पुरुषार्थसिद्धिउपाय - श्लोक 43: Difference between revisions
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Latest revision as of 11:56, 17 May 2021
यत्खलु कषाययोगात्प्राणानां द्रव्यभावरूपाणाम् ।
व्यपरोपराणस्यं करण सुनिश्चिता भवति सा हिंसा ꠰꠰43।।
द्रव्यहिंसा व भावहिंसा दोनों में कषाययोग का आधार होने से हिंसारूपता―निश्चय से तो कषाय और योग से द्रव्यप्राण और भावप्राण का घात करना सो ही हिंसा है । अब जितने काम कर रहे हैं सबमें देखे तो हिंसा ही हिंसा बस रही है । अपना ही धन है और रक्षा कर रहे हैं तो हिंसा कर रहे हैं -क्योंकि अपने स्वभाव से च्युत हैं । यद्यपि सरकार से भी तय है कि यह घर धन कुटुंब इनका है, तो कोई बहुत ही आराम में रह रहा, किसी का दिल भी नहीं दुःखा रहा, अपने घर में आमदनी घर बैठे की है, सब कुछ है, कोई सोचे कि मैं झूठ नहीं बोलता, न किसी का दिल दु:खाता तो मुझे पाप न होता होगा, ऐसी बात नहीं है । बड़े आराम में भी है, स्वभाव से च्युत हो गया तो हिंसा है । अपना जो स्वरूप है उससे गिर गये उसमें हिंसा हुई । अब किसी का दिल दुःखे या न दु:खे, हम बहुत अच्छे ढंग से रहते हैं तिस पर भी किसी दूसरे का दिल दुःखे तो हिंसा तो न होगी? हमारा परिणाम खोटा हो या परिणाम विषयों का हो, ममता बढ़ाने का हो तो उसमें अपना ही परिणाम खोटा हुआ और हिंसा हुई । हिंसा अपनी हुआ करती है, खोटी वृत्ति की तो अपनी हिंसा हो गई । पर जो एक रूढ़ि में किसी दूसरे का दिल दु:खाया तो हिंसा हुई तो उसमें यह मर्म है कि इस जीव ने दूसरे के प्राणों का घात हो, ऐसा भाव हुआ सो ऐसी परिणति हुई कि दूसरे के प्राण पीड़े गये । तो कार्य को देखकर कारण का उपचार किया जाता है तो कार्य का कारण में उपचार है, यही हिंसा है । अपना परिणाम दुःख जाये, अपने में विषय कषायों का भाव आये तो वह सब हिंसा है । कोई अज्ञानी जीव, अपना परिणाम नहीं दुःखाता, मौज मानता, मस्त रहता तो भी हिंसा है क्योंकि वह अपने स्वरूप से तो चिग हो गया है, बाह्य पदार्थों में लग गया इसलिए वह सब हिंसा कहलाती है । जिस पुरुष के मन में वचन में अथवा कार्य में क्रोधादि कषायें प्रकट होती हैं उस प्राणी का घात तो पहिले ही है । गया । जब कषायें उत्पन्न हो गईं, भाव प्राण का व्यपरोपण हो गया । कषायों की तीव्रता से अपने अंग को कष्ट पहुंचा, अपना आत्मघात करले तो वहाँ भी उसने अपने द्रव्य प्राण का घात किया । फिर उसके कहे मर्मभेदी खोटे वचन आदिक ने जिस पर, लक्ष्य किया था उसके अंतरंग में पीड़ा हुई तो उसके भावप्राण का विपरोपण है यह तीसरी हिंसा है । अंत में प्रमाद से किसी को पीड़ा पहुंची तो वह परद्रव्य प्राण व्यपरोपण है । सारांश यह है कि कषाय से अपने और दूसरे चैतन्य प्राण का घात बने तो वह सब हिंसा होती है । यहाँ तक हिंसा की बात चार ढंगों में रखी है । पहिले अंतरड्ग की बात कहेंगे फिर बहिरंग की बात । तो वास्तव में हिंसा है, अपने प्राणों का घात किया और स्वरूप का व्यपरोपण किया सो है वास्तव में हिंसा और फिर उस कषाय की तीव्रता से उसने ही द्रव्यप्राणों का घात किया या कोई तकलीफ पहुंचे तो यह सब उसकी द्रव्य हिंसा है । इन दोनों हिंसावों में अपने आपकी हिंसा बतायी है । चार तरह की हिंसा बताई । प्रथम तो अपने चैतन्यस्वरूप का घात किया सो हिंसा है, फिर कषायों की तीव्रता से खुद के द्रव्य प्राण को पीड़ा सो द्रव्य प्राण की हिंसा है ꠰ फिर दूसरा पुरुष जिसको लक्ष्य में लिया, जिसके प्रति कुवचन किया उसका दिल दुखा और उसके चैतन्यस्वरूप का घात हुआ सो तीसरी हिंसा हुई और चौथी में ही दूसरे पुरुष को जिसे लक्ष्य लिया है उसके द्रव्य प्राण पीछे गये और कोई अपने विषय में सुनकर आत्मघात करले तो वह है द्रव्यहिंसा । यों हिंसा 4 प्रकार की है, पर मूल में सारांश यह है कि अपने और दूसरे के भाव प्राण ही द्रव्यप्राण हैं । द्रव्यप्राण की हिंसा महान् हिंसा है । हिंसा न रहे तो निर्विकारता आये ।