दर्शन: Difference between revisions
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<span class="GRef"> षड्दर्शन समुच्चय/ | <span class="GRef"> षड्दर्शन समुच्चय/पृष्ठ 2/18 </span><span class="SanskritText"> दर्शनं शासनं सामान्यावबोधलक्षणम् ।</span>=<span class="HindiText">दर्शन सामान्यावबोध लक्षणवाला शासन है। (दर्शन शब्द ‘दृश’ देखना) धातु से करण अर्थ में ‘ल्युट्’ प्रत्यय लगाकर बना है। इसका अर्थ है जिसके द्वारा देखा जाये। अर्थात् जीवन व जीवन विकास का ज्ञान प्राप्त किया जाये। </span><br> | ||
<span class="GRef">षड्दर्शन समुच्चय/3/10</span> <span class="SanskritText">देवतातत्त्वभेदेन ज्ञातव्यानि मनीषिभि:।3।</span>=<span class="HindiText">वह दर्शन देवता और तत्त्व के भेद से जाना जाता है। ऐसा ऋषियों ने कहा है। और भी–देखें [[ दर्शन उपयोग 1#1 | दर्शन उपयोग - 1.1]] </span></li> | |||
<li class="HindiText" name="2" id="2"><strong> दर्शन के भेद</strong></span><br> | <li class="HindiText" name="2" id="2"><strong> दर्शन के भेद</strong></span><br> | ||
<span class="GRef"> षड्दर्शनसमुच्चय/ | <span class="GRef"> षड्दर्शनसमुच्चय/मूल/2-3</span><span class="SanskritText"> दर्शनानि षडेवात्र मूलभेदव्यपेक्षया...।2। बौद्धं नैयायिकं सांख्यं जैनं वैशेषिकं तथा। जैमिनीयं च नामानि दर्शनानाममून्यहो।3।</span> =<span class="HindiText">मूल भेद की अपेक्षा दर्शन छह ही होते हैं। उनके नाम यह हैं–बौद्ध, नैयायिक, सांख्य, जैन, वैशेषिक तथा जैमिनीय।</span><br> | ||
<span class="GRef">षड्दर्शनसमुच्चय/ | <span class="GRef">षड्दर्शनसमुच्चय/टीका/2/3/12</span> <span class="SanskritText">अत्र जगति प्रसिद्धानि षडेव दर्शनानि, एव शब्दोऽवधारणे, यद्यपि भेदप्रभेदतया बहूनि दर्शनानि प्रसिद्धानि।</span> =<span class="HindiText">जगत् प्रसिद्ध छह ही दर्शन हैं। एव शब्द यहाँ अवधारण अर्थ में है। परंतु भेद-प्रभेद से बहुत प्रसिद्ध हैं। </span></li> | ||
<li class="HindiText" name="3" id="3"><strong>वैदिक दर्शन का परिचय</strong><br>वैदिक दर्शन भारतीय संस्कृति में अपना विशिष्ट स्थान रखता है। आकाश की भाँति विभु परंतु एक ऐसा तत्त्व इसका प्रतिपाद्य है जो कि स्वयं निराकार होते हुए भी जगत् के रूप साकार सा हुआ प्रतीत होता है, स्वयं स्थिर होता हुआ भी इस जगत् के रूप अस्थिर सा हुआ प्रतीत होता है। यह अखिल विस्तार इसकी क्षुद्र स्फुरण मात्र है जो सागर की तरंगों की भांति उसी प्रकार इसमें से उदित हो होकर लीन होता रहता है जिस प्रकार कि हमारे चित्त में वैकल्पिक जगत् । इस प्रकार यह इस अखिल बाह्याभ्यंतर विस्तार का मूल कारण है। बुद्धिपूर्वक कुछ न करते हुए भी इसका कर्ता धर्ता तथा संहर्ता है, धाता विधाता तथा नियंता है। इसलिये यह इस सारे जगत् का आत्मा है, ईश्वर है, ब्रह्म है। किसी प्राथमिक अथवा अनिष्णात शिष्य को अत्यंत गुह्य इस तत्त्व का परिचय देना शक्य न होने से यह दर्शन एक होते हुए भी छ: भागों में विभाजित हो गया है–वैशेषिक, नैयायिक, मीमांसक, सांख्य, योग और वेदांत। यद्यपि व्यवहार भूमि पर ये छहों अपनी-अपनी स्वतंत्र सत्ता रखते प्रतीत होते हैं, तदपि परमार्थत: एक-दूसरे से पृथक् कुछ न होकर ये एक अखंड वैदिक दर्शन के उत्तरोत्तर उन्नत छ: सोपान हैं। अपने-अपने प्रतिपाद्य को सिद्ध करने में दक्ष होने के कारण यद्यपि इनके तर्क हेतु तथा युक्ति एक दूसरे का निराकरण करते हैं तदपि परमार्थत: ये एक दूसरे के पूरक हैं। एक अखंड तत्व सहसा कहना अथवा समझना शक्य न होने से ये भेदभाव से प्रारंभ होकर धीरे-धीरे अभेदवाद की ओर जाते हैं, अनेक तत्त्ववाद से प्रारंभ होकर धीरे-धीरे एक तत्त्ववाद की ओर जाते हैं। कार्य पर से प्रारंभ होकर धीरे-धीरे कारण की ओर जाते हैं, स्थूल पर से प्रारंभ होकर धीरे-धीरे सूक्ष्म की ओर जाते हैं। </span></li> | <li class="HindiText" name="3" id="3"><strong>वैदिक दर्शन का परिचय</strong><br>वैदिक दर्शन भारतीय संस्कृति में अपना विशिष्ट स्थान रखता है। आकाश की भाँति विभु परंतु एक ऐसा तत्त्व इसका प्रतिपाद्य है जो कि स्वयं निराकार होते हुए भी जगत् के रूप साकार सा हुआ प्रतीत होता है, स्वयं स्थिर होता हुआ भी इस जगत् के रूप अस्थिर सा हुआ प्रतीत होता है। यह अखिल विस्तार इसकी क्षुद्र स्फुरण मात्र है जो सागर की तरंगों की भांति उसी प्रकार इसमें से उदित हो होकर लीन होता रहता है जिस प्रकार कि हमारे चित्त में वैकल्पिक जगत् । इस प्रकार यह इस अखिल बाह्याभ्यंतर विस्तार का मूल कारण है। बुद्धिपूर्वक कुछ न करते हुए भी इसका कर्ता धर्ता तथा संहर्ता है, धाता विधाता तथा नियंता है। इसलिये यह इस सारे जगत् का आत्मा है, ईश्वर है, ब्रह्म है। किसी प्राथमिक अथवा अनिष्णात शिष्य को अत्यंत गुह्य इस तत्त्व का परिचय देना शक्य न होने से यह दर्शन एक होते हुए भी छ: भागों में विभाजित हो गया है–वैशेषिक, नैयायिक, मीमांसक, सांख्य, योग और वेदांत। यद्यपि व्यवहार भूमि पर ये छहों अपनी-अपनी स्वतंत्र सत्ता रखते प्रतीत होते हैं, तदपि परमार्थत: एक-दूसरे से पृथक् कुछ न होकर ये एक अखंड वैदिक दर्शन के उत्तरोत्तर उन्नत छ: सोपान हैं। अपने-अपने प्रतिपाद्य को सिद्ध करने में दक्ष होने के कारण यद्यपि इनके तर्क हेतु तथा युक्ति एक दूसरे का निराकरण करते हैं तदपि परमार्थत: ये एक दूसरे के पूरक हैं। एक अखंड तत्व सहसा कहना अथवा समझना शक्य न होने से ये भेदभाव से प्रारंभ होकर धीरे-धीरे अभेदवाद की ओर जाते हैं, अनेक तत्त्ववाद से प्रारंभ होकर धीरे-धीरे एक तत्त्ववाद की ओर जाते हैं। कार्य पर से प्रारंभ होकर धीरे-धीरे कारण की ओर जाते हैं, स्थूल पर से प्रारंभ होकर धीरे-धीरे सूक्ष्म की ओर जाते हैं। </span></li> | ||
<li class="HindiText" name="4" id="4"><strong>वैदिक दर्शनों का क्रमिक विकास</strong> <br> | <li class="HindiText" name="4" id="4"><strong>वैदिक दर्शनों का क्रमिक विकास</strong> <br> | ||
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<div class="HindiText"> <p id="1">(1) पदार्थों का निर्विकल्प ज्ञान । <span class="GRef"> महापुराण 24. 101 </span></p> | <div class="HindiText"> <p id="1" class="HindiText">(1) पदार्थों का निर्विकल्प ज्ञान । <span class="GRef"> महापुराण 24. 101 </span></p> | ||
<p id="2">(2) सम्यग्दर्शन । सर्वज्ञदेव द्वारा कथित जीव आदि पदार्थों का तीन मूढ़ताओं से रहित एवं अष्ट अंगों सहित निष्ठा से श्रद्धान करना । यह सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का मूल कारण है । प्रशम, संवेग, आस्तिक्य और अनुकंपा इसके गुण हैं । नि:शंका, नि:कांक्षा, निर्विचिकित्सा, अमूढ़दृष्टि, उपगूहन, वात्सल्य, स्थितिकरण और प्रभावना ये इसके आठ अंग हैं । <span class="GRef"> महापुराण 9. 121-124, 128 </span>इससे युक्त जीव उत्तम देव और उत्तम पुरुष पर्याय में उत्पन्न होता है, उसे स्त्री पर्याय नहीं मिलती । वह रत्नप्रभा पृथिवी को छोड़ शेष छ: पृथिवियों में, भवनवासी, व्यंतर और ज्योतिषी देवों में तथा अन्य पर्यायों में नहीं जन्मता । <span class="GRef"> महापुराण 9. 136, 144 </span></p> | <p id="2" class="HindiText">(2) सम्यग्दर्शन । सर्वज्ञदेव द्वारा कथित जीव आदि पदार्थों का तीन मूढ़ताओं से रहित एवं अष्ट अंगों सहित निष्ठा से श्रद्धान करना । यह सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का मूल कारण है । प्रशम, संवेग, आस्तिक्य और अनुकंपा इसके गुण हैं । नि:शंका, नि:कांक्षा, निर्विचिकित्सा, अमूढ़दृष्टि, उपगूहन, वात्सल्य, स्थितिकरण और प्रभावना ये इसके आठ अंग हैं । <span class="GRef"> महापुराण 9. 121-124, 128 </span>इससे युक्त जीव उत्तम देव और उत्तम पुरुष पर्याय में उत्पन्न होता है, उसे स्त्री पर्याय नहीं मिलती । वह रत्नप्रभा पृथिवी को छोड़ शेष छ: पृथिवियों में, भवनवासी, व्यंतर और ज्योतिषी देवों में तथा अन्य पर्यायों में नहीं जन्मता । <span class="GRef"> महापुराण 9. 136, 144 </span></p> | ||
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Latest revision as of 14:59, 22 February 2024
सिद्धांतकोष से
- दक्षिण धातकीखंड का स्वामी देव–देखें व्यंतर - 4।
- दर्शन (उपयोग)–देखें दर्शन उपयोग।
दर्शन—(षड्दर्शन)
- दर्शन का लक्षण
षड्दर्शन समुच्चय/पृष्ठ 2/18 दर्शनं शासनं सामान्यावबोधलक्षणम् ।=दर्शन सामान्यावबोध लक्षणवाला शासन है। (दर्शन शब्द ‘दृश’ देखना) धातु से करण अर्थ में ‘ल्युट्’ प्रत्यय लगाकर बना है। इसका अर्थ है जिसके द्वारा देखा जाये। अर्थात् जीवन व जीवन विकास का ज्ञान प्राप्त किया जाये।
षड्दर्शन समुच्चय/3/10 देवतातत्त्वभेदेन ज्ञातव्यानि मनीषिभि:।3।=वह दर्शन देवता और तत्त्व के भेद से जाना जाता है। ऐसा ऋषियों ने कहा है। और भी–देखें दर्शन उपयोग - 1.1 - दर्शन के भेद
षड्दर्शनसमुच्चय/मूल/2-3 दर्शनानि षडेवात्र मूलभेदव्यपेक्षया...।2। बौद्धं नैयायिकं सांख्यं जैनं वैशेषिकं तथा। जैमिनीयं च नामानि दर्शनानाममून्यहो।3। =मूल भेद की अपेक्षा दर्शन छह ही होते हैं। उनके नाम यह हैं–बौद्ध, नैयायिक, सांख्य, जैन, वैशेषिक तथा जैमिनीय।
षड्दर्शनसमुच्चय/टीका/2/3/12 अत्र जगति प्रसिद्धानि षडेव दर्शनानि, एव शब्दोऽवधारणे, यद्यपि भेदप्रभेदतया बहूनि दर्शनानि प्रसिद्धानि। =जगत् प्रसिद्ध छह ही दर्शन हैं। एव शब्द यहाँ अवधारण अर्थ में है। परंतु भेद-प्रभेद से बहुत प्रसिद्ध हैं। - वैदिक दर्शन का परिचय
वैदिक दर्शन भारतीय संस्कृति में अपना विशिष्ट स्थान रखता है। आकाश की भाँति विभु परंतु एक ऐसा तत्त्व इसका प्रतिपाद्य है जो कि स्वयं निराकार होते हुए भी जगत् के रूप साकार सा हुआ प्रतीत होता है, स्वयं स्थिर होता हुआ भी इस जगत् के रूप अस्थिर सा हुआ प्रतीत होता है। यह अखिल विस्तार इसकी क्षुद्र स्फुरण मात्र है जो सागर की तरंगों की भांति उसी प्रकार इसमें से उदित हो होकर लीन होता रहता है जिस प्रकार कि हमारे चित्त में वैकल्पिक जगत् । इस प्रकार यह इस अखिल बाह्याभ्यंतर विस्तार का मूल कारण है। बुद्धिपूर्वक कुछ न करते हुए भी इसका कर्ता धर्ता तथा संहर्ता है, धाता विधाता तथा नियंता है। इसलिये यह इस सारे जगत् का आत्मा है, ईश्वर है, ब्रह्म है। किसी प्राथमिक अथवा अनिष्णात शिष्य को अत्यंत गुह्य इस तत्त्व का परिचय देना शक्य न होने से यह दर्शन एक होते हुए भी छ: भागों में विभाजित हो गया है–वैशेषिक, नैयायिक, मीमांसक, सांख्य, योग और वेदांत। यद्यपि व्यवहार भूमि पर ये छहों अपनी-अपनी स्वतंत्र सत्ता रखते प्रतीत होते हैं, तदपि परमार्थत: एक-दूसरे से पृथक् कुछ न होकर ये एक अखंड वैदिक दर्शन के उत्तरोत्तर उन्नत छ: सोपान हैं। अपने-अपने प्रतिपाद्य को सिद्ध करने में दक्ष होने के कारण यद्यपि इनके तर्क हेतु तथा युक्ति एक दूसरे का निराकरण करते हैं तदपि परमार्थत: ये एक दूसरे के पूरक हैं। एक अखंड तत्व सहसा कहना अथवा समझना शक्य न होने से ये भेदभाव से प्रारंभ होकर धीरे-धीरे अभेदवाद की ओर जाते हैं, अनेक तत्त्ववाद से प्रारंभ होकर धीरे-धीरे एक तत्त्ववाद की ओर जाते हैं। कार्य पर से प्रारंभ होकर धीरे-धीरे कारण की ओर जाते हैं, स्थूल पर से प्रारंभ होकर धीरे-धीरे सूक्ष्म की ओर जाते हैं। - वैदिक दर्शनों का क्रमिक विकास
वैशेषिक दर्शन इसका सर्वप्रथम सोपान है, यही कारण है कि जगत् की तात्त्विक व्यवस्था का विधान करने के लिए इसे जड़ चेतन तथा चिदाभासी अनेक द्रव्यों की सत्ता मानकर चलना पड़ता है। इन द्रव्यों का स्वरूप दर्शाने के लिये भी गुण-गुणी में, अवयव-अवयवी में तथा पर्याय- पर्यायी में इसे भेद मानना अनिवार्य है। इसी कारण इसका ‘वैशेषिक’ नाम अन्वर्थक है। इसके द्वारा स्थापित तत्त्वों को युक्ति पूर्वक सिद्ध करके उनके प्रति श्रद्धा जाग्रत करना नैयायिक दर्शन का प्रयोजन है। इसलिये प्रमेय तथा प्रमाण के अतिरिक्त इन दोनों में कोई मौलिक भेद नहीं है। दोनों प्राय: समकक्ष हैं।
चार्ट मीमांसा दर्शन के तीन अवांतर भेद हैं जो वैशेषिक मान्य भेदभाव को धीरे-धीरे अभेद की ओर ले जाते हैं। अंतिम भूमि के प्राप्त होने पर वह इतना कहने के लिये समर्थ हो जाता है कि परमार्थत: ब्रह्म ही एक पदार्थ है परंतु व्यवहार भूमि पर धर्म-धर्मी आधार व प्रदेश ऐसे चार तत्त्वों को स्थापित करके उसे समझा जा सकता है।
सांख्य की उन्नत भूमि में पदार्पण हो जाने पर जड़ तथा चेतन ऐसे दो तत्त्व ही शेष रह जाते हैं। धर्म-धर्मी में भेद करने की इसे आवश्यकता नहीं। योग दर्शन ध्यान धारण समाधि आदि के द्वारा इन दो तत्त्वों का साक्षात् करने का उपाय सुझाता है। इसलिये वैशेषिक तथा नैयायिक की भांति सांख्य तथा योग भी परमार्थत: समतंत्र है। सांख्य के द्वारा स्थापित तत्त्व साध्य हैं और योग उनके साक्षात्कार का साधन। ‘वेदांत’ इस ध्यान समाधि की वह चरम भूमि है जहाँ पहुँचने पर चित्त शून्य हो जाता है। जिसके कारण सांख्य कृत जड़ चेतन का विभाग भी अस्ताचल को चला जाता है। यद्यपि इस विभाग को लेकर इसमें चार संप्रदान उत्पन्न हो जाते हैं, तदपि अंत में पहुँचकर ये सब अपने विकल्पों को उस एक के चरणों में समर्पित कर देते हैं। - बौद्ध दर्शन
अद्वैतवादी होने के कारण बौद्ध दर्शन भी वैदिक दर्शन के समकक्ष है। विशेषता यह है कि वैदिक दर्शन जहाँ समस्त भेदों तथा विशेषों को एक महा सामान्य में लीन करके समाप्त करता है वहाँ बौद्ध दर्शन एक सामान्य को विश्लिष्ट करता हुआ उस महा विशेष को प्राप्त करता है जिसमें अन्य कोई विशेष देखा जाना संभव नहीं हो सकता। इसलिये जिस प्रकार वैदिक दर्शन का तत्त्व एक अखंड तथा निर्विशेष है उसी प्रकार इस दर्शन का तत्त्व भी एक अखंड तथा निर्विशेष है। यह अपने तत्त्व को ब्रह्म न कहकर विज्ञान कहता है जो द्रव्य प्रमाण की अपेक्षा एक क्षेत्र प्रमाण की अपेक्षा अणु प्रमाण, काल की अपेक्षा क्षण स्थायी और भाव की अपेक्षा स्वलक्षण मात्र है। व्यवहार भूमि पर देखने वाला यह विस्तार वास्तव में भ्रांति है जो क्षण-क्षण प्रति उत्पन्न हो होकर नष्ट होते रहने वाले विज्ञानाणुओं के अटूट प्रवाह के कारण प्रीतीति की विषय बन रही है।
- सर्व दर्शन किसी न किसी नय में गर्भित हैं।–(देखें अनेकांत - 2.9)।
- जैन दर्शन
जैन दर्शन अपनी जाति का स्वयं है। यद्यपि आचार के क्षेत्र में यह भी जीव, अजीव आदि सात तत्त्वों की व्यवस्था करता है, तदपि दार्शनिक क्षेत्र में सत्-असत्, भेद-अभेद, नित्य–अनित्य आदि पक्षों को पकड़कर एक दूसरे का निराकरण करने में प्रवृत्त हुए उक्त सर्व दर्शनों में सामंजस्य की स्थापना करके मैत्री की भावन जागृत करना इसका प्रधान प्रयोजन है। वैदिक दर्शन अपने निर्विकल्प तत्त्व का अध्ययन कराने के लिये जहाँ वैशेषिक आदि छ: दर्शनों की स्थापना करता है, वहाँ जैन दर्शन स्वमत मान्य तथा अन्य मत मान्य पदार्थों में सामंजस्य उत्पन्न करने के लिये दृष्टिवाद या नयवाद की स्थापना करता है। किसी भी एक पदार्थ को विभिन्न दृष्टिकोणों से देखने में दक्ष ये नयें एक दूसरी का निराकरण न करके परस्पर में एक दूसरी की पूरक होकर रहती हैं। इस कारण यह दर्शननयवादी, अपेक्षावादी, स्याद्वादी अथवा समन्वयवादी के नाम से प्रसिद्ध है। इसका विशाल हृदय उक्त सभी दर्शन को, किसी न किसी नय में संग्रह करके आत्मसात कर लेने के लिये समर्थ है। - जैन दर्शन व वैदिक दर्शनों का समन्वय
भले ही सांप्रदायिकता के कारण सर्वदर्शन एक-दूसरे के तत्त्वों का खंडन करते हों। परंतु साम्यवादी जैन दर्शन सबका खंडन करके उनका समन्वय करता है। या यह कहिए कि उन सर्व दर्शनमयी ही जैन दर्शन है, अथवा वे सर्वदर्शन जैनदर्शन के ही अंग हैं। अंतर केवल इतना ही है कि जिस अद्वैत शुद्धतत्त्व का परिचय देने के लिए वेद कर्ताओं को पाँच या सात दर्शनों की स्थापना करनी पड़ी, उसी का परिचय देने के लिए जैन दर्शन नयों का आश्रय लेता है। तहाँ वैशेषिक व नैयायिक दर्शनों के स्थान पर असद्भूत व सद्भूत व्यवहार नय है। सांख्य व योगदर्शन के स्थान पर शुद्ध व अशुद्ध द्रव्यार्थिकनय हैं। अद्वैत दर्शन के स्थान पर शुद्ध संग्रहनय है। इनके मध्य के अनेक विकल्पों के लिए भी अनेकों नय व उपनय हैं, जिनसे तत्त्व का सुंदर व स्पष्ट परिचय मिलता है। प्ररूपणा करने के ढंग में अंतर होते हुए भी, दोनों एक ही लक्ष्य को प्राप्त करते हैं। अद्वैत दर्शन की जिस निर्विकल्प दशा का ऊपर वर्णन कर आये हैं वही जैनदर्शन की कैवल्य अवस्था है। पूर्व मीमांसा के स्थान पर यहाँ दान व पूजा विधानादि, मध्य मीमांसा के स्थान पर यहाँ जिनेंद्र भक्ति रूप व्यवहार धर्म तथा उत्तर मीमांसा के स्थान पर धर्मध्यान व शुक्लध्यान हैं। तहाँ भी धर्मध्यान तो उसकी पहली व दूसरी अवस्था है और शुक्लध्यान उसकी तीसरी व चौथी अवस्था है।
- सब एकांत दर्शन मिलकर एक जैनदर्शन है–देखें अनेकांत - 2।
पुराणकोष से
(1) पदार्थों का निर्विकल्प ज्ञान । महापुराण 24. 101
(2) सम्यग्दर्शन । सर्वज्ञदेव द्वारा कथित जीव आदि पदार्थों का तीन मूढ़ताओं से रहित एवं अष्ट अंगों सहित निष्ठा से श्रद्धान करना । यह सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्र का मूल कारण है । प्रशम, संवेग, आस्तिक्य और अनुकंपा इसके गुण हैं । नि:शंका, नि:कांक्षा, निर्विचिकित्सा, अमूढ़दृष्टि, उपगूहन, वात्सल्य, स्थितिकरण और प्रभावना ये इसके आठ अंग हैं । महापुराण 9. 121-124, 128 इससे युक्त जीव उत्तम देव और उत्तम पुरुष पर्याय में उत्पन्न होता है, उसे स्त्री पर्याय नहीं मिलती । वह रत्नप्रभा पृथिवी को छोड़ शेष छ: पृथिवियों में, भवनवासी, व्यंतर और ज्योतिषी देवों में तथा अन्य पर्यायों में नहीं जन्मता । महापुराण 9. 136, 144