योगसार - अजीव-अधिकार गाथा 106
From जैनकोष
जीव, जीवरूप ही रहता है -
अनादावपि सम्बन्धे जीवस्य सह कर्मणा ।
न जीवो याति कर्मत्वं जीवत्वं कर्म वा स्फुट् ।।१०६।।
अन्वय :- कर्मणा सह जीवस्य अनादौ सम्बन्धे अपि न जीव: कर्मत्वं याति न वा कर्म जीवत्वं (याति एतत्) स्फुट् (अस्ति) ।
सरलार्थ :- कर्म के साथ जीव का अनादिकालीन सम्बन्ध होनेपर भी न तो कभी जीव कर्मपने को प्राप्त होता है न कर्म भी कभी जीवपने को प्राप्त होता है अर्थात् जीव कभी कर्मरूप परिणमित नहीं होता और कर्म भी कभी जीवरूप परिणमित नहीं होता है; यह स्पष्ट ही है ।