वर्णीजी-प्रवचन:पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 126
From जैनकोष
निजशक्त्या शेषाणां सर्वेषामंतरंगसंगानाम् ।
कर्तव्य: परिहारो मार्दवशौचादिभावनया ।।126।।
मार्दव शौच आदि भावना के द्वारा अंतरंगपरिग्रहों का परिहार करने का कर्तव्य―अपनी शक्ति के अनुसार मार्दव, शौच, संयम आदिक जो दशलक्षण धर्म हैं उनकी भावना से समस्त अंतरंग परिग्रहों का त्याग करना चाहिए । अब यहाँं बात कही जा रही है मुनिव्रत की । जब प्रत्याख्यानावरण क्रोध, मान, माया, लोभ भी दूर हो जाते हैं तो मुनिपद प्राप्त होता है ꠰ तो अब मुनियों के अनंतानुबंधी नहीं, अप्रत्याख्यानावरण नहीं, प्रत्याख्यानावरण नहीं है । संज्वलन कषाय रहीं । जब संज्वलन कषाय का मंद उदय रहता है तब होता है 7वां गुणस्थान और जब संज्वलन कषाय का उदय विशेष रहता है तब कहलाता है छठा गुणस्थान । तो जो श्रावक है, देशचारित्र पालन करता है तो वह सकल चारित्र कैसे पालन करेगा? उसके लिए दशलक्षण धर्म की भावना भाता है । जैसे अपने परिणामों में शांति आये, क्रोध न रहे, क्षमा प्रकट हो, ऐसी भावना करना कि संसार के सभी जीव जुदे-जुदे हैं कोई किसी का सुधार बिगाड़ करने वाला नहीं है, मैं भी किसी का कुछ करने वाला नहीं हूँ । सभी जीव अपने-अपने भावों के अनुसार अपनी-अपनी चेष्टायें करते हैं । यहाँ किस पर क्रोध करना, किस पर मान करना, किस पर मायाचार करना, किस चीज का लोभ करना, इन कषायों से तो अपना अहित ही है । इन दश लक्षण धर्मों की भावना भाना, अपना सत्य जीवन रखना, संयम से रहना, ब्रह्मचर्य का पालन करना, ये सब बातें हों तो उसके कारण अपने में एक ऐसा बल प्रकट होता है कि वह सकल चारित्र का पात्र बन जाता है । दशलक्षण भावना के परिणाम से प्रत्याख्यानावरण कषायें भी दूर हो जाती हैं । गुणों का विकास होता है । श्रावकों को बतला रहे हैं कि देशचारित्र पालते हुए दशलक्षण धर्म की भावना बनाये तो उसके मुनि धर्म की प्रकटता संभव है ।