प्रवचनसार - गाथा 224 - तत्त्व-प्रदीपिका: Difference between revisions
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Latest revision as of 13:55, 23 April 2024
किं किंचण त्ति तक्कं अपुणब्भवकामिणोध देहे वि । (224)
संग त्ति जिणवरिंदा अप्पडिकम्मत्तमुद्दिट्ठा ॥243॥
अर्थ:
[अथ] जब कि [जिनवरेन्द्रा:] जिनवरेन्द्रों ने [अपुनर्भवकामिन:] मोक्षाभिलाषी के, [संग: इति] 'देह परिग्रह है' ऐसा कहकर [देहे अपि] देह में भी [अप्रतिकर्मत्वम्] अप्रतिकर्मपना (संस्काररहितपना) [उद्दिष्टवन्त:] कहा (उपदेशा) है, तब [किं किंचनम् इति तर्क:] उनका यह (स्पष्ट) आशय है कि उसके अन्य परिग्रह तो कैसे हो सकता है?
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथोत्सर्ग एव वस्तुधर्मो, न पुनरपवाद इत्युपदिशति -
अत्र श्रामण्यपर्यायसहकारिकारणत्वेनाप्रतिषिध्यमानेऽत्यन्तमुपात्तदेहेऽपि परद्रव्यत्वात्परि-ग्रहोऽयं न नामानुग्रहार्ह: किंतूपेक्ष्य एवेत्यप्रतिकर्मत्वमुपदिष्टवन्तो भगवन्तोऽर्हद्देवा: । अथ तत्र शुद्धात्मतत्त्वोपलम्भसंभावनरसिकस्य पुंस: शेषोऽन्योऽनुपात्त: परिग्रहो वराक: किं नाम स्यादिति व्यक्त एव हि तेषमाकूत: । अतोऽवधार्यते उत्सर्ग एव वस्तुधर्मो न पुनरपवाद: ।
इदमत्र तात्पर्यं, वस्तुधर्मत्वात्परमनैर्ग्रन्थ्यमेवावलम्ब्यम् ॥२२४॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
अब, 'उत्सर्ग ही वस्तुधर्म है, अपवाद नहीं' ऐसा उपदेश करते हैं :-
यहाँ, श्रामण्य-पर्याय का सहकारी कारण होने से जिसका निषेध नहीं किया गया है ऐसे अत्यन्त उपात्त (प्राप्त) शरीर में भी, 'यह (शरीर) परद्रव्य होने से परिग्रह है, वास्तव में यह अनुग्रह योग्य नहीं, किन्तु उपेक्षा योग्य ही है' ऐसा कहकर, भगवन्त अर्हन्तदेवों ने अप्रतिकर्मपने का उपदेश दिया है, तब फिर वहाँ शुद्धात्मतत्त्वोपलब्धि की संभावना के रसिक पुरुषों के शेष—अन्य अनुपात्त (अप्राप्त) परिग्रह बेचारा कैसे (अनुग्रह योग्य) हो सकता है?—ऐसा उनका (अर्हन्त देवों का) आशय व्यक्त ही है । इससे निश्चित होता है कि—उत्सर्ग ही वस्तुधर्म है, अपवाद नहीं । तात्पर्य यह है कि वस्तुधर्म होने से परम निर्ग्रन्थपना ही अवलम्बन योग्य है ॥२२४॥