ग्रन्थ:हरिवंश पुराण - सर्ग 18
From जैनकोष
अथानंतर― राजा वसु का जो बृहद̖ध्वज नाम का पुत्र मथुरा में रहने लगा था उसके सुबाहु नाम का विनयवान् पुत्र हुआ । राजा बृहद̖ध्वज सुबाहु के लिए राज्यलक्ष्मी सौंप आप तपरूपी लक्ष्मी को प्राप्त हो गया । यथाक्रम से सुबाहु के दीर्घबाहु, दीर्घबाहु के वज्रबाहु, वज्रबाहु के लब्धाभिमान, लब्धाभिमान के भानु, भानु के यवु, यवु के सुभानु और सुभानु के भीम पुत्र हुआ । इस प्रकार इन्हें आदि लेकर भगवान् मुनिसुव्रतनाथ के तीर्थ में सैकड़ों-हजारों राजा उत्पन्न हुए और सबने अपने-अपने पुत्रों पर राज्य-भार सौंपकर तप धारण किया ॥ 1-4॥ भगवान् मुनिसुव्रत के बाद नमिनाथ हुए । इनकी आयु पंद्रह हजार वर्ष की थी तथा इनका तीर्थ पाँच लाख वर्ष तक प्रचलित रहा । इन्हीं के तीर्थ में हरिवंशरूपी उदयाचल पर सूर्य के समान यदु नाम का राजा हुआ । यही यदु राजा, यादवों की उत्पत्ति का कारण था तथा अपने प्रताप से समस्त पृथ्वी पर फैला हुआ था ॥ 5-6 ॥ राजा यदु के नरपति नाम का पुत्र हुआ । उस पर पृथिवी का भार सौंप राजा यदु तपकर स्वर्ग गया ॥7॥ राजा नरपति के शूर और सुवीर नामक दो पुत्र हुए सो नरपति उन्हें राज्य-सिंहासन पर बैठाकर तप करने लगा ॥ 8॥ अत्यंत कुशल शूर ने छोटे भाई सुवीर को मथुरा के राज्य पर अधिष्ठित किया और स्वयं कुशद्य देश में एक उत्तम शौर्यपुर नाम का नगर बसाया ॥ 9 ॥ शूर से अंधकवृष्णि को आदि लेकर अनेक शूरवीर उत्पन्न हुए, और मथुरा के स्वामी सुवीर से भोजकवृष्णि को आदि लेकर अनेक वीर पुत्र उत्पन्न हुए ॥10॥ यथायोग्य अपने-अपने बड़े पुत्रों पर पृथिवी का भार सौंपकर कृतकृत्यता को प्राप्त हुए शूर और सुवीर दोनों ही सुप्रतिष्ठ मुनिराज के पास दीक्षित हो गये ॥11॥ अंधकवृष्णि की सुभद्रा नामक उत्तम स्त्री थी उससे उनके दश पुत्र हुए जो देवों के समान कांति वाले थे तथा स्वर्ग से च्युत होकर आये थे ॥ 12 ॥ उनके नाम इस प्रकार थे― 1 समुद्र विजय, 2 अक्षोभ्य, 3 स्तिमितसागर, 4 हिमवान् , 5 विजय, 6 अचल, 7 धारण, 8 पूरण, 9 अभिचंद्र और 10 वसुदेव । ये सभी पुत्र योग्य दशा के धारक, महाभाग्यशाली और सार्थक नामों से युक्त थे ॥13-14॥ उक्त पुत्रों के सिवाय कुंती और भद्री नाम की दो कन्याएं भी थीं जो अतिशय मान्य थी, स्त्रियों के गुणरूपी आभूषणों से सहित थीं, लक्ष्मी और सरस्वती के समान जान पड़ती थीं और समुद्र विजयादि दश भाइयों की बहनें थीं ॥15॥
राजा भोजकवृष्णि की जो पद्मावती नाम की पत्नी थी उसने उग्रसेन, महासेन तथा देवसेन नामक तीन पुत्र उत्पन्न किये थे ॥16॥ राजा वसु का जो सुवसु नाम का पुत्र, कुंजरावर्तपुर (नागपुर) में रहने लगा था उसके बृहद्रथ नाम का पुत्र हुआ और वह मागधेशपुर में रहने लगा॥17॥ बृहद्रथ के दृढ़रथ नाम का पुत्र हुआ । दृढ़रथ के नरवर, नरवर के दृढ़रथ, दृढ़रथ के सुखरथ, सुखरथ के कुल को दीप्त करने वाला दीपन, दीपन के सागरसेन, सागरसेन के सुमित्र, सुमित्र के वप्रथु, वप्रथु के विंदुसार, विंदुसार के देवगर्भ और देवगर्भ के शतधनु नाम का वीर पुत्र हुआ । यह शतधनु धनुर्धारियों में सबसे श्रेष्ठ था ॥18-20॥ तदनंतर क्रम से लाखों राजाओं के व्यतीत हो जाने पर उसी वंश में निहतशत्रु नाम का राजा हुआ । उसके शतपति और शतपति के बृहद् रथ नाम का पुत्र हुआ । यह राजगृह नगर का स्वामी था । बृहद् रथ के पृथिवी को वश करने वाला जरासंध नाम का पुत्र हुआ ॥21-22 ॥ वह विभूति में रावण के समान था, तीन खंड भरत का स्वामी था और देवों के समान प्रतापी प्रतिनारायणों में नौवां नारायण था ॥23 ॥ अनेक स्त्रियों के बीच उसकी कालिंद सेना नाम की पट्टरानी थी जो पट्टरानियों के समस्त गुणों से सहित थी । राजा जरासंध के कालयवन आदि अनेक नीतिज्ञ पुत्र थे ॥24॥ चक्रवर्ती जरासंध के अपराजित आदि अनेक भाई थे जो हरिवंशरूपी महावृक्ष की शाखा पर लगे हुए फलों के समान जान पड़ते थे ॥ 25 ॥ राजा जरासंध अपनी अद्वितीय माता का अद्वितीय वीर पुत्र था । वह राजसिंह, राजग्रह नगर में स्थिर रहकर दक्षिण श्रेणी में रहने वाले समस्त विद्याधर राजाओं के समूह पर शासन करता था । उत्तरापथ और दक्षिणा पथ के समस्त राजा, पूर्व-पश्चिम समुद्रों के तट तथा मध्य के समस्त देश उसके वश में थे । समस्त भूमिगोचरी और समस्त विद्याधर उसकी आज्ञा को शेखर के समान सिर पर धारण करते थे ॥26-28॥ वह चक्रवर्ती की लक्ष्मी का स्वामी था तथा इंद्र को शोभा को धारण करता था । कदाचित् शौर्यपुर के उद्यान में गंधमादन नामक पर्वत पर रात्रि के समय सुप्रतिष्ठ नामक मुनिराज प्रतिमा योग लेकर विराजमान थे । पूर्व बैर के कारण सुदर्शन नामक यक्ष ने उन मुनिराज पर अग्निवर्षा, प्रचंड वायु तथा मेघवृष्टि आदि अनेक कठिन उपसर्ग किये परंतु उन सबको जीतकर घातियाकर्मों का क्षय करने वाले उक्त मुनिराज ने केवलज्ञान प्राप्त कर लिया ॥29-31॥ उनकी वंदना के लिए सौधर्म आदि इंद्रों के समूह, चारों निकाय के देवों के साथ वहाँ आये और सबने भक्तिपूर्वक पूजा कर केवली भगवान् को नमस्कार किया ॥32॥ शौर्यपुर का राजा अंधकवृष्णि भी अपने पुत्रों स्त्रियों तथा सेनाओं के साथ आया और भक्तिपूर्वक सुप्रतिष्ठ केवली की पूजा-वंदना कर अपने स्थान पर बैठ गया ॥33 ॥ जब जगत् के जीव धर्मोपदेश सुनने के लिए दान देकर तथा हाथ जोड़कर सावधानी के साथ बैठ गये तब सुप्रतिष्ठ मुनिराज ने इस प्रकार उपदेश देना प्रारंभ किया ॥34॥
उन्होंने कहा कि तीनों लोकों में त्रिवर्ग की प्राप्ति धर्म से ही कही गयी है इसलिए उसकी इच्छा रखने वाले पुरुष को सदा धर्म का संग्रह करना चाहिए ॥ 35 ॥ शुभ वृत्ति से युक्त मन, वचन, काय के द्वारा किया हुआ धर्म, प्राणी को सुख के आधारभूत स्थान-स्वर्ग अथवा मोक्ष में पहुंचा देता है ॥36॥ धर्म उत्कृष्ट मंगलस्वरूप है तथा सम्यग्दर्शन और सम्यग्ज्ञान से सहित अहिंसा, संयम और तप उस धर्म के लक्षण बतलाये गये हैं ॥37॥ इस संसार में धर्म सब पदार्थों से उत्तम है, यह धेनुओं में कामधेनु है तथा उत्कृष्ट सुख को खान है ॥38॥ जन्म, जरा, मरण, रोग, शोक आदि से उत्पन्न दुःखरूपी सूर्य से संतप्त शरणार्थी जनों के लिए लोक में धर्म ही उत्तम शरण है ॥ 39 ॥ मनुष्यों और देवों में पाये जाने वाले समस्त अभ्युदय संबंधी सुख और मोक्ष संबंधी सुख का कारण धर्म ही माना गया है ॥40॥
जो स्वर्गावतरणादि के समय पंचकल्याणक पूजाओं के पात्र थे ऐसे इक्कीसवें तीर्थंकर भगवान् नमिनाथ ने इस युग में अपने समयवर्ती जीवों के लिए जो धर्म कहा था वह इस प्रकार है ॥ 41-42 ॥ उन्होंने मुनियों के लिए 1 अहिंसा, 2 सत्य भाषण, 3 अचौर्य, 4 ब्रह्मचर्य और 5 अपरिग्रह ये पांच महाव्रत, 1 मनोगुप्ति, 2 वचनगुप्ति और 3 काय गुप्ति ये तीन गुप्तियाँ, 1 ईर्या, 2 भाषा, 3 एषणा, 4 आदान निक्षेपण और 5 प्रतिष्ठापन ये पांच समितियाँ और विद्यमान समस्त साध योग का त्याग― यह धर्म बतलाया है ॥43-44॥ तथा गृहस्थों के लिए पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत यह बारह प्रकार का धर्म कहा है ॥45॥ हिंसादि पापों का एक देश छोड़ना अणुव्रत कहा गया है, दिशा देश और अनर्थदंडों से विरत होने को गुणव्रत कहते हैं और तीनों संध्याओं में सामायिक करना, प्रोषधोपवास करना, अतिथि पूजन करना और आयु के अंत में सल्लेखना धारण करना इसे शिक्षाव्रत कहते हैं ॥46-47॥ सद्य-त्याग, मांस-त्याग, मधु-त्याग, द्यूत-त्याग, क्षीरिफल-त्याग, वेश्या-त्याग तथा अन्यवध-त्याग आदि नियम कहलाते हैं ॥48॥ तत्त्व यही है इस प्रकार ज्ञान और श्रद्धान होना सो सम्यग्ज्ञान और सम्यग्दर्शन है । शंका, आकांक्षा, जुगुप्सा तथा अन्य मत की प्रशंसा और स्तुति का छोड़ना, उपगूहन, मार्ग से भ्रष्ट होने वालों का स्थितिकरण करना, वात्सल्य और प्रभावना ये सब सम्यग्दर्शन को शुद्ध करने के हेतु हैं ॥49-50॥
गृहस्थ धर्म साक्षात् तो स्वर्गादिक अभ्युदय का कारण है और परंपरा से मोक्ष का कारण है परंतु मुनिधर्म मोक्ष का साक्षात् कारण है ॥51॥ वह मुनिधर्म मनुष्य शरीर में ही प्राप्त होता है अन्य जन्म में नहीं और मनुष्य-जन्म संकटपूर्ण संसार में बड़े दुःख से प्राप्त होता है ॥52॥ ये प्राणी कर्मोदय के वशीभूत हो स्थावर तथा त्रस कायों में अथवा नरकादि चतुर्गतियों में क्लेश भोगते हुए भ्रमण करते रहते हैं ॥53॥ मात्र स्पर्शनइंद्रिय को धारण करने वाला एकेंद्रिय जीव पृथिवी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति के शरीर में दीर्घकाल तक भ्रमण करता रहा है ॥54॥ कर्मकलंक से कलंकित ऐसे अनंतजीव हैं जिन्होंने आज तक त्रस पर्याय प्राप्त नहीं की और आगे भी उसी निगोद पर्याय में निवास करते रहेंगे ॥55॥ ये प्राणी चौरासी लाख कुयोनियों तथा अनेक कुल कोटियों में निरंतर भ्रमण करते रहते हैं ॥56 ॥ वे कुयोनियाँ नित्यनिगोद, इतरनिगोद, पृथिवीकायिक, जलकायिक, अग्निकायिक और वायुकायिक जीवों में प्रत्येक की सात-सात लाख होती हैं ॥ 57॥ वनस्पति कायिकों की दश लाख, विकलेंद्रियों की छह लाख, मनुष्यों की चौदह लाख, तिर्यंच, नारकी और देवों की प्रत्येक की चार-चार लाख होती हैं ॥58॥ पृथिवीकायिक जीवों को बाईस लाख, जलकायिक और वायुकायिक की प्रत्येक की सात-सात लाख, अग्निकायिक की तीन लाख, वनस्पतिकायिक की अट्ठाईस लाख, दो इंद्रियों की सात लाख, तीन इंद्रियों की आठ लाख, चौ इंद्रियों की नौ लाख, जलचरों की साढ़े बारह लाख, पक्षियों की बारह लाख, चौपायों की दश लाख, छाती से सरकने वालों की नौ लाख, मनुष्यों की चौदह लाख, नारकियों की पचीस लाख और देवों की छब्बीस लाख कुलकोटियाँ हैं । संक्षेप से ये सब कुलकोटियां साढ़े निन्यानवे लाख हैं ॥ 59-63॥
खर पृथिवी की बाईस हजार वर्ष, कोमल पृथिवी को बारह हजार वर्ष, जलकायिक जीवों की सात हजार वर्ष, वायुकायिक जीवों की तीन हजार वर्ष, तेजस्कायिक जीवों की तीन दिन-रात, वनस्पतिकायिक जीवों की दश हजार वर्ष, दो इंद्रिय जीवों को बारह वर्ष, तीन इंद्रिय जीवों को उनचास दिन, चार इंद्रिय जीवों की छह माह, पक्षियों की बहत्तर हजार वर्ष, साँपों की बयालीस हजार वर्ष, छाती से सरकने वालों की नौ पूर्वांग, मनुष्यों और मत्स्यों को एक करोड़ पूर्व को उत्कृष्ट आयु है ॥64-69 ॥
पृथिवीकायिक जीव मसूर के आकार हैं, जलकायिक तृण के अग्र भाग पर रखी बूंद के समान हैं, तैजस्कायिक जीव खड़ी सूइयों के सदृश हैं, वायुकायिक जीव पता का के समान हैं, वनस्पतिकायिक जीव अनेक आकार के धारक हैं । विकलेंद्रिय तथा नार को जीव हुंडक संस्थान से युक्त हैं ॥ 70-71॥ मनुष्य और तिर्यंच छहों संस्थान के धारक कहे गये हैं और देव केवल समचतुरस्र संस्थान से युक्त बतलाये गये हैं ॥ 72 ॥ सूक्ष्म निगोदिया लब्ध्यपर्याप्तक जीव का शरीर अंगुल के असंख्यातवें भाग है और वह उत्पन्न होने के तीसरे समय में जघन्य अवगाहनारूप होता है ॥ 73॥ सूक्ष्म और स्थूल भेदों को धारण करने वाले एकेंद्रिय से लेकर पंचेंद्रिय जीवों तक का शरीर यदि छोटे से छोटा होगा तो अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण ही होगा इससे छोटा नहीं ॥74॥
कमल प्रमाण की अपेक्षा एक हजार योजन तथा एक कोस विस्तार वाला है । समस्त एकेंद्रिय जीवों में देह का उत्कृष्ट प्रमाण यही माना गया है ॥75 ॥ दोइंद्रिय जीवों में सबसे बड़ी अवगाहना शंख की है और वह बारह योजन प्रमाण है । तीन इंद्रियों में सबसे बड़ा कान खजूरा है और वह तीन कोस प्रमाण है । चौ इंद्रियों में सबसे बड़ा भ्रमर है और वह एक योजन चार कोस प्रमाण है तथा पंचेंद्रियों में सबसे बड़ा स्वयंभूरमण समुद्र का राघव मच्छ है और वह एक हजार योजन प्रमाण है । पंचेंद्रियों में सूक्ष्म अवगाहना सिक्थक मच्छ की है ॥76-77॥ सम्मूर्च्छन जन्म से उत्पन्न अपर्याप्तक जलचर, थलचर और नभचर तिर्यंचों की जघन्य अवगाहना एक वितस्ति प्रमाण है ॥ 78॥ गर्भजों में अपर्याप्तक जलचर, स्थलचर, सम्मूर्च्छनों में पर्याप्तक जलचर, नभचर तथा गर्भजों में पर्याप्तक, अपर्याप्तक दोनों प्रकार के नभचर, तिर्यंच, उत्कृष्ट रूप से पृथक्त्व धनुष प्रमाण शरीर की अवगाहना धारण करते हैं ॥ 79-80 ॥ गर्भजन्म से उत्पन्न पर्याप्तक जलचर जीव पाँच सौ योजन विस्तार वाले हैं । जिन मनुष्य और तिर्यंचों की आयु तीन पल्य की है उनकी अवगाहना सौ योजन विस्तार वाली है । जिन मनुष्य और तिर्यंचों की आयु तीन पल्य की है उनकी अवगाहना तीन कोस प्रमाण है ॥ 81॥ नारकी उत्कृष्टता से पाँच सौ धनुष ऊँचे हैं, और देव पच्चीस धनुष प्रमाण है । इनकी आयु पहले के समान है ॥82॥
आहार, शरीर, इंद्रिय, श्वासोच्छ̖वास, भाषा और मन के भेद से पर्याप्तियाँ छह कही गई हैं ॥83॥ स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु और श्रोत्र ये पाँच इंद्रियाँ कही गई हैं । इनमें स्थावर जीवों के केवल स्पर्शन इंद्रिय और सजीवों के यथाक्रम से सभी इंद्रियाँ पाई जाती हैं ॥ 84 ॥ भावेंद्रिय और द्रव्येंद्रिय के भेद से इंद्रियाँ दो प्रकार की हैं । इनमें भावेंद्रियाँ लब्धि और उपयोग रूप हैं तथा द्रव्येंद्रियाँ निर्वृति और उपकरण रूप मानी गई हैं ॥85॥ स्पर्शन इंद्रिय अनेक आकारवाली है, रसना खुरपी के समान है, घ्राण अतिमुक्तक-तिल पुष्प का अनुकरण करती है, चक्षु मसूर का अनुसरण करती है और कर्ण इंद्रिय यव की नली के समान है । इस प्रकार द्रव्येंद्रियों का आकार कहा ॥ 86-87॥
एकेंद्रिय जीव की स्पर्शन इंद्रिय का उत्कृष्ट विषय चार सौ धनुष है । उसके आगे असैनी पंचेंद्रिय तक दूना-दूना होता जाता है ॥88॥ इस प्रकार द्वींद्रिय के स्पर्शन का विषय आठ सौ धनुष, त्रींद्रिय के सोलह सौ धनुष, चतुरिंद्रिय के बत्तीस सौ धनुष और असैनी पंचेंद्रिय के चौंसठ सौ धनुष है । रसना इंद्रिय का विषय द्वींद्रिय जीव के चौंसठ धनुष, त्रींद्रिय के एक सौ अट्ठाईस धनुष, चतुरिंद्रिय के दो सौ छप्पन धनुष, और असैनी पंचेंद्रिय के पाँच सौ धनुष है । घ्राण इंद्रिय का विषय त्रींद्रिय जीव के सौ धनुष, चतुरिंद्रिय के दो सौ धनुष और असैनी पंचेंद्रिय के चार सौ धनुष प्रमाण है ॥89꠰꠰ चतुरिंद्रिय जीव अपनी चक्षुरिंद्रिय के द्वारा उनतीस सौ चौवन योजन तक देखता है ॥90॥ असैनी पंचेंद्रिय के चक्षु का विषय उनसठ सौ साठ योजन है एवं असैनी पंचेंद्रिय के श्रोत्र का विषय एक योजन है ॥ 91 ॥ सैनी पंचेंद्रिय जीव नौ योजन दूर स्थित स्पर्श, रस और गंध को यथायोग्य ग्रहण कर सकता है और बारह योजन दूर तक के शब्द को सुन सकता है ॥92॥ सैनी पंचेंद्रिय जीव अपने चक्षु के द्वारा सैंतालीस हजार दो सौ त्रेसठ योजन की दूरी पर स्थित पदार्थ को देख सकता है ॥93॥ इस प्रकार यह असार संसार अनेक विकल्पों से भरा हुआ है । इसमें मोक्ष का साधक होने से मनुष्यपर्याय ही सार है परंतु वह अत्यंत दुर्लभ है ॥94॥ दुष्कर्मों का उपशम होने से यदि किसी तरह मनुष्यपर्याय प्राप्त हुई है तो बुद्धिमान् मनुष्य को संसार से विरक्त होकर मुक्ति प्राप्ति के लिए प्रयत्न करना चाहिए ॥15॥
अथानंतर इसी बीच में केवली भगवान् को नमस्कार कर अंधकवृष्णि ने अपने पूर्वभव पूछे और सर्वज्ञ सुप्रतिष्ठ केवली उसके पूर्वभवों का वर्णन इस प्रकार करने लगे ॥96॥ जब भगवान् वृषभदेव का महाप्रभावशाली तीर्थ चल रहा था तब अयोध्यानगरी में राजा रत्नवीर्य राज्य करता था । उसके निष्कंटक राज्य में एक सुरेंद्रदत्त नाम का सेठ रहता था जो बत्तीस करोड़ दीनारों का धनी था, जैनधर्म का परम श्रद्धालु था और रुद्रदत्त ब्राह्मण उसका मित्र था ॥97-98॥ कदाचित् सुरेंद्रदत्त सेठ बारह वर्ष तक अष्टमी, चतुर्दशी, आष्टाह्निक पर्व तथा चौमासों में जिनपूजा के लिए उपयुक्त धन, रुद्रदत्त को देकर व्यापार के लिए बाहर चला गया ॥99 ॥ ब्राह्मण रुद्रदत्त बड़ा दुष्ट था । उसने जुआ तथा वेश्या व्यसन में पड़कर वह धन शीघ्र ही नष्ट कर दिया । जब धन नष्ट हो गया तब चोरी करने लगा । चोरी के अपराध में पकड़ा गया और जब छूटा तब उल्कामुख नामक वन में जाकर रहने लगा ॥100꠰। वहाँ वह भीलों के साथ मिलकर लोगों को लूटने लगा और अपने दुष्कर्म से लोगों के लिए व्याधि स्वरूप हो गया । अंत में श्रेणिक नामक सेनापति के हाथ से मरकर रौरव नामक सातवें नरक गया ॥101॥ देव द्रव्य के हड़पने से वह तैंतीस सागर तक नरक के भयंकर दुःख भोगकर वहाँ से निकला और संसार में भ्रमण करता रहा ॥102॥ कदाचित् पापकर्म का उपशम होने से वह हस्तिनागपुर में कापिष्ठलायन नामक ब्राह्मण की अनुमति नामक स्त्री से गौतम नामक ब्राह्मण-पुत्र हुआ । वह महा दरिद्र था, उत्पन्न होते ही उसके माता-पिता मर गये थे तथा भीख मांगता हुआ वह इधर-उधर घूमता-फिरता था । एक बार उसने समुद्रदत्त नामक मुनिराज को आहार करते देखा । आहार के बाद वह उनके पीछे लग गया तथा आश्रम में पहुंचने पर उनसे बोला कि मैं भूखा मरता हूँ आप मुझे अपने समान बना लीजिए ॥103-105॥ मुनिराज ने उसे भव्य प्राणी जानकर दीक्षा दे दी और उसने भी दीक्षा लेकर एक हजार वर्ष की कठिन तपस्या से विघ्नकारक पापों का उपशम कर दिया ॥106॥ तपस्या के प्रभाव से उक्त गौतम मुनि, बीज बुद्धि तथा रसऋद्धि से युक्त हो गये और अक्षीण महानस एवं पदानुसारिणी ऋद्धि भी उन्होंने प्राप्त कर ली॥107॥ गुरु समुद्रदत्त मुनि, अच्छी तरह आराधनाओं की आराधना कर छठे ग्रैवेयक के सुविशाल नामक विमान में अहमिंद्र हुए और शिष्य गौतम मुनि ने पचास हजार वर्ष तप किया ॥108॥ अंत में विशाल बुद्धि के धारक गौतम मुनि भी अट्ठाईस सागर की संभावनीय आयु प्राप्त कर उसी सुविशाल विमान में उत्पन्न हुए ।꠰109॥ अहमिंद्र के सुख भोगने के बाद वहाँ से चलकर गौतम का जीव तो तू अंधकवृष्णि हुआ है और तेरा गुरु मुनि समुद्रदत्त का जीव मैं सुप्रतिष्ठ हुआ हूँ ॥110꠰꠰
तदनंतर दुःखी होते हुए राजा अंधकवृष्णि ने अपने दशों पुत्रों के पूर्व भव पूछे सो केवली भगवान् इस प्रकार कहने लगे ॥111॥ उन्होंने कहा कि किसी समय सद्भद्रिलपुर नगर में राजा मेघरथ रहता था, उसकी स्त्री का नाम सुभद्रा था और उन दोनों के दृढ़रथ नाम का पुत्र था ॥112॥ उसी नगर में राजा की तुलना करने वाला धनदत्त नाम का सेठ रहता था उसकी स्त्री का नाम नंदयशा था । नंदयशा से उसके सुदर्शना और सुज्येष्ठा नाम की दो कन्याएं तथा धनपाल, जिन पाल, देवपाल, अर्हद̖दास, जिनदास, अर्हद̖दत्त, जिनदत्त, प्रियमित्र और धर्मरुचि ये नौ पुत्र उत्पन्न हुए ॥113-115 ॥ कदाचित् राजा मेघरथ ने सुमंदर गुरु के पास दीक्षा ले ली । यह देख सेठ धनदत्त भी अपने नौ पुत्रों के साथ दीक्षित हो गया ॥116॥ और सुदर्शना नामक आर्यिका के पास सुभद्रा सेठानी तथा उसकी सुदर्शना और सुज्येष्ठा नामक दोनों पुत्रियों ने साथ-ही-साथ दीक्षा धारण कर ली ॥117॥ कदाचित् धनदत्त सेठ, सुमंदर गुरु और मेघरथ राजा― तीनों ही मुनि बनारस आये और वहाँ केवलज्ञान उत्पन्न कर पृथिवी पर विहार करने लगे ॥118 ॥ पूजनीय धनदत्त, सुमंदर गुरु और मेघरथ मुनि क्रम से सात वर्ष, पांच वर्ष और बारह वर्ष तक पृथिवी पर विहार कर अंत में राजगृह नगर से सिद्धशिला पर आरूढ़ हुए― मोक्ष पधारे ॥119॥ उस समय सेठ धनदत्त की स्त्री नंदयशा गर्भवती थी इसलिए दीक्षा नहीं ले सकी थी परंतु जब उसके धनमित्र नाम का पुत्र हो गया और वह योग्य बन गया तब वह भी उसे छोड़ तप करने लगी ॥120॥
एक दिन सेठ धनदत्त के पुत्र धनपाल आदि नौ के नौ मुनिराज प्रायोपगमन संन्यास लेकर सिद्धशिला पर विराजमान थे । मुनियों की माता आर्यिका नंदयशा ने उन्हें देख वंदना की और स्नेह से मोहित हो निदान किया कि मैं अग्रिम भव में भी इनकी माता बनूं ॥121॥ मुनियों की बहन सुदर्शना और सुज्येष्ठा नामक आर्यिकाओं ने भी स्नेहरूपी गर्त में मोहित हो निदान किया कि ये अग्रिम भव में भी हमारे भाई हों । सो ठीक ही है क्योंकि स्नेह के लिए क्या कठिन है ? ॥122॥ अंत में समाधि धारणकर माता, पुत्र और पुत्रियां― सबके-सब अच्युत स्वर्ग में देव हुए । तदनंतर बाईस सागर तक उत्कृष्ट सुख भोगकर वहाँ से चले और पृथिवी पर आकर हे राजन् ! तुम्हारी स्त्री, पुत्रियाँ तथा पुत्र हुए हैं सो ठीक ही है क्योंकि परिणामों के अनुसार नाना प्रकार की गति होती ही है । भावार्थ― नंदयशा का जीव तो तुम्हारी रानी सुभद्रा हुआ है, सुदर्शना और सुज्येष्ठा के जीव क्रम से कुंती और माद्री हुए हैं तथा धनपाल आदि के जीव वसुदेव के सिवाय नौ पुत्र हुए हैं ॥123-124॥
तदनंतर भगवान् सुप्रतिष्ठ केवली, ध्यान में तत्पर एवं कान खड़े कर बैठे हुए मनुष्य और देवों को उस सभा में वसुदेव के भवांतर कहने लगे ॥125 ॥ जिस प्रकार समुद्र की लहरों में तैरती हुई कील जुए के छिद्र को बड़ी कठिनाई से प्राप्त कर सकती है उसी प्रकार संसार-सागर की दुःखरूपी लहरों में डूबता और उबरता हुआ यह प्राणी मनुष्य भव को बड़ी कठिनाई से प्राप्त कर पाता है ॥126 ॥ इसी पद्धति से वसुदेव का जीव मगधदेश के शालिग्राम नामक नगर में रहने वाले अत्यंत दरिद्र ब्राह्मण और ब्राह्मणी के यहाँ ऐसा पुत्र हुआ जिसे थोड़ा भी सुख प्राप्त नहीं था ॥127 ॥ जब वह गर्भ में था तब पिता मर गया और उत्पन्न होते ही माता मर गयी इसलिए मौसी ने इसका पालन-पोषण किया परंतु वह लगभग आठ वर्ष का ही हो पाया था कि उसकी मौसी भी शोक के कारण प्राणरहित हो गयी ॥128 ॥ अब वह राजगृह नगर में मामा के घर रहने लगा । वहाँ यह हमारे पति का भानजा है यह सोचकर बुआ ने उसका पालन-पोषण किया ॥129 ॥ इसका शरीर मल से ग्रस्त था, शरीर से छाग के बच्चे के समान तीव्र गंध आती थी, केश रूखे तथा बिखरे हुए थे, वह मैले-कुचैले वस्त्र पहने रहता था और उसकी आंखें स्वभाव से ही पीली थीं ॥130 ॥ इतने पर भी वह अपने मामा दमरक को पुत्रियों के साथ विवाह करना चाहता था । परंतु विवाह करना तो दूर रहा घृणा करने वाली उन पुत्रियों ने उसे घर से निकाल दिया जिससे वह बहुत दुःखी हुआ ॥131 ॥ अंत में वह दुर्भाग्यरूपी अग्नि की शिखाओं से झुलसकर ठूठ के समान मलिन हो गया और पतंग की तरह कूदकर मरने की इच्छा से वैभार गिरि पर गया परंतु मुनियों ने उसे रोक लिया ॥132॥
तदनंतर धर्म-अधर्म का फल सुनकर उसने अपने-आपकी बहुत निंदा की और शांत हो संख्य नामक मुनिराज के चरण मूल में दीक्षा धारण कर ली ॥133 ॥ गुरु के सम्यक् उपदेश से आशारूपी पाश को नष्ट कर वह सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र का धारक हो गया और अन्य मनुष्यों के लिए दुश्चर तप तपने लगा ॥134॥ उसका नंदिषेण नाम था, वह तप के प्रभाव से उत्पन्न ऋद्धियों से युक्त हो गया, ग्यारह अंग का धारी एवं समस्त परीषहों को सहने वाला उत्तम साधु हो गया ॥135 ॥ शास्त्रों में जो-जो उपवास दूसरों के लिए अत्यंत कठिन थे वे सब उस धैर्यशाली साधु के लिए सरल हो गये ॥136 ॥ आचार्य, ग्लान, शैक्ष्य आदि के भेद से जिसके दश भेद बताये गये हैं उस वैयावृत्य तप को वह विशेष रूप से करता था ॥137॥ वह मुनि बड़ी-बड़ी ऋद्धियों से युक्त था इसलिए वैयावृत्य में उपयोग आने वाली जिस औषधि आदि का वह विचार करता था वह शीघ्र ही उसके हाथ में आ जाती थी ॥ 138 ॥
इस प्रकार मुनि नंदिषेण को तप करते हुए जब कई हजार वर्ष बीत गये तब एक दिन इंद्र ने देवों की सभा में उसके वैयावृत्य तप की प्रशंसा की ॥139 ॥ इस समय जंबू द्वीप के भरत क्षेत्र में जो साधुओं की वैयावृत्य करता है वह नंदिषेण मुनि सबसे उत्कृष्ट है ॥ 140॥ क्योंकि रोग से पीड़ित मुनि जिस पथ्य की इच्छा करता है उसे क्षमा को धारण करने वाला नंदिषेण मुनि शीघ्र ही पूर्ण कर देता है ॥141 ॥ गृहस्थ की तो बात ही क्या प्रासुक द्रव्य के द्वारा वैयावृत्य करने में तत्पर रहने वाले मुनि को भी उससे बंध नहीं होता किंतु निर्जरा ही होती है ॥142 ॥ इस संसार में शरीर ही प्राणियों का सबसे पहला धर्म का साधन है इसलिए यथाशक्ति उसकी रक्षा करनी चाहिए । यह आगम का विधान है ॥143॥ मंद शक्ति अथवा बीमार आदि जितने भी सम्यग्दृष्टि हैं, सम्यग्दृष्टि मनुष्य को उन सबको वैयावृत्य द्वारा निरंतर सेवा करनी चाहिए ॥144 ॥ जो प्रतिकार करने में समर्थ होकर भी रोग से दुःखी सम्यग्दृष्टि की उपेक्षा करता है वह पापी है तथा सम्यग्दर्शन का घात करने वाला है ॥145 ॥
जिसका धन अथवा शरीर सहधर्मी जनों के उपयोग में नहीं आता उसका वह धन अथवा शरीर किस काम का ? वह तो केवल कर्मबंध का ही कारण है ॥146 ॥ जिसका जो धन अथवा जो शरीर सहधर्मी जनों के उपयोग में ओता है यथार्थ में वही धन अथवा वही शरीर उसका है ॥147 ॥ जो समर्थ होकर भी आपत्ति के समय सम्यग्दृष्टि की उपेक्षा करता है उस कठोर हृदय वाले के जिनशासन की क्या भक्ति है ? कुछ भी नहीं है । 148॥ जो सम्यग्दर्शन को शुद्धता से शुद्ध सहधर्मी की भक्ति नहीं करता है वह झूठ-मूठ का विनयी बना फिरता है उसके सम्यग्दर्शन की शुद्धि क्या है ? ॥149॥ यदि बोधि की प्राप्ति में निमित्तभूत दर्शनविशुद्धि में बाधा पहुँचायी जाती है तो फिर इस संसार के संकट में पुनः बोधि की प्राप्ति दुर्लभ ही समझनी चाहिए ॥150॥ यदि बोधि की प्राप्ति नहीं होती है तो मुक्ति का साधनभूत चारित्र कैसे हो सकता है ? और जब चारित्र नहीं है तब मुक्ति के अभिलाषी मनुष्य को मुक्ति कैसे मिल सकती है ? ॥151॥ मुक्ति के अभाव में अनंत एवं अविनाशी सुख कैसे प्राप्त हो सकता है ? सुख के अभाव में स्वास्थ्य कैसे मिल सकता है ? और स्वास्थ्य के अभाव में यह जीव कृत्य-कृत्य कैसे हो सकता है ? ॥152॥ इसलिए आत्महित चाहने वाला चाहे मुनि हो चाहे गृहस्थ, उसे सब प्रकार से अपनी शक्ति के अनुसार वैयावृत्य करने में उद्यत रहना चाहिए ॥153॥
जो मनुष्य वैयावृत्य करता है वह अपने तथा दूसरे के शरीर, दर्शन, ज्ञान, चारित्र एवं उत्तम तप आदि सभी गुणों को स्थिर करता है ॥154॥ जिन-शासन की रीति को जानने वाला जो विद्वान् पर का उपकार करता हुआ स्वयं प्रत्युपकार की अपेक्षा से रहित होता है वह शीघ्र ही स्वपर आत्मा का मोक्ष प्राप्त करता है ॥ 155॥ जो जिनशासन के अर्थ को उत्कट भावना करता हुआ वैयावृत्य करने में प्रवृत्त रहता है उसे देव भी रोकने के लिए समर्थ नहीं हैं फिर क्षुद्र जीवों की तो बात ही क्या है ॥156 ॥ यह नंदिषेण मुनि ऐसे ही उत्तम मुनि हैं इस प्रकार सौधर्मेंद्र द्वारा स्तुति किये जाने पर सब देवों ने उनकी प्रशंसा की और परोक्ष नमस्कार किया ॥157 ॥
उन्हीं देवों में एक देव, मुनि के धैर्य को परीक्षा के लिए मुनि का रूप रख नंदिषेण मुनिराज के पास पहुंचा और इस प्रकार कहने लगा ॥ 158॥ हे वैयावृत्य में महान् आनंद धारण करने वाले नंदिषेण मुनि ! मेरा शरीर व्याधि से पीड़ित हो रहा है इसलिए मुझे कुछ ओषधि दीजिए॥159॥ उसके इस प्रकार कहने पर नंदिषेण मुनि ने अपनी अखंड अनुकंपा से कहा कि हे साधो ! मैं औषधि देता हूँ परंतु यह बताओ कि तुम्हारी किस भोजन में रुचि है ? ॥160॥ मुनि रूपधारी देव ने कहा― पूर्व देश के धान का शुभ एवं सुगंधित भात, पंचाल देश की मूंग की स्वादिष्ट दाल, पश्चिम देश की गायों का तपाया हुआ घी, कलिंग देश की गायों का मधुर दूध और नाना प्रकार के व्यंजन यदि मिल जावें तो अच्छा हो क्योंकि मेरी श्रद्धा इन्हीं चीजों में अधिक है । इस प्रकार कहने पर मैं अभी लाता हूं यह कहकर नंदिषेण मुनि बड़ी श्रद्धा के साथ उक्त आहार लेने के लिए चल दिये ॥161-163 ॥ विरुद्ध देश की वस्तुओं की चाह होने पर भी उनके मन में कुछ भी खेद उत्पन्न नहीं हुआ और गोचरी वेला में जाकर तथा उक्त सब आहार लाकर उन्होंने शीघ्र ही उस कृत्रिम मुनि को दे दिया ॥ 164 ॥ कृत्रिम मुनि ने उस आहार पानी को ग्रहण किया परंतु रात्रि में शरीर के अंतर्गत मल से उसका समस्त शरीर मलिन हो गया और नंदिषेण मुनि ने बिना किसी ग्लानि के उसे अपने हाथों से धोया ॥165 ॥ तदनंतर जिनका उत्साह भग्न नहीं हुआ था तथा जो बराबर वैयावृत्य कर रहे थे ऐसे प्रशंसनीय नंदिषेण मुनि को देखकर दिव्य रूप को धारण करने वाले देव ने कहा कि हे ऋषे ! देवों की सभा में इंद्र ने आपकी जिस प्रकार स्तुति की थी मैं देख रहा हूँ कि आप उसी तरह वैयावृत्य करने में उद्यत हैं ॥ 166-167॥ अहो! आपकी ऋद्धि, आपका धैर्य, आपकी ग्लानि जीतने की क्षमता और संशयरहित आपका शासन वात्सल्य सभी आश्चर्यकारी हैं, आप उत्तम मुनिराज हैं ॥168 ॥ यदि तप करते समय अन्य बुद्धिमान् मनुष्यों की भी इसी प्रकार त्रिकाल में वैयावृत्य करने की बुद्धि हो जावे तो उसे उनकी शासन भक्ति समझना चाहिए ॥169 ॥ इस प्रकार वह देव, मुनिराज को स्तुति कर तथा सम्यग्दर्शन प्राप्त कर जिन-शासन की प्रभावना करता हुआ स्वर्ग को चला गया ॥170 ॥
अत्यंत धीर बुद्धि को धारण करने वाले नंदिषेण मुनि ने तपश्चरण द्वारा पैंतीस हजार वर्ष बिताकर अंतिम समय छह माह का प्रायोपगमन संन्यास ले लिया ॥171 ॥ उन्होंने शरीर और आहार का त्याग कर दिया, वे अपने शरीर की वैयावृत्ति न स्वयं करते थे न दूसरे से कराते थे किंतु इतना होने पर भी मोह की तीव्रता से उन्होंने मैं अग्रिम भव में लक्ष्मीमान् तथा सौभाग्यवान् होऊँ इस निदान से अपनी आत्मा को बद्ध कर लिया ॥172 ॥ यदि वे मुनि उस समय यह निंदित निदान नहीं करते तो अपनी सामर्थ्य से अवश्य ही तीर्थंकर प्रकृति का बंध करते ॥173 ॥ तदनंतर वह आराधनाओं की आराधना कर महाशुक्र स्वर्ग में इंद्र तुल्य देव हुआ और वहाँ साढ़े सोलह सागर तक सुख से विद्यमान रहा ॥174 ॥
हे राजन् ! वही पुत्र देवों के सुख भोगकर अंत में वहाँ से च्युत हो तेरी सुभद्रा रानी से यह पृथिवी का अधिपति वसुदेव नाम का पुत्र हुआ है ॥175॥ इस प्रकार अंधकवृष्णि, उसकी सुभद्रारानी तथा समुद्रविजय आदि पुत्र सुप्रतिष्ठ केवली से अपने-अपने पूर्वभव सुनकर धर्म और संवेग को प्राप्त हुए । इनके सिवाय जो वहाँ मनुष्य तथा देव थे वे भी धर्म और संवेग को प्राप्त हुए ॥176 ॥ सुप्रतिष्ठ स्वामी को नमस्कार कर देव लोग अपने-अपने स्थानपर चले गये । तदनंतर संसार का अंत करने वाले राजा अंधकवृष्णि ने समुद्रविजय का अभिषेक कर उसे राज्य-सिंहासन पर बैठाया और वसुदेव को समुद्रविजय के लिए सौंपकर सुप्रतिष्ठ केवली के पादमूल में दीक्षा धारण कर ली ॥177-178॥
उधर भोजकवृष्णि ने भी मथुरा के समग्र राज्य पर उग्रसेन को बैठाकर निर्ग्रंथ व्रत धारण कर लिया-- मुनि दीक्षा ले ली ॥179॥ राजा समुद्रविजय ने अपनी प्रिय रानी शिवादेवी को पट्ट बाँधकर समस्त स्त्रियों में मुख्यता प्राप्त करा दी । तदनंतर जिस प्रकार जिनेंद्ररूपी सूर्य, अष्ट प्रातिहार्य रूप अभ्युदय से प्रभाव को बढ़ाते हुए भव्य जीवरूपी कमलों को प्रसन्न करते हैं उसी प्रकार राज्य मर्यादा की रक्षा करने वाले राजा समुद्रविजय भी अपनी अनुपम विभूति से प्रताप को बढ़ाते हुए अपने बंधु रूपी कमलों को प्रसन्न करने लगे ॥180॥
इस प्रकार अरिष्टनेमि, पुराण के संग्रह से युक्त, जिनसेनाचार्य रचित हरिवंशपुराण में समुद्रविजय के लिए राज्य प्राप्ति का वर्णन करने वाला अठारहवाँ सर्ग समाप्त हुआ ॥18॥