पुंडरीक
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सिद्धांतकोष से
- छठे रुद्र थे। - देखें शलाका पुरुष - 7।
- अपने पूर्व के दूसरे भव में शल्य सहित मर करके देव हुआ था। वर्तमान भव में छठे नारायण थे। अपरनाम पुरुष पुंडरीक था। - देखें शलाका पुरुष - 4।
- श्रुतज्ञान का 12वाँ अंग बाह्य - देखें श्रुतज्ञान - III।
- पुष्करवर द्वीप का रक्षक व्यंतर देव - देखें व्यंतर - 4.7।
- मानुषोत्तर पर्वत का रक्षक व्यंतर - देखें व्यंतर - 4।
- विजयार्ध की दक्षिण श्रेणी का एक नगर - देखें विद्याधर ।
पुराणकोष से
(1) पुष्करवरद्वीप का रक्षक देव । हरिवंशपुराण - 5.639
(2) विजयार्ध पर्वत की दक्षिणश्रेणी के पचास नगरों में एक नगर । यह नगर कोट, गोपुर और तीन परिखाओ से युक्त है । महापुराण 19.36,53
(3) छ: कुलाचलों के मध्य स्थित हूद (सरोवर) । यह स्वर्णकुला, रक्ता और रक्तोदा नदियों का उद्गम स्थान है । महापुराण 63.198, हरिवंशपुराण - 5.120-121, 135
(4) अंगबाह्यश्रुत के चौदह प्रकीर्णकों में एक प्रकीर्णक । इसमें देवों के अपवाद का वर्णन किया गया है । हरिवंशपुराण - 2.101-104, 10.137
(5) पुंडरीकिणी नगरी के राजा वज्रदंत का पौत्र और अमिततेज का पुत्र । इसे शिशु अवस्था में ही वज्रदंत से राज्य प्राप्त हो गया था । महापुराण 8.79-88
(6) चक्रपुर नगर के राजा वरसेन तथा रानी लक्ष्मीमती का पुत्र । इसका विवाह इंद्रपुर के राजा उपेंद्रसेन की पुत्री पद्मावती से हुआ था । निशुंभ ने इस विवाह से असंतुष्ट होकर इसे मारने के लिए युद्ध किया था किंतु यह अपन चलाये चक्र से स्वयं मारा गया या । महापुराण 65.174-184 इसने कोटिशिला को अपनी कमर तक ऊपर उठाया था जिसे नवें नारायण कृष्ण चार अंगुल मात्र ऊपर उठा सके थे । हरिवंशपुराण - 35.36-38 यह तीन खंड का स्वामी धीरवीर और स्वभाव से अतिरौद्र चित्त था । वीरवर्द्धमान चरित्र 18.112-113 इसकी आयु पैंसठ हजार वर्ष थी । इसमें दो सौ पचास वर्ष कुमार अवस्था में और चौसठ हजार चार सौ चालीस वर्ष राज्य अवस्था में इसने बिताये थे । हरिवंशपुराण - 60.528-529 इसने चिरकाल तक भोगों का भोग किया था । भोगों में आसक्ति के कारण इसने नरकायु का बंध किया और अंत में रौद्रध्यान के कारण मरकर तम:प्रभो नामक छठे नरक में उत्पन्न हुआ । यह नारायणों में छठा नारायण था । महापुराण 65.188-189 , 192
(7) विदेह क्षेत्र का देश । पद्मपुराण - 64.50
(8) सातवां रुद्र । इसकी अवगाहना साठ धनुष, आयु पचास लाख वर्ष थी । यह दक्ष पूर्व का पाठी था । मरकर नरक गया । हरिवंशपुराण - 60.535-547