प्रवचनसार - गाथा 145 - तत्त्व-प्रदीपिका: Difference between revisions
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Latest revision as of 13:55, 23 April 2024
सपदेसेहिं समग्गो लोगो अट्ठेहिं णिट्ठिदो णिच्चो । (145)
जो तं जाणदि जीवो पाणचदुक्काभिसंबद्धो ॥156॥
अर्थ:
[सप्रदेशै: अर्थै:] सप्रदेश पदार्थों के द्वारा [निष्ठितः] समाप्ति को प्राप्त [समग्र: लोक:] सम्पूर्ण लोक [नित्य:] नित्य है, [तं] उसे [यः जानाति] जो जानता है [जीव:] वह जीव है,— [प्राणचतुष्काभिसंबद्ध:] जो कि (संसार दशा में) चार प्राणों से संयुक्त है ।
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथैवं ज्ञेयतत्त्वमुक्त्वा ज्ञानज्ञेयविभागेनात्मानं निश्चिन्वन्नात्मनोऽत्यन्तविभक्तत्वाय व्यवहारजीवत्वहेतुमालोचयति -
एवमाकाशपदार्थादाकालपदार्थाच्च समस्तैरेव संभावितप्रदेशसद्भावै: पदार्थे: समग्र एव य: समाप्तिं नीतो लोकस्तं खलु तदन्त:पातित्वेऽप्यचिन्त्यस्वपरपरिच्छेदशक्तिसंपदा जीव एव जानीते, न त्वितर: । एवं शेषद्रव्याणि ज्ञेयमेव, जीवद्रव्यं तु ज्ञेयं ज्ञानं चेति ज्ञानज्ञेयविभाग: ।
अथास्य जीवस्य सहजविजृम्भितानन्तज्ञानशक्तिहेतुके त्रिसमयावस्थायित्वलक्षणे वस्तु- स्वरूपभूततया सर्वदानपायिनि निश्चयजीवत्वे सत्यपि संसारावस्थायामनादिप्रवाहप्रवृत्तपुद्गलसंश्लेषदूषितात्मतया प्राणचतुष्काभिसंबद्धत्वं व्यवहारजीवत्वहेतु विभक्त-व्योऽस्ति ॥१४५॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
इस प्रकार जिन्हें प्रदेश का सद्भाव फलित हुआ है ऐसे आकाश-पदार्थ से लेकर काल-पदार्थ तक के सभी पदार्थों से समाप्ति को प्राप्त जो समस्त लोक है उसे वास्तव में, उसमें अंतःपाती होने पर भी, अचिन्त्य ऐसी स्वपर को जानने की शक्तिरूप सम्पदा के द्वारा जीव ही जानता है, दूसरा कोई नहीं । इस प्रकार शेष द्रव्य ज्ञेय ही हैं और जीवद्रव्य तो ज्ञेय तथा ज्ञान है; - इस प्रकार ज्ञान और ज्ञेय का विभाग है ।
अब, इस जीव को, सहजरूप से (स्वभाव से ही) प्रगट अनन्त-ज्ञान-शक्ति जिसका हेतु है और तीनों काल में अवस्थायिपना (टिकना) जिसका लक्षण है ऐसा, वस्तु का स्वरूपभूत होने से सर्वदा अविनाशी निश्चयजीवत्व होनेपर भी, संसारावस्था में अनादिप्रवाहरूप से प्रवर्तमान पुद्गल संश्लेष के द्वारा स्वयं दूषित होने से उसके चार प्राणों से संयुक्तपना है-जो कि (संयुक्तपना) व्यवहार-जीवत्व का हेतु है, और विभक्त करने योग्य है ॥१४५॥