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| <p id="1"> (1) पुष्करवरद्वीप का रक्षक देव । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 5. 639 </span></p>
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| <p id="2">(2) विजयार्ध पर्वत की दक्षिणश्रेणी के पचास नगरों में एक नगर । यह नगर कोट, गोपुर और तीन परिखाओ से युक्त है । <span class="GRef"> महापुराण 19.36,53 </span></p>
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| <p id="3">(3) छ: कुलाचलों के मध्य स्थित हूद (सरोवर) । यह स्वर्णकुला, रक्ता और रक्तोदा नदियों का उद्गम स्थान है । <span class="GRef"> महापुराण 63.198, </span><span class="GRef"> हरिवंशपुराण 5.120-121, 135 </span></p>
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| <p id="4">(4) अंगबाह्यश्रुत के चौदह प्रकीर्णकों में एक प्रकीर्णक । इसमें देवों के अपवाद का वर्णन किया गया है । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 2.101-104, 10.137 </span></p>
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| <p id="5">(5) पुण्डरीकिणी नगरी के राजा वज्रदन्त का पौत्र और अमिततेज का पुत्र । इसे शिशु अवस्था में ही वज्रदन्त से राज्य प्राप्त हो गया था । <span class="GRef"> महापुराण 8.79-88 </span></p>
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| <p id="6">(6) चक्रपुर नगर के राजा वरसेन तथा रानी लक्ष्मीमती का पुत्र । इसका विवाह इन्द्रपुर के राजा उपेन्द्रसेन की पुत्री पद्मावती से हुआ था । निशुम्भ ने इस विवाह से असंतुष्ट होकर इसे मारने के लिए युद्ध किया था किन्तु यह अपन चलाये चक्र से स्वयं मारा गया या । <span class="GRef"> महापुराण 65.174-184 </span>इसने कोटिशिला को अपनी कमर तक ऊपर उठाया था जिसे नवें नारायण कृष्ण चार अंगुल मात्र ऊपर उठा सके थे । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 35. 36-38 </span>यह तीन खण्ड का स्वामी धीरवीर और स्वभाव से अतिरौद्र चित्त था । <span class="GRef"> वीरवर्द्धमान चरित्र 18.112-113 </span>इसकी आयु पैंसठ हजार वर्ष थी । इसमें दो सौ पचास वर्ष कुमार अवस्था में और चौसठ हजार चार सौ चालीस वर्ष राज्य अवस्था में इसने बिताये थे । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 60. 528-529 </span>इसने चिरकाल तक भोगों का भोग किया था । भोगों में आसक्ति के कारण इसने नरकायु का बन्ध किया और अंत में रौद्रध्यान के कारण मरकर तम:प्रभो नामक छठे नरक में उत्पन्न हुआ । यह नारायणों में छठा नारायण था । <span class="GRef"> महापुराण 65.188-189 , 192 </span></p>
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| <p id="7">(7) विदेह क्षेत्र का देश । <span class="GRef"> पद्मपुराण 64.50 </span></p>
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| <p id="8">(8) सातवां रुद्र । इसकी अवगाहना साठ धनुष, आयु पचास लाख वर्ष थी । यह दक्ष पूर्व का पाठी था । मरकर नरक गया । <span class="GRef"> हरिवंशपुराण 60.535-547 </span></p>
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