श्रेणिक: Difference between revisions
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<span class="GRef"> महापुराण/74/ श्लोक संख्या </span><br><span class="HindiText">पूर्व भव संख्या 2 में खदीरसार नामक भील था।386। पूर्व भव में सौधर्म स्वर्ग में देव था (406) वर्तमान भव में राजा उपश्रेणिक का पुत्र था (414) मगधदेश का राजा था। उज्जैनी राजधानी थी। पहले बौद्ध था, पीछे अपनी रानी चेलना के उपदेश से जैन हो गया था। और भगवान् महावीर का प्रथम भक्त बन गया था। जिनधर्म पर अपनी दृढ़ आस्था के कारण इसे तीर्थंकर प्रकृति का बंध हो गया था। इसके जीवन का अंतिम भाग बहुत दुखद बीता है, इसके पुत्र ने इसे बंदी बनाकर जेल में डाल दिया था और उसके भय से ही इसने आत्महत्या कर ली थी, जिसके कारण कि यह प्रथम नरक को प्राप्त हुआ। और वहाँ से आकर अगले युग में प्रथम तीर्थंकर होगा। भगवान् वीर के अनुसार इसका समय वी.नि.20 वर्ष से 10 वर्ष पश्चात् तक माना जा सकता है। ई.पू.546-516।</span> | |||
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== पुराणकोष से == | == पुराणकोष से == | ||
<div class="HindiText"> <p id="1"> (1) जंबूद्वीप संबंधी भरतक्षेत्र के मगध देश में राजगृहनगर का राजा । इसके पिता का नाम कुणिक तथा माता का नाम श्रीमती था । इसके उत्तराधिकार के विषय से भागीदारों से होने वाले संकट की आशंका से नगर से निष्कासन के बहाने इसे इसके पिता ने कृत्रिम क्रोध प्रकट करके नंदिग्राम भेज दिया था । इस ग्राम में इसका एक ब्राह्मण की कन्या से विवाह हुआ था । अभयकुमार इसी ब्राह्मणी का पुत्र था । राजा कुणिक ने कुछ समय के पश्चात् इसे राज्य दे दिया था । राजा प्राप्ति के पश्चात् इसका राजा चेटक की पुत्री चेलिनी के साथ विवाह हुआ था । इसके पुत्र का नाम भी कुणिक ही था । बहुत आरंभ और परिग्रह के कारण इसने सातवें नरक की उत्कष्ट आयु का बंध किया था । यह राजगृही के विपुलाचल पर्वत पर आये महावीर के समवसरण में सपरिवार गया था । वहाँ इसने और इसके अक्रूर, वारिषेण, अभयकुमार आदि पुत्रों तथा उनकी रानियों ने सम्यक्त्व प्राप्त किया । इसके प्रभाव से इसका सातवें नरक का आयुबंध प्रथम नरक संबंधी चौरासी हजार वर्ष की स्थिति में बदल गया था । इसे तीर्थंकर प्रकृति का बंध भी हुआ था । वीर के समवसरण में गौतम गणधर से इसे चारों अनुयोगों का ज्ञान हुआ । पहले किये हुए बंध के अनुसार यह मरकर प्रथम नरक गया और वहाँ से निकलकर यह उत्सर्पिणी काल में भरतक्षेत्र का महापद्म नामक प्रथम तीर्थंकर होगा । दूसरे पूर्वभव में यह खदिरसार नामक भील था । इस पर्याय से मुक्त होकर यह सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ था । <span class="GRef"> महापुराण 74. 386-453, 75.20-25, 34, 76.41, </span> | <div class="HindiText"> <p id="1" class="HindiText"> (1) जंबूद्वीप संबंधी भरतक्षेत्र के मगध देश में राजगृहनगर का राजा । इसके पिता का नाम कुणिक तथा माता का नाम श्रीमती था । इसके उत्तराधिकार के विषय से भागीदारों से होने वाले संकट की आशंका से नगर से निष्कासन के बहाने इसे इसके पिता ने कृत्रिम क्रोध प्रकट करके नंदिग्राम भेज दिया था । इस ग्राम में इसका एक ब्राह्मण की कन्या से विवाह हुआ था । अभयकुमार इसी ब्राह्मणी का पुत्र था । राजा कुणिक ने कुछ समय के पश्चात् इसे राज्य दे दिया था । राजा प्राप्ति के पश्चात् इसका राजा चेटक की पुत्री चेलिनी के साथ विवाह हुआ था । इसके पुत्र का नाम भी कुणिक ही था । बहुत आरंभ और परिग्रह के कारण इसने सातवें नरक की उत्कष्ट आयु का बंध किया था । यह राजगृही के विपुलाचल पर्वत पर आये महावीर के समवसरण में सपरिवार गया था । वहाँ इसने और इसके अक्रूर, वारिषेण, अभयकुमार आदि पुत्रों तथा उनकी रानियों ने सम्यक्त्व प्राप्त किया । इसके प्रभाव से इसका सातवें नरक का आयुबंध प्रथम नरक संबंधी चौरासी हजार वर्ष की स्थिति में बदल गया था । इसे तीर्थंकर प्रकृति का बंध भी हुआ था । वीर के समवसरण में गौतम गणधर से इसे चारों अनुयोगों का ज्ञान हुआ । पहले किये हुए बंध के अनुसार यह मरकर प्रथम नरक गया और वहाँ से निकलकर यह उत्सर्पिणी काल में भरतक्षेत्र का महापद्म नामक प्रथम तीर्थंकर होगा । दूसरे पूर्वभव में यह खदिरसार नामक भील था । इस पर्याय से मुक्त होकर यह सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ था । <span class="GRef"> महापुराण 74. 386-453, 75.20-25, 34, 76.41,पपू0 2.71, </span> <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_2#71|हरिवंशपुराण - 2.71]],[[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_2#136|हरिवंशपुराण - 2.136]]-140, 148, </span><span class="GRef"> पांडवपुराण 1. 101-103, 2.11, 87, 96, </span><span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 19.154-157 </span></p> | ||
<p id="2">(2) अयोध्या नगरी के राजा रत्नवीर्य का सेनापति । अयोध्या का चोर रुद्रदत्त चोरी के अपराध में | <p id="2" class="HindiText">(2) अयोध्या नगरी के राजा रत्नवीर्य का सेनापति । अयोध्या का चोर रुद्रदत्त चोरी के अपराध में पकड़े जाने पर इसी सेनापति के द्वारा मारा गया था । <span class="GRef"> [[ग्रन्थ:हरिवंश पुराण_-_सर्ग_18#96|हरिवंशपुराण - 18.96-101]] </span></p> | ||
<p id="3">(3) अनागत प्रथम तीर्थंकर का जीव । <span class="GRef"> महापुराण 76.471 </span></p> | <p id="3" class="HindiText">(3) अनागत प्रथम तीर्थंकर का जीव । <span class="GRef"> महापुराण 76.471 </span></p> | ||
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Latest revision as of 16:50, 3 March 2024
सिद्धांतकोष से
महापुराण/74/ श्लोक संख्या
पूर्व भव संख्या 2 में खदीरसार नामक भील था।386। पूर्व भव में सौधर्म स्वर्ग में देव था (406) वर्तमान भव में राजा उपश्रेणिक का पुत्र था (414) मगधदेश का राजा था। उज्जैनी राजधानी थी। पहले बौद्ध था, पीछे अपनी रानी चेलना के उपदेश से जैन हो गया था। और भगवान् महावीर का प्रथम भक्त बन गया था। जिनधर्म पर अपनी दृढ़ आस्था के कारण इसे तीर्थंकर प्रकृति का बंध हो गया था। इसके जीवन का अंतिम भाग बहुत दुखद बीता है, इसके पुत्र ने इसे बंदी बनाकर जेल में डाल दिया था और उसके भय से ही इसने आत्महत्या कर ली थी, जिसके कारण कि यह प्रथम नरक को प्राप्त हुआ। और वहाँ से आकर अगले युग में प्रथम तीर्थंकर होगा। भगवान् वीर के अनुसार इसका समय वी.नि.20 वर्ष से 10 वर्ष पश्चात् तक माना जा सकता है। ई.पू.546-516।
पुराणकोष से
(1) जंबूद्वीप संबंधी भरतक्षेत्र के मगध देश में राजगृहनगर का राजा । इसके पिता का नाम कुणिक तथा माता का नाम श्रीमती था । इसके उत्तराधिकार के विषय से भागीदारों से होने वाले संकट की आशंका से नगर से निष्कासन के बहाने इसे इसके पिता ने कृत्रिम क्रोध प्रकट करके नंदिग्राम भेज दिया था । इस ग्राम में इसका एक ब्राह्मण की कन्या से विवाह हुआ था । अभयकुमार इसी ब्राह्मणी का पुत्र था । राजा कुणिक ने कुछ समय के पश्चात् इसे राज्य दे दिया था । राजा प्राप्ति के पश्चात् इसका राजा चेटक की पुत्री चेलिनी के साथ विवाह हुआ था । इसके पुत्र का नाम भी कुणिक ही था । बहुत आरंभ और परिग्रह के कारण इसने सातवें नरक की उत्कष्ट आयु का बंध किया था । यह राजगृही के विपुलाचल पर्वत पर आये महावीर के समवसरण में सपरिवार गया था । वहाँ इसने और इसके अक्रूर, वारिषेण, अभयकुमार आदि पुत्रों तथा उनकी रानियों ने सम्यक्त्व प्राप्त किया । इसके प्रभाव से इसका सातवें नरक का आयुबंध प्रथम नरक संबंधी चौरासी हजार वर्ष की स्थिति में बदल गया था । इसे तीर्थंकर प्रकृति का बंध भी हुआ था । वीर के समवसरण में गौतम गणधर से इसे चारों अनुयोगों का ज्ञान हुआ । पहले किये हुए बंध के अनुसार यह मरकर प्रथम नरक गया और वहाँ से निकलकर यह उत्सर्पिणी काल में भरतक्षेत्र का महापद्म नामक प्रथम तीर्थंकर होगा । दूसरे पूर्वभव में यह खदिरसार नामक भील था । इस पर्याय से मुक्त होकर यह सौधर्म स्वर्ग में देव हुआ था । महापुराण 74. 386-453, 75.20-25, 34, 76.41,पपू0 2.71, हरिवंशपुराण - 2.71,हरिवंशपुराण - 2.136-140, 148, पांडवपुराण 1. 101-103, 2.11, 87, 96, वीरवर्द्धमान चरित्र 19.154-157
(2) अयोध्या नगरी के राजा रत्नवीर्य का सेनापति । अयोध्या का चोर रुद्रदत्त चोरी के अपराध में पकड़े जाने पर इसी सेनापति के द्वारा मारा गया था । हरिवंशपुराण - 18.96-101
(3) अनागत प्रथम तीर्थंकर का जीव । महापुराण 76.471