वर्णीजी-प्रवचन:चारित्रपाहुड - गाथा 37
From जैनकोष
इरिया भासा एसण जा सा आदाण चेव णिक्खेवो ।
सजमसोहिणिमित्ते खंति जिणा पंच समिदीओ ।।37।।
(104) पांच समितियों का वर्णन―व्यवहार संयमाचरण में 3 गुप्ति और 5 महाव्रत का वर्णन हो चुका । अब 5 समितियों का संक्षिप्त वर्णन कर रहे हैं । समित कहते हैं संयम की शुद्धि के लिए सरक प्रवर्त्तन जो अर्थ शब्द में ही समाया, है । सम् कहते हैं भले प्रकार इति मायने प्रवृत्ति, गमन करना, बोलना, धरना उठाना । इन सब भली प्रकार की प्रवृत्तियों को समिति कहते हैं । समिति का प्रयोजन है संयम की शुद्धि । किसी जीव को बाधा न हो और अपने आप में विकार न जगे, ऐसी सावधानी सहित प्रवृत्ति का नाम है समिति । यह बताया गया है आगम में कि मुनि को और अधिक बोध न हो तो अष्ट प्रवचन मात्रिका का बोध तो होना ही चाहिए । वह अष्टप्रवचन मात्रिका क्या है? तीन गुप्ति और 5 समिति । महाव्रत को तो उसने धारण किया ही है, पर प्रवर्तन के लिए तीन गुप्ति और 5 समिति का स्पष्ट बोध होना चाहिए । मन वचन काय का वश में करना, कैसे रखना, वह सहज कला मुनि में आयी है उसका उनको पूरा स्पष्ट बोध है इसी प्रकार समिति कैसी प्रवृत्ति करनी चाहिए, उसका भी स्पष्ट बोध है । अष्ट प्रवचन मात्रिक का ज्ञान और पालन बिना मुनिव्रत नहीं बनता । इससे अधिक ज्ञान हो अथवा न हो, पर अपने आत्मा में स्थिर होने के लिए अष्टप्रवचन मात्रिका का स्पष्ट बोध होना ही काफी है । और जिसको अष्ट प्रवचन मात्रिका का बोध है उसे अविकार सहन चैतन्य स्वरूप का परिचय है, क्योंकि अपने अविकार सहज चित्प्रकाश का परिचय हुए बिना गुप्ति समिति का व्यवहार बन नहीं सकता । तो यहाँ बतला रहे हैं कि संयम की सिद्धि के निमित्त संयम में शुद्धि बनी रहे इस प्रयोजन से समितियों का पालन होता है । ये समितियां 5 हैं―(1) ईर्यासमिति, (2) भाषासमिति (3) एषणासमिति (4) आदानसमिति और (5) निक्षेपण समिति ।
(105) अन्यत्र कही हुई प्रतिष्ठापनासमिति की यहाँ निक्षेपणसमिति संज्ञा का निर्देश―यह प्रतिष्ठापना समिति नहीं ली है, क्योंकि वह निक्षेपसमिति में आ चुकी है । निर्जंतु जमीन देखकर मलमूत्र का क्षेपण करना सो भी निक्षेप करना कहलाया । आदान निक्षेपण में क्या अर्थ चलता है कि चीजें देख भाल कर उठाना धरना । तो धरना और क्षेपण एक ही बात है । वहाँ अलग से प्रतिष्ठापना के कहने में थोड़ा चित्त में यह रहता है कि उपकरण का, भली चीज का धरना तो आदान निक्षेपण है और मल मूत्रादिक गंदी चीजों का क्षेपण करना प्रतिष्ठापना समिति है पर यहाँ भले और गंदे पर ध्यान न देकर केवल क्षेपण पर ध्यान दिया है और यह बताया है कि शोधकर निर्जंतु जमीन देखकर वस्तु धरना, भली चीज भी धरना मल मूत्रादिक धरना, क्षेपण धरना यह एक क्षेपण में लिया गया है और इस कारण से इम प्रकार में कोई फर्क नहीं आता । चाहे कोई आदाननिक्षेपण एक नाम चौथी समिति का रखकर 5 वीं समिति का प्रतिष्ठापन समिति कहे या चौथी समिति का केवल आदान समिति नाम रखकर पांचवीं का नाम क्षेपण समिति है । इन दोनों कथनों में परस्पर विरोध नहीं है । भाव दोनों का एक है कि कोई चीज रखी जाये तो निर्जंतु जमीन पर रखी जाये । किसी जीव के प्राण का विघात न हो सके । तो समिति में मूल प्रयोजन तो किसी प्राणी का घात न हो यह है क्योंकि साधु जन जानते हैं कि सर्व प्राणियों में एक समान चैतन्यस्वरूप हैं और वह चैतन्यस्वरूप अनंतज्ञान अनंतदर्शन, अनंतशक्ति और अनंत आनंद की शक्ति रखने वाला है और ये प्राणी कुछ विकास की ओर बढ़ रहे हैं, क्षयोपशम इनका बढ़ रहा है तब तो दो इंद्रिय तीन इंद्रिय आदिक में पहुंच रहे हैं । इनका यदि हमारे द्वारा आघात होगा तो ये संक्लेश से मरण करेंगे और उस संक्लेश मरण के कारण ये इससे भी नीची पदवी में जन्म लेंगे । तो उन पर ऐसी अंत: करुणा है कि जिसके कारण मुनि जीवों की हिंसा से बचने की खूब सावधानी रखने है । तो इस तरह थे पांच समितियां कही गई हैं ।
(106) निरागार संयमाचरण में ईर्यासमितिरूप प्रवर्तन का वर्णन―इन समितियों में प्रथम समिति कहा है ईर्यासमिति । ईर्या नाम है चलना । ऐसी सावधानीपूर्वक चलने का नाम है ईर्यासमिति । सावधानी 4 बातों से होती है ईर्यासमिति में―दिन के प्रकाश में चलना, अच्छे प्रयोजन के लिए, तीर्थयात्रा गुरु मिलन आदिक प्रयोजन के लिए चलना अच्छे भाव रखकर चलना, चलते समय क्रोध न हो, मान न हो, कषायों की तीव्रता न हो इस तरह चलना और चार हाथ आगे जमीन देखकर चलना । जहाँ इन चारों का समायोग रहता है वहाँ ईर्यासमिति है । कोई साधु चाहे कि रात्रि को खूब तेज उजेला लेकर यात्रा करी जाये तो वह वर्जित है । कोई सोचे कि खोटे काम से भी जाये, किसी को गाली सुनाने के लिए जाना चाह रहा, और चले 4 हाथ आगे जमीन देखकर, कहीं किसी जीव की हिंसा न हो जाये, तो जहाँ मूल में परिणाम बिगाड़ ही लिया, खोटे काम में जाने का संकल्प बनाया तो वहाँ खुद की हिंसा तो तेज हो ही गई । ईर्यासमिति नहीं रहती । कोई जाये तो यात्रा आदिक के लिए, मगर किसी गांव से विराम लेकर क्रोधवश चल देवे तो वह ईर्यासमिति नहीं है, और चाहे अच्छी सड़क पर जा रहा है, मगर चार हाथ आगे जमीन नहीं देख रहा और यहाँ वहाँ बात करके सिर अगल-बगल मटकाकर चल रहा है तो वह ईर्यासमिति नहीं है । चलते समय में अधिकतर मौन रखना चाहिए, बीच में बोलने की आवश्यकता हो तो कोई अल्प वचन ही बोले । कोई कहानी छेड़कर चले, कोई ज्यादह समझाता हुआ चले तो उसको ईर्यासमिति का कहाँ ध्यान रहेगा? तो चार बातों का जहाँ समायोग है इस प्रकार चले तो उसे ईर्यासमिति कहते हैं ।
(107) निरागार संयमाचरण में द्वितीय भाषासमिति का वर्णन―भाषासमिति में हित मित प्रिय वचन बोले जाते हैं । कोई व्यक्ति दूसरे के हित के लिए तो बात करे, मगर बात एक सीधी ऐसी दुर्वचन से करे कि जिससे उसको चोट पहुंचे तो जिसका हित करने का भाव है उसको दुर्वचन से बोले तो वह तुरंत पीड़ित हो गया । वह अपने हित को कहा, सम्हालेगा? इसलिए वचन बोलना तो प्रिय वचन बोलना उससे ही जीव हित को ओर चल सकेगा । अप्रिय वचन बोलकर हित की ओर चलने की बात अधिक सफल नहीं होती । कोई मनुष्य प्रिय तो खूब बोले, मगर मन में मायाचारी हो उसके हित का ध्यान ही नहीं है तो वह भाषा समिति नहीं है । हृदय पवित्र होना चाहिए, और दूसरे के हित की बात चित्त में न आये तो परहित को दृष्टि में रखते हुए प्रिय वचन बोले तब तो वह भाषासमिति है नहीं तो स्वार्थवश रागवश प्रिय वचन बोले तो वह भाषा समिति नहीं । इसी प्रकार कोई हितकारी वचन तो बोलने की प्रवृत्ति रखे और प्रिय भी बोले, मगर अधिक बोले तो वह भी भाषासमिति नहीं है । मनुष्यों में यह गुण बहुत आवश्यक है जिनको अपना उद्धार करना है, अपनी प्रगति करनी है, अपने को समता शांति में रखना है उसको यह गुण आवश्यक है कि वह बहुत कम बोले । परिमित वचन बोलने में बडे लाभ हैं । अपनी गंभीरता नष्ट नहीं होती । दूसरे―जितना बोला जायेगा वह दूसरों के द्वारा आदर के योग्य रहेगा । अधिक बोलने वाले के प्रति यह भाव रहता है कि इसका तो ऐसा स्वभाव है, इसकी बात में कोई बल नहीं है, तो जो परिमित नहीं बोलता है उसमें गंभीरता नहीं रहती । वह सोचकर नहीं बोल सकता, और बिना सोचे बहुतसी बातें गलत मुख से निकल जायें तो उनके प्रति उसको खेद का बड़ा रंज होता है कि भावुकता में या जल्दबाजी में या अपने अनियंत्रण से, स्वच्छंदता से यदवा तदवा वचन निकल गए । उसका वह खेद भी करता है । तो बहुत अधिक बोलने से न खुद का हित है, न पर का हित है इस कारण वचन बहुत परिमित ही होना चाहिए । तो जहाँ हितकारी, परिमित प्रिय वचन निकलें उसे कहते हें भाषासमिति ।
(108) निरागारसंयमाचरण में एषणासमिति का वर्णन―तीसरी समिति है एषणा समिति । एषण का अर्थ है खोज, अपना आहार खोजना, अर्थ तो सीधा यह है और उसी के अनुसार प्रवृत्ति भी है । भिक्षा वृत्ति से या कोई वृत्ति पर संख्यान करके जो चर्या की जाती है उसको विनय के शब्दों में चर्या बोलते हैं पर वह है आहार खोजना । शुद्ध निर्दोष संयम के अनुरूप आहार मिले तो करना, यह भाव है साधु जनों का । आहार में अनेक दोष संभव हैं । प्रथम तो आहार ही शुद्ध न हो तो वह तो ग्रहण करने योग्य ही नहीं । दूसरे आहार देने वाले यदि अपने ऊपर भार समझे, विवश होकर देना पड़ रहा है, उसमें विनय भक्ति न हो तो वह आहार करना योग्य नहीं है । किसी की जबरदस्ती से आहार बनाया गया हो ऐसा विदित हो जाये तो वह भी आहार योग्य नहीं है । तो ऐसे मोटे-मोटे दोष तो प्राय: सभी अपने चित्त में समझ लेते हैं, पर उसमें 32 प्रकार के अंतराय न रहें, दाताकृत दोष न रहें, पात्रकृत दोष न रहें, ऐसा बहुत बड़ा विधान आगम में है । उन सब दोषों से रहित शुद्धनिर्दोष आहार लेना एषणासमिति है । जिन-जिन विधियों पूर्वक आहार ग्रहण करने योग्य माना गया है उनपर दृष्टिपात करेंगे तो प्रत्येक बात में दो बातें नजर आयेगी कि दूसरे जीव का प्राण विघात न हो और स्वयं में कायरता, दीनता, उद्दंडता आदिक दोष न आ पायें तो इस तरह विशुद्ध भाव सहित विशुद्ध आहार की खोज करना सो एषणा समिति है ।
(109) निरागारसंयमाचरण में आदानसमिति का वर्णन―चौथी समिति है आदान समिति । कुछ योग्य वस्तु ग्रहण करना तो पीछे से उस वस्तु को शुद्ध करना । कोई जंतु छोटों चींटी वगैरह उस पर हों तो कोमल पिछी से वे दूर हो जायेगी । फिर उस चीज को उठाना और उस वस्तु को उठाकर फिर उस वस्तु की तली को भी पिछी से शुद्ध करना क्योंकि पहले तो उस वस्तु का ऊपरी भाग ही शोधा गया, पर उस वस्तु का जो तल भाग है वहाँ भी तो जीवों का रहना संभव है । तो वस्तु के ऊपरी भाग को शुद्ध करना, उठाना और वही थोड़ा उठाये हुए में उस वस्तु के तल भाग को भी शुद्ध करना, उसके पश्चात् अन्य जगह में जाना, इम तरह की सावधानी इस आदान समिति में होती है । साधुजनों को अन्य वस्तुवों के उठाने का तो कुछ प्रयोजन ही नहीं, संयम का उपकरण पिछी सो पिछी तो देख-भालकर उठा लिया ओर उठाकर फिर अपनी ही हथेली से उसको थोड़ा फटकाकर झाड़ लिया, यह तो पिछी उठाने का ढंग है । कमंडल उठाये तो पहले कमंडल के ऊपरी भाग को शुद्ध करें और उठाकर फिर तल भाग को साफ करे और इसी तरह ज्ञान का उपकरण जो वस्तु है उसे भी ऊपर फिर नीच शुद्ध करके उठाये तब उसको
प्रयोग में लाये । इस तरह वस्तु के उठाने में जो सावधानी है उसे कहते हैं आदान समिति ।
(110) निरागार संयमाचरण में निक्षेपसमिति का वर्णन―5वीं समिति है निक्षेप समिति । किसी भी चीज को धरना या कहा मल, मूत्र, कफ,थूक आदिक का फेंकना आवश्यक है तो उस जगह को देख ले कि वहाँ कोई जीव-जंतु तो नहीं है, इसलिए जंतुरहित स्थानपर वस्तु का धरना या मल मूत्र का क्षेपण करना सो निक्षेप समिति है । सभी समितियों में अपने अविकार भाव को बनाये रखना और जीवहिंसा न हो सकना इन दो बातों की सावधानी रहती है । तो जिनेंद्रदेव ने संयम की शुद्धि के निमित्त इन 5 समितियों का आख्यान किया है ।