वंदनामुद्रा: Difference between revisions
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देखें [[ मुद्रा ]]। | <p><span class="GRef"> अनगारधर्मामृत/ मूल व उद्धृत श्लोक/8/85-86/813</span> <p class="SanskritText"> मुद्राश्चतस्रो व्युत्सर्गस्थितिर्जैनीह यौगिकी। न्यस्तं पद्मासनाद्यंके पाण्योरुत्तानयोर्द्वयम्।85। जिनमुद्रांतरं कृत्वा पादयोश्चतुरंगुलम्। ऊर्ध्वजानोरवस्थानं प्रलंबितभुजद्वयं।1। जिना: पद्मासनादीनामंकमध्ये निवेशनम्। उत्तानकरयुग्मस्य योगमुद्रां बभाषिरे।2। स्थितस्याध्युदरं न्यस्त कूर्परौ मुकुलीकृतौ। करौ स्याद्वंदनामुद्रा मुक्ताशुक्तिर्युतांगुली।86। मुकुलीकृतमाधाय जठरोपरि कूर्परम्। स्थितस्य वंदनामुद्रा करद्वंद्वं निवेदिता।3। मुक्ताशुक्तिर्मता मुद्रा जठरोपरि कूर्परम्। ऊर्ध्वजानो: करद्वंद्वं संलग्नांगुलि सूरिभि:।4।</p><p class="HindiText"> = 1. (देव वंदना या ध्यान सामायिक आदि करते समय मुख व शरीर की जो निश्चल आकृति, की जाती है, उसे मुद्रा कहते हैं। वह चार प्रकार की है–जिनमुद्रा, योगमुद्रा, '''वंदनामुद्रा''', और मुक्ताशुक्ति मुद्रा)। <br> | ||
<p class="HindiText">2. दोनों भुजाओं को लटकाकर और दोनों पैरों में चार अंगुल का अंतर रखकर कायोत्सर्ग के द्वारा शरीर को छोड़कर खड़े रहने का नाम जिनमुद्रा है। (और भी देखें [[ व्युत्सर्ग#1 | व्युत्सर्ग - 1 ]]में कायोत्सर्ग का लक्षण)। <br> | |||
<p class="HindiText">3. पल्यंकासन, पर्यंकासन और वीरासन इन तीनों में से कोई से भी आसन को माँडकर, नाभि के नीचे, ऊपर की तरफ हथेली करके, दोनों हाथों को ऊपर नीचे रखने से योगमुद्रा होती है। <br> | |||
<p class="HindiText">4. खड़े होकर दोनों कुहनियों को पेट के ऊपर रखने और दोनों हाथों को मुकुलित कमल के आकार में बनाने पर वंदना मुद्रा होती है। <br> | |||
<p class="HindiText">5. '''वंदनामुद्रावत्''' ही खड़े होकर, दोनों कुहनियों को पेट के ऊपर रखकर, दोनों हाथों की अंगुलियों को आकार विशेष के द्वारा आपस में संलग्न करके मुकुलित बनाने से मुक्ताशुक्ति मुद्रा होती है। </p><br> | |||
<p class="HindiText">अधिक जानकारी के लिये देखें [[ मुद्रा ]]।</p> | |||
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Latest revision as of 17:01, 3 March 2024
अनगारधर्मामृत/ मूल व उद्धृत श्लोक/8/85-86/813
मुद्राश्चतस्रो व्युत्सर्गस्थितिर्जैनीह यौगिकी। न्यस्तं पद्मासनाद्यंके पाण्योरुत्तानयोर्द्वयम्।85। जिनमुद्रांतरं कृत्वा पादयोश्चतुरंगुलम्। ऊर्ध्वजानोरवस्थानं प्रलंबितभुजद्वयं।1। जिना: पद्मासनादीनामंकमध्ये निवेशनम्। उत्तानकरयुग्मस्य योगमुद्रां बभाषिरे।2। स्थितस्याध्युदरं न्यस्त कूर्परौ मुकुलीकृतौ। करौ स्याद्वंदनामुद्रा मुक्ताशुक्तिर्युतांगुली।86। मुकुलीकृतमाधाय जठरोपरि कूर्परम्। स्थितस्य वंदनामुद्रा करद्वंद्वं निवेदिता।3। मुक्ताशुक्तिर्मता मुद्रा जठरोपरि कूर्परम्। ऊर्ध्वजानो: करद्वंद्वं संलग्नांगुलि सूरिभि:।4।
= 1. (देव वंदना या ध्यान सामायिक आदि करते समय मुख व शरीर की जो निश्चल आकृति, की जाती है, उसे मुद्रा कहते हैं। वह चार प्रकार की है–जिनमुद्रा, योगमुद्रा, वंदनामुद्रा, और मुक्ताशुक्ति मुद्रा)।
2. दोनों भुजाओं को लटकाकर और दोनों पैरों में चार अंगुल का अंतर रखकर कायोत्सर्ग के द्वारा शरीर को छोड़कर खड़े रहने का नाम जिनमुद्रा है। (और भी देखें व्युत्सर्ग - 1 में कायोत्सर्ग का लक्षण)।
3. पल्यंकासन, पर्यंकासन और वीरासन इन तीनों में से कोई से भी आसन को माँडकर, नाभि के नीचे, ऊपर की तरफ हथेली करके, दोनों हाथों को ऊपर नीचे रखने से योगमुद्रा होती है।
4. खड़े होकर दोनों कुहनियों को पेट के ऊपर रखने और दोनों हाथों को मुकुलित कमल के आकार में बनाने पर वंदना मुद्रा होती है।
5. वंदनामुद्रावत् ही खड़े होकर, दोनों कुहनियों को पेट के ऊपर रखकर, दोनों हाथों की अंगुलियों को आकार विशेष के द्वारा आपस में संलग्न करके मुकुलित बनाने से मुक्ताशुक्ति मुद्रा होती है।
अधिक जानकारी के लिये देखें मुद्रा ।