पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 127: Difference between revisions
From जैनकोष
(Imported from text file) |
(No difference)
|
Latest revision as of 11:56, 17 May 2021
बहिरंगादपि संगाद्यस्मात्प्रभवत्यसंयमोऽनुचित: ।
परिवर्जयेदशेषं तमचित्तं वा सचित्तं वा ।।127।।
अनुचित असंयम का कारण होने से बहिरंग परिग्रह के त्याग का कर्तव्य―बाह्य परिग्रह चाहे वह चेतन परिग्रह हो या अचेतन परिग्रह हो, सर्वप्रकार से आत्महितार्थी व्यक्ति को छोड़ देना चाहिए । कारण यह है कि बाह्य परिग्रह से भी असंयम प्रकट होता है । अब देख लो―गृहस्थी में थोड़ा मानने भर का सुख है । अच्छा घर हैं, लोग है, परिवार है तो एक कल्पना भर की मौज है, मगर देखो तो हृदय में अशांति बराबर चलती रहती है । चिंता हो, शोक हो, जरा सा तो सुख है और दुःख कितना भरा हुआ है, इसका अंदाज लगाये तो जैसे शास्त्र में कहा है कि सुख तो तिल भर है और दुःख पहाड़ बराबर है । बतलाओ संसार में अनंत जीव हैं, उनमें से कोई जीव अपने घर उत्पन्न हो गए तो क्या है? अरे वे न आते, और कोई आते तो क्या यह न हो सकता था? किसी का कोई जीव कुछ लगता है क्या ? किसी का किसी से कुछ भी संबंध नहीं है ꠰ यह तो संसार का समागम है, आना जाना यहां बना ही रहता है, इनमें जो रुचि करता है वह अपने आत्मस्वरूप को बिल्कुल खो बैठता है ꠰ अपने आपकी संभाल उसे रंच नहीं रहती । तो यह चेतन अथवा अचेतन परिग्रहों का जो समागम है यह दुःख का ही कारण है । ये समागम भी दु:ख के कारण नहीं हैं, बल्कि इन समागमों के प्रति जो हम आपके अंदर एक मोह भाव पड़ा हुआ है वह दुःख का कारण है । उस मोह भाव का ही परिणाम है कि हम आप इस संसार में जन्म मरण करते चले आ रहे हैं । यहीं पर आप लोगों ने अजायब घर में देखा होगा किस-किस प्रकार के विचित्र शरीर वाले जीव पाये जाते हैं । इस मोह का ही यह परिणाम हैकि यह जीव नाना प्रकार के शरीरों में बंधा फिर रहा है । यह जीव धन धान्य, स्त्री पुत्रादिक से मोह करता है जिसका फल यह है कि इस संसार में अनेक जन्म मरण धारण करने पड़ते हैं । मोह में तत्त्व कुछ नहीं रखा है । जिनसे मोह करते वे स्वार्थ भरे हैं, वे हित न कर सकेंगे । कोई निमित्त दृष्टि से हमारा हित भी करेंगे तो वे स्वयं दुखी हैं वे इस मुझ आत्मा का हित कर सकने में समर्थ नहीं हो सकते । जिन परिजनों के बीच रहकर हम आप अपना हित समझते हैं वे हमारा हित क्या करगे? वे स्वयं विषयकषायों से प्रेरे हुए हैं, इस संसार में वे स्वयं जन्म मरण का चक्कर लगा रहे हैं, उनसे हमारे आत्मा का कुछ भी हित नहीं हैं ꠰ अपना हित अहित करने वाले तो खुद हैं । यह बहिरंग परिग्रह हम आप सबके असंयम का कारण है और असंयम इस संसार में दुःख बढ़ाने वाली बात है । इस कारण बहिरंग परिग्रह को अपने से दूर करना चाहिये । तो यह बात तो साधुजन ही कर सकते हैं कि चेतन अचेतन परिग्रह इन दोनों का सर्वथा त्याग कर दें, पर श्रावक जनों से तो यह बात बन नहीं सकती तो श्रावक क्या करें? उसके उत्तर में कहते हैं―