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ग्रन्थ:हरिवंश पुराण - सर्ग 51

From जैनकोष



अथानंतर इसी बीच में वसुदेव का हित चाहने वाले नीचे लिखे समस्त विद्याधर एक साथ मिलकर समुद्रविजय के पास आ पहुंचे ॥1 ॥ वसुदेव का श्वसुर अशनिवेग, हरिग्रीव, वराहक, सिंहदंष्ट्र, महापुरुषार्थी विद्युद्वेग, मानसवेग, विद्युदृंष्ट्र, पिंगलगांधार और नारसिंह इन्हें आदि लेकर आर्य और मातंगजाति के अनेक विद्याधर राजा श्रीकृष्ण को भलाई के लिए आ पहुंचे और वसुदेव को आगे कर राजा समुद्रविजय से जा मिले ॥2-4॥ समुद्रविजय आदि उनका यथायोग्य सम्मान कर हर्षितचित्त होते हुए कहने लगे कि अब हम लोग कृतार्थ हो गये ॥5॥ उन आगत विद्याधरों ने कहा कि इस युद्ध से वसुदेव के विरोधी विद्याधरों में बड़ा क्षोभ हो रहा है और वे जरासंध की कार्यसिद्धि के लिए आने वाले हैं ॥6॥ यह सुनकर सब यादवों ने परस्पर सलाह को और विद्याधरों को शांत करने के लिए उन्होंने उन्हीं विद्याधरों के साथ प्रद्युम्न, शंब एवं अनेक पुत्रों-सहित वसुदेव को विजयार्ध के लिए छोड़ा ॥7॥ वसुदेव भी भगवान् नेमिनाथ, कृष्ण, बलदेव आदि का आलिंगन कर कुछ पुत्रों, पोतों और विद्याधरों के साथ शीघ्र ही विजयार्ध की ओर चल पड़े ॥8॥ उसी समय कुबेर के द्वारा समर्पित, दिव्य अस्त्रों से परिपूर्ण सिंहविद्या के दिव्य रथ पर बलदेव आरूढ़ हुए ॥9॥ गरुडांकित पताका से सुशोभित कृष्ण, नाना प्रकार के दिव्य अस्त्र-शस्त्रों से पूर्ण विजय प्राप्त कराने वाले गरुड़ विद्या के रथ पर सवार हुए ॥10॥ और भगवान् नेमिनाथ, इंद्र के द्वारा प्रेषित, मातलि नामक सारथी से युक्त, तथा अस्त्र-शस्त्र से पूर्ण रथ पर यादवों की कार्यसिद्धि के लिए आरूढ़ हुए ॥11॥ समुद्रविजय आदि समस्त राजाओं ने वानर की ध्वजा से युक्त, वसुदेव के शूर-वीर पुत्र अनावृष्टि को सेनापति बनाकर उसका अभिषेक किया ॥12॥

उधर राजा जरासंध ने भी हर्षपूर्वक महाबलवान् राजा हिरण्यनाभ को शीघ्र ही सेनापति के पद पर अभिषिक्त किया ॥13॥ दोनों ओर की सेनाओं में युद्ध के समय बजने वाली भेरियाँ और शंख गंभीर शब्द करने लगे तथा दोनों ओर की चतुरंग सेना युद्ध करने के लिए परस्पर एक-दूसरे के सामने आ गयीं ॥14॥ क्रोध को अधिकता से भौंहे टेढ़ी हो जाने के कारण जिनके मुख विषम हो रहे थे ऐसे दोनों पक्ष के राजा परस्पर एक-दूसरे को ललकार कर यथायोग्य युद्ध करने लगे ॥15॥ हाथी हाथियों के साथ, घोड़े घोड़ों के साथ, रथ रथों के साथ और पैदल पैदलों के साथ युद्ध करने लगे ॥16॥ उस समय प्रत्यंचाओं के शब्द, रथों की चीत्कार, हाथियों की गर्जना और योद्धाओं के सिंहनाद से दशों दिशाएं फटी-सी जा रही थीं ॥17॥

तदनंतर शत्रुसेना को प्रबल और अपनी सेना को नष्ट करती देख बैल हाथी और वानर की ध्वजा धारण करने वाले नेमिनाथ, अर्जुन और अनावृष्टि कृष्ण का अभिप्राय जान स्वयं युद्ध करने के लिए उद्यत हुए और चक्रव्यूह के भेदन करने का निश्चय कर पूर्ण तैयारी के साथ आगे बढ़े ॥18-19॥ भगवान् ने शत्रुओं को भय उत्पन्न करने वाला अपना शाक ( इंद्रप्रदत्त ) नामक शंख फूंका, अर्जुन ने देवदत्त और सेनापति अनावृष्टि ने बलाहक नाम का शंख बजाया ॥20॥ तदनंतर इन शंखों के दिगंतव्यापी शब्द सुनकर अपनी सेना में महान् उत्साह उत्पन्न हुआ और शत्रु की सेना में महाभय छा गया ॥21 ॥ सेनापति अनावृष्टि ने चक्रव्यूह का मध्य भाग, भगवान् नेमिनाथ ने दक्षिण भाग और अर्जुन ने पश्चिमोत्तर भाग क्षण-भर में भेद डाला ॥22॥ सेनापति अनावृष्टि का जरासंध के सेनापति हिरण्यनाभ ने, भगवान् नेमिनाथ का रुक्मी ने और धैर्यशाली दुर्योधन ने अर्जुन का सामना किया ॥23॥ तत्पश्चात् अहंकारपूर्ण सेना से युक्त एवं पाँचों प्रकार के शस्त्र बरसाने वाले उन वीरों का यथायोग्य महायुद्ध हुआ ॥24॥ अप्सराओं के समूह के साथ आकाश में दूर खड़ा कलहप्रिय नारद पुष्पवर्षा करता हुआ हर्ष से नाच रहा था ॥25॥ भगवान् नेमिनाथ ने चिरकाल तक युद्ध करने वाले रुक्मी को बाण-वर्षा से नीचे गिराकर हजारों शत्रु राजाओं को युद्ध में तितर-बितर कर दिया ॥26॥ इसी प्रकार समुद्रविजय आदि भाइयों तथा उनके पुत्रों ने युद्ध में पहुंचकर शत्रुओं को मृत्यु के मुख में पहुंचाया ॥27॥ युद्ध में असंख्यात बाणों की वर्षा करने वाले बलदेव और कृष्ण के पुत्रों ने, पर्वतों पर बहुत भारी जलवर्षा करने वाले मेघों के समान शत्रुओं के बीच इच्छानुसार क्रीड़ा की ॥28॥ पुत्रों सहित पांडवों का धृतराष्ट्र के पुत्रों के साथ जो युद्ध हुआ था उसे कहने के लिए कौन समर्थ है ? ॥29॥ युधिष्ठिर शल्य के साथ, भीम दुःशासन के साथ, सहदेव शकुनि के साथ और उलूक नकुल के साथ युद्ध कर रहे थे ॥30॥ तदनंतर दुर्योधन और अर्जुन युद्ध करने के लिए तत्पर हुए सो बाणों के चढ़ाने में चतुर उन दोनों का भूतों को भयभीत करने वाला भयंकर युद्ध हुआ ॥31॥ पांडवों ने युद्ध में धृतराष्ट्र के कितने ही पुत्रों को मार डाला और दुर्योधन आदि कितने ही पुत्रों को जीवित रहते हुए भी मृतक के समान कर दिया ॥32 ॥ कर्ण ने, युद्ध में आये हुए कृष्ण के पक्ष के अनेक योद्धाओं को कान तक खींचे हुए बाणों के समूह से नष्ट कर डाला ॥33॥ उस समय जब दोनों ओर से अनेक प्राणियों का क्षय करने वाला द्वंद्व युद्ध हो रहा था तब दोनों पक्ष के सेनापतियों का नाना प्रकार के शस्त्रों से भयंकर युद्ध हुआ ॥34॥ वीर हिरण्यनाभ ने युद्ध में यादव सेनापति अनावृष्टि को सात-सौ नब्बे बाणों द्वारा सत्ताईस बार घायल किया ॥35 ॥ और बदला लेने में कुशल हिरण्यनाभ ने भी एक हजार बाणों द्वारा उसे सौ बार घायल किया ॥36॥ रुधिर के पुत्र हिरण्यनाभ ने अनावृष्टि की ऊंची ध्वजा छेद डाली और अनावृष्टि ने शीघ्र ही उसके धनुष, छत्र और सारथि को भेद डाला ॥37॥ हिरण्यनाभ ने दूसरा धनुष लेकर बाणों की वर्षा शुरू की और अनावृष्टि ने परिघ फेंककर शत्रु का रथ गिरा दिया ॥38॥ अब हिरण्यनाभ तलवार और ढाल हाथ में ले सामने आया तो अनावृष्टि भी तलवार और ढाल हाथ में ले रथ से उतरकर उसके सामने गया ॥ 39 ॥ तदनंतर प्रहार के बचाने और प्रहार के देने को बहुत भारी कुशलता से युक्त दोनों सेनापतियों में भयंकर खड्ग युद्ध होता रहा ॥40॥

अंत में अनावृष्टि ने हिरण्यनाभ की भुजाओं पर तलवार का घातक प्रहार किया जिससे उसकी दोनों भुजाएँ कट गयीं, छाती फट गयी और वह प्राणरहित हो पृथ्वी पर गिर पड़ा ॥41॥ सेनापति के मरने पर उसको चतुरंग सेना शीघ्र ही भागकर युद्ध में जरासंध की शरण के पहुंची ॥ 42 ॥ तदनंतर सैनिक लोग जिसकी स्तुति कर रहे थे ऐसा अनावृष्टि, संतुष्ट हो शीघ्र ही रथ पर बैठकर बलदेव और कृष्ण के समीप गया ॥ 43 ॥ बलदेव और श्रीकृष्ण ने चक्रव्यूह को भेद ने वाले महापराक्रमी नेमिनाथ, अर्जुन और अनावृष्टि का आलिंगन किया ॥44॥ तदनंतर उधर सूर्यास्त होने पर विषादरूपी विष से दूषित जरासंध की सेना शीघ्र ही अपने निवास स्थान पर चली गयी और इधर जिनराज श्रीनेमिनाथ भगवान की लक्ष्मी से युक्त यादवों की सेना, शत्रु के नाश से अत्यधिक हर्षित एवं लहराते हुए समुद्र के समान झूमती हुई अपने निवास स्थान पर आ गयी ॥45॥

इस प्रकार अरिष्टनेमिपुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में हिरण्यनाभ के वध का वर्णन करने वाला इक्यावनवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥51॥


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