योगसार - अजीव-अधिकार गाथा 107: Difference between revisions
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<p class="Utthanika">आत्मा को द्रव्यकर्म का कर्ता मानने पर दोषापत्ति -</p> | |||
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आत्मना कुरुते कर्म यद्यात्मा निश्चितं तदा ।<br> | |||
कथं तस्य फलं भुङ्क्ते स दत्ते कर्म वा कथम् ।।१०७।।<br> | |||
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<p><b> अन्वय </b>:- | <p class="GathaAnvaya"><b> अन्वय </b>:- यदि निश्चितं आत्मा आत्मना कर्म कुरुते तदा स: तस्य (कर्मण:) फलं कथं भुङ्क्ते वा कर्म कथं (फलं) दत्ते ? </p> | ||
<p><b> सरलार्थ </b>:- कर्म | <p class="GathaArth"><b> सरलार्थ </b>:- यदि यह निश्चितरूप से माना जाय कि आत्मा आत्मा के द्वारा अर्थात् अपने ही उपादान से कर्म को करता है तो फिर वह उस कर्म के फल को कैसे भोगता है? और वह कर्म आत्मा को फल कैसे देता है? </p> | ||
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Latest revision as of 10:25, 15 May 2009
आत्मा को द्रव्यकर्म का कर्ता मानने पर दोषापत्ति -
आत्मना कुरुते कर्म यद्यात्मा निश्चितं तदा ।
कथं तस्य फलं भुङ्क्ते स दत्ते कर्म वा कथम् ।।१०७।।
अन्वय :- यदि निश्चितं आत्मा आत्मना कर्म कुरुते तदा स: तस्य (कर्मण:) फलं कथं भुङ्क्ते वा कर्म कथं (फलं) दत्ते ?
सरलार्थ :- यदि यह निश्चितरूप से माना जाय कि आत्मा आत्मा के द्वारा अर्थात् अपने ही उपादान से कर्म को करता है तो फिर वह उस कर्म के फल को कैसे भोगता है? और वह कर्म आत्मा को फल कैसे देता है?