शल्य: Difference between revisions
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<p><span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/7/18/356/6 </span><span class="SanskritText">शृणाति हिनस्तीति शल्यम् । शरीरानुप्रवेशि कांडादि प्रहरणं शल्यमिव शल्यं यथा तत् प्राणिनो बाधाकरं तथा शारीरमानसबाधाहेतुत्वात्कर्मोदयविकार: शल्यमित्युपचर्यते।</span> = | <p><span class="GRef"> सर्वार्थसिद्धि/7/18/356/6 </span><span class="SanskritText">शृणाति हिनस्तीति शल्यम् । शरीरानुप्रवेशि कांडादि प्रहरणं शल्यमिव शल्यं यथा तत् प्राणिनो बाधाकरं तथा शारीरमानसबाधाहेतुत्वात्कर्मोदयविकार: शल्यमित्युपचर्यते।</span> = | ||
<span class="HindiText">‘शृणाति हिनस्ति इति शल्यम्’ यह शल्य शब्द की व्युत्पत्ति है। शल्य का अर्थ है पीड़ा देने वाली वस्तु। जब शरीर में काँटा आदि चुभ जाता है तो वह शल्य कहलाता है। यहाँ उसके समान जो पीड़ाकर भाव वह शल्य शब्द से लिया गया है। जिस प्रकार काँटा आदि शल्य प्राणियों को बाधाकर होती है उसी प्रकार शरीर और मन संबंधी बाधा का कारण होने से कर्मोदय जनित विकार में भी शल्य का उपचार कर लेते हैं। अर्थात् उसे भी शल्य कहते हैं। | <span class="HindiText">‘शृणाति हिनस्ति इति शल्यम्’ यह शल्य शब्द की व्युत्पत्ति है। शल्य का अर्थ है पीड़ा देने वाली वस्तु। जब शरीर में काँटा आदि चुभ जाता है तो वह शल्य कहलाता है। यहाँ उसके समान जो पीड़ाकर भाव वह शल्य शब्द से लिया गया है। जिस प्रकार काँटा आदि शल्य प्राणियों को बाधाकर होती है उसी प्रकार शरीर और मन संबंधी बाधा का कारण होने से कर्मोदय जनित विकार में भी शल्य का उपचार कर लेते हैं। अर्थात् उसे भी शल्य कहते हैं। <span class="GRef">( राजवार्तिक/1/18/1-2/545/29 )</span>।</span></p> | ||
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<li>मिथ्यादर्शनशल्य, मायाशल्य और निदानशल्य ऐसे शल्य के तीन दोष हैं। | <li>मिथ्यादर्शनशल्य, मायाशल्य और निदानशल्य ऐसे शल्य के तीन दोष हैं। <span class="GRef">( भगवती आराधना/1214/1213 )</span>; <span class="GRef">( सर्वार्थसिद्धि/7/18/356/8 )</span>; <span class="GRef">( राजवार्तिक/7/183/545/33 )</span>; <span class="GRef">( भगवती आराधना / विजयोदया टीका/25/88/24 )</span>; <span class="GRef">( द्रव्यसंग्रह टीका/42/183/10 )</span>। </li> | ||
<li>अथवा द्रव्य शल्य और भावशल्य ऐसे शब्द के दो भेद जानने चाहिए।538। | <li>अथवा द्रव्य शल्य और भावशल्य ऐसे शब्द के दो भेद जानने चाहिए।538। <span class="GRef">( भगवती आराधना / विजयोदया टीका/25/88/24 )</span>। </li> | ||
<li>भाव शल्य के तीन भेद हैं - दर्शन, ज्ञान, चारित्र और योग। द्रव्य शल्य के तीन भेद हैं - सचित्तशल्य, अचितशल्य और मिश्रशल्य।539।</li> | <li>भाव शल्य के तीन भेद हैं - दर्शन, ज्ञान, चारित्र और योग। द्रव्य शल्य के तीन भेद हैं - सचित्तशल्य, अचितशल्य और मिश्रशल्य।539।</li> | ||
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<p id="2">(2) जरासंध का पक्षधर एक विद्याधर राजा । इसने प्रयुक्त के साथ युद्ध किया था। इसके रथ के घोड़े लाल और ध्वजा पर हल्की लकीरें थी। अंत में यह युधिष्ठिर द्वारा युद्ध में मार डाला गया था। <span class="GRef"> महापुराण 71.78, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 51.30, </span><span class="GRef"> पांडवपुराण 19.119, 175, 20.239 </span></p> | <p id="2" class="HindiText">(2) जरासंध का पक्षधर एक विद्याधर राजा । इसने प्रयुक्त के साथ युद्ध किया था। इसके रथ के घोड़े लाल और ध्वजा पर हल्की लकीरें थी। अंत में यह युधिष्ठिर द्वारा युद्ध में मार डाला गया था। <span class="GRef"> महापुराण 71.78, </span><span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_51#30|हरिवंशपुराण - 51.30]], </span><span class="GRef"> पांडवपुराण 19.119, 175, 20.239 </span></p> | ||
<p id="3">(3) राम का पक्षधर एक राजा। यह विशुद्ध कुल में उत्पन्न हुआ था। इसने जीर्णतृण के समान राज्य त्याग करके महाव्रत धारण कर लिये थे। आयु के अंत में इसने परमात्म पद पाया। <span class="GRef"> पद्मपुराण 54.56, 88.1-3, 7-9 </span></p> | <p id="3" class="HindiText">(3) राम का पक्षधर एक राजा। यह विशुद्ध कुल में उत्पन्न हुआ था। इसने जीर्णतृण के समान राज्य त्याग करके महाव्रत धारण कर लिये थे। आयु के अंत में इसने परमात्म पद पाया। <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_54#56|पद्मपुराण - 54.56]],[[ग्रन्थ:पद्मपुराण_-_पर्व_54#88|पद्मपुराण - 54.88]].1-3, 7-9 </span></p> | ||
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Latest revision as of 12:59, 1 March 2024
सिद्धांतकोष से
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शल्य सामान्य का लक्षण
सर्वार्थसिद्धि/7/18/356/6 शृणाति हिनस्तीति शल्यम् । शरीरानुप्रवेशि कांडादि प्रहरणं शल्यमिव शल्यं यथा तत् प्राणिनो बाधाकरं तथा शारीरमानसबाधाहेतुत्वात्कर्मोदयविकार: शल्यमित्युपचर्यते। = ‘शृणाति हिनस्ति इति शल्यम्’ यह शल्य शब्द की व्युत्पत्ति है। शल्य का अर्थ है पीड़ा देने वाली वस्तु। जब शरीर में काँटा आदि चुभ जाता है तो वह शल्य कहलाता है। यहाँ उसके समान जो पीड़ाकर भाव वह शल्य शब्द से लिया गया है। जिस प्रकार काँटा आदि शल्य प्राणियों को बाधाकर होती है उसी प्रकार शरीर और मन संबंधी बाधा का कारण होने से कर्मोदय जनित विकार में भी शल्य का उपचार कर लेते हैं। अर्थात् उसे भी शल्य कहते हैं। ( राजवार्तिक/1/18/1-2/545/29 )।
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शल्य के भेद
भगवती आराधना/538-539/754-755 मिच्छादंसणसल्लं मायासल्लं णिदाणसल्लं च। अहवा सल्लं दुविहं दव्वे भावे य बोधव्वं।538। तिविहं तु भावसल्लं दंसणणाणे चरित्तजोगे य। सच्चित्ते य मिस्सगे वा वि दव्वम्मि।539।
- मिथ्यादर्शनशल्य, मायाशल्य और निदानशल्य ऐसे शल्य के तीन दोष हैं। ( भगवती आराधना/1214/1213 ); ( सर्वार्थसिद्धि/7/18/356/8 ); ( राजवार्तिक/7/183/545/33 ); ( भगवती आराधना / विजयोदया टीका/25/88/24 ); ( द्रव्यसंग्रह टीका/42/183/10 )।
- अथवा द्रव्य शल्य और भावशल्य ऐसे शब्द के दो भेद जानने चाहिए।538। ( भगवती आराधना / विजयोदया टीका/25/88/24 )।
- भाव शल्य के तीन भेद हैं - दर्शन, ज्ञान, चारित्र और योग। द्रव्य शल्य के तीन भेद हैं - सचित्तशल्य, अचितशल्य और मिश्रशल्य।539।
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शल्य के भेदों के लक्षण
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/25/88/24 मिथ्यादर्शनमायानिदानशल्यानां कारणं कर्म द्रव्यशल्यं। = मिथ्यादर्शन, माया, निदान ऐसे तीन शल्यों की जिनसे उत्पत्ति होती है ऐसे कारणभूत कर्म को द्रव्यशल्य कहते हैं। इनके उदय से जीव के माया, मिथ्या व निदान रूप परिणाम होते हैं वे भावशल्य हैं।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/539/755/13 दर्शनस्य शल्यं शंकादि। ज्ञानस्य शल्यं अकाले पठनं अविनयादिकं च। चारित्रस्य शल्यं समिति–गुप्त्योरनादर:। योगस्य...असंयमपरिणमनं। तपसश्चारित्रे अंतर्भावविवक्षया तिविहमित्युक्तम् ।...सचित्त द्रव्यशल्यं दासादि। अचित्त द्रव्यशल्यं सुवर्णादि।...विमिश्र द्रव्यशल्यं ग्रामादि। = शंका कांक्षा आदि सम्यग्दर्शन के शल्य हैं। अकाल में पढ़ना और अविनयादिक करना ज्ञान के शल्य हैं। समिति और गुप्तियों में अनादर रहना चारित्रशल्य है। असंयम में प्रवृत्ति होना योगशल्य है। तपश्चरण का चारित्र में अंतर्भाव होने से भावशल्य के तीन भेद कहे हैं। दासादिक सचित्त द्रव्य शल्य है, सुवर्ण वगैरह पदार्थ अचित शल्य हैं और ग्रामादिक मिश्र शल्य है।
द्रव्यसंग्रह टीका/42/183/10 बहिरंगबकवेषेण यल्लोकरंजना करोति तन्मायाशल्यं भण्यते। निजनिरंजननिर्दोषपरमात्मैवोपोदेय इति रुचिरूपसम्यक्त्वाद्विलक्षणं मिथ्याशल्यं भण्यते।...दृष्टश्रुतानुभूतभागेषु यन्नियतम् निरंतरम् चित्तम् ददाति तन्निदानशल्यमभिधीयते। = यह जीव बाहर में बगुले जैसे वेष धारणकर, लोक को प्रसन्न करता है, वह माया शल्य कहलाती है। ‘अपना निरंजन दोष रहित परमात्मा ही उपादेय है’ ऐसी रुचि रूप सम्यक्त्व से विलक्षण मिथ्याशल्य कहलाती है।...देखे सुने और अनुभव में आये हुए भोगों में जो निरंतर चित्त को देता है, वह निदान-शल्य है। और भी–देखें वह वह नाम ।
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बाहुबलि जी को भी शल्य थी
भावपाहुड़/ मूल/44 देहादिचत्त संगो माणकसाएण कलुसिओ धीर। अत्तावणेण जादो बाहुबली कित्तियं कालं।44। = बाहुबली जी ने देहादिक से समस्त परिग्रह छोड़ दिया और निर्ग्रंथ पद धारण किया। तो भी मान कषाय रूप परिणाम के कारण कितने काल आतापन योग से रहने पर भी सिद्धि नहीं पायी।44।
आत्मानुशासन/217 चक्रं विहाय निजदक्षिणबाहुसंस्थं यत्प्राव्रजन्ननु तदैव स तेन मुंचेत् । क्लेशं तमाप किल बाहुबली चिराय मानो मनागपि हर्ति महतीं करोति।217। = अपनी दाहिनी भुजा पर स्थित चक्र को छोड़कर जिस समय बाहुबली ने दीक्षा धारण की थी उस समय उन्हें तप के द्वारा मुक्त हो जाना चाहिए था। परंतु वे चिरकाल उस क्लेश को प्राप्त हुए। सो ठीक है थोड़ा-सा भी मान बड़ी भारी हानि करता है।
महापुराण/16/6 सुनंदायां महाबाहु: अहमिंद्रो दिवोऽग्रत:। च्युत्वा बाहुबलीत्यासीत् कुमारोऽमरसंनिभ:।6।
महापुराण/36/ श्लोक–श्रुतज्ञानेन विश्वांगपूर्ववित्त्वादिविस्तर:।146। परमावधिमुल्ल्ंघयस सर्वावधिमासदत् । मन:पर्ययबोधे च संप्रापद् विपुलां मतिम् ।147। संक्लिष्टोभरताधीश: सोऽस्मत इति यत्किल। हृद्यस्य हार्दं तेनासीत् तत्पूजाऽपेक्षि केवलम् ।186। = आनंद पुरोहित का जीव जो पहले महाबाहु था सर्वार्थसिद्धि से च्युत होकर सुनंदा के बाहुबली हुआ।6। (अत: नियम से सम्यग्दृष्टि थे) बाहुबली की दीक्षा के पश्चात् श्रुतज्ञान बढ़ने से समस्त अंगों तथा पूर्वों को जानने की शक्ति बढ़ गयी थी।146। वे अवधिज्ञान में परमावधि को उल्लंघन कर सर्वावधि को प्राप्त हुए थे तथा मन:पर्यय ज्ञान में विपुलमति मन:पर्यय ज्ञान को प्राप्त हुए थे।147। (अत: सम्यग्दर्शन में कमी बताना युक्त नहीं)। वह भरतेश्वर मुझ से संक्लेश को प्राप्त हुआ यह विचार बाहुबली के हृदय में विद्यमान था, इसलिए केवलज्ञान ने भरत की पूजा की अपेक्षा की थी।186।
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अन्य संबंधित विषय
- यह एक विद्याधर था। कौरवों की तरफ से पांडवों के साथ लड़ाई की (19/116) उस युद्ध में युधिष्ठिर के हाथों मारा गया (20/239)। पांडवपुराण/ सर्ग/श्लोक
पुराणकोष से
(1) यादवों का पक्षधर एक महारथी राजा। हरिवंशपुराण - 50.79
(2) जरासंध का पक्षधर एक विद्याधर राजा । इसने प्रयुक्त के साथ युद्ध किया था। इसके रथ के घोड़े लाल और ध्वजा पर हल्की लकीरें थी। अंत में यह युधिष्ठिर द्वारा युद्ध में मार डाला गया था। महापुराण 71.78, हरिवंशपुराण - 51.30, पांडवपुराण 19.119, 175, 20.239
(3) राम का पक्षधर एक राजा। यह विशुद्ध कुल में उत्पन्न हुआ था। इसने जीर्णतृण के समान राज्य त्याग करके महाव्रत धारण कर लिये थे। आयु के अंत में इसने परमात्म पद पाया। पद्मपुराण - 54.56,पद्मपुराण - 54.88.1-3, 7-9