वचन: Difference between revisions
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<span class="GRef"> राजवार्तिक/1/20/12/75/12 </span><span class="SanskritText"> हिंसादेः कर्मणः कर्तुर्विरतस्य विरताविरतस्य वायमस्य कर्तेत्यभिधानम् अभ्याख्यानम्। कलहः प्रतीतः। पृष्ठतो दोषाविष्करणं पैशुन्यम्। धर्मार्थकाममोक्षासंबद्धा, वाग् असंबद्धप्रलापः। शब्दादिविषयदेशादिषु रत्युत्पादिका, रतिवाक्। तेष्वेवारत्युत्पादिका अरतिवाक्। यां वाचं श्रुत्वा परिग्रहार्जनरक्षणादिष्वासज्यते सोपधिवाक्। बणिग्व्यवहारे यामवधार्य निकृतिप्रणव आत्मा भवति सा निकृतिवाक्। यां श्रुत्वा तपोविज्ञानाधिकेष्वपि न प्रणमति सा अप्रणतिवाक्। यां श्रुत्वा स्तेये वर्तते सा मोषवाक्। सम्यङ्मार्गस्योपदेष्ट्री सा सम्यग्दर्शनवाक्। तद्विपरीता मिथ्यादर्शनवाक्।</span> = <span class="HindiText"><br> | <span class="GRef"> राजवार्तिक/1/20/12/75/12 </span><span class="SanskritText"> हिंसादेः कर्मणः कर्तुर्विरतस्य विरताविरतस्य वायमस्य कर्तेत्यभिधानम् अभ्याख्यानम्। कलहः प्रतीतः। पृष्ठतो दोषाविष्करणं पैशुन्यम्। धर्मार्थकाममोक्षासंबद्धा, वाग् असंबद्धप्रलापः। शब्दादिविषयदेशादिषु रत्युत्पादिका, रतिवाक्। तेष्वेवारत्युत्पादिका अरतिवाक्। यां वाचं श्रुत्वा परिग्रहार्जनरक्षणादिष्वासज्यते सोपधिवाक्। बणिग्व्यवहारे यामवधार्य निकृतिप्रणव आत्मा भवति सा निकृतिवाक्। यां श्रुत्वा तपोविज्ञानाधिकेष्वपि न प्रणमति सा अप्रणतिवाक्। यां श्रुत्वा स्तेये वर्तते सा मोषवाक्। सम्यङ्मार्गस्योपदेष्ट्री सा सम्यग्दर्शनवाक्। तद्विपरीता मिथ्यादर्शनवाक्।</span> = <span class="HindiText"><br> | ||
हिंसादि से विरक्त मुनि या श्रावक को हिंसादि का दोष लगाना '''[[अभ्याख्यान]]''' है । '''[[कलह]]''' का अर्थ स्पष्ट ही है। पीठ पीछे दोष दिखाना '''[[ | हिंसादि से विरक्त मुनि या श्रावक को हिंसादि का दोष लगाना '''[[अभ्याख्यान]]''' है । '''[[कलह]]''' का अर्थ स्पष्ट ही है। पीठ पीछे दोष दिखाना '''[[पैशुन्य]]''' है | धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष इन चार पुरुषार्थों के संबंध से रहित वचन असंबद्ध प्रलाप है। इंद्रियों के शब्दादि विषयों में या देश नगर आदि में रति उत्पन्न करने वाला '''रतिवाक्''' है। इन्हीं में अरति उत्पन्न करने वाला '''अरतिवाक्''' है। जिसे सुनकर परिग्रह के अर्जन, रक्षण आदि में आसक्ति उत्पन्न हो वह '''उपधिवाक्''' है। जिससे व्यापार में ठगने को प्रोत्साहन मिले वह '''निकृतिवाक्''' है। जिसे सुनकर तपोनिधि या गुणी जीवों के प्रति अविनय की प्रेरणा मिले वह '''[[अप्रणतिवाक्]]''' है। जिससे चोरी में प्रवृत्ति हो वह '''मोषवाक्''' है। सम्यक् मार्गप्रवर्तक उपदेश '''सम्यग्दर्शनवाक्''' है और मिथ्यामार्ग प्रवर्तक उपदेश '''मिथ्यादर्शनवाक्''' है। <span class="GRef"> (धवला 1/1, 1, 2/116/12 ; (घ. 9/4, 1, 45/217/3); (गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/365/778/19)। </span><br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> गर्हित सावद्य व अप्रिय वचन</strong> </span><br /> | <li class="HindiText"><strong name="1.3" id="1.3"> गर्हित सावद्य व अप्रिय वचन</strong> </span><br /> | ||
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<li class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1"> वचनयोग सामान्य का लक्षण</strong> </span><br /> | <li class="HindiText"><strong name="2.1" id="2.1"> वचनयोग सामान्य का लक्षण</strong> </span><br /> | ||
<span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/6/1/318/9 </span><span class="SanskritText">शरीरनामकर्मोदयापादितवाग्वर्गणालंबने सति वीर्यांतरायमत्यक्षराद्यावरण- क्षयोपशमापादिताभ्यंतरवाग्लब्धिसांनिध्ये वाक्परिणामाभिमुखस्यात्मनः प्रदेशपरिस्पंदो वाग्योगः।</span> = <span class="HindiText">शरीर नामकर्म के उदय से प्राप्त हुई वचनवर्गणाओं का आलंबन होने पर तथा वीर्यांतराय और मत्यक्षरादि आवरण के क्षयोपशम से प्राप्त हुई भीतरी वचन लब्धि के मिलने पर वचनरूप पर्याय के अभिमुख हुए आत्मा के होने वाला प्रदेश-परिस्पंद वचनयोग कहलाता है। <span class="GRef">( राजवार्तिक/6/1/10/505/13 )</span>। </span><br /> | <span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/6/1/318/9 </span><span class="SanskritText">शरीरनामकर्मोदयापादितवाग्वर्गणालंबने सति वीर्यांतरायमत्यक्षराद्यावरण- क्षयोपशमापादिताभ्यंतरवाग्लब्धिसांनिध्ये वाक्परिणामाभिमुखस्यात्मनः प्रदेशपरिस्पंदो वाग्योगः।</span> = <span class="HindiText">शरीर नामकर्म के उदय से प्राप्त हुई वचनवर्गणाओं का आलंबन होने पर तथा वीर्यांतराय और मत्यक्षरादि आवरण के क्षयोपशम से प्राप्त हुई भीतरी वचन लब्धि के मिलने पर वचनरूप पर्याय के अभिमुख हुए आत्मा के होने वाला प्रदेश-परिस्पंद वचनयोग कहलाता है। <span class="GRef">( राजवार्तिक/6/1/10/505/13 )</span>। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1, 1, 47/279/2 </span><span class="SanskritText">वचसः समुत्पत्त्यर्थः प्रयत्नो वाग्योगः। </span | <span class="GRef"> धवला 1/1, 1, 47/279/2 </span><span class="SanskritText">वचसः समुत्पत्त्यर्थः प्रयत्नो वाग्योगः। </span> | ||
<span class="GRef"> धवला 1/1, 1, 65/308/5 </span><span class="SanskritText">चतुर्णां वचसां सामान्यं वचः। तज्जनितवीर्येणात्मप्रदेशपरिस्पंदलक्षणेन योगो वाग्योगः। </span>=<span class="HindiText"> वचन की उत्पत्ति के लिए जो प्रयत्न होता है, उसे वचनयोग कहते हैं। अथवा सत्यादि चार प्रकार के वचनों में जो अन्वय रूप से रहता है, उसे सामान्य वचन कहते हैं। उस वचन से उत्पन्न हुए आत्मप्रदेश परिस्पंद लक्षण वीर्य के द्वारा जो योग होता है उसे वचनयोग कहते हैं। </span><br /> | <span class="GRef"> धवला 1/1, 1, 65/308/5 </span><span class="SanskritText">चतुर्णां वचसां सामान्यं वचः। तज्जनितवीर्येणात्मप्रदेशपरिस्पंदलक्षणेन योगो वाग्योगः। </span>=<span class="HindiText"> वचन की उत्पत्ति के लिए जो प्रयत्न होता है, उसे वचनयोग कहते हैं। अथवा सत्यादि चार प्रकार के वचनों में जो अन्वय रूप से रहता है, उसे सामान्य वचन कहते हैं। उस वचन से उत्पन्न हुए आत्मप्रदेश परिस्पंद लक्षण वीर्य के द्वारा जो योग होता है उसे वचनयोग कहते हैं। </span><br /> | ||
<span class="GRef"> धवला 7/2, 1, 33/76/7 </span><span class="PrakritText">भासावग्गणापोग्गलखंधे अवलंबिय जीवपदेसाणं संकोचविकोचो सो वचिजोगो णाम। </span>= <span class="HindiText">भाषावर्गणासंबंधी पुद्गलस्कंधों के अवलंबन से जो जीव प्रदेशों का संकोच विकोच होता है वह वचन योग है। <span class="GRef">( धवला 10/4, 2, 4, 175/437/10 )</span>। <br /> | <span class="GRef"> धवला 7/2, 1, 33/76/7 </span><span class="PrakritText">भासावग्गणापोग्गलखंधे अवलंबिय जीवपदेसाणं संकोचविकोचो सो वचिजोगो णाम। </span>= <span class="HindiText">भाषावर्गणासंबंधी पुद्गलस्कंधों के अवलंबन से जो जीव प्रदेशों का संकोच विकोच होता है वह वचन योग है। <span class="GRef">( धवला 10/4, 2, 4, 175/437/10 )</span>। <br /> |
Latest revision as of 21:13, 27 February 2024
- वचन सामान्य निर्देश
- कर्कश आदि तथा आमंत्रणी आदि भेद।−देखें भाषा 5।
- हित-मित तथा मधुर-कटु संभाषण।−देखें सत्य - 2।
- देखें सत्य व असत्य वचन।
- द्रव्य व भाव वचन तथा उनका मूर्तत्व।−देखें मूर्त - 2.3।
- वचन की प्रामाणिकता संबंधी।−देखें आगम - 5, 6।
- कर्कश आदि तथा आमंत्रणी आदि भेद।−देखें भाषा 5।
- वचनयोग निर्देश
- वचन योग व वचन दंड का विषय।−देखें योग ।
- मरण या व्याघात के साथ ही वचन योग भी समाप्त हो जाता है।−देखें मनोयोग - 7।
- केवली के वचनयोग की संभावना।−देखें केवली - 5।
- वचनयोग संबंधी गुणस्थान मार्गणा स्थानादि 20 प्ररूपणाएँ।−देखें सत् ।
- सत् संख्या आदि 8 प्ररूपणाएँ ।−देखें वह वह नाम।
- वचनयोगी के कर्मों का बंध उदय सत्व।−देखें वह वह नाम ।
- वचन योग व वचन दंड का विषय।−देखें योग ।
- वचन सामान्य निर्देश
- वचन के अभ्याख्यान आदि 12 भेद
षट्खण्डागम 12/4, 2, 8/सूत्र 10/285 अब्भक्खाण-कलह-पेसुण्ण-रइ-अरइ-उवहि-णियदि- माण-माय-मोस-मिच्छणाण-मिच्छादंसण-पओअ-पच्चए। = अभ्याख्यान, कलह, पैशुन्य, रति, अरति, उपधि, निकृति, मान, मेय, मोष, मिथ्याज्ञान, मिथ्यादर्शन और प्रयोग इन प्रत्ययों से ज्ञानावरणीय वेदना होती है।
राजवार्तिक/1/20/12/75/10 वाक्प्रयोगः शुभेतरलक्षणो वक्ष्यते। अभ्याख्यानकलहपैशुन्यासंबद्धप्रलापरत्यपरत्युपधिनिकृत्यप्रणतिमोषसम्यङ्मिथ्यादर्शनात्मिका भाषा द्वादशधा। = शुभ और अशुभ के भेद से वाक्प्रयोग दो प्रकार का है। अभ्याख्यान, कलह, पैशुन्य, असंबद्धप्रलाप, रति, अरति, उपधि, निकृति, अप्रणति, मोष, सम्यग्दर्शन और मिथ्यादर्शन के भेद से भाषा 12 प्रकार की है। ( धवला 1, 1, 2/116/10 ); ( धवला 9/4, 1, 45/217/1 ); ( गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/365/778/20 )।
- अभ्याख्यान आदि भेदों के लक्षण
राजवार्तिक/1/20/12/75/12 हिंसादेः कर्मणः कर्तुर्विरतस्य विरताविरतस्य वायमस्य कर्तेत्यभिधानम् अभ्याख्यानम्। कलहः प्रतीतः। पृष्ठतो दोषाविष्करणं पैशुन्यम्। धर्मार्थकाममोक्षासंबद्धा, वाग् असंबद्धप्रलापः। शब्दादिविषयदेशादिषु रत्युत्पादिका, रतिवाक्। तेष्वेवारत्युत्पादिका अरतिवाक्। यां वाचं श्रुत्वा परिग्रहार्जनरक्षणादिष्वासज्यते सोपधिवाक्। बणिग्व्यवहारे यामवधार्य निकृतिप्रणव आत्मा भवति सा निकृतिवाक्। यां श्रुत्वा तपोविज्ञानाधिकेष्वपि न प्रणमति सा अप्रणतिवाक्। यां श्रुत्वा स्तेये वर्तते सा मोषवाक्। सम्यङ्मार्गस्योपदेष्ट्री सा सम्यग्दर्शनवाक्। तद्विपरीता मिथ्यादर्शनवाक्। =
हिंसादि से विरक्त मुनि या श्रावक को हिंसादि का दोष लगाना अभ्याख्यान है । कलह का अर्थ स्पष्ट ही है। पीठ पीछे दोष दिखाना पैशुन्य है | धर्म, अर्थ, काम व मोक्ष इन चार पुरुषार्थों के संबंध से रहित वचन असंबद्ध प्रलाप है। इंद्रियों के शब्दादि विषयों में या देश नगर आदि में रति उत्पन्न करने वाला रतिवाक् है। इन्हीं में अरति उत्पन्न करने वाला अरतिवाक् है। जिसे सुनकर परिग्रह के अर्जन, रक्षण आदि में आसक्ति उत्पन्न हो वह उपधिवाक् है। जिससे व्यापार में ठगने को प्रोत्साहन मिले वह निकृतिवाक् है। जिसे सुनकर तपोनिधि या गुणी जीवों के प्रति अविनय की प्रेरणा मिले वह अप्रणतिवाक् है। जिससे चोरी में प्रवृत्ति हो वह मोषवाक् है। सम्यक् मार्गप्रवर्तक उपदेश सम्यग्दर्शनवाक् है और मिथ्यामार्ग प्रवर्तक उपदेश मिथ्यादर्शनवाक् है। (धवला 1/1, 1, 2/116/12 ; (घ. 9/4, 1, 45/217/3); (गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/365/778/19)।
- गर्हित सावद्य व अप्रिय वचन
भगवती आराधना/830-832 कक्कस्सवयणं णिठ्टुरवयणं पेसुण्णहासवयणं च। जं किंचि विप्पलावं कहिंद्रवयणं समासेण।830। जत्तो पाणवघादी दोसा जायति सावज्जवयणं च। अविचारित्ता थेणं थेणत्ति जहेवमादीयं।831। परुसं कडुयं वयणं वेरं कलहं च जं भयं कुणइ। उत्तासणं च हीलणमप्पियवयणं समासेण।832। = कर्कश-वचन, निष्ठुर भाषण, पैशुन्य के वचन, उपहास का वचन, जो कुछ भी बड़बड़ करना, ये सब संक्षेप से गर्हित वचन हैं।830। [छेदन-भेदन आदि के ( पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय ) जिन वचनों से प्राणिवध आदि दोष उत्पन्न हों अथवा बिना विचारे बोले गये, प्राणियों की हिंसा के कारणभूत वचन सावद्य वचन हैं। जैसे−(इस सड़े सरोवर में) इस भैंस को पानी पिलाओ।831। परुष वचन जैसे - तू दुष्ट है, कटु वचन, वैर उत्पन्न करने वाले वचन, कलहकारी वचन, भयकारी या त्रासकारी वचन, दूसरों की अवज्ञाकारी होलन वचन तथा अप्रिय वचन संक्षेप से असत्य वचन हैं। पुरुषार्थ-सिद्ध्युपाय/96-98 ।
- मोष वचन चोरी में अंतर्भूत नहीं है
धवला 12/4, 2, 8, 10/286/3 मोषः स्तेयः। ण मोसो अदत्तादाणे पविस्सदि, हदपदिदपमुक्कणिहिदादाणविसयम्मि अदत्तादाणम्मि एदस्स पवेसविरोहादो। = मोष का अर्थ चोरी है। यह मोष अदत्तादान में प्रविष्ट नहीं होता, क्योंकि हृत, पतित, प्रमुक्त और निहित पदार्थ के ग्रहण विषयक अदत्तादान में इसके प्रवेश का विरोध है।
- वचन के अभ्याख्यान आदि 12 भेद
- वचनयोग निर्देश
- वचनयोग सामान्य का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/6/1/318/9 शरीरनामकर्मोदयापादितवाग्वर्गणालंबने सति वीर्यांतरायमत्यक्षराद्यावरण- क्षयोपशमापादिताभ्यंतरवाग्लब्धिसांनिध्ये वाक्परिणामाभिमुखस्यात्मनः प्रदेशपरिस्पंदो वाग्योगः। = शरीर नामकर्म के उदय से प्राप्त हुई वचनवर्गणाओं का आलंबन होने पर तथा वीर्यांतराय और मत्यक्षरादि आवरण के क्षयोपशम से प्राप्त हुई भीतरी वचन लब्धि के मिलने पर वचनरूप पर्याय के अभिमुख हुए आत्मा के होने वाला प्रदेश-परिस्पंद वचनयोग कहलाता है। ( राजवार्तिक/6/1/10/505/13 )।
धवला 1/1, 1, 47/279/2 वचसः समुत्पत्त्यर्थः प्रयत्नो वाग्योगः। धवला 1/1, 1, 65/308/5 चतुर्णां वचसां सामान्यं वचः। तज्जनितवीर्येणात्मप्रदेशपरिस्पंदलक्षणेन योगो वाग्योगः। = वचन की उत्पत्ति के लिए जो प्रयत्न होता है, उसे वचनयोग कहते हैं। अथवा सत्यादि चार प्रकार के वचनों में जो अन्वय रूप से रहता है, उसे सामान्य वचन कहते हैं। उस वचन से उत्पन्न हुए आत्मप्रदेश परिस्पंद लक्षण वीर्य के द्वारा जो योग होता है उसे वचनयोग कहते हैं।
धवला 7/2, 1, 33/76/7 भासावग्गणापोग्गलखंधे अवलंबिय जीवपदेसाणं संकोचविकोचो सो वचिजोगो णाम। = भाषावर्गणासंबंधी पुद्गलस्कंधों के अवलंबन से जो जीव प्रदेशों का संकोच विकोच होता है वह वचन योग है। ( धवला 10/4, 2, 4, 175/437/10 )।
- वचनयोग के भेद
षट्खण्डागम 1/9, 1/सूत्र 52/286 वचिजोगो चउव्विहो सच्चवचिजोगो मोसवचिजोगो सच्चमोसवचिजोगो असच्चमोसवचिजोगो चेदि।52। = वचनयोग चार प्रकार का है−सत्य वचन योग, असत्य वचनयोग, उभयवचन योग और अनुभय वचन योग।52। ( भगवती आराधना मूल/1192/1188); (मूलाचार/314); ( राजवार्तिक/9/7/11/604/2 ); ( गोम्मटसार जीवकांड मूल/217/474); ( द्रव्यसंग्रह टीका/13/ 37/7 )।
- वचनयोग के भेदों के लक्षण
पंचसंग्रह / प्राकृत/1/91-92 दसविहसच्चे वयणे जो जोगो सो दु सच्चवचिजोगो। तव्विवरीओ मोसो जाणुभयं सच्चमोस त्ति।91। जो णेव सच्चमोसो तं जाण असुच्चमोसवचिजोगो। अमणाणं जा भासा सण्णीणामंतणीयादी।92। = दस प्रकार के सत्य वचन में (देखें सत्य ) वचनवर्गणा के निमित्त से जो योग होता है, उसे सत्य वचनयोग कहते हैं। इससे विपरीत योग को मृषा वचनयोग कहते हैं। सत्य और मृषा वचनरूप योग को उभयवचनयोग कहते हैं। जो वचनयोग न तो सत्य रूप हो और न मृषा रूप ही हो, उसे असत्यमृषावचनयोग कहते हैं। असंज्ञी जीवों की जो अनक्षररूप भाषा है और संज्ञी जीवों की जो आमंत्रणी आदि भाषाएँ हैं (देखें भाषा ) उन्हें अनुभय भाषा जानना चाहिए। (मूलाचार/314); ( धवला 1/1, 1, 52/गाथा 158-159/286); ( गोम्मटसार जीवकांड/220-221/478 )।
धवला 1/1, 1, 52/286 चतुर्विधमनोभ्यः समुत्पन्नवचनानि चतुर्विधान्यपि तद्वयपदेशं प्रतिलभंते तथा प्रतीयते च। = चार प्रकार के मन से उत्पन्न हुए चार प्रकार के वचन भी उन्हीं संज्ञाओं को प्राप्त होते हैं और ऐसी प्रतीति भी होती है।
गोम्मटसार जीवकांड / जीवतत्त्व प्रदीपिका/217/475/5 सत्याद्यर्थैः सहयोगात्-संबंधात्, खलु स्फुटं, ताः मनोवचनप्रवृत्तयः, तद्योगाः सत्यादिविशेषणविशिष्टाः, चत्वारो मनोयोगाश्चत्वारो वाग्योगाश्च भवंति। = सत्यादि पदार्थ के संबंध से जो मन व वचन की प्रवृत्ति होती है, वह सत्यादि विशेषण से विशिष्ट चार प्रकार के मनोयोग व वचनयोग हैं।−विशेष देखें मनोयोग - 4।
- शुभ - अशुभ वचनयोग
बारस अणुवेक्खा/53, 55 भत्तिच्छिरायचोरकहाओ वयणं वियाण असुहमिदि।53। संसारछेदकारणवयणं सुहवयणमिदि जिणुद्दिट्ठं।55। = भोजनकथा, स्त्रीकथा, राजकथा और चोरकथा करने को अशुभवचनयोग और संसार का नाश करने वाले वचनों को शुभ वचनयोग जानना चाहिए।
देखें प्रणिधान (निरर्थक अशुद्ध वचन का प्रयोग दुष्ट प्रणिधान है।)
राजवार्तिक/6/3/1, 2/ पृष्ठ/पंक्ति अनृतभाषणपरुषासत्यवचनादिरशुभो वाग्योगः। (506/33)। सत्यहितमितभाषणादिः शुभो वाग्योगः। (507/2)। = असत्य बोलना, कठोर बोलना आदि अशुभ वचनयोग हैं और सत्य हित मित बोलना शुभ वचनयोग है। ( सर्वार्थसिद्धि/6/3/619/11 )।
- वचनयोग सामान्य का लक्षण