दर्शनपाहुड - गाथा 10: Difference between revisions
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Latest revision as of 11:55, 17 May 2021
जे दंसणेसु भट्ठा पाए पाडंति दंसणधराणं ।
ते होंति लल्लभूआ बोही पुण दुल्लहा तेसिं ।। 10 ।।
(48) सम्यक्त्वधारीजनों से अपने पैर पड़ाने वाले दर्शनभ्रष्ट जनों की दुर्दशा―जो पुरुष सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट हैं और वे सम्यग्दृष्टियों से अपने पैर पढ़ाते हैं, नमस्कार कराते हैं वे पर भव में लूले, लंगड़े, गूंगे होते हैं । उनके रत्नत्रय की प्राप्ति तो बहुत ही दुर्लभ है । इसमें विशेषकर साधुवों को संकेत है । जो साधु का भेष रखकर स्वयं तो सम्यक्त्व से रहित हैं लेकिन चाह ऐसी लगी है कि पंडित लोग, जानकार लोग, श्रावकजन ये सभी लोग मेरे को नमस्कार करें, मेरे पैर पड़े, और ऐसी ही वे कोशिश भी करते हैं । न नमस्कार करे कोई तो उसकी लोगों से चर्चा भी करते हैं, बुलवाते भी हैं । तो ऐसे अज्ञानी साधु जो सम्यक्त्व से तो रहित हैं और ज्ञानी जनों से नमस्कार कराने की इच्छा रखते हैं वे परभव में लंगड़े लूले तथा गूंगे होते हैं । पैर पड़ने की बात तो दूर रही, अगर मन में यह भी जगे कि ये ज्ञानी पुरुष, ये पंडित जन, ये व्रती लोग, ये अमुक लोग मेरे को नमस्कार करें तो वे परभव में लूले लंगड़े तथा गूंगे होते हैं । यह एक बड़ा अपराध है कि स्वयं तो अज्ञानी हैं, आत्मा का परिचय नहीं और दूसरों से नमस्कार की चाह रखें, अब इस संबंध में एक जिज्ञासा हो सकती कि सम्यक्त्व का क्या पता, है या नहीं । तो इसमें दोनो बातें आती हैं । जिस साधु के सम्यक्त्व नहीं है और वह दूसरों से पैर छुवाने की इच्छा करता है तो वह अपराध है, वह परभव में लूला लंगड़ा तथा गूंगा होगा और जो पुरुष सम्यग्दृष्टि है उसके तो ऐसी भावना ही नहीं होती कि कोई मेरे को नमस्कार करे । जिसको पैर छुवाने की इच्छा हो समझ लो कि वह अज्ञानी है और अज्ञानी पुरुष ज्ञानी जनों से अपना विनय कराये तो उसके फल में उसको दुर्गति ही है ꠰ ऐसे अज्ञानी मिथ्यादृष्टि साधुवों को सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक्चारित्र की प्राप्ति बहुत ही दुर्लभ है । स्वयं अज्ञानी होकर, मिथ्यादृष्टि होकर सम्यग्दृष्टि से नमस्कार चाहे तो समझो कि उसके तीव्र मिथ्यात्व का उदय है । मिथ्यादृष्टि गृहस्थ भी होते किंतु उनमें उद्दंडता नहीं होती, वे जैसे हैं सो हैं मगर मिथ्यादृष्टि साधुवों में उद्दंडता होती है । वह साधु बन कर ऐसा सोचता है कि मैं प्रभु हो गया हूँ, अब सब मेरे भक्त हैं, मेरे अधीन हैं, इन पर मेरी हुकूमत है, उनके उद्दंडता है और तीव्र मिथ्यात्व है । और कोई ज्ञानी साधु है तो वह चाहेगा ही नहीं । उसकी कोई लोग प्रशंसा करें, निंदा करें दोनों पर उनकी समान बुद्धि रहती है । उसका तो कोई प्रश्न ही नहीं है, मगर जिसके मन में ऐसा भाव उठता है कि ये लोग मुझे नमस्कार करें, ऐसी चेष्टायें करता है या दूसरों से चर्चा करता है कि वह हम को नमस्कार नहीं करता, आदिक भाव जिसके जगते हैं वह सम्यग्दृष्टि नहीं, ज्ञानी नहीं । अज्ञानी मिथ्यादृष्टि को इस गाथा में यह संदेश दिया गया है कि हे साधुजनों तुम अपने कर्तव्य में रहो, ऊल जलूल फाल्तू बातों का विकल्प मत करो । आत्मा का ध्यान, आत्मा की उपासना, आत्मा का उपदेश, आत्मा की चर्चा से आत्मनिर्मलता प्राप्त करो ।