ग्रन्थ:प्रवचनसार - गाथा 223 - तत्त्व-प्रदीपिका
From जैनकोष
अप्पडिकुट्ठं उवधिं अपत्थणिज्जं असंजदजणेहिं । (223)
मुच्छादिजणणरहिदं गेण्हदु समणो जदि वि अप्पं ॥242॥
अर्थ:
[यद्यपि अल्पम्] भले ही अल्प हो तथापि, [अप्रतिक्रुष्टम्] जो अनिंदित हो, [असंयतजनै: अप्रार्थनीयं] असंयतजनों में अप्रार्थनीय हो और [मूर्च्छादिजनन रहितं] जो मूर्च्छादि की जननरहित हो [उपधि] ऐसी ही उपधि को [श्रमण:] श्रमण [गृह्णतु] ग्रहण करो ।
तत्त्व-प्रदीपिका:
अथाप्रतिषिद्धोपधिस्वरूपमुपदिशति -
य: किलोपधि: सर्वथा बन्धासाधकत्वादप्रतिक्रुष्ट: संयमादन्यत्रानुचितत्वादसंयतजना-प्रार्थनीयो, रागादिपरिणाममन्तरेण धार्यमाणत्वान्मूर्च्छादिजननरहितश्च भवति; स खल्व-प्रतिषिद्ध: । अतो यथोदितस्वरूप एवोपधिरूपादेयो, न पुनरल्पोऽपि यथोदितविपर्यस्तत्स्वरूप: ॥२२३॥
तत्त्व-प्रदीपिका हिंदी :
अब, अनिषिद्ध उपधि का स्वरूप कहते हैं :-
जो उपधि
- सर्वथा बंध का असाधक होने से अनिन्दित है,
- संयत के अतिरिक्त अन्यत्र अनुचित होने से असंयत-जनों के द्वारा अप्रार्थनीय (अनिच्छनीय) है और
- रागादि-परिणाम के बिना धारण की जाने से मूर्च्छादि के उत्पादन से रहित है,