आत्म प्रदेशों का परिस्पंद या संकोच विस्तार
सर्वार्थसिद्धि/2/26/183/1 योगो वाङ्मनसकायवर्गणानिमित्त आत्मप्रदेशपरिस्पंदः । = वचनवर्गणा, मनोवर्गणा और कायवर्गणा के निमित्त से होने वाले आत्म प्रदेशों के हलन-चलन को योग कहते हैं । ( सर्वार्थसिद्धि/6/1/318/5 ); ( राजवार्तिक/2/26/4/137/8 ); ( राजवार्तिक/6/1/10/505/15 ); ( धवला 1/1, 1, 60/299/7 ); ( धवला 7/2, 1, 2/6/9 ); ( धवला 7/2, 1, 15/17/10 ); ( पंचास्तिकाय / तत्त्वप्रदीपिका/148 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/30/88/6 ); ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/216/473/18 ) ।
राजवार्तिक/9/7/11/603/34 आत्मनो मनोवाक्कायवर्गणालंबनः प्रदेशपरिस्पंदः उपयोगो योगः । = मन, वचन और काय वर्गणा निमित्तक आत्मप्रदेश का परिस्पंद योग है । (गोम्मटसार जीवकांड/ मंद प्रबोधिनी/216/474/1) ।
धवला 1/1, 1, 4/140/2 आत्मप्रदेशानां संकोचविकोचो योगः । = आत्मप्रदेशों के संकोच और विस्तार रूप होने को योग कहते हैं । ( धवला 7/2, 1, 2/6/10)।
धवला 10/4, 2, 4, 175/437/7 जीव पदेसाणं परिप्फंदो संकोचविकोचब्भमणसरूवओ । = जीव प्रदेशों का जो संकोच-विकोच व परिभ्रमण रूप परिस्पंदन होता है वह योग कहलाता है ।
- समाधि के अर्थ में
नियमसार 139 विवरीयाभिणिवेसं परिचत्त जोण्हकहियतच्चेसु । जो जुंजदि अप्पाणं णियभावो सोहवे जोगो ।139। = विपरीत अभिनिवेश का परित्याग करके जो जैन कथित तत्त्वों में आत्मा को लगाता है, उसका निजभाव वह योग है ।
सर्वार्थसिद्धि/6/12/331/3 योगः समाधिः सम्यक्प्रणिधानमित्यर्थः । = योग, समाधि और सम्यक् प्रणिधान ये एकार्थवाची नाम हैं । (गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/801/980/13 ); (वैशेषिक दर्शन/5/2/16/172) ।
राजवार्तिक/6/1/12/505/27 युजेः समाधिवचनस्य योगः समाधिः ध्यानमित्यनर्थांतरम् । = योग का अर्थ समाधि और ध्यान भी होता है ।
राजवार्तिक/6/12/8/522/31 निरवद्यस्य क्रियाविशेषस्यानुष्ठानं योगः समाधिः, सम्यक् प्रणिधानमित्यर्थः । = निरवद्य क्रिया के अनुष्ठान को योग कहते हैं । योग, समाधि और सम्यक्प्रणिधान ये एकार्थवाची हैं । ( दर्शनपाहुड़/ टीका/9/8/14)।
देखें सामायिक - 1 साम्य का लक्षण (साम्य, समाधि, चित्तनिरोध व योग एकार्थवाची हैं ।)
देखें मौन - 1(बहिरंतर जल्प को रोककर चित्त निरोध करना योग है ।)
- वर्षादि काल स्थिति
दर्शनपाहुड़/ टीका/9/8/14 योगश्च वर्षादिकालस्थितिः । = वर्षादि ॠतुओं की काल स्थिति को योग कहते हैं ।
- निरुक्ति अर्थ
- योग के भेद
- मन वचन काय की अपेक्षा
षट्खंडागम 1/1, 1/ सूत्र 47, 48/278, 280 जोगाणुवादेण अत्थि मणजोगी वचजोगी कायजोगी चेदि ।47। अजोगि चेदि ।48। = योग मार्गणा के अनुवाद की अपेक्षा मनोयोगी, वचनयोगी और काययोगी जीव होते हैं ।48। ( बारस अणुवेक्खा/49 ); ( तत्त्वार्थसूत्र/6/1 ); ( धवला 8/3, 6/215 ); ( धवला 10/4, 2, 4, 175/437/9 ); ( द्रव्यसंग्रह/ टीका/13/37/7); ( द्रव्यसंग्रह टीका/30/89/6 ) ।
सर्वार्थसिद्धि/8/1/376/1 चत्वारो मनोयोगाश्चत्वारो वाग्योगा पंच काययोगा इति त्रयोदशविकल्पो योगः । = चार मन योग, चार वचन योग और पाँच काय योग ये योग के तेरह भेद हैं । ( राजवार्तिक/8/1/29/564/26 ); ( राजवार्तिक/9/7/11/603/34 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका /30/89/7-13/37/7 ); ( गोम्मटसार जीवकांड/217/475 ); (विशेष देखें मन , वचन, काय) ।
- शुभ व अशुभ योग की अपेक्षा
बारस अणुवेक्खा/49-50....मणवचिकायेण पुणो जोगो.... ।49। असुहेदरभेदेण दु एक्केक्कूं वण्णिदं हवे दुविहं ।.... ।50। = मन, वचन और काय - ये तीनों योग शुभ और अशुभ के भेद से दो - दो प्रकार के होते हैं। (नयचक्र बृहद्/308) ।
राजवार्तिक/6/3/2/507/1 तस्मादनंतविकल्पादशुभयोगादंयः शुभयोग इत्युच्यते । = अशुभ योग के अनंत विकल्प हैं, उससे विपरीत शुभ योग होता है ।
- मन वचन काय की अपेक्षा
- त्रिदंड के भेद - प्रभेद
चारित्रसार/99/6 दंडस्त्रिविधः, मनोवाक्कायभेदेन । तत्र रागद्वेषमोहविकल्पात्मा मानसी दंडस्त्रिविधः । = मन, वचन, काय के भेद से दंड तीन प्रकार का है और उसमें भी राग-द्वेष, मोह के भेद से मानसिक दंड भी तीन प्रकार है।
- द्रव्य-भाव आदि योगों के लक्षण
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/216/473/5 कायवाङ्मनोवर्गणावलंबिनः संसारिजीवस्य लोकमात्रप्रदेशगता कर्मादानकारणं या शक्तिः सा भाव योगः । तद्विशिष्टात्मप्रदेशेषु यः किंचिच्चलनरूपपरिस्पंदः स द्रव्य योगः । = जो मनोवाक्कायवर्गणा का अवलंबन रखता है ऐसे संसारी जीव की जो समस्त प्रदेशों में रहने वाली कर्मों के ग्रहण करने में कारणभूत शक्ति है उसको भावयोग कहते हैं । और इसी प्रकार के जीव के प्रदेशों का जो परिस्पंद है उसको द्रव्ययोग कहते हैं ।
- निक्षेप रूप भेदों के लक्षण
नोट−नाम, स्थापनादि योगों के लक्षण−देखें निक्षेप ।
धवला 10/4, 2, 4, 175/433-434/4 तव्वदिरित्तदव्वजोगो अणेयविहो । तं जहा-सूर-णक्खत्तजोगो चंद-णक्खत्तजोगोगह-णक्खत्तजोगो कोणंगारजोगो चुण्णजोगो मंतजोगो इच्चेवमादओ ।...णोआगमभावजोगो तिविहो गुणजोगो संभवजोगो जुंजणजोगो चेदि । तत्थ गुणजोगो दुविहो सच्चित्तगुजोगो अच्चित्तगुणजोगो चेदि । तत्थ अच्चित्तगुणजोगो जहा रूव-रस-गंध-फासादीहि पोग्गलदव्वजोगो, आगासादीणमप्पप्पगो गुणेहि सह जोगो वा । तत्थ सच्चित्तगुणजोगो पंचविहो - ओदइओ ओवसमिओ खइओ खओवसमिओ पारिणामिओ चेदि ।...इंदो मेरुं चालइदु समत्थो त्ति एसो संभवजोगो णाम । जोसो जुंजणजोगो सो तिविहो उववादजोगो एगंताणुवड्ढिजोगो परिणामजोगो चेदि । = तद् व्यतिरिक्त नोआगम द्रव्य योग अनेक प्रकार का है यथा−सूर्य-नक्षत्रयोग, चंद्र-नक्षत्रयोग, कोण अंगारयोग, चूर्णयोग व मंत्रयोग इत्यादि ।....नोआगम भावयोग तीन प्रकार का है । गुणयोग, संभवयोग और योजनायोग । उनमें से गुणयोग दो प्रकार का है−सचित्तगुणयोग और अचित्तगुणयोग । उनमें से अचित्तगुणयोग - जैसे रूप, रस, गंध और स्पर्श आदि गुणों से पुद्गल द्रव्य का योग, अथवा आकाशदि द्रव्यों का अपने-अपने गुणों के साथ योग । उनमें से सचित्तगुण योग पाँच प्रकार का है−औदयिक, औपशमिक, क्षायिक, क्षायोपशमिक और पारिणामिक| इंद्र मेरु पर्वत को चलाने के लिए समर्थ है, इस प्रकार का जो शक्ति का योग है वह संभवयोग कहा जाता है । जो योजना - (मन, वचन-काय का व्यापार) योग है वह तीन प्रकार का है−उपपादयोग, एकांतानुवृद्धियोग और परिणामयोग−देखें योग - 5 ।
- योग सामान्य का लक्षण
- योग के भेद व लक्षण संबंधी तर्क-वितर्क
- वस्त्रादि के संयोग से व्यभिचार निवृत्ति
धवला 1/1, 1, 4/139/8 युज्यत इति योगः । न युज्यमानपटादिना व्यभिचारस्तस्यानात्मधर्मत्वात् । न कषायेण व्यभिचारस्तस्य कर्मादानहेतुत्वाभावात् । = प्रश्न−यहाँ पर जो संयोग को प्राप्त हो उसे योग कहते हैं, ऐसी व्याप्ति करने पर संयोग को प्राप्त होने वाले वस्त्रादिक से व्यभिचार हो जायेगा ? उत्तर−नहीं, क्योंकि संयोग को प्राप्त होने वाले वस्त्रादिक आत्मा के धर्म नहीं हैं ।
प्रश्न−कषाय के साथ व्यभिचार दोष आ जाता है । (क्योंकि कषाय तो आत्मा का धर्म है और संयोग को भी प्राप्त होता है ।)
उत्तर−इस तरह कषाय के साथ भी व्यभिचार दोष नहीं आता, क्योंकि कषाय कर्मों के ग्रहण करने में कारण नहीं पड़ती हैं ।
- मेघादि के परिस्पंद में व्यभिचार निवृत्ति
धवला 1/1, 1, 76/316/7 अथ स्यात्परिस्पंदस्य बंधहेतुत्वे संचरदभ्राणामपि कर्मबंधः प्रसजतीति न, कर्मजनितस्य चैतंयपरिस्पंदस्यास्रवहेतुत्वेन विवक्षितत्वात् । न चाभ्रपरिस्पंदः कर्मजनितो येन तद्धेतुतामास्कंदेत् । = प्रश्न−परिस्पंद को बंध का कारण मानने पर संचार करते हुए मेघों के भी कर्मबंध प्राप्त हो जायेगा, क्योंकि उनमें भी परिस्पंद पाया जाता है ? उत्तर−नहीं, क्योंकि कर्मजनित चैतन्य परिस्पंद ही आस्रव का कारण है, यह अर्थ यहाँ विवक्षित है । मेघों का परिस्पंद कर्मजनित तो है नहीं, जिससे वह कर्म बंध के आस्रव का हेतु हो सके अर्थात् नहीं हो सकता ।
- परिस्पंद व गति में अंतर
धवला 7/2, 1, 33/77/2 इंदियविसयमइक्कंतजीवपदेसपरिप्फंदस्स इंदिएहि उवलंभविरोहादो । ण जीवे चलंते जीवपदेसाणं संकोच - विकोचणियमो, सिज्झंतपढमसमए एत्तो लोअग्गं गच्छंतम्मि जीवपदेसाणं संकोचविकोचाणुवलंभा । = इंद्रियों के विषय से परे जो जीव प्रदेशों का परिस्पंद होता है, उसका इंद्रियों द्वारा ज्ञान मान लेने में विरोध आता है । जीवों के चलते समय जीव प्रदेशों के संकोच - विकोच का नियम नहीं है, क्योंकि सिद्ध होने के प्रथम समय में जब यह जीव यहाँ से अर्थात् मध्य लोक से लोक के अग्रभाग को जाता है तब इसके जीव प्रदेशों में संकोच-विकोच नहीं पाया जाता । (और भी देखें जीव - 4.6) ।
देखें योग - 2.5 (क्रिया की उत्पत्ति में जो जीव का उपयोग होता है, वही वास्तव में योग है ।)
धवला 7/2, 1, 15/17/10 मण-वयण-कायपोग्गलालंबणेण जीवपदेसाणं परिप्फंदो । जदि एवं तो णत्थि अजोगिणो सरीरियस्स जीवदव्वस्स अकिरियत्तविरोहादो । ण एस दोसो, अट्ठकम्मेसु खीणेसु जा उड्ढगमणुवलंबिया किरिया सा जीवस्स साहाविया, कम्मोदएण विणा पउत्ततादो । सट्टिददेसमछंडिय छद्दित्तो वा जीवदव्वस्स सावयवेहि परिप्फंदो अजोगो णाम, तस्स कम्मक्खयत्तादो । तेण सक्किरिया विसिद्धा अजोगिणो, जीवपदेसाणमद्दहिदजलपदेसाणं व उव्वत्तण-परिपत्तणकिरिया भावादो । तदो ते अबंधा त्ति भणिदा । = मन, वचन और काय संबंधी पुद्गलों के आलंबन से जो जीव प्रदेशों का परिस्पंदन होता है वही योग है ।
प्रश्न−यदि ऐसा है तो शरीरी जीव अयोगी हो ही नहीं सकते, क्योंकि शरीरगत जीवद्रव्य को अक्रिय मानने में विरोध आता है ?
उत्तर−यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि आठों कर्मों के क्षीण हो जाने पर जो ऊर्ध्वगमनोपलंबी क्रिया होती है वह जीव का स्वाभाविक गुण है, क्योंकि वह कर्मोदय के बिना प्रवृत्त होती है । स्वस्थित प्रदेश को न छोड़ते हुए अथवा छोड़कर जो जीवद्रव्य का अपने अवयवों द्वारा परिस्पंद होता है वह अयोग है, क्योंकि वह कर्मक्षय से उत्पन्न होता है । अतः सक्रिय होते हुए भी शरीरी जीव अयोगी सिद्ध होते हैं । क्योंकि उनके जीवप्रदेशों के तप्तायमान जल प्रदेशों के सदृश उद्वर्तन और परिवर्तन रूप क्रिया का अभाव है ।
- परिस्पंद लक्षण करने से योगों के तीन भेद नहीं हो सकेंगे
धवला 10/4, 2, 4, 175/348/1 जदि एवं तो तिण्णं पि जोगाण-मक्कमेण वुत्ती पावदित्ति भणिदे-ण एस दोसो, जदट्ठं जीवपदेसाणं पढमं परिप्फंदो जादो अण्णम्मि जीवपदेसपरिप्फंदसहकारिकारणे जादे वि तस्सेव पहाणत्तदंसणेण तस्स तव्ववएसविरोहाभावादो । = प्रश्न−यदि ऐसा है(तीनों योगों का ही लक्षण आत्म-प्रदेश परिस्पंद है) तो तीनों ही योगों का एक साथ अस्तित्व प्राप्त होता है ?
उत्तर−नहीं, यह कोई दोष नहीं है । (सामान्यतः तो योग एक ही प्रकार का है) परंतु जीव - प्रदेश परिस्पंद के अन्य सहकारी कारण के होते हुए भी जिस (मन, वचन व काय) के लिए जीव - प्रदेशों का प्रथम परिस्पंद हुआ है उसकी ही प्रधानता देखी जाने से उसकी उक्त (मन, वचन वा काययोग) संज्ञा होने में कोई विरोध नहीं है ।
- परिस्पंद रहित होने से आठ मध्यप्रदेशों में बंध न हो सकेगा
धवला 12/4, 2, 11, 3/366/10 जीवपदेसाणं परिप्फंदाभावादो । ण च परिप्फंदविरहियजीवपदेसेसु जोगो अत्थि, सिद्धाणंपि सजोगत्तवत्तीदो त्ति । एत्थ परिहारो वुच्चदे-मण-वयण-कायकिरियासमुप्पत्तीए जीवस्स उवजोगो जोगो णाम । सो च कम्मबंधस्स कारणं । ण च सो थोवेसु जीवपदेसेसु होदि, एगजीवपयत्तस्स थोवावयवेसु चेव वुत्तिविरोहादो एक्कम्हि जीवे खंडखंडेणपयत्तविरोहादो वा । तम्हा ट्ठिदेसु जीवपदेसेसु कम्मबंधो अत्थि त्ति णव्वदे । ण जोगादो णियमेण जीवपदेसपरिप्फंदो होदि, तस्स तत्तो अणियमेण समुप्पत्तीदो । ण च एकांतेण णियमो णत्थि चेव, जदि उप्पज्जदि तो तत्तो चेव उप्पज्जदि त्ति णियमुवलंभादो । तदो ट्ठिदाणं पि जोगो अत्थि त्ति कम्मबंधभूयमिच्छियव्वं । = प्रश्न−जीव - प्रदेशों का परिस्पंद न होने से ही जाना जाता है कि वे योग से रहित हैं और परिस्पंद से रहित जीवप्रदेशों में योग की संभावना नहीं है, क्योंकि वैसा होने पर सिद्ध जीवों के भी सयोग होने की आपत्ति आती है ?
उत्तर−उपर्युक्त शंका का परिहार करते हैं -- मन, वचन एवं काय संबंधी क्रिया की उत्पत्ति में जो जीव का उपयोग होता है, वह योग है और वह कर्मबंध का कारण है । परंतु वह थोड़े से जीवप्रदेशों में नहीं हो सकता, क्योंकि एक जीव में प्रवृत्त हुए उक्त योग की थोड़े से ही अवयवों में प्रवृत्ति मानने में विरोध आता है । अथवा एक जीव में उसके खंड-खंड रूप से प्रवृत्त होने में विरोध आता है । इसलिए स्थित जीवप्रदेशों में कर्मबंध होता है, यह जाना जाता है ।
- दूसरे योग से जीवप्रदेशों में नियम से परिस्पंद होता है, ऐसा नहीं है; क्योंकि योग से अनियम से उसकी उत्पत्ति होती है । तथा एकांततः नियम नहीं है, ऐसी बात भी नहीं है; क्योंकि यदि जीवप्रदेशों में परिस्पंद उत्पन्न होता है, तो योग से ही उत्पन्न होता है, ऐसा नियम पाया जाता है । इस कारण स्थित जीव प्रदेशों में भी योग के होने से कर्मबंध को स्वीकार करना चाहिए ।
- योग में शुभ - अशुभपना क्या
राजवार्तिक/6/3/2-3/507/6 कथं योगस्य शुभाशुभत्वम् ?....शुभपरिणामनिर्वृत्तो योगः शुभः, अशुभपरिणामनिर्वृत्तश्चाशुभ इति कथ्यते, न शुभाशुभकर्मकारणत्वेन । यद्येवमुच्येत; शुभयोग एव न स्यात्, शुभयोगस्यापि ज्ञानावरणादिबंधहेतुत्वाभ्युपगमात् । = प्रश्न−योग में शुभ व अशुभपना क्या ?
उत्तर−शुभ परिणामपूर्वक होने वाला योग शुभयोग है तथा अशुभ परिणाम से होने वाला अशुभयोग है। शुभ-अशुभ कर्म का कारण होने से योग में शुभत्व या अशुभत्व नहीं है क्योंकि शुभयोग भी ज्ञानावरण आदि अशुभ कर्मों के बंध में भी कारण होता है ।
- शुभ-अशुभ योग को अनंतपना कैसे है
राजवार्तिक/6/3/2/507/4 असंख्येयलोकत्वादध्यवसायावस्थानानां कथमनंतविकल्पत्वमिति । उच्यते-अनंतानंतपुद्गलप्रदेशप्रचित-ज्ञानावरणवीर्यांतरायदेशसर्वघातिद्विविधस्पर्धकक्षयोपशमादेशात् योगत्रयस्यानंत्यम् । अनंतानंतप्रदेशकर्मादानकारणत्वाद्वा अनंतः, अनंतानंतनानाजीवविषयभेदाद्वानंतः । = प्रश्न−अध्यवसाय स्थान असंख्यात-लोक-प्रमाण हैं फिर योग अनंत प्रकार के कैसे हो सकते हैं ?
उत्तर−अनंतानंत पुद्गल प्रदेश रूप से बँधे हुए ज्ञानावरण वीर्यांतराय के देशघाती और सर्वघाती स्पर्धकों के क्षयोपशम भेद से, अनंतानंत प्रदेश वाले कर्मों के ग्रहण का कारण होने से तथा अनंतानंत नाना जीवों की दृष्टि से तीनों योग अनंत प्रकार के हो जाते हैं ।
- वस्त्रादि के संयोग से व्यभिचार निवृत्ति
- योग सामान्य निर्देश
- योग मार्गणा में भावयोग इष्ट है
देखें योग - 2.5 (क्रिया की उत्पत्ति में जो जीव को उपयोग होता है वास्तव में वही योग है ।)
देखें योग - 2.1 (आत्मा के धर्म न होने से अन्य पदार्थों का संयोग योग नहीं कहला सकता ।)
देखें मार्गणा - 5 (सभी मार्गणास्थानों में भावमार्गणा इष्ट है ।)
- योग वीर्य गुण की पर्याय है
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/1187/1178/4 योगस्य वीर्यपरिणामस्य.... वीर्यपरिणामरूप जो योग...(और भी देखें योग - 3.4 ) ।
- योग कथंचित् पारिणामिक भाव है
धवला 5/1, 7, 48/225/10 सजोगो त्ति को भावो । अणादिपारिणामिओ भावो । णोवसमिओ, मोहणीए अणुवसंते वि जोगुवलंभा । ण खइओ, अणप्पसरूवस्स कम्माणं खएणुप्पत्तिविरोहा । ण घादिकम्मोदयजणिओ, णट्ठे वि घादिकम्मोदए केवलिम्हि जोगुवलंभा । णो अघादिकम्मोदयजणिदो वि संते वि अघादिकम्मोदए अजोगिम्हि जोगाणुवलंभा । ण सरीरणामकम्मोदयजणिदो वि, पोग्गलविवाइयाणं जीवपरिफद्दणहेउत्तविरोहा । कम्मइयशरीरं ण पोग्गलविवाई, तदो पोग्गलाणं वण्ण-रस-गंध-फास-संठाणागमणादीणमणुवलंभा । तदुप्पाइदो जोगो होदु चे ण, कम्मइयसरीरं पि पोग्गलविवाई चेव, सव्वकम्माणमासयत्तादो । कम्मइओदयविणट्ठसमए चेव जोगविणासदंसणादो कम्मइयसरीरजणिदो जोगो चे ण, अघाइकम्मोदयविणासाणंतरं विणस्संत भवियत्तस्स पारिणामियस्स ओदइयत्तप्पसंगा । तदो सिद्धं जोगस्स पारिणामियत्तं । = प्रश्न− ‘सयोग’ यह कौन सा भाव है ?
उत्तर− ‘सयोग’ यह अनादि पारिणामिक भाव है । इसका कारण यह है कि योग न तो औपशमिक भाव है, क्योंकि मोहनीयकर्म के उपशम नहीं होने पर भी योग पाया जाता है । न वह क्षायिक भाव है, क्योंकि आत्मस्वरूप से रहित योग की कर्मों के क्षय से उत्पत्ति मानने में विरोध आता है । योग घातिकर्मोदयजनित भी नहीं है, क्योंकि घातिकर्मोदय के नष्ट होने पर भी सयोगिकेवली में योग का सद्भाव पाया जाता है। न योग अघातिकर्मोदय जनित भी है, क्योंकि अघाति कर्मोदय के रहने पर भी अयोगकेवली में योग नहीं पाया जाता । योग शरीरनामकर्मोदयजनित भी नहीं है, क्योंकि पुद्गलविपाकी प्रकृतियों के जीव-परिस्पंदन का कारण होने में विरोध है ।
प्रश्न−कार्मण शरीर पुद्गल विपाकी नहीं है, क्योंकि उससे पुद्गलों के वर्ण, रस, गंध, स्पर्श और संस्थान आदि का आगमन आदि नहीं पाया जाता है । इसलिए योग को कार्मण शरीर से (औदयिक) उत्पन्न होने वाला मान लेना चाहिए ?
उत्तर−नहीं, क्योंकि सर्व कर्मों का आश्रय होने से कार्मण शरीर भी पुद्गल विपाकी ही है । इसका कारण यह है कि वह सर्व कर्मों का आश्रय या आधार है ।
प्रश्न−कार्मण शरीर के उदय विनष्ट होने के समय में ही योग का विनाश देखा जाता है । इसलिए योग कार्मण शरीर जनित है, ऐसा मानना चाहिए ?
उत्तर−नहीं, क्योंकि यदि ऐसा माना जाय तो अघाति कर्मोदय के विनाश होने के अनंतर ही विनष्ट होने वाले पारिणामिक भव्यत्व भाव के भी औदयिकपने का प्रसंग प्राप्त होगा । इस प्रकार उपर्युक्त विवेचन से योग के पारिणामिकपना सिद्ध हुआ ।
- योग कथंचित् क्षायोपशमिक भाव है
धवला 7/2, 1, 33/75/3 जोगो णाम जीवपदेसाणं परिप्फंदो संकोचविकोचलक्खणो । सो च कम्माणं उदयजणिदो, कम्मोदयविरहिदसिद्धेसु तदणुवलंभा । अजोगिकेवलिम्हि जोगाभावाजोगो ओदइयो ण होदि त्ति वोत्तुं ण जुत्तुं, तत्थ सरीरणामकम्मोदया भावा । ण च सरीरणामकम्मोदएण जायमाणो जोगो तेण विणा होदि, अइप्पसंगादो । एवमोदइयस्स जोगस्स कधं खओवसमियत्तं उच्चते । ण सरीरणामकम्मोदएण सरीरपाओग्गपोग्गलेसु बहुसु संचयं गच्छमाणेसु विरियंतराइयस्स सव्वघादिफद्दयाणमुदयाभावेण तेसिं संतोवसमेण देसघादिफद्दयाणमुदएण समुब्भवादो लद्धखओवसमववएसं विरियं वड्ढदि, तं विरियं पप्प जेण जीवपदेसाणं संकोच विकोच वइढदि तेण जोगो खओवसमिओ त्ति वुत्तो । विरियंतराइयखओवसमजणिदबलवड्ढि-हाणीहिंतो जदि-जीवपदेसपरिप्फंदस्स वड्ढिहाणीओ होंति तो खीणंतराइयम्मि सिद्धे, जोगबहुत्तं पसज्जदे । ण, खओवसमियबलादो खइयस्स बलस्स पुधत्तदंसणादो । ण च खओवसमियबलवड्ढि-हाणीहिंतो वड्ढि-हाणीणं गच्छमाणो जीवपदेसपरिप्फंदो खइयबलादो वड्ढिहाणीणं गच्छदि, अइप्पसंगादो । = प्रश्न−जीव प्रदेशों के संकोच और विकोचरूप परिस्पंद को योग कहते हैं । यह परिस्पंद कर्मों के उदय से उत्पन्न होता है, क्योंकि कर्मोदय से रहित सिद्धों के वह नहीं पाया जाता । अयोगि केवली में योग के अभाव से यह कहना उचित नहीं है कि योग औदयिक नहीं होता है, क्योंकि अयोगि केवली के यदि योग नहीं होता तो शरीरनामकर्म का उदय भी तो नहीं होता । शरीरनामकर्म के उदय से उत्पन्न होने वाला योग उस कर्मोदय के बिना नहीं हो सकता, क्योंकि वैसा मानने से अतिप्रसंग दोष उत्पन्न होगा । इस प्रकार जब योग औदयिक होता है, तो उसे क्षायोपशमिक क्यों कहते हैं ।
उत्तर−ऐसा नहीं, क्योंकि जब शरीर नामकर्म के उदय से शरीर बनने के योग्य बहुत से पुद्गलों का संचय होता है और वीर्यांतरायकर्म के सर्वघाती स्पर्धकों के उदयाभाव से व उन्हीं स्पर्धकों के सत्त्वोपशम से तथा देशघाती स्पर्धकों के उदय से उत्पन्न होने के कारण क्षायोपशमिक कहलाने वाला वीर्य (बल) बढ़ता है, तब उस वीर्य को पाकर चूँकि जीवप्रदेशों का संकोच-विकोच बढ़ता है, इसलिए योग क्षायोपशमिक कहा गया है ।
प्रश्न−यदि वीर्यांतराय के क्षयोपशम से उत्पन्न हुए बल की वृद्धि और हानि से प्रदेशों के परिस्पंद की वृद्धि और हानि होती है, तब तो जिसके अंतरायकर्म क्षीण हो गया है ऐसे सिद्ध जीवों में योग की बहुलता का प्रसंग आता है ।
उत्तर−नहीं आता, क्योंकि क्षायोपशमिक बल से क्षायिक बल भिन्न देखा जाता है । क्षायोपशमिक बल की वृद्धि-हानि से वृद्धि-हानि को प्राप्त होने वाला जीव प्रदेशों का परिस्पंद क्षायिक बल से वृद्धिहानि को प्राप्त नहीं होता, क्योंकि ऐसा मानने से तो अतिप्रसंग दोष आता है ।
- योग कथंचित् औदयिक भाव है
धवला 5/1, 7, 48/226/7 ओदइओ जोगो, सरीरणामकम्मोदयविणासाणंतरं जोगविणासुवलंभा । ण च भवियत्तेण विउवचारो, कम्मसंबंधविरोहिणो तस्स कम्मजणिदत्तविरोहा । = ‘योग’ यह औदयिक भाव है, क्योंकि शरीर नामकर्म के उदय का विनाश होने के पश्चात् ही योग का विनाश पाया जाता है और ऐसा मानकर भव्यत्व भाव के साथ व्यभिचार भी नहीं आता है, क्योंकि कर्म संबंध के विरोधी भव्यत्व भाव की कर्म से उत्पत्ति मानने में विरोध आता है ।
धवला 7/2, 1, 13/76/3 जदि जोगो वीरियंतराइयखओवसमजणिदो तो सजोगिम्हि जोगाभावो पसज्जदे । ण उवयारेण खओवसमियं भावं पत्तस्स ओदइयस्स जोगस्स तत्था भावविरोहादो । = प्रश्न−यदि योग वीर्यांतराय कर्म के क्षयोपशम से उत्पन्न होता है, तो सयोगि केवलि में योग के अभाव का प्रसंग आता है ।
उत्तर−नहीं आता, योग में क्षायोपशमिक भाव तो उपचार से है । असल में तो योग औदयिक भाव ही है और औदयिक योग का सयोगि केवलि में अभाव मानने में विरोध आता है ।
धवला 7/2, 1, 61/105/2 किंतु सरीरणामकम्मोदयजणिदजोगो वि लेस्सा त्ति इच्छिज्जदि, कम्मबंधणिमित्तादो । तेण कसाए फिट्टे वि जोगो अत्थि... । = शरीर नामकर्मोदय के उदय से उत्पन्न योग भी तो लेश्या माना गया है, क्योंकि वह भी कर्मबंध में निमित्त होता है । इस कारण कषाय के नष्ट हो जाने पर भी योग रहता है ।
धवला 9/4, 1, 66/316/2 जोगमग्गणा वि ओदइया, णामकम्मस्स उदीरणोदयजणिदत्तादो । = योग मार्गणा भी औदयिक है, क्योंकि वह नामकर्म की उदीरणा व उदय से उत्पन्न होती है ।
- उत्कृष्ट योग दो समय से अधिक नहीं रहता
धवला 10/4, 2, 4, 31/108/4 जदि एवं तो दोहि समएहि विणा उक्कस्सजोगेण णिरंतरं बहुकालं किण्ण परिणमाविदो । ण एस दोसो, णिरंतरं तत्थ तियादिसमयपरिणामाभावादो । = प्रश्न−दो समयों के सिवा निरंतर बहुत काल तक उत्कृष्ट योग से क्यों नहीं परिणमाया?
उत्तर−यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि निरंतर उत्कृष्ट योग में तीन आदि समय तक परिणमन करते रहना संभव नहीं है ।
- तीनों योगों की प्रवृत्ति क्रम से ही होती है युगपत् नहीं
धवला 1/1, 1, 47/279/3 त्रयाणां योगानां प्रवृत्तिरक्रमेण उत नेति । नाक्रमेण, त्रिष्वक्रमेणैकस्यात्मनो योगनिरोधात् । मनोवाक्कायप्रवृत्योऽक्रमेण क्वचिद् दृश्यंत इति चेद्भवतु तासां तथा प्रवृत्तिर्दृष्टत्वात्, न तत्प्रयत्नानामक्रमेण वृत्तिस्तथोपदेशाभावादिति । अथ स्यात् प्रयत्नो हि नाम बुद्धिपूर्वकः, बुद्धिश्च मनोयोगपूर्विका तथा च सिद्धो मनोयोगः शेषयोगाविनाभावीति न, कार्यकारणयोरेककाले समुत्पत्तिविरोधात् ।प्रश्न−तीनों योगों की प्रवृत्ति युगपत् होती है या नहीं ।
उत्तर−युगपत् नहीं होती है, क्योंकि एक आत्मा के तीनों योगों की प्रवृत्ति युगपत् मानने पर योग निरोध का प्रसंग आ जायेगा अर्थात् किसी भी आत्मा में योग नहीं बन सकेगा ।
प्रश्न−कहीं पर मन, वचन और काय की प्रवृत्तियाँ युगपत् देखी जाती हैं ?
उत्तर−यदि देखी जाती हैं, तो उनकी युगपत् वृत्ति होओ । परंतु इससे, मन, वचन और काय की प्रवृत्ति के लिए जो प्रयत्न होते हैं, उनको युगपत् वृत्ति सिद्ध नहीं हो सकती है, क्योंकि आगम में इस प्रकार उपदेश नहीं मिलता है । (तीनों योगों की प्रवृत्ति एक साथ हो सकती है, प्रयत्न नहीं ।)
प्रश्न−प्रयत्न बुद्धि पूर्वक होता है और बुद्धि मनोयोग पूर्वक होती है । ऐसी परिस्थिति में मनोयोग शेष योगों का अविनाभावी है, यह बात सिद्ध हो जानी चाहिए ।
उत्तर−नहीं, क्योंकि कार्य और कारण इन दोनों की एक काल में उत्पत्ति नहीं हो सकती है ।
धवला 7/2, 1, 33/77/1 दो वा तिण्णि वा जोगा जुगवं किण्ण होंति । ण, तेसिं णिसिद्धाकमवुत्तीदो । तेसिमक्कमेण वुत्ती वुवलंभदे चे । ण,... । =प्रश्न−दो या तीन योग एक साथ क्यों नहीं होते ?
उत्तर−नहीं होते, क्योंकि उनकी एक साथ वृत्ति का निषेध किया गया है ।
प्रश्न−अनेक योगों की एक साथ वृत्ति पायी तो जाती है ?
उत्तर−नहीं पायी जाती, (क्योंकि इंद्रियातीत जीव प्रदेशों का परिस्पंद प्रत्यक्ष नहीं है ।− देखें योग 2.3 ।
गोम्मटसार जीवकांड/242/505 जोगोवि एक्ककाले एक्केव य होदि णियमेण । = एक काल में एक जीव के युगपत् एक ही योग होता है, दो वा तीन नहीं हो सकते, ऐसा नियम है ।
- तीनों योगों के निरोध का क्रम
भगवती आराधना /2117-2120/1824 बादरवचिजोगं बादरेण कायेण बादरमणं च । बादरकायंपि तधा रुभंदि सुहुमेण काएण ।2117। तध चेव सुहुममणवचिजोगं सुहमेण कायजोगेण । रुंभित्तु जिणो चिट्ठदि सो सुहुमे काइए जोगे ।2118। सुहुमाए लेस्साए सुहुमकिरियबंधगो तगो ताधे । काइयजोगे सुहुमम्मि सुहुमकिरियं जिणो झादि ।2119। सुहुमकिरिएण झाणेण णिरुद्धे सुहुमकाययोगे वि । सेलेसी होदि तदो अबंधगो णिच्चलपदेसो ।2120। = बादर वचनयोग और बादर मनोयोग के बादर काययोग में स्थिर होकर निरोध करते हैं तथा बादर काय योग से रोकते हैं ।2117। उस ही प्रकार से सूक्ष्म वचनयोग और सूक्ष्म मनोयोग को सूक्ष्म काययोग में स्थिर होकर निरोध करते हैं और उसी काययोग से वे जिन भगवान् स्थिर रहते हैं ।2118। उत्कृष्ट शुक्ललेश्या के द्वारा सूक्ष्म काययोग से साता वेदनीय कर्म का बंध करने वाले वे भगवान् सूक्ष्मक्रिया नामक तीसरे शुक्लध्यान का आश्रय करते हैं । सूक्ष्मकाययोग होने से उनको सूक्ष्मक्रिया शुक्लध्यान की प्राप्ति होती है ।2119। सूक्ष्मक्रिया ध्यान से सूक्ष्म काययोग का निरोध करते हैं । तब आत्मा के प्रदेश निश्चल होते हैं और तब उनको कर्म का बंध नहीं होता । ( ज्ञानार्णव/42/48-51 ); ( वसुनंदी श्रावकाचार/533-536) ।
धवला 6/1, 9-8, 16 एतो अंतोमुहुत्तं गंतूण बादरकायजोगेण बादरमगजोगं णिरुंभदि । तदो अंतोमुहुत्तेण बादरकायजोगेण बादरवचिजोगं णिरुंभदि । तदो अंतोमुहुत्तेण बादरकायजोगेण बादरउस्सासणिस्सासं णिरुंभदि । तदो अंतोमुहुत्तेण बादरकायजोगेण तमेव बादरकायजोगं णिरुंभदि । तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण सुहुमकायजोगेण सुहुममणजोगं णिरुंभदि । तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण सुहुमवचिजोगं णिरुंभदि । तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण सुहुमकायनोगेण सुहुमउस्सासं णिरुंभदि । तदो अंतोमुहुत्तं गंतूण सुहुमकायजोगेण सुहुमकायजोगं णिरुं भमाणो । (414/5)। इमाणि करणाणि करेदि पढमसमए अपुव्वफद्दयाणि करेदि पुव्वफद्दयाणहेट्ठादो । (415/2) । एत्तोअंतोमुहुत्तं किट्टीओ करेदि ।....किट्टीकरणे णिट्ठिदे तदो से काले पुव्वफद्दयाणि अपुव्वफद्दयाणि च णासेदि । अंतोमुहुत्तं किट्टीगदजोगो होदि । (416/1) । तदो अंतोमुहुत्तं जोगाभावेण णिरुद्धासवत्तो.... सव्वकम्मविप्पमुक्को एगसमएण सिद्धिं गच्छदि । (417/1) ।- यहाँ से अंतर्मुहूर्त्त जाकर बादरकाय योग से बादरमनोयोग का निरोध करता है । तत्पश्चात् अंतर्मुहूर्त्त से बादर काययोग से बादर वचनयोग का निरोध करता है। पुन: अंतर्मुहूर्त से बादर काययोग से बादर उच्छवास-निश्वास का निरोध करता है । पुनःअंतर्मुहूर्त्त से बादर काय योग से उसी बादर काययोग का निरोध करता है । तत्पश्चात् अंतर्मुहूर्त्त जाकर सूक्ष्मकाययोग से सूक्ष्म मनोयोग का निरोध करता है । पुनः अंतर्मुहूर्त्त जाकर सूक्ष्म वचनयोग का निरोध करता है । पुनः अंतर्मुहूर्त्त जाकर सूक्ष्म काययोग से उच्छ्वास-निश्वास का निरोध करता है । पुनः अंतर्मुहूर्त्त जाकर सूक्ष्मकाय योग से सूक्ष्म काययोग का निरोध करता हुआ ।
- इन कारणों को करता है −प्रथम समय में पूर्वस्पर्धकों के नीचे अपूर्व स्पर्धकों को करता है ।...फिर अंतर्मुहूर्त्तकाल पर्यंत कृष्टियों को करता है....उसके अनंतर समय में पूर्व स्पर्द्धकों को और अपूर्वस्पर्द्धकों को नष्ट करता है । अंतर्मुहूर्त्त काल तक कृष्टिगत योग वाला होता है ।.... तत्पश्चात् अंतर्मुहूर्त काल तक अयोगि केवली के योग का अभाव हो जाने से आस्रव का निरोध हो जाता है ।...तब सर्व कर्मों से विमुक्त होकर आत्मा एक समय में सिद्धि को प्राप्त करता है। ( धवला 13/5, 4, 23/84/12 ); ( धवला 10/4, 2, 4, 107/321/8 ); ( क्षपणासार/ मू./627-655/739-758) ।
- योग मार्गणा में भावयोग इष्ट है
- योग का स्वामित्व व तत्संबंधी शंकाएँ
- योगों में संभव गुणस्थान निर्देश
षट्खंडागम 1/1, 1/ सूत्र 50-65/282-308 मणजोगो सच्चमणजोगो असच्चमणजोगो सण्णिमिच्छाइट्ठि-प्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ।50। मोसमणजोगो सच्चमोसमणजोगो सण्णिमिच्छाइट्ठि-प्पहुडि जाव खीण-कसायवीयराय-छदुमत्था त्ति ।51। वचिजोगो असच्चमोसवचिजोगो बीइंदिय-प्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ।53। सच्चवचिजोगो सणिणमिच्छाइट्ठि-प्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ।54। मोसवचिजोगो सच्चमोसवचिजोगो सण्णिमिच्छाइट्ठि-प्पहुडि जाव खीणकसाय-वीयराय-छदुमत्था त्ति ।55। कायजोगो ओरालियकायजोगो ओरालियमिस्सकायजोगो एइंदिय-प्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ।61। वेउव्वियकायजोगो वेउव्वियमिस्सकायजोगो सण्णिमिच्छाइट्ठि-प्पहुडि जाव असंजदसम्माइट्ठि त्ति ।62। आहारकायजोगो आहारमिस्सकायजोगो एक्कम्हि चेव पमत्त-संजदट्-ठाणे ।63। कम्मइयकायजोगो एइंदिय-प्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ।64। मणजोगो वचिजोगो कायजोगो सण्णिमिच्छाइट्ठि-प्पहुडि जाव सजोगिकेवलि त्ति ।65। =- सामान्य से मनोयोग और विशेष रूप से सत्य मनोयोग तथा असत्यमृषा मनोयोग संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगिकेवली पर्यंत होते हैं ।50। असत्य मनोयोग और उभय मनोयोग संज्ञी मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से लेकर क्षीणकषाय-वीतराग छद्मस्थ गुणस्थान तक पाये जाते हैं ।51।
- सामान्य से वचनयोग और विशेष रूप से अनुभय वचनयोग द्वींद्रिय जीवों से लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तक होता है ।53। सत्य वचनयोग संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तक होता है ।54। मृषावचनयोग और सत्यमृषावचनयोग संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर क्षीणकषाय-वीतराग-छद्मस्थ-गुणस्थान तक पाये जाते हैं ।55।
- सामान्य से काययोग और विशेष की अपेक्षा औदारिक काययोग और औदारिक मिश्र काययोग एकेंद्रिय से लेकर सयोगिकेवली गुणस्थान तक होते हैं ।61। वैक्रियक काययोग और वैक्रियक मिश्र काययोग संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर असंयत सम्यग्दृष्टि तक होते हैं ।62। आहारककाययोग और आहारकमिश्रकाययोग एक प्रमत्त गुणस्थान में ही होते हैं ।63। कार्मणकाययोग एकेंद्रिय जीवों से लेकर सयोगिकेवली तक होता है ।64।
- तीनों योग - मनोयोग, वचनयोग और काययोग संज्ञी मिथ्यादृष्टि से लेकर सयोगिकेवली तक होते हैं ।65। क्षीणकषाय गुणस्थान में भी निष्काम क्रिया संभव है ।−देखें अभिलाषा ।
- गुणस्थानों में संभव योग
(पंच संग्रह/प्राकृत/5/328), ( गोम्मटसार जीवकांड/704/1140 ), (पंच संग्रह/संस्कृत/5/358) ।
गुणस्थान
संभव योग
असंभव योग के नाम
मिथ्यादृष्टि
13
आहारक, आहारक मिश्र = 2
सासादन
13
आहारक, आहारक मिश्र = 2
मिश्र
10
आहारक, आहारक मिश्र, औदारिक, वैक्रियकमिश्र, कार्मण = 5
असंयत
13
आहारक, आहारक मिश्र = 2
देशविरत
9
औदारिक मिश्र, वैक्रियक व वैक्रियक मिश्र, आहारक व आहारक मिश्र, कार्मण =6
प्रमत्त
11
औदारिक मिश्र, वैक्रियक, वैक्रियक मिश्र, कार्मण = 4
अप्रमत्त
9
औदारिक मिश्र, वैक्रियक व वैक्रियक मिश्र, आहारक व आहारक मिश्र, कार्मण =6
अपूर्वकरण
9
औदारिक मिश्र, वैक्रियक व वैक्रियक मिश्र, आहारक व आहारक मिश्र, कार्मण =6
अनिवृत्तिकरण
9
औदारिक मिश्र, वैक्रियक व वैक्रियक मिश्र, आहारक व आहारक मिश्र, कार्मण =6
सूक्ष्म साम्पराय
9
औदारिक मिश्र, वैक्रियक व वैक्रियक मिश्र, आहारक व आहारक मिश्र, कार्मण =6
उपशांत
9
औदारिक मिश्र, वैक्रियक व वैक्रियक मिश्र, आहारक व आहारक मिश्र, कार्मण =6
क्षीणकषाय
9
औदारिक मिश्र, वैक्रियक व वैक्रियक मिश्र, आहारक व आहारक मिश्र, कार्मण =6
सयोगि
7
वैक्रियक, वैक्रियक मिश्र, आहारक, आहारक मिश्र, असत्य व उभय मनोवचनयोग = 8
- योगों में संभव जीवसमास
षट्खंडागम 1/1, 1/ सूत्र 66-78/309-317 वचिजोगो कायजोगो बीइंदियप्पहुडि जाव असण्णिपंचिंदिया त्ति ।66। कायजोगो एइंदियाणं ।67। मणजोगो वचिजोगो पज्जत्ताणं अत्थि, अपज्जत्ताणं णत्थि ।68। कायजोगो पज्जत्ताणं वि अत्थि, अपज्जत्ताणं वि अत्थि ।69। ओरालियकायजोगो पज्जत्ताणं ओरालियमिस्सकायजोगो अप्पज्जत्ताणं ।76। वेउव्वियकायजोगो पज्जत्ताणं वेउव्वियमिस्सकायजोगो अपज्जत्ताणं ।77। आहारककायजोगो पज्जत्ताणं आहारमिस्सकायजोगो अपज्जत्ताणं ।78। = वचनयोग और काययोग द्वींद्रिय जीवों से लेकर असंज्ञी पंचेंद्रिय जीवों तक होते हैं ।66। काययोग एकेंद्रिय जीवों के होता है ।67। मनोयोग और वचनयोग पर्याप्तकों के ही होते हैं, अपर्याप्तकों के नहीं होते ।58। काययोग पर्याप्तकों के भी होता है ।69। अपर्याप्तकों के भी होता है, औदारिक काययोग पर्याप्तकों के और औदारिक मिश्र काययोग अपर्याप्तकों के होता है ।76। वैक्रियक काययोग पर्याप्तकों के और वैक्रियकमिश्र काययोग अपर्याप्तकों के होता है ।77। आहारक काययोग पर्याप्तकों के और आहारक मिश्र काय योग अपर्याप्तकों के होता है ।78। (मूल आराधना/1127); (पंच संग्रह/प्राकृत/4/11-15); ( गोम्मटसार जीवकांड/679-684/1122-1125) ।
- पर्याप्त व अपर्याप्त में मन, वचनयोग संबंधी शंका
धवला 1/1, 1, 68/310/4 क्षयोपशमापेक्षया अपर्याप्तकालेऽपि तयोः सत्त्वं न विरोधमास्कंदेदिति चेन्न, वाङ्मनसाभ्यामनिष्पन्नस्य तद्योगानुपपत्तेः । पर्याप्तानामपि विरुद्धयोगमध्यासितावस्थायां नास्त्येवेति चेन्न, संभवापेक्षया तत्र तत्सत्त्वप्रतिपादनात्, तच्छक्तिसत्त्वापेक्षया वा । = प्रश्न−क्षयोपशमकी अपेक्षा अपर्याप्त काल में भी वचनयोग और मनोयोग का पाया जाना विरोध को प्राप्त नहीं होता है ?
उत्तर−नहीं, क्योंकि जो क्षयोपशम वचनयोग और मनोयोग रूप से उत्पन्न नहीं हुआ है, उसे योग संज्ञा प्राप्त नहीं हो सकती है ।
प्रश्न−पर्याप्तक जीवों के भी विरुद्ध योग को प्राप्त होने रूप अवस्था के होने पर विवक्षित योग नहीं पाया जाता है ?
उत्तर- नहीं, क्योंकि पर्याप्त अवस्था में किसी एक योग के रहने पर शेष योग संभव है, इसलिए इस अपेक्षा से वहाँ पर उनके अस्तित्व का कथन किया जाता है । अथवा उस समय वे योग शक्तिरूप से विद्यमान रहते हैं, इसलिए इस अपेक्षा से उनका अस्तित्व कहा जाता है ।
- मनोयोगी में भाषा व शरीर पर्याप्ति की सिद्धि
धवला 2/1, 1/628/9 केई वचिकायपाणे अवणेंति, तण्ण घडदे; तेसिं सत्ति - संभवादो । वचि - कायबलणिमित्त-पुग्गल-खंधस्स अत्थित्तं पेक्खिअ पज्जत्तीओ होंति त्ति सरीर-वचि पज्जत्तीओ अत्थि । = कितने ही आचार्य मनोयोगियों के दश प्राणों में से वचन और कायप्राण कम करते हैं, किंतु उनका वैसा करना घटित नहीं होता है, क्योंकि मनोयोगी जीवों के वचनबल और कायबल इन दो प्राणों की शक्ति पायी जाती है, इसलिए ये दो प्राण उनके बन जाते हैं । उसी प्रकार वचनबल और कायबल प्राण के निमित्तभूत पुद्गलस्कंध का अस्तित्व देखा जाने से उनके उक्त दोनों पर्याप्तियाँ भी पायी जाती हैं, इसलिए उक्त दोनों पर्याप्तियाँ भी उनके बन जाती हैं ।
- अप्रमत्त व ध्यानस्थ जीवों के असत्य मनोयोग कैसे
धवला 1/1, 1, 51/285/7 भवतु नाम क्षपकोपशमकानां सत्यस्यासत्यमोषस्य च सत्त्वं नेतरयोरप्रमादस्य प्रमादविरोधित्वादिति न, रजोजुषां विपर्ययानध्यवसायाज्ञानकारणमनसः सत्त्वाविरोधात् । न च तद्योगात्प्रमादिनस्ते प्रमादस्य मोहपर्यायत्वात् । = प्रश्न−क्षपक और उपशमक जीवों के सत्यमनोयोग और अनुभय मनोयोग का सद्भाव रहा आवे, परंतु बाकी के दो अर्थात् असत्य मनोयोग और उभयमनोयोग का सद्भाव नहीं हो सकता है, क्योंकि इन दोनों में रहने वाला अप्रमाद असत्य और उभय मन के कारणभूत प्रमाद का विरोधी है ?
उत्तर−नहीं, क्योंकि आवरण कर्म से युक्त जीवों के विपर्यय और अनध्यवसायरूप अज्ञान के कारणभूत मन के सद्भाव मान लेने में कोई विरोध नहीं आता है । परंतु इसके संबंध से क्षपक या उपशम जीव प्रमत्त नहीं माने जा सकते हैं, क्योंकि प्रमाद मोह की पर्याय है ।
धवला 1/1, 1, 55/289/9 क्षीणकषायस्य वचनं कथमसत्यमिति चेन्न, असत्यनिबंधनाज्ञानसत्त्वापेक्षया तत्र तत्सत्त्वप्रतिपादनात् । तत एव नोभयसंयोगोऽपि विरुद्ध इति । वाचंयमस्य क्षीणकषायस्य कथं वाग्योगश्चेन्न, तत्रांतर्जल्पस्य सत्त्वाविरोधात् । = प्रश्न−जिसकी कषाय क्षीण हो गयी है उसके वचन असत्य कैसे हो सकते हैं ?
उत्तर−ऐसी शंका व्यर्थ है, क्योंकि असत्य वचन का कारण अज्ञान बारहवें गुणस्थान तक पाया जाता है, इस अपेक्षा से वहाँ पर असत्य वचन के सद्भाव का प्रतिपादन किया है और इसीलिए उभय संयोगज सत्यमृषा वचन भी बारहवें गुणस्थान तक होता है, इस कथन में कोई विरोध नहीं आता है ।
प्रश्न−वचन गुप्ति का पूरी तरह से पालन करने वाले कषायरहित जीवों के वचनयोग कैसे संभव है ?
उत्तर−नहीं, क्योंकि कषायरहित जीवों में अंतर्जल्प के पाये जाने में कोई विरोध नहीं आता है ।
धवला 2/1, 1/434/6 ज्झाणीणमपुव्वकरणाणं भवदु णाम वचिंबलस्स अत्थित्तं भासापज्जत्ति-सण्णिद-पोग्गल-खंज-जणिद-सत्ति-सब्भावादो । ण पुण वचिजोगो कायजोगो वा इदि । न, अंतर्जल्पप्रयत्नस्य कायगतसूक्ष्मप्रयत्नस्य च तत्र सत्त्वात् । = प्रश्न−ध्यान में लीन अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती जीवों के वचनबल का सद्भाव भले हो रहा आवे, क्योंकि भाषा पर्याप्ति नामक पौद्गलिक स्कंधों से उत्पन्न हुई शक्ति का उनके सद्भाव पाया जाता है किंतु उनके वचनयोग या काययोग का सद्भाव नहीं मानना चाहिए ?
उत्तर−नहीं, क्योंकि ध्यान अवस्था में भी अंतर्जल्प के लिए प्रयत्न रूप वचनयोग और कायगत-सूक्ष्म प्रयत्नरूप काययोग का सत्त्व अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती जीवों के पाया ही जाता है, इसलिए वहाँ वचन योग और काययोग भी संभव है ।
- समुद्धातगत जीवों में वचनयोग कैसे
धवला 4/1, 3, 29/102/7, 10 वेउविव्वसमुग्घादगदाणं कधं मणजोग-वचिजोगाणं संभवो । ण, तेसिं पि णिप्पण्णुत्तरसरीराणं मणजोगवचिजोगाणं परावत्तिसंभवादो ।7। मारणंतियसमुग्घादगदाणं असंखेज्जजोयणायामेण ठिदाणं मुच्छिदाणं कधं मण-वचिजोगसंभवो । ण, कारणाभावादो अवत्ताणं णिब्भरसुत्तजीवाणं व तेसिं तत्थ संभवं पडिविरोहाभावादो ।10। = प्रश्न−वैक्रियिक समुद्घात को प्राप्त जीवों के मनोयोग और वचनयोग कैसे संभव है ?
उत्तर−नहीं, क्योंकि निष्पन्न हुआ है विक्रियात्मक उत्तर शरीर जिनके ऐसे जीवों के मनोयोग और वचनयोगों का परिवर्तन संभव है ।
प्रश्न−मारणांतिक समुद्घात को प्राप्त, असंख्यात योजन आयाम से स्थित और मूर्च्छित हुए संज्ञी जीवों के मनोयोग और वचनयोग कैसे संभव है ?
उत्तर−नहीं, क्योंकि बाधक कारण के अभाव होने से निर्भर (भरपूर) सोते हुए जीवों के समान अव्यक्त मनोयोग और वचनयोग मारणांतिक समुद्घातगत मूर्च्छित अवस्था में भी संभव हैं, इसमें कोई विरोध नहीं है ।
- असंज्ञी जीवों में असत्य व अनुभय वचनयोग कैसे
धवला 1/1, 1, 53/287/4 असत्यमोषमनोनिबंधनवचनमसत्यमोषवचनमिति प्रागुक्तम्, तद् द्वींद्रियादीनां मनोरहितानां कथं भवेदिति नायमेकांतोऽस्ति सकलवचनानि मनस एव समुत्पद्यंत इति मनोरहितकेवलिनां वचनाभावसंजननात् । विकलेंद्रियाणां मनसा विना न ज्ञानसमुत्पत्तिः । ज्ञानेन विना न वचनप्रवृत्तिरिति चेन्न, मनस एव ज्ञानमुत्पद्यत इत्येकांताभावात् । भावे वा नाशेषेंद्रियेभ्यो ज्ञानसमुत्पत्तिः मनसः समुत्पन्नत्वात् । नैतदपि दृष्टश्रुतानुभूतविषयस्य मानसप्रत्ययस्यान्यत्र वृत्तिविरोधात् । न चक्षुरादीनां सहकार्यपि प्रयत्नात्मसहकारिभ्यः इंद्रियेभ्यस्तदुत्पत्त्युपलंभात् । समनस्केषु ज्ञातस्य प्रादुर्भावो मनोयोगादेवेति चेन्न केवलज्ञानेन व्यभिचारात् । समनस्कानां यत्क्षायोपशमिकं ज्ञानं तन्मनोयोगात्स्यादिति चेन्न, इष्टत्वात् । मनोयोगाद्वचनमुत्पद्यत इति प्रागुक्तं तत्कथं घटत इति चेन्न, उपचारेण तत्र मानसस्य ज्ञानस्य मन इति संज्ञा विधायोक्तत्वात् कथं विकलेंद्रियवचसोऽसत्यमोषत्वमिति चेदनध्यवसायहेतुत्वात् । ध्वनिविषयोऽध्यवसायः समुपलभ्यत इति चेन्न, वक्तुरभिप्रायविषयाध्यवसायाभावस्य विवक्षित्वात् । = प्रश्न−अनुभय रूप मन के निमित्त से जो वचन उत्पन्न होते हैं, उन्हें अनुभय वचन कहते हैं । यह बात पहले कही जा चुकी है । ऐसी हालत में मन रहित द्वींद्रियादिक जीवों के अनुभय वचन कैसे हो सकते हैं ?
उत्तर−यह कोई एकांत नहीं है कि संपूर्ण वचन मन से ही उत्पन्न होते हैं, यदि संपूर्ण वचनों की उत्पत्ति मन से ही मान ली जावे तो मन रहित केवलियों के वचनों का अभाव प्राप्त हो जायेगा ।
प्रश्न−विकलेंद्रिय जीवों के मन के बिना ज्ञान की उत्पत्ति नहीं हो सकती है और ज्ञान के बिना वचनों की प्रवृत्ति नहीं हो सकती है ?
उत्तर−ऐसा नहीं है, क्योंकि मन से ही ज्ञान की उत्पत्ति होती है यह कोई एकांत नहीं है । यदि मन से ही ज्ञान की उत्पत्ति होती है यह एकांत मान लिया जाता है तो संपूर्ण इंद्रियों से ज्ञान की उत्पत्ति नहीं हो सकेगी, क्योंकि संपूर्ण ज्ञान की उत्पत्ति मन से मानते हो । अथवा मन से समुत्पन्नत्वरूप धर्म इंद्रियों में रह भी तो नहीं सकता है, क्योंकि दृष्ट, श्रुत और अनुभूत को विषय करने वाले मानस ज्ञान का दूसरी जगह सद्भाव मानने में विरोध आता है । यदि मन को चक्षु आदि इंद्रियों का सहकारी कारण माना जावे सो भी नहीं बनता है, क्योंकि प्रयत्न और आत्मा के सहकार की अपेक्षा रखने वाली इंद्रियों से इंद्रियज्ञान की उत्पत्ति पायी जाती है ।
प्रश्न−समनस्क जीवों में तो ज्ञान की उत्पत्ति मनोयोग से ही होती है ?
उत्तर−नहीं, क्योंकि ऐसा मानने पर केवलज्ञान से व्यभिचार आता है ।
प्रश्न−तो फिर ऐसा माना जाये कि समनस्क जीवों के जो क्षायोपशमिक ज्ञान होता है वह मनोयोग से होता है ?
उत्तर−यह कोई शंका नहीं, क्योंकि यह तो इष्ट ही है ।
प्रश्न−मनोयोग से वचन उत्पन्न होते हैं, यह जो पहले कहा जा चुका है वह कैसे घटित होता है ?
उत्तर−यह शंका कोई दोषजनक नहीं है, क्योंकि ‘मनोयोग से वचन उत्पन्न होते हैं’ यहाँ पर मानस ज्ञान को ‘मन’ यह संज्ञा उपचार से रखकर कथन किया है ।
प्रश्न−विकलेंद्रियों के वचनों में अनुभयपना कैसे आ सकता है ?
उत्तर−विकलेंद्रियों के वचन अनध्यवसायरूप ज्ञान के कारण हैं, इसलिए उन्हें अनुभय रूप कहा गया है ।
प्रश्न−उनके वचनों में ध्वनि विषयक अध्यवसाय अर्थात् निश्चय, तो पाया जाता है, फिर उन्हें अनध्यवसाय का कारण क्यों कहा जाये ?
उत्तर−नहीं, क्योंकि यहाँ पर अनध्यवसाय से वक्ता का अभिप्राय विषयक अध्यवसाय का अभाव विवक्षित है ।
- योगों में संभव गुणस्थान निर्देश
- योगस्थान निेर्देश
- योगस्थान सामान्य का लक्षण
षट्खंडागम/10/4, 2, 4/ सूत्र 186/463 ठाणपरूवणदाए असंखेज्जाणि फद्दयाणिसेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताणि, तमेगं जहण्णयं जोगट्ठाणं भवदि ।186। = स्थान प्ररूपणा के अनुसार श्रेणि के असंख्यातवें भाग मात्र जो असंख्यात स्पर्धक हैं उनका एक जघन्य योग स्थान होता है ।186।
समयसार / आत्मख्याति/53 यानि कायवाङ्मनोवर्गणापरिस्पंदलक्षणानि योगस्थानानि..... । = काय, वचन और मनोवर्गणा का कंपन जिनका लक्षण है ऐसे जो योगस्थान ।
- योगस्थानों के भेद
षट्खंडागम/10/4, 2, 4/175-176/432, 438 जोगट्ठागपरूवणदाए तत्थ इमाणि दस अणियोगद्दाराणि णादव्वाणि भवंति (175/432) अविभागपडिच्छेदपरूवणा वग्गणपरूवणा फद्दयपरूवणा अंतरपरूवणा ठाणपरूवणा अणंतरोवणिधा परंपरोवणिधा समयपरूवणा वड्ढिपरूवणा अप्पाबहुए त्ति ।176। = योगस्थानों की प्ररूपणा में दस अनुयोगद्वार जानने योग्य हैं ।175। अविभाग-प्रतिच्छेद प्ररूपणा, वर्गणाप्ररूपणा, स्पर्द्धकप्ररूपणा, अंतरप्ररूपणा, स्थानप्ररूपणा, अनंतरोपनिधा, परंपरोपनिधा, समयप्ररूपणा, वृद्धिप्ररूपणा और अल्पबहुत्व, ये उक्त दस अनुयोगद्वार हैं ।176।
देखें योग - 1.5 (योजनायोग तीन प्रकार का है - उपपादयोग, एकांतानुवृद्धियोग और परिणामयोग) ।
गोम्मटसार कर्मकांड/218 जोगट्ठाणा तिविहा उववादेयंतवड्ढिपरिणामा । भेदा एक्केक्कंपि चोद्दसभेदा पुणो तिविहा ।218। = उपपाद, एकांतानुवृद्धि और परिणाम इस प्रकार योग - स्थान तीन प्रकार का है । और एक-एक भेद के 14 जीवसमास की अपेक्षा चौदह - चौदह भेद हैं । तथा ये 14 भी सामान्य, जघन्य और उत्कृष्ट की अपेक्षा तीन-तीन प्रकार के हैं ।
- उपपाद योग का लक्षण
धवला 10/4, 2, 4, 173/420/6 उववादजोगो णाम...उप्पण्णपढमसमए चेव ।....जहण्णुक्कस्सेण एगसमओ । = उपपाद योग उत्पन्न होने के प्रथम समय में ही होता है ।... उसका जघन्य व उत्कृष्ट काल एक समय मात्र है ।
गोम्मटसार कर्मकांड/219 उववादजोगठाण भवादिसमयट्ठियस्स अवखरा । विग्गहइजुगइगमणे जीवसमासे मुणेयव्वा ।219। = पर्याय धारण करने के पहले समय में तिष्ठते हुए जीव के उपपाद योगस्थान होते हैं । जो वक्रगति से नवीन पर्याय को प्राप्त हो उसके जघन्य, जो ॠजुगति से नवीन पर्याय को धारण करे उसके उत्कृष्ट योगस्थान होते हैं ।219।
- एकांतानुवृद्धि योगस्थान का लक्षण
धवला 10/4, 2, 4, 173/420/7 उप्पण्णविदियसमयप्पहुडि जाव सरीरपज्जत्तीए अपज्जत्तयदचरिमसमओ ताव एगंताणुवड्ढिजोगो होदि । णवरि लद्धिअपज्जत्ताणमाउबंधपाओग्गकाले सगजीविदतिभागे परिणामजोगो होदि । हेट्ठा एगंताणुवड्ढिजोगो चेव । = उत्पन्न होने के द्वितीय समय से लेकर शरीरपर्याप्ति से अपर्याप्त रहने के अंतिम समय तक एकांतानुवृद्धियोग होता है । विशेष इतना कि लब्ध्यपर्याप्तकों के आयुबंध के योग्य काल में अपने जीवित के त्रिभाग में परिणाम योग होता है । उससे नीचे एकांतानुवृद्धियोग ही होता है ।
गोम्मटसार कर्मकांड व टीका/222/270 एयंतवड्ढिठाणा उभयट्ठाणाणमंतरे होंति । अवखरट्ठाणाओ सगकालादिम्हि अंतम्हि ।222। तदैवैकांतेन नियमेन स्वकाल-स्वकाल-प्रथमसमयात् चरमसमयपर्यंतं प्रतिसमयमसंख्यातगुणितक्रमेण तद्योग्याविर्भागप्रतिच्छेदवृद्धिर्यस्मिन् स एकांतानुवृद्धिरित्युच्यते । = एकांतानुवृद्धि योगस्थान उपपाद आदि दोनों स्थानों के बीच में, (अर्थात् पर्याय धारण करने के दूसरे समय से लेकर एक समय कम शरीर पर्याप्ति के अंतर्मुहूर्त के अंत समय तक) होते हैं । उसमें जघन्यस्थान तो अपने काल के पहले समय में और उत्कृष्टस्थान अंत के समय में होता है । इसीलिए एकांत (नियम कर) अपने समयों में समय-समय प्रति असंख्यातगुणी अविभागप्रतिच्छेदों की वृद्धि जिसमें हो वह एकांतानुवृद्धि स्थान, ऐसा नाम कहा गया है ।
- परिणाम या घोटमान योगस्थान का लक्षण
धवला 10/4, 2, 4, 173/421/2 पज्जत्तपढमसमयप्पहुडि उवरि सव्वत्थ परिणामजोगो चेव । णिव्वति अपज्जत्ताणं णत्थि परिणामजोगो । = पर्याप्त होने के प्रथम समय से लेकर आगे सब जगह परिणाम योग ही होता है । निर्वृत्यपर्याप्तकों के परिणाम योग नहीं होता । (लब्ध्यपर्याप्तकों के पूर्वावस्था में होता है−देखें योग 5.4 ) ।
गोम्मटसार कर्मकांड/220-221/268 परिणामजोगठाणा सरीरपज्जत्तगादु चरिमोत्ति । लद्धि अपज्जत्ताणं चरिमतिभागम्हि बोधव्वा ।220। सगपच्चतीपुण्णे उवरिं सव्वत्थं जोगमुक्कस्सं । सव्वत्थ होदि अवरं लद्धि अपुण्णस्स जेट्ठंपि ।221। = शरीर पर्याप्ति पूर्ण होने के प्रथम समय से लेकर आयु के अंत तक परिणाम योगस्थान कहे जाते हैं । लब्ध्यपर्याप्त जीव के अपनी आयु के अंत के त्रिभाग के प्रथम समय से लेकर अंत समय तक स्थिति के सब भेदों में उत्कृष्ट व जघन्य दोनों प्रकार के योग स्थान जानना ।210। शरीर पर्याप्ति के पूर्ण होने के समय से लेकर अपनी-अपनी आयु के अंत समय तक संपूर्ण समयों में परिणाम योगस्थान उत्कृष्ट भी होते हैं, जघन्य भी संभवते हैं ।221 ।
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/216/260/1 येषां योगस्थानानां वृद्धिः हानिः अवस्थानं च संभवति तानि घोटमानयोगस्थानानि परिणामयोगस्थानानीति भणितं भवति । = जिन योगस्थानों में वृद्धि हानि तथा अवस्थान (जैसे के तैसे बने रहना) होता है, उनको घोटमान योगस्थान- परिणाम योगस्थान कहा गया है ।
- परिणाम योगस्थानों की यवमध्य रचना
धवला 10/4, 2, 4, 28/60/6 का विशेषार्थ−ये परिणामयोगस्थानद्वींद्रिय पर्याप्त के जघन्य योगस्थानों से लेकर संज्ञी पंचेंद्रिय पर्याप्त जीवों के उत्कृष्ट योगस्थानों तक क्रम से वृद्धि को लिये हुए हैं । इनमें आठ समय वाले योगस्थान सबसे थोड़े होते हैं । इनसे दोनों पार्श्व भागों में स्थित सात समय वाले योगस्थान असंख्यातगुणे होते हैं । इनसे दोनों पार्श्व भागों में स्थित छह समय वाले योगस्थान असंख्यातगुणे होते हैं । इनसे दोनों पार्श्व भागों में स्थित पाँच समय वाले योगस्थान असंख्यातगुणे होते हैं । इनसे दोनों पार्श्व भागों में स्थित चार समय वाले योगस्थान असंख्यातगुणे होते हैं । इनसे दोनों पार्श्व भागों में स्थित पाँच समय वाले योगस्थान असंख्यातगुणे होते हैं । इनसे दो समय वाले योगस्थान असंख्यातगुणे होते हैं । ये सब योगस्थान−
4, 5, 6, 7, 8, 7, 6, 5, 4, 3, 2 समय वाले
होने से ग्यारह भागों में विभक्त हैं, अतः समय की दृष्टि से इनकी यवाकार रचना हो जाती है । आठ समय वाले योगस्थान मध्य में रहते हैं । फिर दोनों पार्श्व भागों में सात (आदि) योगस्थान प्राप्त होते हैं ।.....इनमें से आठ समय वाले योगस्थानों की यवमध्य संज्ञा है । यवमध्य से पहले के योगस्थान थोड़े होते हैं और आगे के योगस्थान असंख्यातगुणे होते हैं । इन आगे के योगस्थानों में संख्यातभाग आदि चार हानियाँ व वृद्धियाँ संभव हैं इसी से योगस्थानों में उक्त जीव को अंतर्मुहूर्त काल तक स्थित कराया है, क्योंकि योगस्थानों का अंतर्मुहूर्त काल यही संभव है ।
- योगस्थानों का स्वामित्व सभी जीव समासों में संभव है
गोम्मटसार कर्मकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/222/270/10 एवमुक्तयोगविशेषाः सर्वेऽपि पूर्वस्थापितचतुर्दशजीवसमासरचनाविशेषेऽतिव्यक्तं संभवतीति संभावयितव्याः । = ऐसे कहे गये जो ये योगविशेष ये सर्व चौदह जीवसमासों में जानने चाहिए ।
- योगस्थानों के स्वामित्व की सारणी
संकेत−उ. = उत्कृष्टं; एक= एकेंद्रिय; चतु.= चतुरिंद्रियः ज.= जघन्य; त्रि.= त्रिइंद्रिय; द्वि.= द्वींद्रिय; नि. अप.= निर्वृत्यपर्याप्त; पंचे.=पंचेंद्रिय, बा.=बादर; ल. अप.=लब्ध्यपर्याप्त; स.=समय; सू.=सूक्ष्म धवला 10/4, 2, 4, 173/421-430 ( गोम्मटसार कर्मकांड/233-256) ।
प्रमाण पृष्ठ नं. योग स्थान जघन्य या उत्कृष्ट काल जघन्य काल उत्कृष्ट सम्भव जीव समास उस पर्याय का विशेष समय 421, 424 उपपाद जघन्य 1 समय 1 समय सूक्ष्म, बादर, एक, द्वी, त्रि. चतुरिन्द्रिय विग्रहगति में वर्तमान व तद्भवस्थ होने के प्रथम समय 428 उपपाद उत्कृष्ट 1 समय 1 समय पंचेेद्रिय, असंज्ञी, संज्ञी, लब्ध्यपर्याप्त, निर्वृत्यपर्याप्त तद्भवस्थ होने के प्रथम समय में 421, 425 एकांतानुवृद्धि जघन्य 1 समय 1 समय उपरोक्त सर्व जीव लब्ध्यपर्याप्त, निर्वृत्यपर्याप्त तद्भवस्थ होने के द्वितीय समय 428 एकांतानुवृद्धि उत्कृष्ट 1 समय 1 समय उपरोक्त सर्व जीव लब्ध्यपर्याप्त, निर्वृत्यपर्याप्त एकांतानुवृद्धि योगकाल का अन्तिम समय 429 एकांतानुवृद्धि उत्कृष्ट 1 समय 1 समय उत्पन्न होने के अन्तर्मुहुर्त पश्चात अनन्तर समय 423 एकांतानुवृद्धि जघन्य 1 समय 4 समय द्वी-संज्ञी निर्वृत्यपर्याप्त पर्याप्ति का प्रथम समय पर्याप्ति के निकट 423 एकांतानुवृद्धि उत्कृष्ट 1 समय 4 समय द्वी-संज्ञी निर्वृत्यपर्याप्त पर्याप्ति का प्रथम समय पर्याप्ति के निकट 431, 422, 427 परिणाम जघन्य 1 समय 4 समय सूक्ष्म, बादर, एक-संज्ञी निर्वृत्यपर्याप्त छठी पर्याप्ति के प्रथम समय से आगे 426 परिणाम जघन्य 1 समय 4 समय सूक्ष्म, बादर, एक. लब्ध्यपर्याप्त परभविक आयु बन्ध योग्य काल से उपरिम भवस्थिति 427, 430 परिणाम जघन्य 1 समय 4 समय सूक्ष्म, बादर, एक. लब्ध्यपर्याप्त आयु बन्ध योग्य काल के प्रथम समय से तृतीय भाग तक में वर्तमान जीव 422, 423 परिणाम जघन्य 1 समय 2 समय सूक्ष्म, बादर, एक. निर्वृत्यपर्याप्त परंपरा शेष पांच पर्याप्तियों से पर्याप्त हो चुकने पर 429, 430 परिणाम जघन्य 1 समय 2 समय द्वी-संज्ञी लब्ध्यपर्याप्त स्व स्व भवस्थिति के तृतीय भाग में वर्तमान आयुबन्ध योग्य प्रथम समय से भव के अन्त तक 422 परिणाम जघन्य 1 समय 2 समय सूक्ष्म, बादर, एक-संज्ञी, लब्ध्यपर्याप्त . स्व स्व भवस्थिति के तृतीय भाग में वर्तमान आयुबन्ध योग्य प्रथम समय से भव के अन्त तक 430 परिणाम जघन्य 1 समय 2 समय द्वी-संज्ञी लब्ध्यपर्याप्त जीवन के अन्तिम तृतीय भाग के प्रथम समय से विश्रमण काल के अनन्तर अधस्तन समय तक 431 परिणाम उत्कृष्ट 1 समय 2 समय द्वी-संज्ञी, निर्वृत्यपर्याप्त परम्परा पांचों पर्याप्तियों से पर्याप्त छह में से एक भी पर्याप्ति के अपूर्ण रहने तक भी नहीं होता।
- लब्ध्यपर्याप्तक के परिणामयोग होने संबंधी दो मत
धवला 10/4, 2, 4, 173/420/9 लद्धि-अपज्जत्ताणमाउअबंधकाले चेव परिणामजोगो होदि त्ति के वि भणंति । तण्ण घडदे, परिणामजोगे ट्ठिदस्स अपत्तुववादजोगस्स एयंताणुवड्ढिजोगेण परिणामविरोहादो । = लब्ध्यपर्याप्तकों के आयुबंध काल में ही परिणाम योग होता है, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं । (देखें योग 5.4 ) किंतु वह घटित नहीं होता, क्योंकि इस प्रकार से जो जीव परिणाम योग में स्थित है वह उपपाद योग को नहीं प्राप्त हुआ है, उसके एकांतानुवृद्धियोग के साथ परिणाम के होने में विरोध आता है ।
- योग स्थानों की क्रमिक वृद्धि का प्रदेशबंध के साथ संबंध
धवला 6/1, 9-7, 43/201/2 पदेसबंधादो जोगट्ठाणाणि सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्ताणि जहण्णट्ठाणादो अवट्ठिदपक्खेवेण सेडीए असंखेज्जदिभागपडिभागिएण विसेसाहियाणि जाउक्कस्सजोगट्ठाणेत्ति दुगुण-दुगुणगुणहाणिअद्धाणेहि सहियाणि सिद्धाणि हवंति । कुदो जोगेण विणा पदेसबंधाणुववत्तीदो । अथवा अणुभागबंधादो पदेसबंधो तक्कारणजोगट्ठाणाणि च सिद्धाणि हवति । कुदो । पदेसेहि विणा अणुभागाणुववत्तीदो । = प्रदेशबंध से योगस्थान सिद्ध होते हैं । वे योगस्थान जगश्रेणी के असंख्यातवें भागमात्र हैं और जघन्य योगस्थान से लेकर जगश्रेणी के असंख्यातवें भाग प्रतिभागरूप अवस्थित प्रक्षेप के द्वारा विशेष अधिक होते हुए उत्कृष्ट योगस्थान तक दुगुने-दुगुने गुणहानि आयाम से सहित सिद्ध होते हैं, क्योंकि योग के बिना प्रदेशबंध नहीं हो सकता है । अथवा अनुभागबंध से प्रदेशबंध और उसके कारणभूत योगस्थान सिद्ध होते हैं, क्योंकि प्रदेशों के बिना अनुभागबंध नहीं हो सकता ।
- योगस्थान सामान्य का लक्षण
- योगवर्गणानिर्देश
- योगवर्गणा का लक्षण
धवला 10/4, 2, 4, 181/442-443/8 असंखेज्जलोगमेत्तजोगाविभागपडिच्छेदाणमेया वग्गणा होदि त्ति भणिदे जोगाविभागपडि-च्छेदेहि सरिसधणियसव्वजीवपदेसाणं जोगाविभागपडिच्छेदासंभवादो असंखेज्जलोगमेत्ताविभागपडिच्छेदपमाणा एया वग्गणा होदि त्ति घेत्तव्वं ।......जोगाविभागपडिच्छेदेहिं सरिससव्वजीवपदेसे सव्वे घेत्तूण एगा वग्गणा होदि । = असंख्यात लोकमात्र योगाविभाग प्रतिच्छेदों की एक वर्गणा होती है, ऐसा कहने पर योगाविभाग प्रतिच्छेदों की अपेक्षा समान धन वाले सब जीव प्रदेशों के योगाविभाग प्रतिच्छेद असंभव होने से असंख्यात लोकमात्र अविभाग प्रतिच्छेदों के बराबर एक वर्गणा होती है, ऐसा ग्रहण करना चाहिए ।....योगाविभागप्रतिच्छेदों की अपेक्षा समान सब जीव प्रदेशों को ग्रहण कर एक वर्गणा होती है ।
- योगवर्गणा के अविभाग प्रतिच्छेदों की रचना
षट्खंडागम/10/4, 2, 4/ सूत्र 178-181, 440 असंखेज्जा लोगा जोगाविभागपडिच्छेदा ।178। एवदिया जोगाविभागपडिच्छेदा ।179। वग्गणपरूवणदाएअसंखेज्जलोगजोगाविभागपडिच्छेदाणमेया वग्गणा होदि । एवमसंखेज्जाओ वग्गणाओ सेढीए असंखेज्जदिभागमेत्ताओ ।181। धवला 10/4, 2, 4, 181/443-444/3 जोगाविभागपडिच्छेदेहि सरिससव्वजीवपदेसे सव्वे घेत्तूण एग्गा वग्गणा होदि । पुणो अण्णे वि जीवपदेसे जोगाविभागपडिच्छेदेहि अण्णोण्णं समाणे पुव्विल्लवग्गणाजीवपदेसजोगाविभागपडिच्छेदेहिंतो अहिए उवरि वुच्चमाणाणमेगजीवपदेसजोगाविभागपडिच्छेदेहिंतो ऊणे घेत्तूण विदिया वग्गणा होदि ।....असंखेज्जपदरमेत्ता जीवपदेसा एक्केक्किस्से वग्गणाए होंति । ण च सव्ववग्गणाणं दीहत्तं समाणं, आदिवग्गणप्पहुडि विसेसहीणसरूवेण अवट्ठाणादो । धवला 10/4, 2, 4, 181/449/9 पढमवग्गणाए अविभागपडिच्छेदेहिंतो विदियवग्गण अविभागपडिच्छेदा विसेसहीणा ।....पढम-वग्गणाएगजीवपदेसाविभागपडिच्छेदे णिसेगविसेसेण गुणिय पुणो तत्थ विदियगोवुच्छाए अवणिदाए जं सेसं तेत्तियमेत्तेण ।...एवं जाणिदूण णेदव्वं जाव पढमफद्दयचरिमवग्गणेत्ति । पुणोपढमफद्दयचरिमवग्गणविभागपडिच्छेदेहिंतो विदियफद्दयआदिवग्गणाए जोगाविभागपडिच्छेदा किंचूणदुगुणमेत्ता ।=एक एक जीव प्रदेश में असंख्यात लोकप्रमाण योगाविभाग प्रतिच्छेद होते हैं ।178। एक योगस्थान में इतने मात्र योगाविभाग प्रतिच्छेद होते हैं ।179। वर्गणा प्ररूपणा के अनुसार असंख्यात लोकमात्र योगाविभाग प्रतिच्छेदों की एक वर्गणा होती है ।180। इस प्रकार श्रेणी के असंख्यातवें भाग प्रमाण असंख्यात वर्गणाएँ होती हैं ।181। योगाविभाग प्रतिच्छेदों की अपेक्षा समान सब जीव प्रदेशों को ग्रहण कर एक वर्गणा होती है । पुनः योगाविभागप्रतिच्छेदों की अपेक्षा परस्पर समान पूर्व वर्गणासंबंधी जीवप्रदेशों के योगाविभाग प्रतिच्छेदों से अधिक, परंतु आगे कहीं जाने वाली वर्गणाओं के एक जीवप्रदेश संबंधी योगाविभागप्रतिच्छेदों से हीन, ऐसे दूसरे भी जीव प्रदेशों को ग्रहण करके दूसरी वर्गणा होती है । (इसी प्रकार सब वर्गणाएँ श्रेणि के असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं)....असंख्यात प्रतर प्रमाण जीव प्रदेश एक वर्गणा में होते हैं । सब वर्गणाओं की दीर्घता समान नहीं है, क्योंकि प्रथम वर्गणा को आदि लेकर आगे की वर्गणाएँ विशेष हीन रूप से अवस्थित हैं ।443-444 । प्रथम वर्गणा के अविभाग प्रतिच्छेदों से द्वितीय वर्गणा के अविभाग प्रतिच्छेद विशेष हीन हैं ।...प्रथम वर्गणा संबंधी एक जीवप्रदेश के अविभाग प्रतिच्छेदों को निषेक विशेष से गुणित कर फिर उसमें से द्वितीय गोपुच्छ को कम करने पर जो शेष रहे उतने मात्र से वे विशेष अधिक हैं ।....इस प्रकार जानकर प्रथम स्पर्धक की वर्गणा संबंधी अविभागप्रतिच्छेदों से द्वितीय स्पर्धक की प्रथम वर्गणा के योगाविभागप्रतिच्छेद कुछ कम दुगुने मात्र हैं । (इसी प्रकार आगे भी प्रत्येक स्पर्धक में वर्गणाओं के अविभाग प्रतिच्छेद क्रमशः हीन-हीन और उत्तरोत्तर स्पर्धक से अधिक-अधिक हैं) ।
- योग स्पर्धक का लक्षण
षट्खंडागम/10/4, 2, 4/ सूत्र 182/452 फद्दयपरूवणाए असंखेज्जाओ वग्गणाओ सेडीए असंखेज्जदिभागमेत्तीयो तमेगं फद्दयं होदि ।182। धवला 10/4, 2, 4, 181/452/5 फद्दयमिदि किं वुत्तं होदि । क्रमवृद्धिः क्रमहानिश्च यत्र विद्यते तत्स्पर्धकम् । को एत्थ कमो णाम । सगसगजहण्णवग्गाविभागपडिच्छेदेहिंतो एगेगाविभागपडिच्छेदवुड्ढी, वुक्कस्सवग्गाविभागपडिच्छेदेहिंतो एगेगाविभागपडिच्छेदहाणी च कमो णाम । दुप्पहुडीणं वड्ढी हाणी च अक्कमो । = (योगस्थान के प्रकरण में) स्पर्धकप्ररूपणा के अनुसार श्रेणी के असंख्यातवें भागमात्र जो असंख्यात वर्गणाएँ हैं, उनका एक स्पर्धक होता है ।182। प्रश्न−स्पर्धक से क्या अभिप्राय है ?
उत्तर−जिसमें क्रमवृद्धि और क्रमहानि होती है वह स्पर्धक कहलाता है ।
प्रश्न−यहाँ ‘क्रम’ का अर्थ क्या है ?
उत्तर−अपने-अपने जघन्य वर्ग के अविभागप्रतिच्छेद की वृद्धि और उत्कृष्ट वर्ग के अविभागप्रतिच्छेदों से एक एक अविभाग प्रतिच्छेद की जो हानि होती है उसे क्रम कहते हैं । दो व तीन आदि अविभागप्रतिच्छेदों की हानि व वृद्धि का नाम अक्रम है । (विशेष देखें स्पर्धक ) ।
- योगवर्गणा का लक्षण
पुराणकोष से
काय, वचन और मन के निमित्त से होनेवाली आत्मप्रदेशों की परिस्पंदन किया । कर्मबंध के पांच कारणों में यह भी एक कारण है । जहाँ कषाय होती है वहाँ यह अवश्य होता है । यह एक होते हुए भी शुभ और अशुभ के भेद से दो प्रकार का होता है । मन, वचन और काय की अपेक्षा से तीन प्रकार का तथा मनोयोग और वचनयोग के चार-चार और काययोग के सात भेद होने से यह पंद्रह प्रकार का होता है । इनके द्वारा जीव कर्मों के साथ बद्ध होते हैं और इनकी एकाग्रता से आंतरिक एवं बाह्य विकार रोके जा सकते हैं । (महापुराण 18.2, 21. 225, 47.311, 48.52, 54.151-152, 62. 310-311, 63.309), (हरिवंशपुराण - 58.57), (पद्मपुराण - 22.70, 23. 31) (वीरवर्द्धमान चरित्र 11. 67)