ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 174 - तात्पर्य-वृत्ति
From जैनकोष
रूवादिएहिं रहिदो पेच्छदि जाणादि रूवमादीणि । (174)
दव्वाणि गुणे य जधा तह बंधो तेण जाणीहि ॥186॥
अर्थ:
[यथा] जैसे [रूपादिकै: रहित:] रूपादिरहित (जीव) [रूपादीनि] रूपादि [द्रव्याणि गुणान् च] द्रव्यों को तथा गुणों को (रूपी द्रव्यों को और उनके गुणों को) [पश्यति जानाति] देखता है और जानता है [तथा] उसी प्रकार [तेन] उसके साथ (अरूपी का रूपी के साथ) [बंध: जानीहि] बंध जानो ॥
तात्पर्य-वृत्ति:
अथैवममूर्तस्याप्यात्मनो नयविभागेनबन्धो भवतीति प्रत्युत्तरं ददाति --
रूवादिएहिं रहिदो अमूर्तपरमचिज्ज्योतिःपरिणतत्वेन तावदयमात्मारूपादिरहितः । तथाविधः सन् किं करोति । पेच्छदि जाणादि मुक्तावस्थायां युगपत्परिच्छित्तिरूप-सामान्यविशेषग्राहककेवलदर्शनज्ञानोपयोगेन यद्यपि तादात्म्यसंबन्धो नास्ति तथापि ग्राह्यग्राहकलक्षण-संबन्धेन पश्यति जानाति । कानि कर्मतापन्नानि । रूवमादीणि दव्वाणि रूपरसगन्धस्पर्शसहितानिमूर्तद्रव्याणि । न केवलं द्रव्याणि गुणे य जधा तद्गुणांश्च यथा । अथवा यथा कश्चित्संसारी जीवो विशेषभेदज्ञानरहितः सन् काष्ठपाषाणाद्यचेतनजिनप्रतिमां दृष्टवा मदीयाराध्योऽयमिति मन्यते । यद्यपि तत्र सत्तावलोकदर्शनेन सह प्रतिमायास्तादात्म्यसंबन्धो नास्ति तथापि परिच्छेद्यपरिच्छेदक-लक्षणसंबन्धोऽस्ति । यथा वा समवसरणे प्रत्यक्षजिनेश्वरं दृष्टवा विशेषभेदज्ञानी मन्यतेमदीयाराध्योऽयमिति । तत्रापि यद्यप्यवलोक नज्ञानस्य जिनेश्वरेण सह तादात्म्यसंबन्धो नास्ति तथाप्या-राध्याराधकसंबन्धोऽस्ति । तह बंधो तेण जाणीहि तथा बन्धं तेनैव दृष्टान्तेन जानीहि । अयमत्रार्थः —
यद्यप्ययमात्मा निश्चयेनामूर्तस्तथाप्यनादिकर्मबन्धवशाद्व्यवहारेण मूर्तः सन् द्रव्यबन्धनिमित्तभूतं रागादि-विकल्परूपं भावबन्धोपयोगं करोति । तस्मिन्सति मूर्तद्रव्यकर्मणा सह यद्यपि तादात्म्यसंबन्धो नास्ति तथापि पूर्वोक्तदृष्टान्तेन संश्लेषसंबन्धोऽस्तीति नास्ति दोषः ॥१७४॥
एवं शुद्धबुद्धैकस्वभाव-जीवकथनमुख्यत्वेन प्रथमगाथा, मूर्तिरहितजीवस्य मूर्तकर्मणा सह कथं बन्धो भवतीति पूर्वपक्षरूपेण द्वितीया, तत्परिहाररूपेण तृतीया चेति गाथात्रयेण प्रथमस्थलं गतम् ।
तात्पर्य-वृत्ति हिंदी :
[रूवादिएहिं रहिदो] प्रथम तो अमूर्त परम-चैतन्य-ज्योतिरूप से परिणत होने के कारण यह आत्मा रूपादि रहित है । वैसा होता हुआ वह क्या करता है ? [पेच्छदि जाणादि] सिद्ध अवस्था में यद्यपि एक साथ जानकारीरूप सामान्य-विशेष को ग्रहण करने वाले केवलदर्शन-केवलज्ञान उपयोग के साथ तादात्म्य-सम्बन्ध नहीं है, तथापि ग्रहण करने योग्य -- जानने योग्य और ग्रहण करनेवाले -- जाननेवाले अर्थात् ज्ञेय-ज्ञायक लक्षण सम्बन्ध-रूप से देखते और जानते हैं । कर्मता को प्राप्त इस गाथा मे कर्म-कारक में प्रयुक्त किन्हे वे जीव देखते-जानते हैं ? [रूवमादीणि दव्वाणि] वे रूप, रस, गन्ध, स्पर्श सहित द्रव्यों को देखते-जानते हैं । न केवल द्रव्यों को देखते-जानते हैं, वरन् [गुणे य जधा] और जैसे उनके गुणों को देखते-जानते हैं ।
अथवा, कोई संसारी जीव, विशेष भेद-ज्ञान से रहित होता हुआ काठ, पत्थर आदि की अचेतन जिन- प्रतिमा को देखकर, ये मेरे आराध्य हैं -- ऐसा मानता है । यद्यपि वहाँ सत्ता को देखनेवाले दर्शन के साथ प्रतिमा का तादात्म्य-सम्बन्ध नहीं है, तथापि ज्ञेय-ज्ञायक लक्षण सम्बन्ध है । अथवा, जैसे विशेष भेद-ज्ञानी समवसरण में प्रत्यक्ष जिनेन्द्र भगवान को देखकर मे मेरे आराध्य हैं -- ऐसा मानता है । वहाँ भी यद्यपि अवलोकन ज्ञान का, जिनेश्वर के साथ तादात्म्य-सम्बन्ध नहीं है, तथापि आराध्य-आराधक सम्बन्ध है । [तह बंधो तेण जाणीहि] उसी-प्रकार से बन्ध उसी दृष्टान्त द्वारा जानो ।
यहाँ अर्थ यह है -- यद्यपि यह आत्मा निश्चय से अमूर्त है, तथापि अनादि कर्मबन्ध के वश व्यवहार से मूर्त होता हुआ, द्रव्य-बन्ध के निमित्त-भूत रागादि विकल्प-रूप भाव-बन्ध-मय उपयोग को करता है । वैसा होने पर, यद्यपि मूर्त द्रव्य-कर्मों के साथ तादात्म्य सम्बन्ध नहीं है, तथापि पहले कहे हुये उदाहरण से संश्लेष सम्बन्ध है -- इसमें दोष नहीं है ।
इस प्रकार शुद्ध-बुद्ध एक स्वभावी जीव के कथन की मुख्यता से पहली गाथा; मूर्ति रहित -- अमूर्त जीव का, मूर्त कर्मों के साथ कैसे बन्ध होता है -- इसप्रकार पूर्व पक्ष (प्रश्न) रूप से दूसरी, तथा उसके परिहार (उत्तर) रूप से तीसरी -- इसप्रकार तीन गाथाओं द्वारा पहला स्थल समाप्त हुआ ।