प्रवचनसार - गाथा 174 - तत्त्व-प्रदीपिका: Difference between revisions
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Latest revision as of 13:55, 23 April 2024
रूवादिएहिं रहिदो पेच्छदि जाणादि रूवमादीणि । (174)
दव्वाणि गुणे य जधा तह बंधो तेण जाणीहि ॥186॥
अर्थ:
[यथा] जैसे [रूपादिकै: रहित:] रूपादिरहित (जीव) [रूपादीनि] रूपादि [द्रव्याणि गुणान् च] द्रव्यों को तथा गुणों को (रूपी द्रव्यों को और उनके गुणों को) [पश्यति जानाति] देखता है और जानता है [तथा] उसी प्रकार [तेन] उसके साथ (अरूपी का रूपी के साथ) [बंध: जानीहि] बंध जानो ॥
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथैवममूर्तस्याप्यात्मनो बन्धो भवतीति सिद्धान्तयति -
येन प्रकारेण रूपादिरहितो रूपीणि द्रव्याणि तद्गुणांश्च पश्यति जानाति च, तेनैव प्रकारेण रूपादिरहितो रूपिभि: कर्मपुद्गलै: किल बध्यते, अन्यथा कथममूर्तो मूर्त पश्यति जानाति चेत्यत्रापि पर्यनुयोगस्यानिवार्यत्वात् । न चैतदत्यन्तदुर्घटत्वाद्दार्ष्टांन्तिकीकृतं, किन्तु दृष्टान्तद्वारेणाबालगोपालप्रकटितम् ।
तथा हि - यथा बालकस्य गोपालकस्य वा पृथगवस्थितं मृद्बलीवर्दं बलीवर्दं वा पश्यतो जानतश्च न बलीवर्देन सहास्ति संबंध:, विषयभावावस्थितबलीवर्दनिमित्तेपयोगा-धिरूढवबलीर्दाकारदर्शनज्ञानसंबंधो बलीवर्दसंबंधव्यवहारसाधकस्त्वस्त्येव । तथा किलात्मनो नीरूपत्वेन स्पर्शशून्यत्वान्न कर्मपुद्गलै: सहास्ति संबंध:, एकावगाह-भावावस्थितकर्मपुद्गलनिमित्तेपयोगाधिरूढरागद्वेषादिभावसंबंध: कर्मपुद्गलबन्धव्यवहार-साधकस्त्वस्त्येव ॥१७४॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
जैसे रूपादिरहित (जीव) रूपी द्रव्यों को तथा उनके गुणों को देखता है तथा जानता है उसी प्रकार रूपादिरहित (जीव) रूपी कर्मपुद्गलों के साथ बँधता है; क्योंकि यदि ऐसा न हो तो यहाँ भी (देखने-जानने के संबंध में भी) वह प्रश्न अनिवार्य है कि अमूर्त मूर्त को कैसे देखता-जानता है?
और ऐसा भी नहीं है कि यह (अरूपी का रूपो के साथ बंध होने की) बात अत्यन्त दुर्घट है इसलिये उसे दार्ष्टान्तरूप बनाया है, परन्तु दृष्टांत द्वारा आबालगोपाल सभी को प्रगट (ज्ञात) हो जाये इसलिये दृष्टान्त द्वारा समझाया गया है । यथा :—बालगोपाल का पृथक् रहनेवाले मिट्टी के बैल को अथवा (सच्चे) बैल को देखने और जानने पर बैल के साथ संबंध नहीं है तथापि विषयरूप से रहने वाला बैल जिनका निमित्त है ऐसे उपयोगारूढ वृषभाकार दर्शन-ज्ञान के साथ का संबंध बैल के साथ के संबंधरूप व्यवहार का साधक अवश्य है; इसी प्रकार आत्मा अरूपीपने के कारण स्पर्शशून्य है, इसलिये उसका कर्मपुद्गलों के साथ संबंध नहीं है, तथापि एकावगाहरूप से रहने वाले कर्मपुद्गल जिनके निमित्त हैं ऐसे उपयोगारूढ रागद्वेषादिकभावों के साथ का संबंध कर्मपुद्गलों के साथ के बंधरूप व्यवहार का साधक अवश्य है ।