चारित्रपाहुड - गाथा 36: Difference between revisions
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Latest revision as of 11:55, 17 May 2021
अपरिग्गह समणुण्णेसु सद्दपरिसरसरूवगंधेसु ।
रायद्दोसाईणं परिहारो भावणा होंति ।।36।।
(99) परिग्रहत्याग महाव्रत में मनोज्ञामनोज्ञ विषयरागद्वेषवर्जन―परिग्रह किसलिए लोग जोडते हैं ? पंचेंद्रिय के विषयों की साधना के लिए जोड़ते हैं और आगे भी हमारे इंद्रिय विषयों के साधन चलते रहें इस ख्याल से परिग्रह का संचय करते हैं । कोई अगर एक वर्तमान ही इंद्रिय विषय का राग रख रहा है तो उसे अधिक परिग्रह जोड़ने की लालसा न बनेगी, क्योंकि वह तो यह चाहता है कि सदा जीवन में कभी भी हमारे इन विषयों का साधन न छूटे उसके लिए इतने परिग्रह जोड़ने होते हैं । तो उन इंद्रियविषयों में कुछ तो हैं मन को रमाने वाले और कुछ हैं मन में घृणा उपजाने वाले अर्थात् मनोज्ञ और अमनोज्ञ दोनों प्रकार के परिग्रह होते हैं, तो उनमें मनोज्ञ परिग्रह में तो राग का त्याग हो और अमनोज्ञ परिग्रह में द्वेष का त्याग हो, ऐसी भावना रखना और उनका त्याग करना सो यह अपरिग्रह महाव्रत की भावना है ।
(100) परिग्रहत्याग महाव्रत में मनोज्ञामनोज्ञस्पर्शनेंद्रियविषयरागद्वेषपरिहार―जैसे स्पर्शन इंद्रिय का विषय स्पर्श है, मान लो ठंडा स्पर्श सुहाता है, गरम नहीं सुहाता और मिल जाये कहीं ठंडा स्पर्श तो वहाँ मौज मानना, राग करना, अहा बहुत ठीक रहा । तो यह परिग्रह महाव्रत का दोष है । उसने उस मनचाही वस्तु का राग किया और उसका परिग्रह बनाया । यद्यपि ठंडी जगह में भी रहना होता है, गर्मी की बाधा से भी दूर हो गए, यह चलता है मगर उसके प्रति ऐसा आशक्त होना कि उसमें अपने को संतोष मानना और मौज वाला मानना, इस उपयोग से होता क्या है कि आत्मा के अविकार महज स्वरूप की सुध खतम हो जाती है । तो महाव्रती जन मनोज्ञ स्पर्श में राग नहीं करते और अमनोज्ञ स्पर्श मिल जाये, गरम भोजन बुरा लगता है और गरम ही मिल गया तो उसमें द्वेष नहीं करते, अथवा ठंडा भोजन बुरा लगता और ठंडा ही मिल जाये तो उसमें वे अरति नहीं करते । महाव्रती की भिक्षावृत्ति का दूसरा नाम है गर्तपूरण, जैसे किसी गड्ढे को भरना है तो उसमें कोई बढ़िया घटिया का कुछ विवेक नहीं करता, जो भी कुछ मिला कूड़ा करकट मिट्टी पत्थर वगैरह सो उसमें भर दिया जाता है, क्योंकि गड्ढे को भर देने मात्र की वहाँ दृष्टि रहती है तो ऐसे ही महाव्रती की दृष्टि केवल गड्ढे को भर देना इतनी भर रहती ई । यह उदर (पेट) एक गड्ढा है, उसकी पूर्ति करना है, मगर इतना विवेक करते हैं कि कोई अशुद्ध भोजन न पहुंचे, भोजन शुद्ध भी हो, मगर सरस हो, नीरस हो, मनोज्ञ हो, अमनोज्ञ हो, इसका ध्यान नहीं करते । शुद्ध का ध्यान रखते हैं । तब ही तो कथानकों में वर्णन आया है कि किसी मुनि को कड़वी तूमी का आहार करा दिया और वह आहार करता जा रहा, बाद में कै हो गया, यह बात दूसरी है, मगर यह कह रहे कि वे मनोज्ञ और अमनोज्ञ का विचार नहीं करते । तो यह अपरिग्रह महाव्रत की भावना है ।
(101) परिग्रहत्याग महाव्रत में मनोज्ञामनोज्ञ रसनेंद्रिय विषय में व घ्राणेइंद्रियविषय में रागद्वेष परिहार―रसों में मनोज्ञ रस जैसे मीठा सुहाता है तो भीतर में ऐसा राग न रखना कि मुझे मिष्ठ चीज मिले । मान लो कोई चीज मीठी आ गई सामने तब तो अंजुली खोल दी नहीं तो अंजुली बंद कर ली ऐसी बात में राग की पुष्टि होती है । ऐसे मनोज्ञ अमनोज्ञ की बात साधुजन नहीं देखते, उन्हें तो बस भोजन शुद्ध हो, मनोज्ञ अमनोज्ञ की कुछ बात नहीं । मनोज्ञ अमनोज्ञ रसो में प्रीति करना यह अपरिग्रह महाव्रत में दोष है । ऐसे ही घ्राण का विषय है गंध सुगंध में तो राजी रहना और दुर्गंध आ जाये तो नाक भौं सिकोड़ना यह बात अपरिग्रह महाव्रती में नहीं है । सुगंध हो तो, दुर्गंध हो तो, उसके मात्र ज्ञाता दृष्टा रहते हैं । हाँ इतना विचार अवश्य करना चाहिए कि मल मूत्रादिक गंदगियों के पास न रहना, क्योंकि वह स्वाध्याय करने धर्मसाधना करने लायक स्थान नहीं । धर्मसाधना के अयोग्य स्थान है, इससे ऐसे स्थान में न रहना, मगर कदाचित् हवा के साथ दुर्गंध आ रही है तो उसमें नाक भौंह सिकोड़ना यह महाव्रती में नहीं होता । सुगंध के लिए ललचाना और सुगंध वाली जगह में उसका मौज लेने के लिए ललचाना, निवास करना ये सब मनोज्ञ के राग और मनोज्ञ के द्वेष हैं । अपरिग्रह महाव्रती के ये बातें नहीं होतीं । कोई फूल चढ़ा रहा है तो बड़े खुश हो रहे हैं और सुगंध इतनी मिल गई पर यह नहीं कह सकते कि फूल तोड़ने में एकेंद्रिय जीव का घात है और एक एकेंद्रिय के घात से असंख्यात एकेंद्रिय का घात होता है केवल एक फूल तोड़ने में, क्योंकि एक पेड़ में एक जीव तो मुख्य रहता ही है, मगर पेड़ के तने में, शाखा में, पत्ती में, फूल में अनेकों असंख्याते एकेंद्रिय जीव और भी रहते हैं । तो आप काम न करें ऐसी बात नहीं कह सकते और फूल चढ़ाये तो वह सुहा जाये ये अपरिग्रह महाव्रती के काम नहीं होते । ये तो लौकिक काम हो गए । महाव्रती सन्यासी तो इतना विरक्त है विषयों से कि उसको ओर उसका उपयोग हो नहीं होता । कभी भोजन करना पड़ता तो विवेक उसे उठाता है कि निराहार मत रहो उससे तुम्हारे संयम में बाधा होगी । सो करता है भोजन, पर मनोज्ञ से प्रीति और अमनोज्ञ से अप्रीति, यह बात अपरिग्रह महाव्रती के नहीं होती ।
(102) परिग्रह त्याग महाव्रत में मनोज्ञामनोज्ञ चक्षुरिंद्रिय विषय में रागद्वेष का परिहार―अपरिग्रह महाव्रती में निरंतर रूप को देखने को चाह और कुरूप को देखने से द्वेष की भावना नहीं बनती । सुंदर रूप चेतन में भी होते, अचेतन में भी होते हैं । बढ़िया पेन सुहाना, बढ़िया चश्मा सुहाना, कमंडल को बहुत सजाकर रखना ये वृत्तियां परिग्रह महाव्रती के नहीं होतीं । वह जानता है कि कमंडल मेरी चीज नहीं, जरूरत पढ़ने पर रखना पड़ रहा है । अब उसे रंगाना, सजाना, उसकी सुंदरता बढ़ाना, इसको जरूरत कुछ नहीं समझते । अन्य वस्तुओं को तो मुनिजन रखते ही नहीं है, पर जो उपकरण रख रहे हैं उनके भी सजाने की बात मन में नहीं आती । और यदि बिना सजावट के हो, अटपट रूप के हों तो उनसे द्वेष जगे यह बात महाव्रती में नहीं होती । तो रूप सुंदररूप का अवलोकन करना और असुंदर रूप से मुख मोड़ना यह बात अपरिग्रह महाव्रतों के लिए दोष की बात है । इन अचेतन पदार्थों में सुंदर असुंदर की बात विचारने से इस आत्मा का क्या भला होगा सो तो बताओ? बल्कि उसमें उपयोग जाने में कुछ हानि ही होगी । चैतन पदार्थों में रूप होता है । जैसे पुरुष स्त्री का रूप, तो वहाँ रूप क्या है? भीतर तो ऐसा हड्डी का आकार है कि वह सीधा दिख जाये तो बड़ा घिनावना लगेगा । उस ही हड्डी पर ये मांसादिक चिपके हैं और उसका कैसा ही ढांचा हो, कैसा ही रूप हो, उसमें कौनसी सार बात है? यह सब परिज्ञान होने से अपरिग्रह महाव्रती को एक रूप में रागद्वेष नहीं होता । उनकी तो धुन एक अविकार ज्ञानस्वरूप की ओर लगी है उनको इसका विकल्प करने के लिए समय ही कहां रखा हे?
(103) परिग्रहत्यागमहाव्रत में मनोज्ञामनोज्ञ कर्णेंद्रियविषय में व मनोविषय में राग द्वेष का परिहार―अपरिग्रह महाव्रती की वृत्ति में मनोज्ञ शब्द और अमनोज्ञ शब्द का रागद्वेष नहीं रहता । कोई सुरीला शब्द है, अच्छा राग रागनी वाला शब्द है उसमें राग होना और किसी का अच्छा स्वर नहीं है, ढंग ही नहीं बनता गाने का तो इसको सुनकर द्वेष करना यह अपरिग्रह महाव्रत ने दोष है । तो जब दूसरों का राग रागनी सुनने का राग भी साधु नहीं करता हो वह स्वयं ही दूसरों के बीच बड़े राग से भजन गाये तो यह बात नहीं बनती, और स्वयं भी बड़े राग से भजन बोलने की इसकी प्रवृत्ति नहीं होती, और अविकार ज्ञानस्वरूप में धुन लगाने वालों के पास इतना अवकाश भी कहाँ है कि वे रागद्वेष की बातों में लिपटते फिरें । तो ऐसे ये 5 विषय मनोज्ञ हों, अमनोज्ञ हों, उनमें रागद्वेष का परिहार करना और ऐसी ही अपनी भावना रखना यह है मनोज्ञ अमनोज्ञ शब्द में रागद्वेष का त्याग । इस तरह अपरिग्रह महाव्रती पंचेंद्रिय के विषयों में राग और द्वेष का परिहार करता है । इसके साथ-साथ यह भी समझना कि मन के विषय में भी वह रागद्वेष नहीं करता । जो मन को सुहाये ऐसे तत्त्व में प्रीति न हो और जो मन को न सुहाये ऐसे तत्त्व में अप्रीति न हो, मात्र उनका ज्ञाता दृष्टा रहे, जान लिया कि अमुक पदार्थ इस प्रकर से है । तो किसी मी प्रकार की जब अंतरंग परिग्रह में इसकी रुचि नहीं है तो बाहरी परिग्रह रखने को रुचि तो होगी ही कहां से? सब कुछ त्याग करने के बाद उसका स्मरण अपरिग्रह महाव्रती नहीं करता, क्योंकि स्मरण होता है उसका कि जिनको कुछ सारभूत समझा है । असार जानकर तो त्याग किया और अपने परमात्मस्वरूप को सर्वस्व सार और शरण जानकर अपनी आराधना के लिए त्याग किया तो ऐसा त्यागी परिग्रहत्यागी महाव्रती मुनि किसी भी परिग्रह का अपने चित्त में स्मरण नहीं करता है, इस प्रकार ये अपरिग्रह महाव्रत की 5 भावनायें कही गई हैं ।