वंदना
From जैनकोष
सिद्धांतकोष से
द्वादशांग के 14 पूर्वों में से तीसरा पूर्व।−देखें श्रुतज्ञान - III.1.3।
- कृतिकर्म के अर्थ में।
राजवार्तिक/6/24/11/530/13 वंदना त्रिशुद्धिः द्वयासना चतुःशिरोऽवनतिः द्वादशावर्तना। = मन, वचन काय की शुद्धि पूर्वक खड्गासन या पद्मासन से चार बार शिरोनति और बारह आवर्त पूर्वक वंदना होती है।−(विशेष देखें कृतिकर्म )।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/509/728/13 वंदनीयगुणानुस्मरणं मनोवंदना। वाचा तद्गुणमाहात्म्यप्रकाशन-परवचनोच्चारणम्। कायेन वंदना प्रदक्षिणीकरणं कृतानतिश्च। = वंदना करने योग्य गुरुओं आदि के गुणों का स्मरण करना मनोवंदना है, वचनों के द्वारा उनके गुणों का महत्त्व प्रगट करना यह वचन वंदना है और प्रदक्षिणा करना, नमस्कार करना यह कायवंदना है।− (और भी देखें नमस्कार - 1)।
कषायपाहुड़ 1/1 - 1/86/111/5 एयरस्स तित्थयरस्स णमंसणं वंदणा णाम। = एक तीर्थंकर को नमस्कार करना वंदना है। ( भावपाहुड़ टीका/77/221/14 )।
धवला 8/3, 41/84/3 उसहाजिय....वङ्ढमाणादितित्थयराणं भरहादिकेवलीणं आइरिय - चइत्तालयादीणं भेयं काऊण णमोक्कारो गुणगणमल्लीणो सयकलावाउलो गुणाणुसरणसरूवो वा वंदणा णाम।
धवला 8/3, 42/92/5 तुहुं णिट्ठवियट्ठकम्मो केवलणाणेण दिट्ठसव्वट्ठो धम्मुम्मुहसिट्ठगोट्ठीए पुट्ठाभयदाणोसिट्ठपरिवालओ दुट्ठणिग्गहकरो देव त्ति पसंसावंदणा णाम। = ऋषभ, अजित....वर्धमानादि तीर्थंकर, भरतादि केवली, आचार्य एवं चैत्यालयादिकों के भेद को करके अथवा गुणगण भेद के आश्रित, शब्द कलाप से व्याप्त गुणानुस्मरण रूप नमस्कार करने को वंदना कहते हैं।88। ‘आप अष्ट कर्मों को नष्ट करने वाले, केवल ज्ञान से समस्त पदार्थों को देखने वाले, धर्मोन्मुख शिष्टों की गोष्ठी में अभयदान देने वाले, शिष्ट परिपालक और दुष्ट निग्रहकारी देव हैं’ ऐसी प्रशंसा करने का नाम वंदना है।
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/116/275/1 वंदना नाम रत्नत्रयसमन्वितानां यतीनां आचार्योपाध्यायप्रवर्तकस्थविराणां गुणातिशयं विज्ञाय श्रद्धापुरः - सरेण....विनये प्रवृत्तिः । = रत्नत्रयधारक यति, आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, वृद्धसाधु इनके उत्कृष्ट गुणों को जानकर श्रद्धा सहित होता हुआ विनयों में प्रवृत्ति करना, यह वंदना है।− (देखें नमस्कार - 1)।
- निश्चय वंदना का लक्षण
योगसार/अमितगति/5/49 पवित्रदर्शनज्ञानचारित्रमयमुत्तमं। आत्मानं वंद्यमानस्य वंदनाकथि कोविदैः।49। = जो पुरुष पवित्र दर्शन ज्ञान और चारित्र स्वरूप उत्तम आत्मा की वंदना करता है, विद्वानों ने उसी वंदना को उत्तम वंदना कहा है।
- वंदना के भेद व स्वरूप निर्देश
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/116/275/2 वंदना....अभ्युत्थानप्रयोगभेदेन द्विविधे विनये प्रवृत्तिः प्रत्येकं तयोरनेकभेदता। = अभ्युत्थान और प्रयोग के भेद से दो प्रकार विनय में प्रवृत्ति करना वंदना है। इन दोनों में से प्रत्येक के अनेक भेद हैं। (तिनमें अभ्युत्थान विनय तो आचार्य साधु आदि के अनेक भेद हैं। (तिनमें अभ्युत्थान विनय तो आचार्य साधु आदि के समक्ष खड़े होना, हाथ जोड़ना, पीछे-पीछे चलना आदि रूप हैं। इसका विशेष कथन ‘विनय’ प्रकरण में दिया गया है और प्रयोग विनय कृतिकर्म रूप है। इसका विशेष कथन निम्न प्रकार है।)
- मन वचन काय वंदना−देखें नमस्कार ।
- वंदना में आवश्यक अधिकार
भगवती आराधना / विजयोदया टीका/116/275/2 कर्त्तव्यं केन, कस्य, कदा, कस्मिन्कति वारानिति। अभ्युत्थानं केनोपदिष्टं किंवा फलमुद्दिश्य कर्त्तव्यं।....उपदिष्टः सर्वैर्जिनैः कर्मभूमिषु। = यह वंदना कार्य किसको करना चाहिए, किसके द्वारा करना चाहिए, कब करना चाहिए, किसके प्रति कितने बार करना चाहिए। अभ्युत्थान कर्त्तव्य है, वह किसने बताया है तथा किस फल की अपेक्षा करके यह करना चाहिए। सो इस कर्त्तव्य का कर्मभूमि वालों के लिए सर्व जिनेश्वरों ने उपदेश दिया है। (इसका क्या फल व महत्त्व है यह बात ‘विनय’ प्रकरण में बतायी गयी है। शेष बातें आगे क्रम पूर्वक निर्दिष्ट हैं।)
- वंदना किनकी करनी चाहिए
चारित्रसार/159/2 अतश्चैत्यस्य तदाश्रयचैत्यालयस्यापि वंदना कार्या।....गुरुणां पुण्यपुरुषोषितनिरवद्यनिषद्यास्थानादीनामुच्यते क्रिया-विधानम्। = जिन बिंब की तथा उसके आश्रयभूत चैत्यालय की वंदना करनी चाहिए। आचार्य आदि गुरुओं की तथा पुण्य पुरुषों के द्वारा सेवनीय उनके निषद्या स्थानों की वंदना विधि कहते हैं।
देखें वंदना - 1 (चौबीस तीर्थंकरों की, भरत आदि केवलियों की, आचार्य, उपाध्याय, प्रवर्तक, वृद्ध साधु चैत्य चैत्यालय की वंदना करनी चाहिए)−(और भी देखें कृतिकर्म#2.4 । कृतिकर्म - 2.4
- वंदना की तीन वेलाएँ व काल परिमाण
धवला 13/5, 4, 28/89/1 पदाहिणाणमंसणादिकिरियाणं तिण्णिवारकरणं तिक्खुत्तं णाम। अधवा एक्कम्हि चेव दिवसे जिणगुरुरि-सिवंदणाओ तिण्णिवारं किज्जंति त्ति तिक्खुत्तं णाम। तिसंज्झासु चेव वंदणा कीरदे अण्णत्थ किण्ण करिदे। ण अण्णत्थ वि तप्पडिसेह-णियमाभावादो। तिसज्झासु वंदणणियमपरूवणट्ठं तिक्खुत्तमिदि भणिदं। = प्रदक्षिणा और नमस्कार आदि क्रियाओं का तीन बार करना त्रिःकृत्वा है। अथवा एक ही दिन में जिन, गुरु, ऋषियों की वंदना तीन बार की जाती है, इसलिए इसका नाम त्रिःकृत्वा है। प्रश्न−तीनों ही संध्याकालों में वंदना की जाती है, अन्य समय में क्यों नहीं की जाती ? उत्तर−नहीं, क्योंकि अन्य समय में भी वंदना के प्रतिषेध का कोई नियम नहीं है। तीनों संध्याकालों में वंदना के नियम का कथन करने के लिए ‘त्रिःकृत्वा’ ऐसा कहा है।
अनगारधर्मामृत/8/79/807 तिस्रोऽह्नोंत्या निशश्चाद्या नाडय्यो व्यत्यासिताश्च ताः । मध्याह्नस्य च षट्कालास्त्रयोऽमी नित्यवंदने।79। - उक्तं च मुहूर्त्तत्रितयं कालः संध्यानां त्रितये बुधैः। कृतिकर्मविधेर्नित्यः परो नैमित्तिको मतः। = तीन संध्याकालों में अर्थात् पूर्वाह्ण अपराह्ण, व मध्याह्ण में वंदना का काल छह-छह घड़ी होता है। वह इस प्रकार है कि सूर्योदय से तीन घड़ी पूर्व से लेकर सूर्योदय के तीन घड़ी पश्चात् तक पूर्वाह्ण वंदना, मध्याह्ण में तीन घड़ी पूर्व से लेकर मध्याह्ण के तीन घड़ी पश्चात् तक मध्याह्ण वंदना और इसी प्रकार सूर्यास्त में तीन घड़ी पूर्व से सूर्यास्त के तीन घड़ी पश्चात् तक अपराह्णिक वंदना। यह तीनों संध्याओं का उत्कृष्ट काल है जैसे कि कहा भी है −कृतिकर्म की नित्य की विधि के काल का परिमाण तीनों संध्याओं में तीन - तीन मुहूर्त्त है। ( अनगारधर्मामृत/9/13 )।
- अन्य संबंधित विषय
- वंदना का फल गुणश्रेणी निर्जरा।−देखें पूजा - 2.4।
- वंदना के अतिचार।−देखें व्युत्सर्ग - 1।
- वंदना के योग्य आसन मुद्रा आदि।−देखें कृतिकर्म /3।
- एक जिन या जिनालय की वंदना से सबकी वंदना हो जाती है।−देखें पूजा - 3।
- साधुसंघ में परस्पर वंदना व्यवहार।−देखें विनय - 3, 4।
- चैत्यवंदना या देववंदना विधि।
चारित्रसार/159/5 आत्माधीनः सच्चैत्यादीन् प्रतिवंदनार्थं गत्वा धौतपादस्त्रिप्रदक्षिणीकृत्यैर्यापथकायोत्सर्गं कृत्वा प्रथममुपविश्यालोच्य चैत्यभक्तिकायोत्सर्गं करोमीति विज्ञाप्योत्थाय जिनेंद्रचंद्रदर्शन- मात्रंनिजनयनचंद्रकांतोपलविगलदानंदाश्रुजलधारापूरपरिप्लावि-तप-क्ष्मपुटोऽनादिभवदुर्लभभगवद-र्हत्परमेश्वरपरमभट्टारकप्रतिबिंबद-र्शनजनितहर्षोत्कर्षपुलकिततनुरतिभक्तिभरावनतमस्तकन्यस्तहस्तकुशेशयकुङ्मलो दंडकद्वयस्यादावंते च प्राक्तनक्रमेण प्रवृत्त्य चैत्यस्तवेन त्रिःपरीत्य द्वितीयवारेऽप्युपविश्यालोच्य पंचगुरुभक्तिकायोत्सर्गं करोमीति विज्ञाप्योत्थाय पंचपरमेष्ठिनः स्तुत्वा तृतीयवारेऽप्युपविश्यालोचनीयः। .....प्रदक्षिणीकरणे च दिक्चतुष्टयावनतौ चतुःशिरो भवति।...एवं देवतास्तवनक्रियायां चैत्यभक्तिं पंचगुरुभक्तिं च कुलर्यात्। = आत्माधीन होकर जिनबिंब आदिकों की वंदना के लिए जाना चाहिए। सर्व प्रथम पैर धोकर तीन प्रदक्षिणा दे ईर्यापथ कायोत्सर्ग करे। फिर बैठकर आलोचना करे। तदनंतर में ‘चेत्यभक्ति कायोत्सर्ग करता हूँ’ इस प्रकार प्रतिज्ञा कर तथा खड़े होकर श्री जिनेंद्र के दर्शन करे। जिससे कि आँखों में हर्षाश्रु भर जायें, शरीर हर्ष से पुलकित हो उठे और भक्ति से नम्रीभूत मस्तक पर दोनों हाथों को जोड़कर रख ले। अब सामायिक दंडक व थोस्सामि दंडक इन दोनों पाठों को आदि व अंत में तीन-तीन आवर्त व एक-एक शिरोनति सहित पढ़े। दोनों के मध्य में एक नमस्कार करे (देखें कृतिकर्म /4) तदनंतर चैत्यभक्ति का पाठ पढ़े तथा बैठकर तत्संबंधी आलोचना करे। इसी प्रकार पुनः दोनों दंडकों व कृतिकर्म सहित पंचगुरु भक्ति व तत्संबंधी आलोचना करे। प्रदक्षिणा करते समय भी प्रत्येक दिशा में तीन-तीन आवर्त और एक शिरोनति की जाती है। इस प्रकार चैत्य वंदना या देव वंदना में चैत्यभक्ति व पंचगुरु भक्ति की जाती है। ( भगवती आराधना / विजयोदया टीका/116/275/11 पर उद्धृत); ( अनगारधर्मामृत/9/ 13-21 )।
- वंदना का फल गुणश्रेणी निर्जरा।−देखें पूजा - 2.4।
- गुरु वंदना विधि
अनगारधर्मामृत/9/31 लघ्व्या सिद्धगणिस्तुत्या गणी वंद्यो गवासनात्। सैद्धांतोऽंतःश्रुतस्तुत्या तथान्यस्तन्नुतिं विना।31। - उक्तं च - सिद्धभक्त्या बृहत्साधुर्वंद्यते लघुसाधुना। लघ्व्या सिद्धश्रुतस्तुत्या सैद्धांतः प्रणम्यते। सिद्धाचार्यलघुस्तुत्या वंद्यते साधुभिर्गणी। सिद्धश्रुतगणिस्तुत्या लघ्व्या सिद्धांतविद्गणी। = साधुओं को आचार्य की वंदना गवासन से बैठकर लघुसिद्धभक्ति व लघु आचार्यभक्ति द्वारा करनी चाहिए। यदि आचार्य सिद्धांतवेत्ता हैं, तो लघु सिद्धभक्ति, लघु श्रुतभक्ति व लघु आचार्यभक्ति करनी चाहिए। जैसा कि कहा भी है−छोटे साधुओं को बड़े साधुओं की वंदना लघु सिद्धभक्ति पूर्वक तथा सिद्धांतवेत्ता साधुओं की वंदना लघु सिद्धभक्ति और लघु श्रुतभक्ति के द्वारा करनी चाहिए। आचार्य की वंदना लघु सिद्धभक्ति व लघु आचार्यभक्ति द्वारा तथा सिद्धांतवेत्ता आचार्य की वंदना लघु सिद्धभक्ति, लघु श्रुतभक्ति और लघु आचार्यभक्ति द्वारा करनी चाहिए।
- वंदना प्रकरण में कायोत्सर्ग का काल
देखें कायोत्सर्ग - 1 (वंदना क्रिया में सर्वत्र 27 उच्छ्वास प्रमाण कायोत्सर्ग का काल होता है।)
पुराणकोष से
(1) अंगबाह्यश्रुत का तीसरा प्रकीर्णक । इसमें वंदना करने योग्य परमेष्ठी आदि की वंदना-विधि बतलायी गयी है । हरिवंशपुराण - 2.102, 10. 130
(2) छ: आवश्यकों में तीसरा आवश्यक । इसमें बारह आवर्त और चार शिरोनतियाँ की जाती है । हरिवंशपुराण - 34.144