चारित्रपाहुड - गाथा 38: Difference between revisions
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Latest revision as of 11:55, 17 May 2021
भव्वजगावोहणत्थं जिणमग्गे जिणवरेहि जह भणियं ।
णाणं णाणसरूवं अप्पाणं तं वियाणेहि ।।38।।
(111) भव्यजनसंबोधनार्थ ज्ञानात्मक अंतस्तत्त्व का उपदेश―इस ग्रंथ में प्रथम यह बताया गया था कि आचरण दो प्रकार के होते हैं―(1) सम्यक्त्वाचरण और (2) संयमाचरण । संयमाचरण दो प्रकार का होता है―(1) सागार संयमाचरण और (2) निरागार संयमाचरण । सागार संयमाचरण का नाम है संयमासंयम और निरागार संयमाचरण का नाम है सकलसंयम । तो व्यवहार सकलसंयम का अब तक वर्णन किया गया है । अब निश्चय संयम का वर्णन इस गाथा में बताया जा रहा है । निश्चय संयम है ज्ञान में ज्ञानस्वरूप का स्थिर होना । आत्मा का जो सहज ज्ञानस्वभाव है उसरूप अपने को मानकर उसके अनुरूप वृत्ति होना अर्थात् मात्र ज्ञाता दृष्टा रहना यह है निश्चयसंयम, सो इस ज्ञानात्मक आत्मा को जिनेंद्रदेव ने भली प्रकार बताया है, सो वह भव्य जीवों के संबोधन के लिए बताया है, अन्य दार्शनिकों ने बताया तो ज्ञान को ही है । चाहे उसे किसी रूप में ढालकर बतायें, पर प्रयोजन यह है कि आत्मकल्याण कैसे हो? और अपने ज्ञान को किस तरह बनाया जाये? अब वस्तु का स्वरूप जिस भांति नहीं है उस भांति कल्पना करके ज्ञान को बनाया तो वह हितमार्ग के विरुद्ध पड़ गई । मगर बताया ज्ञान के लिए ही है, सो उस ज्ञान का स्वरूप जैसा अन्य लोगों ने बताया है वह यथार्थता से स्खलित है और सर्वज्ञ वीतराग जिनेंद्र देव ने जिस ज्ञान का स्वरूप बताया है वह निर्बाध सत्यार्थ है और जो वास्तविक ज्ञानस्वरूप है सो ही आत्मा है । ज्ञान और आत्मा ये दो अलग-अलग तत्त्व नहीं हैं । आत्मा एक ऐसा द्रव्य है जो ज्ञानमय है । ज्ञानात्मक वस्तु का नाम आत्मा है ।
(112) ज्ञान व आत्मा के विषय में भेदाभेदविपर्यय से तत्वस्खलन का प्रारंभ―प्रथम तो भेदाभेदविपर्यय से ही अनेक दार्शनिकों का स्खलन हुआ है । आत्मा जुदा पदार्थ है, ज्ञान जुदा पदार्थ है, और चूंकि समझने के लिए स्वरूप तो जुदे-जुदे बताने पड़ते हैं सो उनको इस स्वरूपदर्शन का ऐसा बल मिला कि जिससे बढ़कर वे ज्ञान को अत्यंत भिन्न और आत्मा को अत्यंत भिन्न समझने लगे । जब भिन्न समझा तो एक समस्या आगे खड़ी हो जाती है―तो क्या आत्मा ज्ञानरहित है? जब ज्ञान जुदी वस्तु है, आत्मा जुदी वस्तु है तो आत्मा तो ज्ञानरहित कहलाया । ज्ञान तो जुदी चीज है, तब और इलाज सोचना पड़ा कि भाई तत्त्व सो अलग-अलग है ज्ञान और आत्मा का, पर ज्ञान और आत्मा का समवाय संबंध है । अब पृथक्-पृथक् संबंध को समवाय संबंध कहा है और पृथक् रहने वाली वस्तुओं का जब संबंध बना तो उसे संयोग संबंध कहा है, फिर एक समस्या खड़ी हो जाती कि जब ज्ञान अलग चीज है, आत्मा अलग चीज है तो आत्मा की तरह आकाश या परमाणु ये भी अलग-अलग चीज हैं, तो यह ज्ञान आत्मा से ही क्यों चिपटता है, आकाश से भी अपना संबंध बना ले । परमाणु से भी संबंध बना ले । तो ऐसी जब समस्या खड़ी हो जाती है तो दौदलापट्टी से जो चाहे कह दिया जाये, मगर ठीक बात नहीं बनती । फिर स्पष्ट बात तो यह है कि जो वस्तु अलग-अलग हैं, स्वतंत्र सत् हैं तो सद्भूत वस्तु में गुण पर्याय होनी चाहिए । उनके प्रदेश जुदे होने चाहिए, उनका उत्पाद, व्यय, ध्रौव्य होना चाहिए, तो यह बात ज्ञानगुण में घटित नहीं होती । इसलिए ज्ञान जुदा पदार्थ हो, आत्मा जुदा पदार्थ हो यह कथन सम्यक् नहीं है । आत्मा ही ज्ञानात्मक है ।
(113) जिनभाषित ज्ञानमय आत्मतत्त्व के श्रद्धान में मोक्षमार्गोपाय प्रवर्तन―स्वरूप विपर्यय भेदाभेदविपर्यय आदि अनेक वर्णन अनेक दार्शनिकों ने किया है, परंतु जो स्वयं ज्ञान का अनुभव करके पार हुए हैं और जिनका विशुद्धज्ञान हुआ है, तीन लोक तीन काल के सहज जाननहार है उनकी दिव्यध्वनि से प्रकट हुआ जो वस्तुस्वरूप है और उस दिव्यध्वनि से गूंथा गया जो आगम में बताया हुआ स्वरूप है वह निर्वाध और यथार्थ हैं । उस ज्ञानस्वरूप को अपने ज्ञान में लेकर स्थिर होवे तो वह है निश्चय संयम । व्यवहार का संयम भी इस निश्चय संयम की शुद्धि के लिए करना बताया है । यदि कोई अपने इस निश्चय संयम के उद्देश्य से रहित हो तो उसके लिए व्यवहार संयम का कोई अर्थ नहीं रहता । कोई भी कुछ काम करता है तो उसका प्रयोजन तो होता है कि यह काम किसके लिए किया जा रहा? केवल इतना कहने से काम न चलेगा कि महाव्रत समिति का पालन मोक्ष के लिए किया जा रहा । इसमें कोई स्पष्ट बात नहीं आती । किंतु व्यवहार संयम की प्रवृत्ति ऐसे वातावरण के लिए की जा रही है कि जिसमें निश्चयसंयम की शुद्ध बन सके । तो निश्चयसंयम की साधना के लिए व्यवहारसंयम है, तब कोई यह भी पूछ सकता है कि निश्चय संयम की साधना क्यों की जा रही है? तो निश्चय संयम की साधना अपने कैवल्य स्वरूप को प्रकट करने के लिए की जा रही है । तो जो कैवल्यस्वरूप की व्यक्ति है उस ही का नाम मोक्ष कहलाता है । तो जिनेंद्र देव ने भव्य जीवों के संबोधन के लिए ज्ञान और ज्ञान का स्वरूप बताया है और वह है ज्ञानस्वरूप आत्मा । सो उस ज्ञानस्वरूप आत्मा को भले प्रकार से जाने, जिसकी जानकारी से शांति का मार्ग मिलता है ।