वर्णीजी-प्रवचन:दर्शनपाहुड - गाथा 11
From जैनकोष
जे वि पडंति य तेसिं जाणंता लज्जगारवभयेण ।
तेसिं पि णत्थि बोही पावं अणुमोयमाणाणं ।। 11 ।।
(49) अज्ञानी आत्माचारहीन जनों के पैर पड़ने वाले ज्ञानियों को पापानुमोदन होने से बोधि का अलाभ―जो पुरुष सम्यग्दृष्टि हैं वे यदि जानकर कि यह साधु अज्ञानी है, मिथ्यादृष्टि है, अनाचारी है फिर भी लज्जा की वजह से, संकोच की वजह से, या किसी डर से उसके पैर पड़ते हैं तो वे भी बोधि को प्राप्त नहीं कर सकते । ज्ञानी पुरुष अभिमानरहित है विवेक रहित नहीं है । कोई साधु अज्ञानी है, अनाचारी है, मिथ्यादृष्टि है और फिर भी कोई उसके पैर पड़े, उसको नमस्कार करे तो नमस्कार करने वाला श्रावक भी रत्नत्रय को प्राप्त करने के योग्य नहीं है । मायने ज्ञान चारित्र को प्राप्त नहीं कर सकता, क्योंकि उसने पाप की अनुमोदना की । जो मिथ्यादृष्टि साधु है उसकी भक्ति करने के मायने मिथ्यात्व की भक्ति की, पाप की अनुमोदना की, इस कारण ज्ञानी पुरुष ऐसा निर्भय रहता है कि उसको अपने सही कर्तव्य के करने में और अकर्तव्य से दूर रहने में लोगों को संकोच नहीं, भय नहीं, लज्जा नहीं और किसी प्रकार का स्वार्थ नहीं । अब सही बात का तो पता क्या पड़े कि उस साधु के सम्यक्त्व है या नहीं, मगर उसकी चेष्टाओं से, उसकी प्रवृत्ति से, उसके बोल चाल से यह जच जाये कि यह अज्ञानी है, तो जंचने के बाद फिर उसको ज्ञानीपुरुष नमस्कार नहीं करता । तो उस स्थल में ये दोनों बातें कही गई हैं कि अगर कोई साधु त्यागी, स्वयं अज्ञानी है, मिथ्यादृष्टि है और वह ऐसी चाह रखे कि ये ज्ञानीजन, ये पंडित लोग, ये समझदार लोग मेरे को नमस्कार करें, मेरे पैर पड़ें तो ऐसा साधु व्रती त्यागी जो अज्ञानी है और उद्दंडता का भाव रख रहा है वह मरकर परभव में लूला, लंगड़ा और गूंगा होता है । और, जो खुद श्रावक गृहस्थ सम्यग्दृष्टि है और वह जान रहा है कि अमुक त्यागी साधु मिथ्यादृष्टि है, अज्ञानी है, उसके आचरण को देखकर, उसकी प्रवृत्ति को देखकर यह पक्का निर्णय बन गया है और फिर भी उसके पैर पड़े तो उस श्रावक को भी चरित्र का लाभ नहीं हो सकता । दूषण आता है, क्योंकि उस ज्ञानी गृहस्थ ने पाप की अनुमोदना की । मिथ्यात्व तो महा पाप है । मिथ्यात्व न रहे और हिंसा, झूठ, चोरी, कुशल, परिग्रह, ये कोई पाप कदाचित् लगें तो उनका तो प्रायश्चित्त हो जायेगा, उनकी तो निवृत्ति हो सकेगी मगर मिथ्यात्व लगा है तो वह बाह्य में व्रत तप आदिक भी पा ले तो भी वह पापरहित नहीं हो पाता, क्योंकि मिथ्यात्व नामक महा पाप उसके पड़ा हुआ है ।
(50) लज्जावश दर्शन भ्रष्टों की वंदना में पापानुमोदन होने से ज्ञानियों को भी बोधि का अलाभ―कोई ज्ञानी पुरुष किसी अज्ञानी साधु के जानकर भी पैर पड़े कि यह अज्ञानी है, मिथ्या दृष्टि है, अपात्र है, अयोग्य है, जैनशासन में कलंक लगाने वाला है और फिर भी उनकी भक्ति या नमस्कार करे तो उसमें कारण क्या होता है? लज्जा, गौरव और भय । लज्जा क्या है? समाज की लज्जा, ये लोग मेरे को नाम न धरे, ऐसी लज्जा ꠰ कहीं ये लोग यह बड़ा अभिमानी है, यह अमुक साधु आये हैं और उनकी भक्ति में मैं नहीं जा रहा इस प्रकार की लज्जा । तो उस लज्जा के मारे इतना निर्बल हो गया ज्ञानी होकर भी वह साधु व गृहस्थ कि उसका तो यह भाव बन गया कि कोई भी साधु आवो, हमें तो सबका विनय रखना है । सबको एक समान समझकर रहना है, तो उसने लज्जावश होकर सम्यग्दर्शन से भ्रष्ट पुरुष का विनय किया, और मिथ्यादृष्टि के विनय करने के मायने है मिथ्यात्व का अनुमोदन किया जिससे मिथ्यात्व को और बढ़वा मिला ।
(51) भयवश दर्शनभ्रष्टों के वंदन में पापानुमोदन होने से ज्ञानियों को भी बोधि का अलाभ―ज्ञानी गृहस्थ अज्ञानी साधु त्यागी का विनय नमस्कार करता है जान समझ कर भी तो उसमें एक कारण भय होता है । यह राज्यमान्य साधु है, इसकी राजा भी मान्यता करता है । इसका हम विनय न करेंगे तो यह हमारे ऊपर कोई उपद्रव करा देगा या इसमें मंत्र जादू विद्या वगैरह बने हुए हैं । हम इसका विनय न करेंगे तो यह कोई उपद्रव करेगा मेरे पर, ऐसा भय जब बन जाता है तो इस कमजोरी के कारण ज्ञानी गृहस्थ भी कदाचित् अज्ञानी मिथ्यादृष्टि किसी भेषधारी का विनय करने लगता है । अच्छा जानी सम्यग्दृष्टि श्रावक किसी अज्ञानी साधु भेषी को जानबूझकर कि यह अयोग्य है, अपात्र है, फिर भी विनय करता है तो उसमें एक कारण है गारव । गारव तीन प्रकार के होते हैं―(1) रसगारव (2) ऋद्धिगारव और (3) सातगारव । इस प्रकरण में यह बात जानना कि केवल श्रावक को ही कहा जा रहा है कि ज्ञानी श्रावक अज्ञानी साधुवों का विनय करे तो उसके लिए भी है, साधु के लिए भी है । कोई ज्ञानी साधु, सम्यग्दृष्टि साधु जानकर भी अज्ञानी पापिष्ट साधु का विनय करे तो उसके लिए भी यह अपराध है । तो भय और लज्जा से विनय किया यह बात बतायी ।
(52) गारववश दर्शनभ्रष्ट पुरुषों के विनय में पापानुमोदन होने से ज्ञानियों को भी बोधि का अलाभ―अब कोई गारव से भी दर्शनभ्रष्टों का विनय करते हैं यह बात बतला रहे हैं । गारव तीन तरह के होते हैं―(1) रसगारव―जिसे इष्ट भोजन मिलता रहता हो, जिसके बारे में श्रावकों का बहुत आकर्षण हो ऐसा रस गारव करके जो मोक्षमार्ग में प्रमाद करता हो ऐसा पुरुष कभी-कभी अपना होनहार न सोचकर अज्ञानी की कभी विनय भक्ति करे या वह दूसरा अज्ञानी साधु भेषी, वह श्रावकों द्वारा ज्यादह मान्य हो गया हो तो उस संसर्ग से उसकी विनय करे, ज्ञानी अज्ञानी को विनय करे उसमें एक कारण यह रसगारव भी होता है । (2) गारव में दूसरा कारण ऋद्धिगारव है―मैं तपश्चरण के प्रभाव से ऋद्धि को प्राप्त हो गया हूँ । तो ऋद्धि मिलने से भी एक गर्व हो जाता है । गारव गर्व से होने वाले भाव को कहते हैं । उस गारव के कारण वह उद्धत और प्रमादी रहता है । जैसे जिसको ऐश्वर्य या संपदा प्राप्त हो जाती है उसे अभिमान प्रकृत्या ही आ जाता है ऐसे ही जिन साधुवों को ऋद्धि प्राप्त हो जाती है उनको भी एक प्रकार का गर्व हो जाता है, जिसे रस गारव कहते है । इस रसगारव के कारण भी अज्ञानी जनों का विनय ज्ञानीजन कर सकते हैं । (3) सातगारव―शरीर निरोग हो, बहुत आराम से रहता हो, दुःख कभी आता न हो, क्लेश का कारण न बने, सुखियापना भी आये तो उसमें मग्न रहे उसे कहते हैं सातगारव । तो सातगारव के वातावरण में वह अपनी धुन में मस्त रहता है तो वह मोक्षमार्ग में प्रमादी हो जाता है । इस सातगारव के कारण भी ज्ञानी अज्ञानी का, मिथ्यादृष्टि का विनय कर लेता है । तो इन किन्हीं कारणों से मिथ्यादृष्टि यदि जान-बूझकर भी कि यह मिथ्यादृष्टि है, पापिष्ट है फिर भी साधुभेष आदिक के कारण उसे नमस्कार करे तो यह पाप में अनुमोदना कहलाती है । किसी अज्ञानी को, अयोग्य पुरुष को मिथ्यादृष्टि को धर्म के नाते एक बढ़ावा देना इसे भी पाप में अनुमोदना कहते हैं । तो इसमें मिथ्यात्व की चूंकि अनुमोदना आयी, मिथ्यात्वसहित को भला माना तो उसे अब बोधिलाभ नहीं हो पाता ।