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जैन शब्दों का अर्थ जानने के लिए किसी भी शब्द को नीचे दिए गए स्थान पर हिंदी में लिखें एवं सर्च करें

व्यंतर

From जैनकोष

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सिद्धांतकोष से

भूत, पिशाच जाति के देवों को जैनागम में व्यंतर देव कहा गया है। ये लोग वैक्रियिक शरीर के धारी होते हैं। अधिकतर मध्य लोक के सूने स्थानों में रहते हैं। मनुष्य व तिर्यंचों के शरीर में प्रवेश करके उन्हें लाभ हानि पहुँचा सकते हैं। इनका काफी कुछ वैभव व परिवार होता है।

  1. व्यंतर देव निर्देश
    1. व्यंतर देव का लक्षण ।
    2. व्यंतर देवों के भेद ।
    • किंनर किंपुरुष आदि के उत्तर भेद ।–देखें किन्नर, किंपुरुष , महोरग, गंधर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच ।
    • व्यंतर मरकर कहाँ जन्मे और कौन स्थान प्राप्त करे । देखें – जन्म - 6
    • व्यंतरों का जन्म, दिव्य शरीर, आहार, सुख, दुःख सम्यक्त्वादि । देखें – देव - II.2.3
    1. व्यंतरों के आहार व श्वास का अंतराल ।
    2. व्यंतरों के ज्ञान व शरीर की शक्ति विक्रिया आदि ।
    3. व्यंतर देव मनुष्यों के शरीरों में प्रवेश करके उन्हें विकृत कर सकते हैं ।
    4. व्यंतरों के शरीरों के वर्ण व चैत्य वृक्ष ।
    • व्यंतरों की आयु व अवगाहना ।–देखें वह वह नाम ।
    • व्यंतरों में संभव कषाय, लेश्या, वेद, पर्याप्ति आदि । देखें वह वह नाम ।
    • व्यंतरों में गुणस्थान, मार्गंणास्थान आदि की 20 प्ररूपणा ।–देखें सत् ।
    • व्यंतरों संबंधी सत्, संख्या, क्षेत्र, स्पर्शन ।
    • काल अंतर भाव व अल्पबहुत्व । –देखें वह वह नाम ।
    • व्यंतरों में कर्मों का बंध उदय सत्त्व ।–देखें वह वह नाम ।
  2. व्यंतर इंद्र निर्देश
    1. व्यंतर इंद्रों के नाम व संख्या ।
    2. व्यंतरेंद्रों का परिवार ।
  3. व्यंतरों की देवियों का निर्देश
    1. 16 इंद्रों की देवियों के नाम व संख्या ।
    2. श्री ह्री आदि देवियों का परिवार ।
  4. व्यंतर लोक निर्देश
    1. व्यंतर लोक सामान्य परिचय ।
    2. निवास स्थानों के भेद व लक्षण ।
    3. व्यंतरों के भवनों व नगरों आदि की संख्या ।
    4. भवनों व नगरों आदि का स्वरूप ।
    5. मध्यलोक में व्यंतरों व भवनवासियों का निवास ।
    6. मध्यलोक में व्यंतर देवियों का निवास ।
    7. द्वीप समुद्रों के अधिपति देव ।
    8. भवनों आदि का विस्तार ।



  1. व्यंतरदेव निर्देश
    1. व्यंतरदेव का लक्षण
      सर्वार्थसिद्धि/4/11/243/10 विविधदेशांतराणि येषां निवासास्ते ‘व्यंतराः’ इत्यन्वर्था सामान्यसंज्ञेयमष्टानामपि विक-ल्पानाम् । = जिनका नाना प्रकार के देशों में निवास है, वे व्यंतरदेव कहलाते हैं । यह सामान्य संज्ञा सार्थक है जो अपने आठों ही भेदों में लागू है । (राजवार्तिक/4/11/1/257/15) ।
    2. व्यंतरदेवों के भेद
      तत्त्वार्थसूत्र/4/11 व्यंतराः किंनरकिंपुरुषमहोरगगंधर्वयक्षराक्षसभूतपिशाचाः ।11। = व्यंतरदेव आठ प्रकार के हैं–किन्नर, किंपुरुष, महोरग, गंधर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच (तिलोयपण्णत्ति/6/25; त्रिलोकसार/251 ) ।
    3. व्यंतरों के आहार व श्वास का अंतराल
      तिलोयपण्णत्ति/6/88-89 पल्लाउजुदे देवे कालो असणस्स पंच दिवसाणिं । दोण्णि च्चिय णादव्वो दसवाससहस्सआउम्मि ।88। पलिदोवमाउजुत्तो पंचमुहुत्तेहिं एदि उस्सासो । सो अजुदाउजुदे वेंतरदवम्मि अ सत्त पाणेहिं ।89। = पल्यप्रमाण आयु से युक्त देवों के आहार का काल 5 दिन और 10,000 वर्ष प्रमाण आयु वाले देवों के आहार का काल दो दिन मात्र जानना चाहिए ।88। व्यंतर देवों में जो पल्यप्रमाण आयु से युक्त हैं वे पाँच मुहूर्त्तों में और जो दश हजार प्रमाण आयु से संयुक्त हैं वे सात प्राणों (उच्छ्वास-निश्वास परिमित काल - विशेष देखें गणित - I.1.4) में उच्छ्वास को प्राप्त करते हैं ।89। (त्रिलोकसार/301) ।
    4. व्यंतरों के ज्ञान व शरीर की शक्ति विक्रिया आदि
      तिलोयपण्णत्ति/6/ गा.अवरा आहिधरित्ती अजुदाउजुदस्स पंचकोसाणिं । उक्किट्ठा पण्णासा हेट्ठोवरि पस्समाणस्स ।90। पलिदोवमाउ जुत्तो वेंतरदेवो तलम्मि उवरिम्मि । अवधीए जोयणाणं एक्कं लक्खं पलोएदि ।91। दसवास सहस्साऊ एक्कसयं माणुसाण मारेदुं । पोसेदुं पि समत्थो एक्केवको वेंतरो देवो ।92। पण्णाधियसयदं डप्पमाणविक्खंभबहुलजुत्तं सो । खेत्तं णिय सत्तीए उक्खणिदूणं खवेदि अण्णत्थ ।93। पल्लट्टदि भाजेहिं छक्खंडाणिं पि एक्कपल्लाऊ । मारेदुं पोसेदुं तेसु समत्थो ठिदं लोयं ।94। उक्कस्से रूवसदं देवो विकरेदि अजुदमेत्ताऊ । अवरे सगरूवाणिं मज्झिमयं विविहरूवाणि ।95। ऐसा वेंतरदेवा णियणिय ओहीण जेत्तियं खेत्तं । पूर ति तेत्तियं पि हु पत्तेक्कं विकरणबलेण ।96। संखेज्जजोयणाणिं संखेज्जाऊ य एक्कसमयेण । जादि असंखेज्जाणिं ताणि असंखेज्जाऊ य ।97। = नीचे व ऊपर देखने वाले दश हजार वर्ष प्रमाण आयु से युक्त व्यंतर देवों के जघन्य अवधि का विषय पाँच कोश और उत्कृष्ट 50 कोश मात्र है ।90। पल्योपम प्रमाण आयु से युक्त व्यंतर देव अवधिज्ञान से नीचे व ऊपर एक लाख योजन प्रमाण देखते हैं ।91। दश हजार वर्ष प्रमाण आयु का धारक प्रत्येक व्यंतर देव एक सौ मनुष्यों को मारने व पालने के लिए समर्थ है ।92। वह देव एक सौ पचास धनुष प्रमाण विस्तार व बाहुल्य से युक्त क्षेत्र को अपनी शक्ति से उखाड़कर अन्यत्र फेंक सकता है ।93। एक पल्य प्रमाण आयु का धारक प्रत्येक व्यंतर देव अपनी भुजाओं से छह खंडों को उलट सकता है और उनमें स्थित लोगों को मारने व पालने के लिए भी समर्थ है ।94। दश हजार वर्ष मात्र आयु का धारक व्यंतर देव उत्कृष्ट रूप से सौ रूपों की और जघन्य रूप से सात रूपों की विक्रिया करता है । मध्यमरूप से वह देव सात से ऊपर और सौ से नीचे विविध रूपों की विक्रिया करता है ।95। बाकी के व्यंतर देवों में से प्रत्येक देव अपने-अपने अवधिज्ञानों का जितना क्षेत्र है । उतने मात्र क्षेत्र को विक्रिया बल से पूर्ण करते हैं।96। संख्यात वर्ष प्रमाण आयु से युक्त व्यंतर देव एक समय में संख्यात योजन और असंख्यात वर्ष प्रमाण आयु से युक्त असंख्यात योजन जाता है।97।
    5. व्यंतरदेव मनुष्यों के शरीर में प्रवेश करके उन्हें विकृत कर सकते हैं
      भगवती आराधना/1977/1741 जदि वा एस ण कीरेज्ज विधी तो तत्थ देवदा कोई। आदाय तं कलेवरमुट्ठिज्ज रमिज्ज बाधेज्ज।1977। = यदि यह विधि न की जावेगी अर्थात् क्षपक के मृत शरीर के अंग बाँधे या छेदे नहीं जायेंगे तो मृत शरीर में क्रीड़ा करने का स्वभाव वाला कोई देवता (भूत अथवा पिशाच) उसमें प्रवेश करेगा। उस प्रेत को लेकर वह उठेगा, भागेगा, क्रीडा करेगा।1977।
      स्याद्वादमंजरी/11/135/10 यदपि च गयाश्राद्धादियाचनमुपलभ्यते, तदपि तादृशविप्रलंभकविभंगज्ञानिव्यंतरादिकृतमेव निश्चयेम्।= बहुत से पितर पुत्रों के शरीर में प्रविष्ठ होकर जो गया आदि तीर्थस्थानों में श्राद्ध करने के लिए कहते हैं, वे भी कोई ठगने वाले विभंगज्ञान के धारक व्यंतर आदि नीच जाति के देव ही हुआ करते हैं।
    6. व्यंतरों के शरीरों के वर्ण व चैत्य वृक्ष
      तिलोयपण्णत्ति/6 (त्रिलोकसार/252-253)

नाम

वर्ण

वृक्ष

गा. 25

गा. 55-56, गा. 57-58

गा. 28

किन्नर

प्रियंगु

अशोक

किंपुरुष

सुवर्ण

चंपक

महोरग

श्याम

नागद्रुम

गंधर्व

सुवर्ण

तुंबुर

यक्ष

श्याम

न्यग्रोध

राक्षस

श्याम

कंटक वृक्ष

भूत

श्याम

तुलसी

पिशाच

कज्जल

कदंब



  1. व्यंतर इंद्र निर्देश
    1. व्यंतरों के इंद्रों के नाम व संख्या
      तिलोयपण्णत्ति/6/11 . ताणं किंपुरुसा किंणरा दवे इंदा।35। इय किपुरिसाणिंदा सप्पुरुसो ताण सह महापुरिसो।37। महोरगया  महाकाओ अतिकाओ इंदा।39। गंधव्वा। 40।  गीदरदी गीदरसा इंदा।41। ताणं वे माणिपुण्णभद्दिंदा।43।  रक्खसइंदा भीमो महाभीमो।45। भूदिंदा सरूवो पडिरूवो।47। पिसाचइंदा य कालमहाकाला।49। सोलस मोम्हिंदाणं किंणरपहुदीण होंति।50। पढमुच्चारिदणासा दक्खिणइंदा हवंति एदेसुं। चरिद उच्चारिदणामा उत्तरइंदा पभावजुदा।59। ( त्रिलोकसार 273-274 )।

देव का नाम

दक्षिणेंद्र

उत्तरेंद्र

किन्नर

किंपुरुष

किन्नर

किंपुरुष

सत्पुरुष

महापुरुष

महोरग

महाकाय

अतिकाय

गंधर्व

गीतरति

गीतरस

यक्ष

मणिभद्र

पूर्णभद्र

राक्षस

भीम

महाभीम

भूत

स्वरूप

प्रतिरूप

पिशाच

काल

महाकाल

इस प्रकार किन्नर आदि सोलह व्यंतर इंद्र हैं।50।

    1. व्यंतरेंद्रों का परिवार
      तिलोयपण्णत्ति/6/68 पडिइंदा सामणिय तणुरक्खा होंति तिण्णि परिसाओ। सत्ताणीय-पइणा अभियोगं ताण पत्तेयं।68। = उन उपरोक्त इंद्रों में से प्रत्येक के प्रतींद्र, सामानिक, तनुरक्ष, तीनों पारिषद, सात अनीक, प्रकीर्णक और अभियोग्य इस प्रकार ये 8 परिवार देव होते हैं (और भी देखें ज्योतिष - 1.5)।
      देखें व्यंतर - 3.1 (प्रत्येक इंद्र के चार-चार देवियाँ और दो-दो महत्तरिकाएँ होती हैं। )
      प्रत्येक इंद्र के अन्य परिवार देवों का प्रमाण–
      ( तिलोयपण्णत्ति/6/69-76 ); ( त्रिलोकसार/279-282 )।

नं.

परिवार देव का नाम

गणना

1

प्रतींद्र

1

2

सामानिक

4000

3

आत्मरक्ष

16000

4

अभ्यंतर पारि.

8000

5

मध्य पारि.

10,000

6

बाह्य पारि.

12,000

7

अनीक

7

8

प्रत्येक अनीक की प्रथम कक्षा

28000

9

द्वि आदि कक्षा

दूनी दूनी

10

हाथी (कुल)

3556000

11

सातों अनीक

24892000

12

प्रकीर्णक

असंख्य

 

आभियोग्य व किल्पिष

असंख्य ( त्रिलोकसार )



  1. व्यंतरों की देवियों का निर्देश
    1. 16 इंद्रों की देवियों के नाम व संख्या
      ( तिलोयपण्णत्ति/6/35-54 ); ( त्रिलोकसार/258-278 )।

 

नं.

इंद्र का नाम

गणिका

वल्लभिका

नं.1

नं.2

नं.1

नं.2

1

किंपुरुष

मधुरा

मधुरालापा

अवतंसा

केतुमती

2

किन्नर

सुस्वरा

मृदभाषिणी

रतिसेना

रतिप्रिया

3

तत्सपुरुष

पुरुषाकांता

सौम्या

राहिणी

नवमी

4

महापुरुष

पुरुषदर्शिनी

भोगा

ह्वी

पुष्पवती

5

महाकाय

भोगवती

भुजगा

भोगा

भोगवती

6

अतिकाय

भुजगप्रिया

विमला

आनंदिता

पुष्पगंधी

7

गीतरति

सुघोषा

अनिंदिता

सरस्वती

स्वरसेना

8

गीतरस

सुस्वरा

सुभद्रा

नंदिनी

प्रियदर्शना

9

मणिभद्र

भद्रा

मालिनी

कुंदा

बहुपुत्रा

10

पूर्णभद्र

पद्मालिनी

सर्वश्री

तारा

उत्तमा

11

भीम

सर्वसेना

रूद्रा

पद्मा

वसुमित्रा

12

महाभीम

रुद्रवती

भूता

रत्नाढया

कंचनप्रभा

13

स्वरूप

भूतकांता

महावाह

रूपवती

बहरूपा

14

प्रतिरूप

भूतरक्ता

अंबा

सुमुखी

सुसीमा

15

काल

कला

रसा

कमला

कमलप्रभा

16

महाकाल

सुरसा

सदर्शनिका

उत्पला

सदर्शना

    1. श्री ह्वी आदि देवियों का परिवार
      तिलोयपण्णत्ति/4/ गा. का भावार्थ - हिमवान् आदि 6 कुलधर पर्वतों के पद्म आदि 6 ह्रदों में श्री आदि 6 व्यंतर देवियाँ सपरिवार रहती हैं। तहाँ श्री देवी के सामानिकदेव 4000 (गा. 1674); त्रायस्त्रिंश 108 (गा. 1686); अभ्यंतर पारिषद 32000 (गा. 1678); मध्यम पारिषद 40,000 (गा. 1676) बाह्य पारिषद 48000 (गा. 1680); आत्मरक्ष 16000 (गा. 1676); सप्त अनीक में प्रत्येक की सात-सात कक्षा हैं। प्रथम कक्षा में 4000 तथा द्वितीय आदि उत्तरोंत्तर दूने-दूने हैं। (गा. 1683)। ह्वी देवी का परिवार श्री के परिवार से दूना है (गा. 1729)। (धृतिका ह्वी से भी दूना है।) कीर्तिका धृति के समान है। (गा. 2333 बुद्धि का कीर्ति से आधा अर्थात् ह्वी के समान। (गा. 2345) और लक्ष्मी का श्री के समान है (गा. 2361)। - (विशेष देखें लोक - 3.6)।
  1. व्यंतर लोक सामान्य परिचय
    तिलोयपण्णत्ति/6/5 रज्जुकदी गुणिदव्वा णवणउदिसहस्स अधियलक्खेणं। तम्मज्झे तिवियप्पा वेंतरदेवाण होंति पुरा।5। = राजु के वर्ग को 199000 से गुणा करने पर जो प्राप्त हो उसके मध्य में तीन प्रकार के पुर होते हैं।5।
    त्रिलोकसार/295 चित्तवइरादु जावय मेरुदयं तिरिय लोयवित्थारं। भोम्मा हवंति भवणे भवणपुरावासगे जोग्गे।296। = चित्रा और वज्रा पृथिवी की मध्यसंधि से लगाकर मेरु पर्वत की ऊँचाई तक, तथा तिर्यक् लोक के विस्तार प्रमाण लंबे चौड़े क्षेत्र में व्यंतर देव भवन भवनपुर और आवासों में वास करते हैं।296।
    कार्तिकेयानुप्रेक्षा/145 खरभाय पंकभाए भावणदेवाण होंति भवणाणि। विंतरदेवाण तहा दुण्हं पि य तिरियलोयम्मि।145। = खरभाग और पंकभाग में भवनवासी देवों के भवन हैं और व्यंतरों के भी निवास हैं। तथा इन दोनों के तिर्यकलोक में भी निवास स्थान हैं।145। (पंकभाग = 84000 यो. ; खरभाग = 16000 यो. ; मेरु की पृथिवी पर ऊँचाई = 99000 यो.। तीनों का योग = 199000 यो.। तिर्यक् लोक का विस्तार 1 राजु2। कुल घनक्षेत्र = 1 राजु2 x199000 यो.)।
  2. निवासस्थानों के भेद व लक्षण
    तिलोयपण्णत्ति/6/6-7 भवणं भवणपुराणिं आवासा इय भवंति  तिवियप्पा। ...।6। रंयणप्पहपुढवीए भवणाणिं दीउवहिउवरिम्मि। भवणपुराणिं दहगिरि पहुदीणं उवरि आवासा।7। = (व्यंतरों के) भवन, भवनपुर व आवास तीन प्रकार के निवास कहे गये हैं।6। इनमें से रत्नप्रभा पृथिवी में अर्थात् खर व पंक भाग में भवन, द्वीप व समुद्रों के ऊपर भवनपुर तथा द्रह एवं पर्वतादि के ऊपर आवास होते हैं।( त्रिलोकसार/294-295 )।
    महापुराण/31/113 वटस्थानवटस्थांश्च कूटस्थान् कोटरोटजान् । अक्षपाटान् क्षपाटांश्च विद्धि नः सार्व सर्वगान्।113। = हे सार्व (भरतेश) ! वट के वृक्षों पर, छोटे-छोटे गड्ढों में, पहाड़ों के शिखरों पर, वृक्षों की खोलों और पत्तों की झोपड़ियों में रहनेवाले तथा दिन रात भ्रमण करने वाले हम लोगों को आप सब जगह जाने वाले समझिए।
  3. व्यंतरों के भवनों व नगरों आदि की संख्या
    तिलोयपण्णत्ति/6/गाथा एवंविहरुवाणिं तींस सहस्साणि भवणाणिं।20। चोद्दससहस्समेत्ता भवणा भूदाण रक्खसाणं पि। सोलससहस्ससंखा सेसाणं णत्थि भवणाणिं।26। जोयणसदत्तियकदीभजिदे पदरस्स संखभागम्मि । जं लद्धं तं माणं वेंतरलोए जिणपुराणं। =
    1. इस प्रकार के रूपवाले ये प्रासाद तीस हजार प्रमाण हैं।20। तहाँ (खरभाग में) भूतों के 14000 प्रमाण और (पंकभाग में) राक्षसों के 16000 प्रमाण भवन हैं।26। ( हरिवंशपुराण/4/62 ); ( त्रिलोकसार/290 )= (जं.प. /11/136 )।
    2. जगत्प्रतर के संख्यातभाग में 300 योजन के वर्ग का भाग देने पर जो लब्ध आवे उतना व्यंतरलोक में जिनपुरों का प्रमाण है।102।
  4. भवनों व नगरों आदि का स्वरूप
    तिलोयपण्णत्ति/6/गाथा का भावार्थ
    1. भवनों के बहुमध्य भाग में चार वन और तोरण द्वारों सहित कूट होते हैं।11। जिनके ऊपर जिनमंदिर स्थित हैं।12। इन कूटों के चारों ओर सात आठ मंजिले प्रासाद होते हैं।18। इन प्रासादों का संपूर्ण वर्णन भवनवासी देवों के भवनों के समान है।20। (विशेष देखें भवन - 4.5); त्रिलोकसार/299 )।
    2. आठों व्यंतरदेवों के नगर क्रम से अंजनक वज्रधातुक, सुवर्ण, मनःशिलक, वज्र, रजत, हिंगुलक और हरिताल इन आठ द्वीपों में स्थित हैं।60। द्वीप की पूर्वादि दिशाओं में पाँच पाँच नगर होते हैं, जो उन देवों के नामों से अंकित हैं। जैसे किन्नरप्रभ, किंनरक्रांत, किन्नरावर्त, किन्नरमध्य।61। जंबूद्वीप के समान इन द्वीपों में दक्षिण इंद्र दक्षिण भाग में और उत्तर इंद्र उत्तर भाग में निवास करते हैं।62। सम चौकोण रूप से स्थित उन पुरों के सुवर्णमय कोट विजय देव के नगर के कोट के (देखें अगला संदर्भ ) चतुर्थ भागप्रमाण है।63। उन नगरों के बाहर पूर्वादि चारों दिशाओं में अशोक, सप्तच्छद, चंपक तथा आम्रवृक्षों के वन हैं।64। वे वन 1,00,000 योजन  लंबे और 50,000 योजन चौड़े हैं।65। उन नगरों में दिव्य प्रसाद हैं।66। (प्रासादों का वर्णन ऊपर भवन व भवनपुर के वर्णन में किया है।) ( त्रिलोकसार/283-289 )।
      हरिवंशपुराण/5/श्लोक का भावार्थ – विजयदेव का उपरोक्त नगर 12 योजन चौड़ा है। चारों ओर चार तोरण द्वार हैं। एक कोट से वेष्टित है।397-399। इस कोट की प्रत्येक दिशा में 25-25 गोपुर हैं।400। जिनकी 17-17 मंजिल हैं।402। उनके मध्य देवों की उत्पत्तिका स्थान है जिसके चारों ओर एक वेदिका है।403-404। नगर के मध्य गोपुर के समान एक विशाल भवन है।405। उसकी चारों दिशाओं में अन्य भी अनेक भवन हैं।406। (इस पहले मंडल की भाँति इसके चारों तरफ एक के पश्चात् एक अन्य भी पाँच मंडल हैं)। सभी में प्रथम मंडल की भाँति ही भवनों की रचना है। पहले, तीसरे व पाँचवें मंडलों के भवनों का विस्तार उत्तरोत्तर आधा-आधा है। दूसरे, चौथे व छठे मंडलों के भवनों का विस्तार क्रमश: पहले, तीसरे, व पाँचवें के समान है।407-409। बीच के भवन में विजयदेव का सिंहासन है।411। जिसकी दिशाओं और विदिशाओं में उसके सामानिक आदि देवों के सिंहासन हैं।412-415। भवन के उत्तर में सुधर्मा सभा है।417। उस सभा के उत्तर में एक जिनालय है, पश्चिमोत्तर में उपपार्श्व सभा है। इन दोनों का विस्तार सुधर्मा सभा के समान है। 418-419। विजयदेव के नगर में सब मिलकर 5467 भवन हैं।420।
      तिलोयपण्णत्ति/4/245-2452 का भावार्थ – लवण समुद्र की अभ्यंतर वेदी के ऊपर तथा उसके बहुमध्य  भाग में 700 योजन ऊपर जाकर आकाश में क्रम से 42000 व 28000 नगरियाँ हैं।
  5. मध्य लोक में व्यंतरों व भवनवासियों के निवास
    तिलोयपण्णत्ति/4/गाथा

तिलोयपण्णत्ति/4/गाथा

स्थान

देव

भवनादि    

25

जंबूद्वीप की जगती का अभ्यंतर भाग

महोरग

भवन   

77

उपरोक्त जगती का विजय द्वार के ऊपर आकाश में

विजय 

नगर

86

उपरोक्त ही अन्य द्वारों पर

अन्य देव         

नगर

140

विजयार्ध के दोनों पार्श्व

आभियोग्य

श्रेणी

143

उपरोक्त श्रेणी का दक्षिणोत्तर भाग

सौधर्मेंद के वाहन

श्रेणी    

164

विजयार्ध के 8 कूट

व्यंतर 

भवन

275

वृषभगिरि के ऊपर

वृषभ

भवन

1654

हिमवान् पर्वत के 10 कूट

सौधर्मेंद्र के परिवार

नगर

1663

पद्म ह्रद के कूट

व्यंतर

नगर

1365

पद्म ह्रद के जल में स्थित कूट

व्यंतर

नगर

1672-1688

पद्म द्रह के कमल

सपरिवार श्री देवी

भवन

1712

हैमवत क्षेत्र का शब्दवान् पर्वत

शाली

भवन   

1726

महाहिमवान् पर्वत के 7 कूट

कूटों के नाम वाले

नगर

1733

महापद्म द्रह के बाह्य 5 कूट

व्यंतर

नगर

1745

हरि क्षेत्र में विजयवान् नाभिगिरि

चारण

भवन   

1760

निषध पर्वत के आठ कूट

कूटों के नामवाले

नगर

1768

निषध पर्वत के तिगिंछ ह्रद के बाह्य 5 कूट

व्यंतर

नगर

1836-1839

सुमेरु पर्वत का पांडुक वन की पूर्व दिशा में

लोकपाल सोम

भवन   

1843

उपरोक्त वन की दक्षिण दिशा

यम

भवन

1847

उपरोक्त वन की पश्चिम दिशा

वरुण

भवन

1851

उपरोक्त वन की उत्तर दिशा

कुबेर

भवन

1917

उपरोक्त वन की वापियों के चहुँ ओर

देव

भवन

1943-1945

सुमेरु पर्वत के सौमनस वन की चारों दिशाओं में

उपरोक्त 4 लोकपाल

पुर

1984

उपरोक्त वन का बलभद्र कूट

बलभद्र

पुर

1994

सुमेरु पर्वत के नंदन वन की चारों दिशाओं में

उपरोक्त 4 लोकपाल

भवन

1998

उपरोक्त वन का बलभद्र कूट

बलभद्र

भवन

2042-2044

सौमनस गजदंत के 6 कूट

कूटों के नामवाले देव

भवन

2053

विद्युत्प्रभ गजदंत के 6 कूट

कूटों के नामवाले देव

भवन

2058

गंधमादन गजदंत के 6 कूट

कूटों के नामवाले देव

भवन

2061

माल्यवान गजदंत के 8 कूट

कूटों के नामवाले देव

भवन

2084

देवकुरु के 2 यमक पर्वत

पर्वत के नाम

भवन

2092

देवकुरु के 10 द्रहों के कमल

द्रहों के नामवाले

भवन

2099

देवकुरु के कांचन पर्वत   

कांचन

भवन

2105-2108

देवकुरु के दिग्गज पर्वत

यम (वाहन देव)

भवन

2113

देवकुरु के दिग्गज पर्वत

वरुण (वाहनदेव)

भवन

2124

उत्तर कुरु के 2 यमक पर्वत

पर्वत के नाम वाले देव    

भवन

2131-2135

उत्तरकुरु के दिग्गजेंद्र पर्वत

वाहनदेव

भवन

2158-2190

देवकुरु में शाल्मली वृक्ष व उसका परिवार

सपरिवार वेणु युगल

भवन

2197

उत्तरकुरु में सपरिवार जंबू वृक्ष     

सपरिवार आदर-अनादर

भवन

2261

विदेह के कच्छा देश के विजयार्ध के 8 कूट

वाहनदेव

भवन

2295-2303

(इसी प्रकार शेष 31 विजयार्ध)

वाहनदेव

भवन

2309-2311

विदेह के आठ वक्षारों के तीन-तीन कूट

व्यंतर

नगर

2315-2324

पूर्व व अपर विदेह के मध्य व पूर्व पश्चिम में स्थित देवारण्यक

सौधर्मेंद्र का परिवार

भवन

2326

व भूतारण्यक वन

सौधर्मेंद्र का परिवार

भवन

2330

नील पर्वत के आठ कूट

कूटों के नामवाले

भवन

2336

रम्यक क्षेत्र का नाभिगिरि

कूटों के नामवाले

भवन

2343

रुक्मि पर्वत के 7 कूट

कूटों के नामवाले

भवन

2351

हैरण्यवत क्षेत्र का नाभिगिरि

प्रभास

भवन

2359

शिखरी पर्वत के 10 कूट

कूटों के नामवाले

भवन

2365

ऐरावत क्षेत्र के विजयार्ध, वृषभगिरि आदि पर

( भरत क्षेत्रवत् )

भवन

2449-2454

लवण समुद्र के ऊपर आकाश में स्थित 42000 व 28000 नगर

वेलंधर व भुजग

नगर

2456

उपरोक्त ही अन्य नगर

देव

नगर

2463

लवणसमुद्र में स्थित आठ पर्वत

वेलंधर

नगर

2473-2476

लवणसमुद्र में स्थित मागध व प्रभास द्वीप

मागध

भवन

2539

धातकी खंड के 2 इष्वाकार पर्वतों के तीन-तीन कूट

व्यंतर

भवन

2716

जंबूद्वीपवत् सर्व पर्वत आदि

व्यंतर

भवन

2775

मानुषोत्तर पर्वत के 18 कूट

व्यंतर

भवन

तिलोयपण्णत्ति/5/गाथा

 

 

 

79-81

नंदीश्वर द्वीप के 64 वनों में से प्रत्येक में एक-एक भवन

व्यंतर

भवन

125

कुंडलगिरि के 16 कूट

कूटों के नामवाले

नगर

138

कुंडलगिरि की चारों दिशाओं में 4 कूट

कुंडलद्वीप के अधिपति

नगर

170

रुचकवर पर्वत की चारों दिशाओं में चार कूट

चार दिग्गजेंद्र

आवास

180

असंख्यात द्वीप समुद्र जाकर द्वितीय जंबूद्वीप

विजय आदि देव

नगर

209

पूर्वदिशा के नगर के प्रासाद

विजय

भवन

236

पूर्वदिशा के नगर के प्रासाद

अशोक

भवन

237

दक्षिणादि दिशाओं में

वैजयंतादि

नगर

तिलोयपण्णत्ति/5/50

सब द्वीप समुद्रों के उपरिम भाग

उन उनके स्वामी

नगर

    1. मध्यलोक में व्यंतर देवियों का निवास

तिलोयपण्णत्ति/4/गाथा

स्थान

देवी

भवनादि         

204

गंगा नदी के निर्गमन स्थान की समभूमि

दिक्कुमारियाँ

भवन

209

गंगा नदी में स्थित कमलाकार कूट

वला

भवन

251

जंबूद्वीप की जगती में गंगा नदी के बिलद्वार पर

दिक्कुमारी

भवन

258

सिंधु नदी के मध्य कमलाकार कूट

अवना या लवणा

भवन

262

हिमवान् के मूल में सिंधुकूट

सिंधु

भवन

1651

हिमवान् पर्वत के 11 में से 6 कूट

कूट के नामवाली

भवन

1672

पद्म ह्रद के मध्य कमल पर

श्री

भवन

1728

महा पद्म ह्रद के मध्य कमल पर

ह्री

भवन

1762

तिगिंछ ह्रद के मध्य कमल पर

धृति

भवन

1976

सुमेरु पर्वत के सौमनस वन की चारों दिशाओं में 8 कूट

मेघंकरा आदि 8

निवास

2043

सौमनस गजदंत का कांचन कूट

सुवत्सा

निवास

2043

सौमनस गजदंत विमलकूट

श्रीवत्समित्रा    

निवास 

2054

विद्युत्प्रभ गजदंत का स्वस्तिक कूट

वला

निवास

2054

विद्युत्प्रभ गजदंत का कनककूट

वारिषेणा

निवास

2059

गंधमादन गजदंत पर लोहितकूट

भोगवती

निवास

2059

गंधमादन गजदंत पर स्फटिक कूट

भोगंकृति

निवास

2062

माल्यवान् गजदंत पर सागरकूट

भोगवती

निवास

2062

माल्यवान् गजदंत पर रजतकूट

भोगमालिनी

निवास

2173

शाल्मलीवृक्ष स्थल की चौथी भूमि के चार तोरण द्वार

वेणु युगल की देवियाँ

निवास

2196

जंबूवृक्ष स्थल की भी चौथी भूमि के चार तोरण द्वार

 

निवास

जं.पं./6/31-43

देवकुरु व उत्तरकुरु के 20 द्रहों के कमलों पर

सपरिवार नीलकुमारी आदि

भवन

तिलोयपण्णत्ति/5/ 144-172

रुचकवर पर्वत के 44 कूट         

दिक्कन्याएँ

भवन

    1. द्वीप समुदों के अधिपति देव
      ( तिलोयपण्णत्ति/5/38-49 ); ( हरिवंशपुराण/5/637-646 ); ( त्रिलोकसार/961-965 )
      संकेत—द्वी=द्वीप; सा=सागर; ß=जो नाम इस ओर लिखा है वही यहाँ भी है।

द्वीप या समुद्र

तिलोयपण्णत्ति/5/38-49

हरिवंशपुराण/5/637-646

त्रिलोकसार/961-965

 

दक्षिण

उत्तर

दक्षिण

उत्तर

दक्षिण

उत्तर

जंबू द्वीप

आदर

अनादर

अनावृत

ß

लवण सागर

प्रभास

प्रियदर्शन

सुस्थित

ß

धातकी

प्रिय

दर्शन

प्रभास

प्रियदर्शन

ß

ß

कालोद

काल

महाकाल

ß

ß

ß

ß

पुष्करार्ध

पद्म

पुंडरीक

ß

ß

पद्म

पुंडरीक

मानुषोत्तर

चक्षु

सुचक्षु

ß

ß

ß

ß

पुष्करार्ध

×

×

×

×

चक्षुष्मान्

सुचक्षु

पुष्कर सागर

श्रीप्रभु

श्रीधर

ß

ß

ß

ß

वारुणीवर द्वीप

वरुण

वरुणप्रभ

ß

ß

ß

ß

वारुणवर सागर

मध्य

मध्यम

ß

ß

ß

ß

क्षीरनर द्वीप

पांडुर

पुष्पदंत

ß

ß

ß

ß

क्षीरनर सागर

विमल प्रभ

विमल

विमल

विमलप्रभ

ß

ß

घृतवर द्वीप

सुप्रभ

घृतवर

सुप्रभ

महाप्रभ

ß

ß

घृतवर सागर

उत्तर

महाप्रभ

कनक

कनकाभ

कनक

कनकप्रभ

क्षौद्रवर द्वीप

कनक

कनकाभ

पूर्ण

पूर्णप्रभ

पुण्य

पुण्यप्रभ

क्षौद्रवर सागर

पूर्ण

पूर्णप्रभ

गंध

महागंध

ß

ß

नंदीश्वर द्वीप

गंध

महागंध

नंदि

नंदिप्रभ

ß

ß

नंदीश्वर सागर

नंदि

नंदिप्रभु

भद्र

सुभद्र

ß

ß

अरुणवर द्वीप

चंद्र

सुभद्र

अरुण

अरुणप्रभ

ß

ß

अरुणवर सागर

अरुण

अरुणप्रभ

सुगंध

सर्वगंध

ß

ß

अरुणाभास द्वीप

सुगंध

सर्वगंध

×

×

×

×

अन्य—

ß कथन नष्ट है à

    1. भवनों आदि का विस्तार
      1. सामान्य प्ररूपणा
        तिलोयपण्णत्ति/6/गाथा का भावार्थ – 1. उत्कृष्ट भवनों का विस्तार और बाहल्य क्रम से 12000 व 300 योजन है। जघन्य भवनों का 25 व 1 योजन अथवा 1 कोश है।8-10। उत्कृष्ट भवनपुरों का 1000,00 योजन और जघन्य का 1 योजन है।21। ( त्रिलोकसार/300 में उत्कृष्ट भवनपुर का विस्तार 100,000 योजन बताया है।) उत्कृष्ट आवास 12200 योजन और जघन्य 3 कोश प्रमाण विस्तार वाले हैं।  ( त्रिलोकसार/298-300 )। (नोट – ऊँचाई सर्वत्र लंबाई व चौड़ाई के मध्यवर्ती जानना, जैसे 100 यो. लंबा और 50 यो. चौड़ा हो तो ऊँचा 75 यो. होगा। कूटाकार प्रासादों का विस्तार मूल में 3, मध्य में 2 और ऊपर 1 होता है। ऊँचाई मध्य विस्तार के समान होती है।
      2. विशेष प्ररूपणा

तिलोयपण्णत्ति/4/गाथा

स्थान

भवनादि

ज.उ.म.

आकार

लंबाई

चौड़ाई

ऊँचाई 

25-28

जंबूद्वीप की जगती पर

भवन

ज.

चौकोर

100 ध.

50 ध.

75 ध.

30

जगती पर

भवन

उ.

चौकोर

300 ध.

150 ध.

225 ध.

32

 

भवन

म.

चौकोर

200 ध.

100 ध.

150 ध.

74

विजय द्वार

पुर

 

चौकोर

×

2 यो.

4 यो.

77

 

नगर

 

चौकोर

12000 यो.

6000 यो.

 

166

विजयार्ध

प्रासाद

 

चौकोर

1 को.

1/2 को.

3/4 को.

225

गंगाकुंड

प्रासाद

 

कूटाकार

×

3000 ध.

2000 ध.

1653

हिमवान्

भवन

 

चौकोर

×

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1671

पद्म ह्रद

भवन

 

चौकोर

1 को.

1/2 को.

3/4 को.

1729

अन्य ह्रद

भवन

 

चौकोर

ß पद्म ह्रद से उत्तरोत्तर दूना à

1759

महाहिमवान आदि

भवन

 

चौकोर

ß हिमवान से उत्तरोत्तर दूना à

1836-37

पांडुकवन

प्रासाद

 

चौकोर

30 को.

15 को.

1 को.

1944

सौमनस

पुर

 

चौकोर

ß पांडुकवन वाले से दुगुने à

1995

नंदन

भवन

 

चौकोर

ß सौमनस वाले से दुगुने à

2080

यमकगिरि

प्रासाद

 

चौकोर

×

125 को.

250 को.

2107

दिग्गजेंद्र

प्रासाद

 

चौकोर

125 को.

622109153755JSKHtmlSample clip image004 0000.gif को.

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2162

शाल्मली वृक्ष

प्रासाद

 

चौकोर

1 को.

1/2 को.

3/4 को.

2185

शाल्मली स्थल

प्रासाद

 

चौकोर

1 को.

1/2 को.

3/4 को.

2540

इष्वाकार

भवन

 

चौकोर

ß निषध पर्वतवत् à

80

नंदीश्वर के वनों में

प्रासाद

 

चौकोर

31 यो.

31 यो.

62 यो.

147

रुचकवर द्वीप

प्रासाद

 

चौकोर

ß गौतमदेव के भवन के समान à

181

द्वि. जंबूद्वीप विजयादि के

नगर

 

चौकोर

12000 यो.

6000 यो.

×

185

उपरोक्त नगर के

भवन

 

चौकोर

62 यो.

31 यो.

 

189

उपरोक्त नगर के मध्य में

प्रासाद

 

चौकोर

×

125 यो.

250 यो.

195

उपरोक्त नगर के प्रथम दो मंडल

प्रासाद

 

चौकोर

ß मध्य प्रासादवत् à

195

तृ. चतु. मंडल

प्रासाद

 

चौकोर

ß मध्य प्रासाद से आधा à

232-233

चैत्य वृक्ष के बाहर

प्रासाद

 

चौकोर

×

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तिलोयपण्णत्ति/6/गाथा 79

व्यंतरों की गणिकाओं के

नगर

 

चौकोर

84000 यो.

84000 यो.

×

 


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पुराणकोष से

देवों का एक भेद ये आठ प्रकार के होते हैं । उनके नाम है—किन्नर, किंपुरुष, महोरग, गंधर्व, यक्ष, राक्षस, भूत और पिशाच । बाल तप करने वाले साधु मरकर ऐसे ही देव होते हैं । इन देवों की उत्कृष्ट स्थिति एक पल्य प्रमाण तथा जघन्य स्थिति दस हजार वर्ष होती है । ये मध्यलोक में रहते हैं । तीर्थंकरों के जन्म की सूचना देने के लिए इन देवों के भवनों में स्वयमेव भेरियों की ध्वनि होने लगती है । मध्यलोक में ये देव वटवृक्षों पर, छोटे-छोटे गड्ढों में, पहाड़ के शिखरों पर, वृक्षों के कोटरों, पत्तों की झोपड़ियों में रहते हैं । इनका सर्वत्र गमनागमन रहता है । द्वीप और समुद्रों की आभ्यंतरिक स्थिति का इन्हें ज्ञान होता है । इन देवों के सोलह इंद्र और सोलह प्रतींद्र होते हैं । उनके नाम ये हैं —1. किन्नर 2. किंपुरुष 3. सत्पुरुष 4. महापुरुष 5. अतिकाय 6. महाकाय 7. गीतरति 8. रतिकीर्ति 9. मणिभद्र 10. पूर्णभद्र 11. भीम 12. महाभीम 13. सुरूप 14. प्रतिरूप 15. काल और 16. महाकाल । महापुराण 31.109-113, पद्मपुराण 3.159-162, 5.153, 105. 165, हरिवंशपुराण 2.83, 3.134-135, 139, 5.397-420, वीरवर्द्धमान चरित्र 14.59-62, 17.90-91


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